श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 85
85 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ८५
वसुदेवमुखेन भगवत्तत्त्वप्रतिपादनं भगवता देवकीप्रार्थनया तदीय मृतपुत्राणां आनयनं च –
श्रीबादरायणिरुवाच
अथैकदात्मजौ प्राप्तौ कृतपादाभिवन्दनौ
वसुदेवोऽभिनन्द्याह प्रीत्या सङ्कर्षणाच्युतौ १
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! इसके बाद एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी प्रातःकालीन प्रणाम करनेके लिये माता-पिताके पास गये। प्रणाम कर लेनेपर वसुदेवजी बड़े प्रेमसे दोनों भाइयोंका अभिनन्दन करके कहने लगे ।।१।।
मुनीनां स वचः श्रुत्वा पुत्रयोर्धामसूचकम्
तद्वीर्यैर्जातविश्रम्भः परिभाष्याभ्यभाषत २
वसुदेवजीने बड़ेबड़े ऋषियोंके मुँहसे भगवान्की महिमा सुनी थी तथा उनके ऐश्वर्यपूर्ण चरित्र भी देखे थे। इससे उन्हें इस बातका दृढ़ विश्वास हो गया था कि ये साधारण पुरुष नहीं, स्वयं भगवान हैं। इसलिये उन्होंने अपने पुत्रोंको प्रेमपूर्वक सम्बोधित करके यों कहा- ||२||
कृष्ण कृष्ण महायोगिन्सङ्कर्षण सनातन
जाने वामस्य यत्साक्षात्प्रधानपुरुषौ परौ ३
‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! महायोगीश्वर संकर्षण! तुम दोनों सनातन हो। मैं जानता हूँ कि तुम दोनों सारे जगतके साक्षात् कारणस्वरूप प्रधान और पुरुषके भी नियामक परमेश्वर हो ।।३।।
यत्र येन यतो यस्य यस्मै यद्यद्यथा यदा
स्यादिदं भगवान्साक्षात्प्रधानपुरुषेश्वरः ४
इस जगत्के आधार, निर्माता और निर्माणसामग्री भी तुम्हीं हो। इस सारे जगत्के – स्वामी तुम दोनों हो और तुम्हारी ही क्रीडाके लिये इसका निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस रूपमें जो कुछ रहता है, होता है वह सब तुम्हीं हो। इस जगत्में प्रकृति-रूपसे भोग्य और पुरुषरूपसे भोक्ता तथा दोनोंसे परे दोनोंके नियामक साक्षात् भगवान् भी तुम्हीं हो ।।४।।
एतन्नानाविधं विश्वमात्मसृष्टमधोक्षज
आत्मनानुप्रविश्यात्मन्प्राणो जीवो बिभर्ष्यज ५
इन्द्रियातीत! जन्म, अस्तित्व आदि भावविकारोंसे रहित परमात्मन्! इस चित्र-विचित्र जगत्का तुम्हींने निर्माण किया है और इसमें स्वयं तुमने ही आत्मारूपसे प्रवेश भी किया है। तुम प्राण (क्रियाशक्ति) और जीव (ज्ञानशक्ति) के रूपमें इसका पालन-पोषण कर रहे हो ।।५।।
प्राणादीनां विश्वसृजां शक्तयो याः परस्य ताः
पारतन्त्र्याद्वै सादृश्याद् द्वयोश्चेष्टैव चेष्टताम् ६
क्रियाशक्तिप्रधान प्राण आदिमें जो जगत्की वस्तुओंकी सृष्टि करनेकी सामर्थ्य है, वह उनकी अपनी सामर्थ्य नहीं, तुम्हारी ही है। क्योंकि वे तुम्हारे समान चेतन नहीं, अचेतन हैं; स्वतन्त्र नहीं, परतन्त्र हैं। अतः उन चेष्टाशील प्राण आदिमें केवल चेष्टामात्र होती है, शक्ति नहीं। शक्ति तो तुम्हारी है ।।६।।
