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श्रीमद् भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 11 अध्याय 10

Spread the Glory of Sri SitaRam!

10 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः १०
आत्मनः संसारबंधो देहाध्यासादस्तीति बोधनं
जगतोमिथ्यात्व निरूपणं च –
अथ दशमोऽध्यायः

मयोदितेष्ववहितः स्वधर्मेषु मदाश्रयः
वर्णाश्रमकुलाचारमकामात्मा समाचरेत् १

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-प्यारे उद्धव! साधकको चाहिये कि सब तरहसे मेरी शरणमें रहकर (गीता-पाञ्चरात्र आदिमें) मेरे द्वारा उपदिष्ट अपने धर्मोंका सावधानीसे पालन करे। साथ ही जहाँतक उनसे विरोध न हो वहाँतक निष्कामभावसे अपने वर्ण, आश्रम और कुलके अनुसार सदाचारका भी अनुष्ठान करे ||१||

अन्वीक्षेत विशुद्धात्मा देहिनां विषयात्मनाम्
गुणेषु तत्त्वध्यानेन सर्वारम्भविपर्ययम् २

निष्काम होनेका उपाय यह है कि स्वधर्मोंका पालन करनेसे शुद्ध हुए अपने चित्तमें यह विचार करे कि जगतके विषयी प्राणी शब्द, स्पर्श, रूप आदि विषयोंको सत्य समझकर उनकी प्राप्तिके लिये जो प्रयत्न करते हैं, उसमें उनका उद्देश्य तो यह होता है कि सुख मिले, परन्तु मिलता है दुःख ।।२।।

सुप्तस्य विषयालोको ध्यायतो वा मनोरथः
नानात्मकत्वाद्विफलस्तथा भेदात्मधीर्गुणैः ३

इसके सम्बन्धमें ऐसा विचार करना चाहिये कि स्वप्न-अवस्थामें और मनोरथ करते समय जाग्रत् अवस्थामें भी मनुष्य मन-ही-मन अनेकों प्रकारके विषयोंका अनुभव करता है, परन्तु उसकी वह सारी कल्पना वस्तुशून्य होनेके कारण व्यर्थ है। वैसे ही इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाली भेदबुद्धि भी व्यर्थ ही है, क्योंकि यह भी इन्द्रियजन्य और नाना वस्तुविषयक होनेके कारण पूर्ववत् असत्य ही है ||३||

निवृत्तं कर्म सेवेत प्रवृत्तं मत्परस्त्यजेत्
जिज्ञासायां सम्प्रवृत्तो नाद्रियेत्कर्मचोदनाम् ४

जो पुरुष मेरी शरण में है, उसे अन्तर्मुख करनेवाले निष्काम अथवा नित्यकर्म ही करने चाहिये। उन कर्मोंका बिलकुल परित्याग कर देना चाहिये जो बहिर्मुख बनानेवाले अथवा सकाम हों। जब आत्मज्ञानकी उत्कट इच्छा जाग उठे, तब तो कर्मसम्बन्धी विधि-विधानोंका भी आदर नहीं करना चाहिये ।।४।।

यमानभीक्ष्णं सेवेत नियमान्मत्परः क्वचित्
मदभिज्ञं गुरुं शान्तमुपासीत मदात्मकम् ५

अहिंसा आदि यमोंका तो आदरपूर्वक सेवन करना चाहिये, परन्तु शौच (पवित्रता) आदि नियमोंका पालन शक्तिके अनुसार और आत्मज्ञानके विरोधी न होनेपर ही करना चाहिये। जिज्ञासु पुरुषके लिये यम और नियमोंके पालनसे भी बढ़कर आवश्यक बात यह है कि वह अपने गुरुकी, जो मेरे स्वरूपको जाननेवाले और शान्त हों, मेरा ही स्वरूप समझकर सेवा करे ||५||

