श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 83
83 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ८३
द्रौपदीं प्रति श्रीकृष्णपत्नीनां स्वस्वोद्वाहवृत्तांतवर्णनम् –
अथ त्र्यशीतितमोऽध्यायः 10.83
श्रीशुक उवाच
तथानुगृह्य भगवान्गोपीनां स गुरुर्गतिः
युधिष्ठिरमथापृच्छत्सर्वांश्च सुहृदोऽव्ययम् १
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण ही गोपियोंको शिक्षा देनेवाले हैं और वही उस शिक्षाके द्वारा प्राप्त होनेवाली वस्तु हैं। इसके पहले, जैसा कि वर्णन किया गया है, भगवान् श्रीकृष्णने उनपर महान् अनुग्रह किया। अब उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर तथा अन्य समस्त सम्बन्धियोंसे कुशल-मंगल पूछा ||१||
त एवं लोकनाथेन परिपृष्टाः सुसत्कृताः
प्रत्यूचुर्हृष्टमनसस्तत्पादेक्षाहतांहसः २
भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका दर्शन करनेसे ही उनके सारे अशुभ नष्ट हो चुके थे। अब जब भगवान् श्रीकृष्णने उनका सत्कार किया, कुशल-मंगल पूछा, तब वे अत्यन्त आनन्दित होकर उनसे कहने लगे- ||२||
कुतोऽशिवं त्वच्चरणाम्बुजासवं महन्मनस्तो मुखनिःसृतं क्वचित्
पिबन्ति ये कर्णपुटैरलं प्रभो देहंभृतां देहकृदस्मृतिच्छिदम् ३
‘भगवन्! बड़े बड़े महापुरुष मन-ही-मन आपके चरणारविन्दका मकरन्द रस पान करते रहते हैं। कभी-कभी उनके मुखकमलसे लीला-कथाके रूपमें वह रस छलक पड़ता है। प्रभो! वह इतना अद्भुत दिव्य रस है कि कोई भी प्राणी उसको पी ले तो वह जन्म-मृत्युके चक्करमें डालनेवाली विस्मृति अथवा अविद्याको नष्ट कर देता है। उसी रसको जो लोग अपने कानोंके दोनोंमें भर-भरकर जी-भर पीते हैं, उनके अमंगलकी आशंका ही क्या है? ||३||
हित्वात्म धामविधुतात्मकृतत्र्यवस्थाम्
आनन्दसम्प्लवमखण्डमकुण्ठबोधम्
कालोपसृष्टनिगमावन आत्तयोग
मायाकृतिं परमहंसगतिं नताः स्म ४
भगवन्! आप एकरस ज्ञानस्वरूप और अखण्ड आनन्दके समुद्र हैं। बुद्धि-वृत्तियों के कारण होनेवाली जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति-ये तीनों अवस्थाएँ आपके स्वयंप्रकाश स्वरूपतक पहुँच ही नहीं पातीं, दरसे ही नष्ट हो जाती हैं। आप परमहंसोंकी एकमात्र गति हैं। समयके फेरसे वेदोंका ह्रास होते देखकर उनकी रक्षाके लिये आपने अपनी अचिन्त्य योगमायाके द्वारा मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण किया है। हम आपके चरणों में बार-बार नमस्कार करते हैं’ ||४||
श्रीऋषिरुवाच
इत्युत्तमःश्लोकशिखामणिं जनेष्व्
अभिष्टुवत्स्वन्धककौरवस्त्रियः
समेत्य गोविन्दकथा मिथोऽगृणंस्
त्रिलोकगीताः शृणु वर्णयामि ते ५