कान्तिस्तेजः प्रभा सत्ता चन्द्राग्न्यर्कर्क्षविद्युताम्
यत्स्थैर्यं भूभृतां भूमेर्वृत्तिर्गन्धोऽर्थतो भवान् ७
प्रभो! चन्द्रमाकी कान्ति, अग्निका तेज, सूर्यकी प्रभा, नक्षत्र और विद्युत् आदिकी स्फुरणरूपसे सत्ता, पर्वतोंकी स्थिरता, पृथ्वीकी साधारणशक्तिरूप वृत्ति और गन्धरूप गुण-ये सब वास्तवमें तुम्ही हो ।।७।।
तर्पणं प्राणनमपां देव त्वं ताश्च तद्रसः
ओजः सहो बलं चेष्टा गतिर्वायोस्तवेश्वर ८
परमेश्वर! जलमें तृप्त करने, जीवन देने और शुद्ध करनेकी जो शक्तियाँ हैं, वे तुम्हारा ही स्वरूप हैं। जल और उसका रस भी तुम्हीं हो। प्रभो! इन्द्रियशक्ति, अन्तःकरणकी शक्ति, शरीरकी शक्ति, उसका हिलना-डोलना, चलना-फिरना—ये सब वायकी शक्तियाँ तुम्हारी ही हैं ||८||
दिशां त्वमवकाशोऽसि दिशः खं स्फोट आश्रयः
नादो वर्णस्त्वमॐकार आकृतीनां पृथक्कृतिः ९
दिशाएँ और उनके अवकाश भी तुम्हीं हो। आकाश और उसका आश्रयभूत स्फोट-शब्दतन्मात्रा या परा वाणी, नादपश्यन्ती, ओंकार-मध्यमा तथा वर्ण (अक्षर) एवं पदार्थोंका अलग-अलग निर्देश करनेवाले पद, रूप, वैखरी वाणी भी तुम्ही हो ।।९।।
इन्द्रियं त्विन्द्रियाणां त्वं देवाश्च तदनुग्रहः
अवबोधो भवान्बुद्धेर्जीवस्यानुस्मृतिः सती १०
इन्द्रियाँ, उनकी विषयप्रकाशिनी शक्ति और अधिष्ठातृ-देवता तुम्हीं हो! बुद्धिकी निश्चयात्मिका शक्ति और जीवकी विशुद्ध स्मृति भी तुम्हींहो ।।१०।।
भूतानामसि भूतादिरिन्द्रियाणां च तैजसः
वैकारिको विकल्पानां प्रधानमनुशायिनम् ११
भूतोंमें उनका कारण तामस अहंकार, इन्द्रियोंमें उनका कारण तैजस अहंकार और इन्द्रियोंके अधिष्ठातृ-देवताओंमें उनका कारण सात्त्विक अहंकार तथा जीवोंके आवागमनका कारण माया भी तुम्ही हो ।।११।।
नश्वरेष्विह भावेषु तदसि त्वमनश्वरम्
यथा द्रव्यविकारेषु द्रव्यमात्रं निरूपितम् १२
भगवन्! जैसे मिट्टी आदि वस्तुओंके विकार घड़ा, वृक्ष आदिमें मिट्टी निरन्तर वर्तमान है और वास्तवमें वे कारण (मृत्तिका) रूप ही हैंउसी प्रकार जितने भी विनाशवान् पदार्थ हैं, उनमें तुम कारणरूपसे अविनाशी तत्त्व हो। वास्तवमें वे सब तुम्हारे ही स्वरूप हैं ।।१२।।
सत्त्वम्रजस्तम इति गुणास्तद्वृत्तयश्च याः
त्वय्यद्धा ब्रह्मणि परे कल्पिता योगमायया १३
प्रभो! सत्त्व, रज, तम ये तीनों गुण और उनकी वृत्तियाँ (परिणाम)—महत्तत्त्वादि परब्रह्म परमात्मामें, तुममें योगमायाके द्वारा कल्पित हैं ।।१३।।
तस्मान्न सन्त्यमी भावा यर्हि त्वयि विकल्पिताः
त्वं चामीषु विकारेषु ह्यन्यदा व्यावहारिकः १४
इसलिये ये जितने भी जन्म, अस्ति, वृद्धि, परिणाम आदि भाव-विकार हैं, वे तुममें सर्वथा नहीं हैं। जब तुममें इनकीकल्पना कर ली जाती है, तब तुम इन विकारों में अनुगत जान पड़ते हो। कल्पनाकी निवृत्ति हो जानेपर तो निर्विकल्प परमार्थस्वरूप तुम्हीं तुम रह जाते हो ।।१४।।
गुणप्रवाह एतस्मिन्नबुधास्त्वखिलात्मनः