अमान्यमत्सरो दक्षो निर्ममो दृढसौहृदः
असत्वरोऽर्थजिज्ञासुरनसूयुरमोघवाक् ६

शिष्यको अभिमान न करना चाहिये। वह कभी किसीसे डाह न करे-किसीका बुरा न सोचे। वह प्रत्येक कार्यमें कुशल हो–उसे आलस्य छु न जाय। उसे कहीं भी ममता न हो, गुरुके चरणोंमें दृढ़ अनुराग हो। कोई काम हड़बड़ाकर न करे—उसे सावधानीसे पूरा करे। सदा परमार्थके सम्बन्धमें ज्ञानप्राप्त करनेकी इच्छा बनाये रखे। किसीके गुणोंमें दोष न निकाले और व्यर्थकी बात न करे ||६||

जायापत्यगृहक्षेत्र स्वजनद्रविणादिषु
उदासीनः समं पश्यन्सर्वेष्वर्थमिवात्मनः ७

जिज्ञासुका परम धन है आत्मा; इसलिये वह स्त्री-पुत्र, घर-खेत, स्वजन और धन आदि सम्पूर्ण पदार्थों में एक सम आत्माको देखे और किसीमें कुछ विशेषताका आरोप करके उससे ममता न करे, उदासीन रहे ।।७।।

विलक्षणः स्थूलसूक्ष्माद्देहादात्मेक्षिता स्वदृक्
यथाग्निर्दारुणो दाह्याद्दाहकोऽन्यः प्रकाशकः ८

उद्धव! जैसे जलनेवाली लकड़ीसे उसे जलाने और प्रकाशित करनेवाली आग सर्वथा अलग है। ठीक वैसे ही विचार करनेपर जान पड़ता है कि पञ्चभूतोंका बना स्थूलशरीर और मन-बुद्धि आदि सत्रह तत्त्वोंका बना सूक्ष्मशरीर दोनों ही दृश्य और जड हैं। तथा उनको जानने और प्रकाशित करनेवाला आत्मा साक्षी एवं स्वयंप्रकाश है। शरीर अनित्य, अनेक एवं जड हैं। आत्मा नित्य, एक एवं चेतन है। इस प्रकार देहकी अपेक्षा आत्मामें महान् विलक्षणता है। अतएव देहसे आत्मा भिन्न है ।।८।।

निरोधोत्पत्त्यणुबृहन्नानात्वं तत्कृतान्गुणान्
अन्तः प्रविष्ट आधत्त एवं देहगुणान्परः ९

जब आग लकड़ीमें प्रज्वलित होती है, तब लकड़ीके उत्पत्ति-विनाश, बडाई-छोटाई और अनेकता आदि सभी गुण वह स्वयं ग्रहण कर लेती है। परन्तु सच पूछो, तो लकड़ीके उन गुणोंसे आगका कोई सम्बन्ध नहीं है। वैसे ही जब आत्मा अपनेको शरीर मान लेता है तब वह देहके जडता, अनित्यता, स्थूलता, अनेकता आदि गुणोंसे सर्वथा रहित होनेपर भी उनसे युक्त जान पड़ता है ।।९।।

योऽसौ गुणैर्विरचितो देहोऽयं पुरुषस्य हि
संसारस्तन्निबन्धोऽयं पुंसो विद्याच्छिदात्मनः १०

ईश्वरके द्वारा नियन्त्रित मायाके गुणोंने ही सूक्ष्म और स्थूलशरीरका निर्माण किया है। जीवको शरीर और शरीरको जीव समझ लेनेके कारण ही स्थूलशरीरके जन्म-मरण और सूक्ष्मशरीरके आवागमनका आत्मापर आरोप किया जाता है। जीवको जन्म-मृत्युरूप संसार इसी भ्रम अथवा अध्यासके कारण प्राप्त होता है। आत्माके स्वरूपका ज्ञान होनेपर उसकी जड़ कट जाती है ||१०||

तस्माज्जिज्ञासयात्मानमात्मस्थं केवलं परम्
सङ्गम्य निरसेदेतद्वस्तुबुद्धिं यथाक्रमम् ११

प्यारे उद्धव! इस जन्म-मृत्युरूप संसारका कोई दूसरा कारण नहीं, केवल अज्ञान ही मूल कारण है। इसलिये अपने वास्तविक स्वरूपको, आत्माको जाननेकी इच्छा करनी चाहिये। अपना यह वास्तविक स्वरूप समस्त प्रकृति और प्राकृत जगत्से अतीत, द्वैतकी गन्धसे रहित एवं अपने-आपमें ही स्थित है। उसका और कोई आधार नहीं है। उसे जानकर धीरे-धीरे स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर आदिमें जो सत्यत्वबुद्धि हो रही है उसे क्रमशः मिटा देना चाहिये ।।११।।