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जिस समय दूसरे लोग इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति कर रहे थे, उसी समय यादव और कौरव-कुलकी स्त्रियाँ एकत्र होकर आपसमें भगवान्की त्रिभुवन-विख्यात लीलाओंका वर्णन कर रही थीं। अब मैं तुम्हें उन्हींकी बातें सुनाता हूँ ।।५।।
श्रीद्रौपद्युवाच
हे वैदर्भ्यच्युतो भद्रे हे जाम्बवति कौशले
हे सत्यभामे कालिन्दि शैब्ये रोहिणि लक्ष्मणे ६
हे कृष्णपत्न्य एतन्नो ब्रूत वो भगवान्स्वयम्
उपयेमे यथा लोकमनुकुर्वन्स्वमायया ७
द्रौपदीने कहा-हे रुक्मिणी, भद्रे, हे जाम्बवती, सत्ये, हे सत्यभामे, कालिन्दी, शैव्ये, लक्ष्मणे, रोहिणी और अन्यान्य श्रीकृष्णपत्नियो! तुमलोग हमें यह तो बताओ कि स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने अपनी मायासे लोगोंका अनुकरण करते हुए तुमलोगोंका किस प्रकार पाणिग्रहण किया? ||६-७।।
श्रीरुक्मिण्युवाच
चैद्याय मार्पयितुमुद्यतकार्मुकेषु
राजस्वजेयभटशेखरिताङ्घ्रिरेणुः
निन्ये मृगेन्द्र इव भागमजावियूथात्
तच्छ्रीनिकेतचरणोऽस्तु ममार्चनाय ८
रुक्मिणीजीने कहा-द्रौपदीजी! जरासन्ध आदि सभी राजा चाहते थे कि मेरा विवाह शिशुपालके साथ हो; इसके लिये सभी शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित होकर युद्धके लिये तैयार थे। परन्तु भगवान् मुझे वैसे ही हर लाये, जैसे सिंह बकरी और भेड़ोंके झुंडमेंसे अपना भाग छीन ले जाय। क्यों न हो-जगत्में जितने भी अजेय वीर हैं, उनके मुकुटोंपर इन्हींकी चरणधूलि शोभायमान होती है। द्रौपदीजी! मेरी तो यही अभिलाषा है कि भगवान्के वे ही समस्त सम्पत्ति और सौन्दर्योंके आश्रय चरणकमल जन्म-जन्म मुझे आराधना करनेके लिये प्राप्त होते रहे, मैं उन्हींकी सेवामें लगी रहूँ ।।८।।
श्रीसत्यभामोवाच
यो मे सनाभिवधतप्तहृदा ततेन
लिप्ताभिशापमपमार्ष्टुमुपाजहार
जित्वर्क्षराजमथ रत्नमदात्स तेन
भीतः पितादिशत मां प्रभवेऽपि दत्ताम् ९
सत्यभामाने कहा-द्रौपदीजी! मेरे पिताजी अपने भाई प्रसेनकी मृत्युसे बहत दःखी हो रहे थे, अतः उन्होंने उनके वधका कलंक भगवान्पर ही लगाया। उस कलंकको दूर करनेके लिये भगवान्ने ऋक्षराज जाम्बवान्पर विजय प्राप्त की और वह रत्न लाकर मेरे पिताको दे दिया। अब तो मेरे पिताजी मिथ्या कलंक लगानेके कारण डर गये। अतः यद्यापि वे दूसरेको मेरा वाग्दान कर चुके थे, फिर भी उन्होंने मुझे स्यमन्तकमणिके साथ भगवान्के चरणों में ही समर्पित कर दिया ।।९।।
श्रीजाम्बवत्युवाच
प्राज्ञाय देहकृदमुं निजनाथदैवं
सीतापतिं त्रिनवहान्यमुनाभ्ययुध्यत्
ज्ञात्वा परीक्षित उपाहरदर्हणं मां
पादौ प्रगृह्य मणिनाहममुष्य दासी १०