गतिं सूक्ष्मामबोधेन संसरन्तीह कर्मभिः १५
यह जगत् सत्त्व, रज, तम-इन तीनों गुणोंका प्रवाह है; देह, इन्द्रिय, अन्तःकरण, सुख, दुःख और राग-लोभादि उन्हींके कार्य हैं। इनमें जो अज्ञानी तुम्हारा, सर्वात्माका सूक्ष्मस्वरूप नहीं जानते, वे अपने देहाभिमानरूप अज्ञानके कारण ही कर्मोंके फंदेमें फँसकर बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें भटकते रहते हैं ||१५||
यदृच्छया नृतां प्राप्य सुकल्पामिह दुर्लभाम्
स्वार्थे प्रमत्तस्य वयो गतं त्वन्माययेश्वर १६
परमेश्वर! मुझे शुभ प्रारब्धके अनुसार इन्द्रियादिकी सामर्थ्यसे युक्त अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ। किन्तु तुम्हारी मायाके वश होकर मैं अपने सच्चे स्वार्थ-परमार्थसे ही असावधान हो गया और मेरी सारी आयु यों ही बीत गयी ||१६||
असावहम्ममैवैते देहे चास्यान्वयादिषु
स्नेहपाशैर्निबध्नाति भवान्सर्वमिदं जगत् १७
प्रभो! यह शरीर मैं हूँ और इस शरीरके सम्बन्धी मेरे अपने हैं, इस अहंता एवं ममतारूप स्नेहकी फाँसीसे तुमने इस सारे जगत्को बाँध रखा है ।।१७।।
युवां न नः सुतौ साक्षात्प्रधानपुरुषेश्वरौ
भूभारक्षत्रक्षपण अवतीर्णौ तथात्थ ह १८
मैं जानता हूँ कि तुम दोनों मेरे पुत्र नहीं हो, सम्पूर्ण प्रकति और जीवोंके स्वामी हो। पथ्वीके भारभत राजाओंके नाशके लिये ही तमने अवतार ग्रहण किया है। यह बात तुमने मुझसे कही भी थी ।।१८।।
तत्ते गतोऽस्म्यरणमद्य पदारविन्दम्
आपन्नसंसृतिभयापहमार्तबन्धो
एतावतालमलमिन्द्रियलालसेन
मर्त्यात्मदृक्त्वयि परे यदपत्यबुद्धिः १९
इसलिये दीनजनोंके हितैषी, शरणागतवत्सल! मैं अब तुम्हारे चरणकमलोंकी शरणमें हूँ; क्योंकि वे ही शरणागतोंके संसारभयको मिटानेवाले हैं। अब इन्द्रियोंकी लोलुपतासे भर पाया! इसीके कारण मैंने मृत्युके ग्रास इस शरीरमें आत्मबुद्धि कर ली और तुममें, जो कि परमात्मा हो, पुत्रबुद्धि ।।१९।।
सूतीगृहे ननु जगाद भवानजो नौ
सञ्जज्ञ इत्यनुयुगं निजधर्मगुप्त्यै
नानातनूर्गगनवद्विदधज्जहासि
को वेद भूम्न उरुगाय विभूतिमायाम् २०
प्रभो! तुमने प्रसव-गहमें ही हमसे कहा था कि ‘यद्यपि मैं अजन्मा हँ, फिर भी मैं अपनी ही बनायी हुई धर्म-मर्यादाकी रक्षा करनेके लिये प्रत्येक युगमें तुम दोनोंके द्वारा अवतार ग्रहण करता रहा हूँ।’ भगवन्! तुम आकाशके समान अनेकों शरीर ग्रहण करते और छोड़ते रहते हो। वास्तवमें तुम अनन्त, एकरस सत्ता हो। तुम्हारी आश्चर्यमयी शक्ति योगमायाका रहस्य भला कौन जान सकता है? सब लोग तुम्हारी कीर्तिका ही गान करते रहते हैं ।।२०।।
श्रीशुक उवाच
आकर्ण्येत्थं पितुर्वाक्यं भगवान्सात्वतर्षभः
प्रत्याह प्रश्रयानम्रः प्रहसन्श्लक्ष्णया गिरा २१
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! वसुदेवजीके ये वचन सुनकर यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण मुसकराने लगे। उन्होंने विनयसे झुककर मधुर वाणीसे कहा ।।२१।।