आचार्योऽरणिराद्यः स्यादन्तेवास्युत्तरारणिः
तत्सन्धानं प्रवचनं विद्यासन्धिः सुखावहः १२

वैशारदी सातिविशुद्धबुद्धिर्धुनोति मायां गुणसम्प्रसूताम्
गुणांश्च सन्दह्य यदात्ममेतत्स्वयं च शाम्यत्यसमिद् यथाग्निः १३

(यज्ञमें जब अरणिमन्थन करके अग्नि उत्पन्न करते हैं, तो उसमें नीचे-ऊपर दो लकड़ियाँ रहती हैं और बीचमें मन्थनकाष्ठ रहता है; वैसे ही) विद्यारूप अग्निकी उत्पत्तिके लिये आचार्य और शिष्य तो नीचे-ऊपरकी अरणियाँ हैं तथा उपदेश मन्थनकाष्ठ है। इनसे जो ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है वह विलक्षण सुख देनेवाली है। इस यज्ञमें बुद्धिमान् शिष्य सद्गुरुके द्वारा जो अत्यन्त विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करता है, वह गुणोंसे बनी हुई विषयोंकी मायाको भस्म कर देता है। तत्पश्चात् वे गुण भी भस्म हो जाते हैं, जिनसे कि यह संसार बना हआ है। इस प्रकार सबके भस्म हो जानेपर जब आत्माके अतिरिक्त और कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती, तब वह ज्ञानाग्नि भी ठीक वैसे ही अपने वास्तविक स्वरूपमें शान्त हो जाती है, जैसे समिधा न रहनेपर आग बुझ जाती है ।।१२-१३।।

अथैषां कर्मकर्तॄणां भोक्तॄणां सुखदुःखयोः
नानात्वमथ नित्यत्वं लोककालागमात्मनाम् १४

मन्यसे सर्वभावानां संस्था ह्यौत्पत्तिकी यथा
तत्तदाकृतिभेदेन जायते भिद्यते च धीः १५

एवमप्यङ्ग सर्वेषां देहिनां देहयोगतः
कालावयवतः सन्ति भावा जन्मादयोऽसकृत् १६

तत्रापि कर्मणां कर्तुरस्वातन्त्र्यं च लक्ष्यते
भोक्तुश्च दुःखसुखयोः को न्वर्थो विवशं भजेत् १७

प्यारे उद्धव! यदि तुम कदाचित् कर्मोंके कर्ता और सुख-दुखोंके भोक्ता जीवोंको अनेक तथा जगत्, काल, वेद और आत्माओंको नित्य मानते हो; साथ ही समस्त पदार्थों की स्थिति प्रवाहसे नित्य और यथार्थ स्वीकार करते हो तथा यह समझते हो कि घट-पट आदि बाह्य आकृतियोंके भेदसे उनके अनुसार ज्ञान ही उत्पन्न होता और बदलता रहता है; तो ऐसे मतके माननेसे बड़ा अनर्थ हो जायगा। (क्योंकि इस प्रकार जगत्के कर्ता आत्माकी नित्य सत्ता और जन्म-मृत्युके चक्करसे मुक्ति भी सिद्ध न हो सकेगी।) यदि कदाचित् ऐसा स्वीकार भी कर लिया जाय तो देह और संवत्सरादि कालावयवोंके सम्बन्धसे होनेवाली जीवोंकी जन्म-मरण आदि अवस्थाएँ भी नित्य होनेके कारण दूर न हो सकेंगी; क्योंकि तुम देहादि पदार्थ और कालकी नित्यता स्वीकार करते हो। इसके सिवा, यहाँ भी कर्मोंका कर्ता तथा सुख-दुःखका भोक्ता जीव परतन्त्र ही दिखायी देता है; यदि वह स्वतन्त्र हो तो दुःखका फल क्यों भोगना चाहेगा? इस प्रकार सुख-भोगकी समस्या सुलझ जानेपर भी दुःख-भोगकी समस्या तो उलझी ही रहेगी। अतः इस मतके अनुसार जीवको कभी मुक्ति या स्वतन्त्रता प्राप्त न हो सकेगी। जब जीव स्वरूपतः परतन्त्र है, विवश है, तब तो स्वार्थ या परमार्थ कोई भी उसका सेवन न करेगा। अर्थात वह स्वार्थ और परमार्थ दोनोंसे ही वञ्चित रह जायगा ||१४-१७||