जाम्बवतीने कहा-द्रौपदीजी! मेरे पिता ऋक्षराज जाम्बवान्को इस बातका पता न था कि यही मेरे स्वामी भगवान् सीतापति हैं। इसलिये वे इनसे सत्ताईस दिनतक लड़ते रहे। परन्तु जब परीक्षा पूरी हुई, उन्होंने जान लिया कि ये भगवान् राम ही हैं, तब इनके चरणकमल पकड़कर स्यमन्तकमणिके साथ उपहारके रूपमें मुझे समर्पित कर दिया। मैं यही चाहती हूँ कि जन्म-जन्म इन्हींकी दासी बनी रहूँ ।।१०।।
श्रीकालिन्द्युवाच
तपश्चरन्तीमाज्ञाय स्वपादस्पर्शनाशया
सख्योपेत्याग्रहीत्पाणिं योऽहं तद्गृहमार्जनी ११
कालिन्दीने कहा-द्रौपदीजी! जब भगवान्को यह मालूम हुआ कि मैं उनके चरणोंका स्पर्श करनेकी आशा-अभिलाषासे तपस्या कर रही हूँ, तब वे अपने सखा अर्जुनके साथ यमुना-तटपर आये और मुझे स्वीकार कर लिया। मैं उनका घर बुहारनेवाली उनकी दासी हूँ ।।११।।
श्रीमित्रविन्दोवाच
यो मां स्वयंवर उपेत्य विजित्य भूपान्
निन्ये श्वयूथगं इवात्मबलिं द्विपारिः
भ्रातॄंश्च मेऽपकुरुतः स्वपुरं श्रियौकस्
तस्यास्तु मेऽनुभवमङ्घ्र्यवनेजनत्वम् १२
मित्रविन्दाने कहा-द्रौपदीजी! मेरा स्वयंवर हो रहा था। वहाँ आकर भगवान्ने सब राजाओंको जीत लिया और जैसे सिंह झुंड-के-झुंड कुत्तोंमेंसे अपना भाग ले जाय, वैसे ही मुझे अपनी शोभामयी द्वारका-पुरीमें ले आये। मेरे भाइयोंने भी मुझे भगवानसे छुड़ाकर मेरा अपकार करना चाहा, परन्तु उन्होंने उन्हें भी नीचा दिखा दिया। मैं ऐसा चाहती हूँ कि मुझे जन्म-जन्म उनके पाँव पखारनेका सौभाग्य प्राप्त होता रहे ।।१२।।
श्रीसत्योवाच
सप्तोक्षणोऽतिबलवीर्यसुतीक्ष्णशृङ्गान्
पित्रा कृतान्क्षितिपवीर्यपरीक्षणाय
तान्वीरदुर्मदहनस्तरसा निगृह्य
क्रीडन्बबन्ध ह यथा शिशवोऽजतोकान् १३
सत्याने कहा-द्रौपदीजी! मेरे पिताजीने मेरे स्वयंवरमें आये हुए राजाओंके बलपौरुषकी परीक्षाके लिये बड़े बलवान् और पराक्रमी, तीखे सींगवाले सात बैल रख छोड़े थे। उन बैलोंने बड़े-बड़े वीरोंका घमंड चूर-चूर कर दिया था। उन्हें भगवानने खेल-खेलमें ही झपटकर पकड़ लिया, नाथ लिया और बाँध दिया; ठीक वैसे ही, जैसे छोटे-छोटे बच्चे बकरीके बच्चोंको पकड़ लेते हैं ||१३||
य इत्थं वीर्यशुल्कां मां
दासीभिश्चतुरङ्गिणीम्
पथि निर्जित्य राजन्यान्
निन्ये तद्दास्यमस्तु मे १४
इस प्रकार भगवान् बल-पौरुषके द्वारा मुझे प्राप्त कर चतुरंगिणी सेना और दासियोंके साथ द्वारका ले आये। मार्गमें जिन क्षत्रियोंने विघ्न डाला, उन्हें जीत भी लिया। मेरी यही अभिलाषा है कि मुझे इनकी सेवाका अवसर सदा-सर्वदा प्राप्त होता रहे ।।१४।।
श्रीभद्रोवाच
पिता मे मातुलेयाय स्वयमाहूय दत्तवान्
कृष्णे कृष्णाय तच्चित्तामक्षौहिण्या सखीजनैः १५