श्रीभगवानुवाच
वचो वः समवेतार्थं तातैतदुपमन्महे
यन्नः पुत्रान्समुद्दिश्य तत्त्वग्राम उदाहृतः २२
भगवान् श्रीकृष्णने कहा-पिताजी! हम तो आपके पुत्र ही हैं। हमें लक्ष्य करके आपने यह ब्रह्मज्ञानका उपदेश किया है। हम आपकी एक-एक बात युक्तियुक्त मानते हैं ||२२||
अहं यूयमसावार्य इमे च द्वारकौकसः
सर्वेऽप्येवं यदुश्रेष्ठ विमृग्याः सचराचरम् २३
पिताजी! आपलोग, मैं, भैया बलरामजी, सारे द्वारकावासी, सम्पूर्ण चराचर जगत्-सब-केसब आपने जैसा कहा, वैसे ही हैं, सबको ब्रह्मरूप ही समझना चाहिये ।।२३।।
आत्मा ह्येकः स्वयंज्योतिर्नित्योऽन्यो निर्गुणो गुणैः
आत्मसृष्टैस्तत्कृतेषु भूतेषु बहुधेयते २४
पिताजी! आत्मा तो एक ही है। परन्तु वह अपनेमें ही गुणोंकी सृष्टि कर लेता है और गुणोंके द्वारा बनाये हुए पंचभूतोंमें एक होनेपर भी अनेक, स्वयंप्रकाश होनेपर भी दृश्य, अपना स्वरूप होनेपर भी अपनेसे भिन्न, नित्य होनेपर भी अनित्य और निर्गुण होनेपर भी सगुणके रूपमें प्रतीत होता है ।।२४।।
खं वायुर्ज्योतिरापो भूस्तत्कृतेषु यथाशयम्
आविस्तिरोऽल्पभूर्येको नानात्वं यात्यसावपि २५
जैसे आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी-ये पंचमहाभूत अपने कार्य घट, कुण्डल आदिमें प्रकट-अप्रकट, बड़े-छोटे, अधिक-थोड़े, एक और अनेक-से प्रतीत होते हैं परन्तु वास्तवमें सत्तारूपसे वे एक ही रहते हैं; वैसे ही आत्मामें भी उपाधियोंके भेदसे ही नानात्वकी प्रतीति होती है। इसलिये जो मैं हूँ, वही सब हैं—इस दृष्टिसे आपका कहना ठीक ही है ।।२५।।
श्रीशुक उवाच
एवं भगवता राजन्वसुदेव उदाहृतः
श्रुत्वा विनष्टनानाधीस्तूष्णीं प्रीतमना अभूत् २६
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके इन वचनोंको सुनकर वसदेवजीने नानात्व-बद्धि छोड दी; वे आनन्दमें मग्न होकर वाणीसे मौन और मनसे निस्संकल्प हो गये ।।२६।।
अथ तत्र कुरुश्रेष्ठ देवकी सर्वदेवता
श्रुत्वानीतं गुरोः पुत्रमात्मजाभ्यां सुविस्मिता २७
कुरुश्रेष्ठ! उस समय वहाँ सर्वदेवमयी देवकीजी भी बैठी हुई थीं। वे बहुत पहलेसे ही यह सुनकर अत्यन्त विस्मित थीं कि श्रीकृष्ण और बलरामजीने अपने मरे हुए गुरुपुत्रको यमलोकसे वापस ला दिया ।।२७।।
कृष्णरामौ समाश्राव्य पुत्रान्कंसविहिंसितान्
स्मरन्ती कृपणं प्राह वैक्लव्यादश्रुलोचना २८
अब उन्हें अपने उन पुत्रोंकी याद आ गयी, जिन्हें कंसने मार डाला था। उनके स्मरणसे देवकीजीका हृदय आतुर हो गया, नेत्रोंसे आँसू बहने लगे। उन्होंने बड़े ही करुणस्वरसे श्रीकृष्ण और बलरामजीको सम्बोधित करके कहा ।।२८।।
श्रीदेवक्युवाच
राम रामाप्रमेयात्मन्कृष्ण योगेश्वरेश्वर
वेदाहं वां विश्वसृजामीश्वरावादिपूरुषौ २९
देवकीजीने कहा-लोकाभिराम राम! तुम्हारी शक्ति मन और वाणीके परे है। श्रीकृष्ण! तुम योगेश्वरोंके भी ईश्वर हो। मैं जानती हूँ कि तुम दोनों प्रजापतियोंके भी ईश्वर, आदिपुरुष नारायण हो ।।२९।।