भद्राने कहा-द्रौपदीजी! भगवान् मेरे मामाके पुत्र हैं। मेरा चित्त इन्हींके चरणोंमें अनुरक्त हो गया था। जब मेरे पिताजीको यह बात मालूम हुई, तब उन्होंने स्वयं ही भगवान्को बुलाकर अक्षौहिणी सेना और बहुत-सी दासियोंके साथ मुझे इन्हींके चरणोंमें समर्पित कर दिया ।।१५।।
अस्य मे पादसंस्पर्शो भवेज्जन्मनि जन्मनि
कर्मभिर्भ्राम्यमाणाया येन तच्छ्रेय आत्मनः १६
मैं अपना परम कल्याण इसीमें समझती हूँ कि कर्मके अनुसार मुझे जहाँ-जहाँ जन्म लेना पड़े, सर्वत्र इन्हींके चरणकमलोंका संस्पर्श प्राप्त होता रहे ||१६||
श्रीलक्ष्मणोवाच
ममापि राज्ञ्यच्युतजन्मकर्म श्रुत्वा मुहुर्नारदगीतमास ह
चित्तं मुकुन्दे किल पद्महस्तया वृतः सुसम्मृश्य विहाय लोकपान् १७
लक्ष्मणाने कहा-रानीजी! देवर्षि नारद बार-बार भगवान्के अवतार और लीलाओंका गान करते रहते थे। उसे सुनकर और यह सोचकर कि लक्ष्मीजीने समस्त लोकपालोंका त्याग करके भगवान्का ही वरण किया, मेरा चित्त भगवान्के चरणोंमें आसक्त हो गया ।।१७।।
ज्ञात्वा मम मतं साध्वि पिता दुहितृवत्सलः
बृहत्सेन इति ख्यातस्तत्रोपायमचीकरत् १८
साध्वी! मेरे पिता बृहत्सेन मुझपर बहुत प्रेम रखते थे। जब उन्हें मेरा अभिप्राय मालूम हआ, तब उन्होंने मेरी इच्छाकी पर्तिके लिये यह उपाय किया ।।१८।।
यथा स्वयंवरे राज्ञि मत्स्यः पार्थेप्सया कृतः
अयं तु बहिराच्छन्नो दृश्यते स जले परम् १९
महारानी! जिस प्रकार पाण्डववीर अर्जुनकी प्राप्तिके लिये आपके पिताने स्वयंवरमें मत्स्यवेधका आयोजन किया था, उसी प्रकार मेरे पिताने भी किया। आपके स्वयंवरकी अपेक्षा हमारे यहाँ यह विशेषता थी कि मत्स्य बाहरसे ढका हुआ था, केवल जलमें ही उसकी परछाईं दीख पड़ती थी ।।१९।।
श्रुत्वैतत्सर्वतो भूपा आययुर्मत्पितुः पुरम्
सर्वास्त्रशस्त्रतत्त्वज्ञाः सोपाध्यायाः सहस्रशः २०
जब यह समाचार राजाओंको मिला, तब सब ओरसे समस्त अस्त्र-शस्त्रोंके तत्त्वज्ञ हजारों राजा अपने-अपने गुरुओंके साथ मेरे पिताजीकी राजधानीमें आने लगे ।।२०।।
पित्रा सम्पूजिताः सर्वे यथावीर्यं यथावयः
आददुः सशरं चापं वेद्धुं पर्षदि मद्धियः २१
मेरे पिताजीने आये हुए सभी राजाओंका बल-पौरुष और अवस्थाके अनुसार भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया। उन लोगोंने मुझे प्राप्त करनेकी इच्छासे स्वयंवर-सभामें रखे हए धनुष और बाण उठाये ।।२१।।
आदाय व्यसृजन्केचित्सज्यं कर्तुमनीश्वराः
आकोष्ठं ज्यां समुत्कृष्य पेतुरेकेऽमुनाहताः २२
उनमेंसे कितने ही राजा तो धनुषपर ताँत भी न चढ़ा सके। उन्होंने धनुषको ज्यों-का-त्यों रख दिया। कइयोंने धनुषकी डोरीको एक सिरेसे बाँधकर दुसरे सिरेतक खींच तो लिया, परन्तु वे उसे दूसरे सिरेसे बाँध न सके, उसका झटका लगनेसे गिर पड़े ||२२||