कलविध्वस्तसत्त्वानां राज्ञामुच्छास्त्रवर्तिनाम्
भूमेर्भारायमाणानामवतीर्णौ किलाद्य मे ३०
यह भी मुझे निश्चत रूपसे मालूम है कि जिन लोगोंने कालक्रमसे अपना धैर्य, संयम और सत्त्वगुण खो दिया है तथा शास्त्रकी आज्ञाओंका उल्लंघन करके जो स्वेच्छाचारपरायण हो रहे हैं, भूमिके भारभूत उन राजाओंका नाश करनेके लिये ही तुम दोनों मेरे गर्भसे अवतीर्ण हुए हो ।।३०।।
यस्यांशांशांशभागेन विश्वोत्पत्तिलयोदयाः
भवन्ति किल विश्वात्मंस्तं त्वाद्याहं गतिं गता ३१
विश्वात्मन्! तुम्हारे पुरुषरूप अंशसे उत्पन्न हुई मायासे गुणोंकी उत्पत्ति होती है और उनके लेशमात्रसे जगत्की उत्पत्ति, विकास तथा प्रलय होता है। आज मैं सर्वान्तःकरणसेतुम्हारी शरण हो रही हूँ ।।३१।।
चिरान्मृतसुतादाने गुरुणा किल चोदितौ
आनिन्यथुः पितृस्थानाद्गुरवे गुरुदक्षिणाम् ३२
मैंने सुना है कि तुम्हारे गुरु सान्दीपनिजीके पुत्रको मरे बहुत दिन हो गये थे। उनको गुरुदक्षिणा देनेके लिये उनकी आज्ञा तथा कालकी प्रेरणासे तुम दोनोंने उनके पुत्रको यमपुरीसे वापस ला दिया ||३२||
तथा मे कुरुतं कामं युवां योगेश्वरेश्वरौ
भोजराजहतान्पुत्रान्कामये द्रष्टुमाहृतान् ३३
तुम दोनों योगीश्वरोंके भी ईश्वर हो। इसलिये आज मेरी भी अभिलाषा पूर्ण करो। मैं चाहती हूँ कि तुम दोनों मेरे उन पुत्रोंको, जिन्हें कंसने मार डाला था, ला दो और उन्हें मैं भर आँख देख लूँ ।।३३।।
ऋषिरुवाच
एवं सञ्चोदितौ मात्रा रामः कृष्णश्च भारत
सुतलं संविविशतुर्योगमायामुपाश्रितौ ३४
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित्! माता देवकीजीकी यह बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम दोनोंने योगमायाका आश्रय लेकर सुतल लोकमें प्रवेश किया ।।३४।।
तस्मिन्प्रविष्टावुपलभ्य दैत्यराड्
विश्वात्मदैवं सुतरां तथात्मनः
तद्दर्शनाह्लादपरिप्लुताशयः
सद्यः समुत्थाय ननाम सान्वयः ३५
जब दैत्यराज बलिने देखा कि जगत्के आत्मा और इष्टदेव तथा मेरे परम स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी सुतल लोकमें पधारे हैं, तब उनका हृदय उनके दर्शनके आनन्दमें निमग्न हो गया। उन्होंने झटपट अपने कुटुम्बके साथ आसनसे उठकर भगवान्के चरणोंमें प्रणाम किया ||३५||
तयोः समानीय वरासनं मुदा निविष्टयोस्तत्र महात्मनोस्तयोः
दधार पादाववनिज्य तज्जलं सवृन्द आब्रह्म पुनद्यदम्बु ह ३६
अत्यन्त आनन्दसे भरकर दैत्यराज बलिने भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजीको श्रेष्ठ आसन दिया और जब वे दोनों महापुरुष उसपर विराज गये, तब उन्होंने उनके पाँव पखारकर उनका चरणोदक परिवारसहित अपने सिरपर धारण किया। परीक्षित्! भगवान्के चरणोंका जल ब्रह्मापर्यन्त सारे जगत्को पवित्र कर देता है ।।३६||
समर्हयामास स तौ विभूतिभिर्महार्हवस्त्राभरणानुलेपनैः
ताम्बूलदीपामृतभक्षणादिभिः स्वगोत्रवित्तात्मसमर्पणेन च ३७
इसके बाद दैत्यराज बलिने बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, चन्दन, ताम्बूल, दीपक, अमृतके समान भोजन एवं अन्य विविध सामग्रियोंसे उनकी पूजा की और अपने समस्त परिवार, धन तथा शरीर आदिको उनके चरणोंमें समर्पित कर दिया ।।३७।।
स इन्द्रसेनो भगवत्पदाम्बुजं बिभ्रन्मुहुः प्रेमविभिन्नया धिया
उवाच हानन्दजलाकुलेक्षणः प्रहृष्टरोमा नृप गद्गदाक्षरम् ३८
परीक्षित्! दैत्यराज बलि बार-बार भगवान्के चरणकमलोंको अपने वक्षःस्थल और सिरपर रखने लगे, उनका हृदय प्रेमसे विह्वल हो गया। नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहने लगे। रोम-रोम खिल उठा। अब वे गद्गद स्वरसे भगवान्की स्तुति करने लगे ।।३८।।
बलिरुवाच
नमोऽनन्ताय बृहते नमः कृष्णाय वेधसे
साङ्ख्ययोगवितानाय ब्रह्मणे परमात्मने ३९
दैत्यराज बलिने कहा-बलरामजी! आप अनन्त हैं। आप इतने महान् हैं कि शेष आदि – सभी विग्रह आपके अन्तर्भूत हैं। सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप सकल जगत्के निर्माता हैं। ज्ञानयोग और भक्तियोग दोनोंके प्रवर्तक आप ही हैं। आप स्वयं ही परब्रह्म परमात्मा हैं। हम आप दोनोंको बार-बार नमस्कार करते हैं ||३९।।
दर्शनं वां हि भूतानां दुष्प्रापं चाप्यदुर्लभम्
रजस्तमः स्वभावानां यन्नः प्राप्तौ यदृच्छया ४०
दैत्यदानवगन्धर्वाः सिद्धविद्याध्रचारणाः
यक्षरक्षः पिशाचाश्च भूतप्रमथनायकाः ४१
विशुद्धसत्त्वधाम्न्यद्धा त्वयि शास्त्रशरीरिणि
नित्यं निबद्धवैरास्ते वयं चान्ये च तादृशाः ४२
केचनोद्बद्धवैरेण भक्त्या केचन कामतः
न तथा सत्त्वसंरब्धाः सन्निकृष्टाः सुरादयः ४३
भगवन्! आप दोनोंका दर्शन प्राणियोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ है। फिर भी आपकी कृपासे वह सुलभ हो जाता है। क्योंकि आज आपने कृपा करके हम रजोगुणी एवं तमोगुणी स्वभाववाले दैत्योंको भी दर्शन दिया है
प्रभो! हम और हमारे ही समान दूसरे दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, चारण, यक्ष, राक्षस, पिशाच, भूत और प्रमथनायक आदि आपका प्रेमसे भजन करना तो दूर रहा, आपसे सर्वदा दृढ़ वैरभाव रखते हैं; परन्तु आपका श्रीविग्रह साक्षात् वेदमय और विशुद्ध सत्त्वस्वरूप है। इसलिये हमलोगोंमेंसे बहुतोंने दृढ़ वैरभावसे, कुछने भक्तिसे और कुछने कामनासे आपका स्मरण करके उस पदको प्राप्त किया है, जिसे आपके समीप रहनेवाले
सत्त्वप्रधान देवता भी नहीं प्राप्त कर सकते ।।४०-४३।।
इदमित्थमिति प्रायस्तव योगेश्वरेश्वर
न विदन्त्यपि योगेशा योगमायां कुतो वयम् ४४
योगेश्वरोंके अधीश्वर! बड़े-बड़े योगेश्वर भी प्रायः यह बात नहीं जानते कि आपकी योगमाया यह है और ऐसी है; फिर हमारी तो बात ही क्या है? ||४४।।
तन्नः प्रसीद निरपेक्षविमृग्ययुष्मत्