सज्यं कृत्वापरे वीरा मागधाम्बष्ठचेदिपाः
भीमो दुर्योधनः कर्णो नाविदंस्तदवस्थितिम् २३
रानीजी! बड़े-बड़े प्रसिद्ध वीर-जैसे जरासन्ध, अम्बष्ठनरेश, शिशुपाल, भीमसेन, दुर्योधन और कर्ण-इन लोगोंने धनुषपर डोरी तो चढ़ा ली; परन्तु उन्हें मछलीकी स्थितिका पता न चला ।।२३।।
मत्स्याभासं जले वीक्ष्य ज्ञात्वा च तदवस्थितिम्
पार्थो यत्तोऽसृजद्बाणं नाच्छिनत्पस्पृशे परम् २४
पाण्डववीर अर्जुनने जलमें उस मछलीकी परछाईं देख ली और यह भी जान लिया कि वह कहाँ है। बड़ी सावधानीसे उन्होंने बाण छोड़ा भी; परन्तु उससे लक्ष्यवेध न हुआ, उनके बाणने केवल उसका स्पर्शमात्र किया ।।२४।।
राजन्येषु निवृत्तेषु भग्नमानेषु मानिषु
भगवान्धनुरादाय सज्यं कृत्वाथ लीलया २५
तस्मिन्सन्धाय विशिखं मत्स्यं वीक्ष्य सकृज्जले
छित्त्वेषुणापातयत्तं सूर्ये चाभिजिति स्थिते २६
रानीजी! इस प्रकार बड़े-बड़े अभिमानियोंका मान मर्दन हो गया। अधिकांश नरपतियोंने मुझे पानेकी लालसा एवं साथ-ही-साथ लक्ष्यवेधकी चेष्टा भी छोड़ दी। तब भगवान्ने धनुष उठाकर खेल-खेलमें-अनायास ही उसपर डोरी चढ़ा दी, बाण साधा और जलमें केवल एक बार मछलीकी परछाईं देखकर बाण मारा तथा उसे नीचे गिरा दिया। उस समय ठीक दोपहर हो रहा था, सर्वार्थसाधक ‘अभिजित्’ नामक मुहूर्त बीत रहा था ||२५-२६||
अभिजित्
दिवि दुन्दुभयो नेदुर्जयशब्दयुता भुवि
देवाश्च कुसुमासारान्मुमुचुर्हर्षविह्वलाः २७
देवीजी! उस समय पृथ्वीमें जय-जयकार होने लगा और आकाशमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं। बड़े-बड़े देवता आनन्द-विह्वल होकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ||२७||
तद्रङ्गमाविशमहं कलनूपुराभ्यां
पद्भ्यां प्रगृह्य कनकोज्वलरत्नमालाम्
नूत्ने निवीय परिधाय च कौशिकाग्र्ये
सव्रीडहासवदना कवरीधृतस्रक् २८
उन्नीय वक्त्रमुरुकुन्तलकुण्डलत्विड्
गण्डस्थलं शिशिरहासकटाक्षमोक्षैः
राज्ञो निरीक्ष्य परितः शनकैर्मुरारेर्
अंसेऽनुरक्तहृदया निदधे स्वमालाम् २९
रानीजी! उसी समय मैंने रंगशालामें प्रवेश किया। मेरे पैरोंके पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोल रहे थे। मैंने नये-नये उत्तम रेशमी वस्त्र धारण कर रखे थे। मेरी चोटियोंमें मालाएँ गुंथी हुई थीं और मुँहपर लज्जामिश्रित मुसकराहट थी। मैं अपने हाथोंमें रत्नोंका हार लिये हुए थी, जो बीच-बीचमें लगे हुए सोनेके कारण और भी दमक रहा था। रानीजी! उस समय मेरा मुखमण्डल घनी घुघराली अलकोंसे सुशोभित हो रहा था तथा कपोलोंपर कुण्डलोंकी आभा पड़नेसे वह और भी दमक उठा था। मैंने एक बार अपना मुख उठाकर चन्द्रमाकी किरणोंके समान सुशीतल हास्यरेखा और तिरछी चितवनसे चारों ओर बैठे हुए राजाओंकी और देखा, फिर धीरेसे अपनी वरमाला भगवानके गलेमें डाल