पादारविन्दधिषणान्यगृहान्धकूपात्
निष्क्रम्य विश्वशरणाङ्घ्र्युपलब्धवृत्तिः
शान्तो यथैक उत सर्वसखैश्चरामि ४५
इसलिये स्वामी! मुझपर ऐसी कृपा कीजिये कि मेरी चित्त-वृत्ति आपके उन चरणकमलोंमें लग जाय, जिसे किसीकी अपेक्षा न रखनेवाले परमहंस लोग ढूँढ़ा करते हैं; और उनका आश्रय लेकर मैं उससे भिन्न इस घर-गृहस्थीके अँधेरे कूएँसे निकल जाऊँ। प्रभो! इस प्रकार आपके उन चरणकमलोंकी, जो सारे जगतके एकमात्र आश्रय हैं,
शरण लेकर शान्त हो जाऊँ और अकेला ही विचरण करूँ। यदि कभी किसीका संग करना ही पड़े तो सबके परम हितैषी संतोंका ही ।।४५||
शाध्यस्मानीशितव्येश निष्पापान्कुरु नः प्रभो
पुमान्यच्छ्रद्धयातिष्ठंश्चोदनाया विमुच्यते ४६
प्रभो! आप समस्त चराचर जगत्के नियन्ताऔर स्वामी हैं। आप हमें आज्ञा देकर निष्पाप बनाइये, हमारे पापोंका नाश कर दीजिये; क्योंकि जो पुरुष श्रद्धाके साथ आपकी आज्ञाका पालन करता है, वह विधि-निषेधके बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।।४६।।
श्रीभगवानुवाच
आसन्मरीचेः षट्पुत्रा ऊर्णायां प्रथमेऽन्तरे
देवाः कं जहसुर्वीक्ष्य सुतं यभितुमुद्यतम् ४७
भगवान् श्रीकृष्णने कहा-‘दैत्यराज! स्वायम्भुव मन्वन्तरमें प्रजापति मरीचिकी पत्नी ऊर्णाके गर्भसे छः पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे सभी देवता थे। वे यह देखकर कि ब्रह्माजी अपनीपुत्रीसे समागम करनेके लिये उद्यत हैं, हँसने लगे ।।४७।।
तेनासुरीमगन्योनिमधुनावद्यकर्मणा
हिरण्यकशिपोर्जाता नीतास्ते योगमायया ४८
देवक्या उदरे जाता राजन्कंसविहिंसिताः
सा तान्शोचत्यात्मजान्स्वांस्त इमेऽध्यासतेऽन्तिके ४९
इस परिहासरूप अपराधके कारण उन्हें ब्रह्माजीने शाप दे दिया और वे असुर-योनिमें हिरण्यकशिपुके पुत्ररूपसे उत्पन्न हुए। अब योगमायाने उन्हें वहाँसे लाकर देवकीके गर्भमें रख दिया और उनको उत्पन्न होते ही कंसने मार डाला। दैत्यराज! माता देवकीजी अपने उन पुत्रोंके लिये अत्यन्त शोकातुर हो रही हैं और वे तुम्हारे पास हैं ।।४८-४९।।
इत एतान्प्रणेष्यामो मातृशोकापनुत्तये
ततः शापाद्विनिर्मुक्ता लोकं यास्यन्ति विज्वराः ५०
अतः हम अपनी माताका शोक दूर करनेके लिये इन्हें यहाँसे ले जायँगे। इसके बाद ये शापसे मुक्त हो जायँगे और आनन्दपूर्वक अपने लोकमें चले जायँगे ||५०||
स्मरोद्गीथः परिष्वङ्गः पतङ्गः क्षुद्रभृद्घृणी
षडिमे मत्प्रसादेन पुनर्यास्यन्ति सद्गतिम् ५१
इनके छः नाम हैं-स्मर, उद्गीथ, परिष्वंग, पतंग, क्षुद्रभृत् और घृणि। इन्हें मेरी कपासे पुनः सदगति प्राप्त होगी’ ||५१||
इत्युक्त्वा तान्समादाय इन्द्रसेनेन पूजितौ
पुनर्द्वारवतीमेत्य मातुः पुत्रानयच्छताम् ५२
परीक्षित्! इतना कहकर भगवान् श्रीकृष्ण चुप हो गये। दैत्यराज बलिने उनकी पूजा की; इसके बाद श्रीकृष्ण और बलरामजी बालकोंको लेकर फिर द्वारका लौट आये तथा माता देवकीको उनके पुत्र सौंप दिये ||५२||
तान्दृष्ट्वा बालकान्देवी पुत्रस्नेहस्नुतस्तनी
परिष्वज्याङ्कमारोप्य मूर्ध्न्यजिघ्रदभीक्ष्णशः ५३
उन बालकोंको देखकर देवी देवकीके हृदयमें वात्सल्य-स्नेहकी बाढ़ आ गयी। उनके स्तनोंसे दूध बहने लगा। वे बार-बार उन्हें गोदमें लेकर छातीसे लगातीं और उनका सिर सँघतीं ।।५३।।
अपाययत्स्तनं प्रीता सुतस्पर्शपरिस्नुतम्
मोहिता मायया विष्णोर्यया सृष्टिः प्रवर्तते ५४
पुत्रोंके स्पर्शके आनन्दसे सराबोर एवं आनन्दित देवकीने उनको स्तन-पान कराया। वे विष्णुभगवान्की उस मायासे मोहित हो रही थीं, जिससे यह सृष्टि-चक्र चलता है ।।५४।।
पीत्वामृतं पयस्तस्याः पीतशेषं गदाभृतः
नारायणाङ्गसंस्पर्श प्रतिलब्धात्मदर्शनाः ५५
परीक्षित्! देवकीजीके स्तनोंका दूध साक्षात् अमृत था; क्यों न हो, भगवान् श्रीकृष्ण जो उसे पी चुके थे! उन बालकोंने वही अमृतमय दूध पिया। उस दूधके पीनेसे और भगवान् श्रीकृष्णके अंगोंका संस्पर्श होनेसे उन्हें आत्मसाक्षात्कार हो गया ||५५||
ते नमस्कृत्य गोविन्दं देवकीं पितरं बलम्
मिषतां सर्वभूतानां ययुर्धाम दिवौकसाम् ५६
इसके बाद उन लोगोंने भगवान् श्रीकृष्ण, माता देवकी, पिता वसुदेव और बलरामजीको नमस्कार किया। तदनन्तर सबके सामने ही वे देवलोकमें चले गये ||५६||
तं दृष्ट्वा देवकी देवी मृतागमननिर्गमम्
मेने सुविस्मिता मायां कृष्णस्य रचितां नृप ५७
परीक्षित! देवी देवकी यह देखकर अत्यन्त विस्मित हो गयीं कि मरे हुए बालक लौट आये और फिर चले भी गये। उन्होंने ऐसा निश्चय किया कि यह श्रीकृष्णका ही कोई लीला-कौशल है ।।५७।।
एवंविधान्यद्भुतानि कृष्णस्य परमात्मनः
वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य सन्त्यनन्तानि भारत ५८
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं परमात्मा हैं, उनकी शक्ति अनन्त है। उनके ऐसे-ऐसे अद्भुत चरित्र इतने हैं कि किसी प्रकार उनका पार नहीं पाया जा सकता ।।५८।।
श्रीसूत उवाच
य इदमनुशृणोति श्रावयेद्वा मुरारेश्
चरितममृतकीर्तेर्वर्णितं व्यासपुत्रैः
जगदघभिदलं तद्भक्तसत्कर्णपूरं
भगवति कृतचित्तो याति तत्क्षेमधाम ५९
सूतजी कहते हैं-शौनकादि ऋषियो! भगवान् श्रीकृष्णकी कीर्ति अमर है, अमृतमयी है। उनका चरित्र जगत्के समस्त पाप-तापोंको मिटानेवाला तथा भक्तजनोंके कर्णकहरोंमें आनन्दसुधा प्रवाहित करनेवाला है। इसका वर्णन स्वयं व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजीने किया है। जो इसका श्रवण करता है अथवा दूसरोंको सुनाता है, उसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति भगवान्में लग जाती है और वह उन्हींके परम कल्याणस्वरूप धामको प्राप्त होता है ।।५९।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे मृताग्रजानयनं नाम पञ्चाशीतितमोऽध्यायः
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