दी। यह तो कह ही चुकी हूँ कि मेरा हृदय पहलेसे ही भगवान्के प्रति अनुरक्त था ।।२८-२९।।
तावन्मृदङ्गपटहाः शङ्खभेर्यानकादयः
निनेदुर्नटनर्तक्यो ननृतुर्गायका जगुः ३०
मैंने ज्यों ही वरमाला पहनायी त्यों ही मृदंग, पखावज, शंख, ढोल, नगारे आदि बाजे बजने लगे। नट और नर्तकियाँ नाचने लगीं। गवैये गाने लगे ।।३०।।
एवं वृते भगवति मयेशे नृपयूथपाः
न सेहिरे याज्ञसेनि स्पर्धन्तो हृच्छयातुराः ३१
द्रौपदीजी! जब मैंने इस प्रकार अपने स्वामी प्रियतम भगवान्को वरमाला पहना दी, उन्हें वरण कर लिया, तब कामातुर राजाओंको बड़ा डाह हुआ। वे बहुत ही चिढ़ गये ।।३१।।
मां तावद्रथमारोप्य हयरत्नचतुष्टयम्
शार्ङ्गमुद्यम्य सन्नद्धस्तस्थावाजौ चतुर्भुजः ३२
चतुर्भुज भगवान्ने अपने श्रेष्ठ चार घोड़ोंवाले रथपर मुझे चढ़ा लिया और हाथमें शार्ङ्गधनुष लेकर तथा कवच पहनकर युद्ध करनेके लिये वे रथपर खड़े हो गये ।।३२।।
दारुकश्चोदयामास काञ्चनोपस्करं रथम्
मिषतां भूभुजां राज्ञि मृगाणां मृगराडिव ३३
पर रानीजी! दारुकने सोनेके साज-सामानसे लदे हुए रथको सब राजाओंके सामने ही द्वारकाके लिये हाँक दिया, जैसे कोई सिंह हरिनोंके बीचसे अपना भाग ले जाय ।।३३।।
तेऽन्वसज्जन्त राजन्या निषेद्धुं पथि केचन
संयत्ता उद्धृतेष्वासा ग्रामसिंहा यथा हरिम् ३४
उनमेंसे कुछ राजाओंने धनुष लेकर युद्धके लिये सज-धजकर इस उद्देश्यसे रास्तेमें पीछा किया कि हम भगवानको रोक लें; परन्तु रानीजी! उनकी चेष्टा ठीक वैसी ही थी, जैसे कुत्ते सिंहको रोकनाचाहें ।।३४।।
ते शार्ङ्गच्युतबाणौघैः कृत्तबाह्वङ्घ्रिकन्धराः
निपेतुः प्रधने केचिदेके सन्त्यज्य दुद्रुवुः ३५
शार्ङ्गधनुषके छूटे हुए तीरोंसे किसीकी बाँह कट गयी तो किसीके पैर कटे और किसीकी गर्दन ही उतर गयी। बहुत-से लोग तो उस रणभूमिमें ही सदाके लिये सो गये और बहुत-से युद्धभूमि छोड़कर भाग खड़े हुए ||३५||
ततः पुरीं यदुपतिरत्यलङ्कृतां
रविच्छदध्वजपटचित्रतोरणाम्
कुशस्थलीं दिवि भुवि चाभिसंस्तुतां
समाविशत्तरणिरिव स्वकेतनम् ३६
तदनन्तर यदुवंशशिरोमणि भगवान्ने सूर्यकी भाँति अपने निवासस्थान स्वर्ग और पृथ्वीमें सर्वत्र प्रशंसित द्वारका-नगरीमें प्रवेश किया। उस दिन वह विशेषरूपसे सजायी गयी थी। इतनी इंडियाँ, पताकाएँ और तोरण लगाये गये थे कि उनके कारण सूर्यका प्रकाश धरतीतक नहीं आ पाता था ||३६||
पिता मे पूजयामास सुहृत्सम्बन्धिबान्धवान्
महार्हवासोऽलङ्कारैः शय्यासनपरिच्छदैः ३७
मेरी अभिलाषा पूर्ण हो जानेसे पिताजीको बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने अपने हितैषी-सुहृदों, सगे-सम्बन्धियों और भाई-बन्धुओंको बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, शय्या, आसन और विविध प्रकारकी सामग्रियाँ देकर सम्मानित किया ||३७||
दासीभिः सर्वसम्पद्भिर्भटेभरथवाजिभिः
आयुधानि महार्हाणि ददौ पूर्णस्य भक्तितः ३८
भगवान् परिपूर्ण हैं तथापि मेरे पिताजीने प्रेमवश उन्हें बहत-सी दासियाँ, सब प्रकारकी सम्पत्तियाँ, सैनिक, हाथी, रथ, घोड़े एवं बहत-से बहमूल्य अस्त्र-शस्त्र समर्पित किये ||३८||
आत्मारामस्य तस्येमा वयं वै गृहदासिकाः
सर्वसङ्गनिवृत्त्याद्धा तपसा च बभूविम ३९
रानीजी! हमने पूर्वजन्ममें सबकी आसक्ति छोड़कर कोई बहुत बड़ी तपस्या की होगी। तभी तो हमइस जन्ममें आत्माराम भगवान्की गृह-दासियाँ हुई हैं ।।३९।।
महिष्य ऊचुः
भौमं निहत्य सगणं युधि तेन रुद्धा
ज्ञात्वाथ नः क्षितिजये जितराजकन्याः
निर्मुच्य संसृतिविमोक्षमनुस्मरन्तीः
पादाम्बुजं परिणिनाय य आप्तकामः ४०
सोलह हजार पत्नियोंकी ओरसे रोहिणीजीने कहा-भौमासुरने दिग्विजयके समय बहुत-से राजाओंको जीतकर उनकी कन्या हमलोगोंको अपने महलमें बंदी बना रखा था। भगवान्ने यह जानकर युद्धमें भौमासुर और उसकी सेनाका संहार कर डाला और स्वयं पूर्णकाम होनेपर भी उन्होंने हमलोगोंको वहाँसे छुड़ाया तथा पाणिग्रहण करके अपनी दासी बना लिया। रानीजी! हम सदा-सर्वदा उनके उन्हीं चरणकमलोंका चिन्तन करती रहती थीं, जो जन्म-मृत्युरूप संसारसे मुक्त करनेवाले हैं ||४०।।
न वयं साध्वि साम्राज्यं स्वाराज्यं भौज्यमप्युत
वैराज्यं पारमेष्ठ्यं च आनन्त्यं वा हरेः पदम् ४१
कामयामह एतस्य श्रीमत्पादरजः श्रियः
कुचकुङ्कुमगन्धाढ्यं मूर्ध्ना वोढुं गदाभृतः ४२
साध्वी द्रौपदीजी! हम साम्राज्य, इन्द्रपद अथवा इन दोनोंके भोग, अणिमा आदि ऐश्वर्य, ब्रह्माका पद, मोक्ष अथवा सालोक्य, सारूप्य आदि मुक्तियाँ-कुछ भी नहीं चाहतीं। हम केवल इतना ही चाहती हैं कि अपने प्रियतम प्रभुके सुकोमल चरणकमलोंकी वह श्रीरज सर्वदा अपने सिरपर वहन किया करें, जो लक्ष्मीजीके वक्षःस्थलपर लगी हुई केशरकी सुगन्धसे युक्त है ।।४१-४२।।
व्रजस्त्रियो यद्वाञ्छन्ति पुलिन्द्यस्तृणवीरुधः
गावश्चारयतो गोपाः पदस्पर्शं महात्मनः ४३
उदारशिरोमणि भगवान्के जिन चरणकमलोंका स्पर्श उनके गौ चराते समय गोप, गोपियाँ, भीलिने, तिनके और घास लताएँतक करना चाहती थीं, उन्हींकी हमें भी चाह है ।।४३।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे त्र्यशीतितमोऽध्यायः