न देहिनां सुखं किञ्चिद्विद्यते विदुषामपि
तथा च दुःखं मूढानां वृथाहङ्करणं परम् १८

(यदि यह कहा जाय कि जो भलीभाँति कर्म करना जानते हैं, वे सुखी रहते हैं, और जो नहीं जानते उन्हें दुःख भोगना पड़ता है तो यह कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि) ऐसा देखा जाता है कि बड़े-बड़े कर्मकुशल विद्वानोंको भी कुछ सुख नहीं मिलता और मूढोंका भी कभी दुःखसे पाला नहीं पड़ता। इसलिये जो लोग अपनी बुद्धि या कर्मसे सुख पानेका घमंड करते हैं, उनका वह अभिमान व्यर्थ है ।।१८।।

यदि प्राप्तिं विघातं च जानन्ति सुखदुःखयोः
तेऽप्यद्धा न विदुर्योगं मृत्युर्न प्रभवेद्यथा १९

यदि यह स्वीकार कर लिया जाय कि वे लोग सुखकी प्राप्ति और दुःखके नाशका ठीक-ठीक उपाय जानते हैं, तो भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि उन्हें भी ऐसे उपायका पता नहीं है, जिससे मृत्यु उनके ऊपर कोई प्रभाव न डाल सके और वे कभी मरें ही नहीं ||१९||

कोऽन्वर्थः सुखयत्येनं कामो वा मृत्युरन्तिके
आघातं नीयमानस्य वध्यस्येव न तुष्टिदः २०

जब मृत्यु उनके सिरपर नाच रही है तब ऐसी कौन-सी भोगसामग्री या भोग-कामना है जो उन्हें सुखी कर सके? भला, जिस मनुष्यको फाँसीपर लटकानेके लिये वधस्थानपर ले जाया जा रहा है, उसे क्या फूल-चन्दन-स्त्री आदि पदार्थ सन्तुष्ट कर सकते हैं? कदापि नहीं। (अतः पूर्वोक्त मत माननेवालोंकी दृष्टिसे न सुख ही सिद्ध होगा और न जीवका कुछ पुरुषार्थ ही रहेगा) ।।२०।।

श्रुतं च दृष्टवद्दुष्टं स्पर्धासूयात्ययव्ययैः
बह्वन्तरायकामत्वात्कृषिवच्चापि निष्फलम् २१

प्यारे उद्धव! लौकिक सुखके समान पार-लौकिक सुख भी दोषयुक्त ही है; क्योंकि वहाँ भी बराबरीवालोंसे होड चलती है, अधिक सुख भोगने-वालोंके प्रति असया होती है उनके गुणोंमें दोष निकाला जाता है और छोटोंसे घृणा होती है। प्रतिदिन पुण्य क्षीण होनेके साथ ही वहाँके सुख भी क्षयके निकट पहुँचते रहते हैं और एक दिन नष्ट हो जाते हैं। वहाँकी कामना पूर्ण होनेमें भी यजमान, ऋत्विज और कर्म आदिकी त्रुटियोंके कारण बड़े-बड़े विघ्नोंकी सम्भावना रहती है। जैसे हरी-भरी खेती भी अतिवृष्टि-अनावृष्टि आदिके कारण नष्ट हो जाती है, वैसे ही स्वर्ग भी प्राप्त होते-होते विघ्नोंके कारण नहीं मिल पाता ||२१||

अन्तरायैरविहितो यदि धर्मः स्वनुष्ठितः
तेनापि निर्जितं स्थानं यथा गच्छति तच्छृणु २२

यदि यज्ञ-यागादि धर्म बिना किसी विघ्नके पूरा हो जाय तो उसके द्वारा जो स्वर्गादि लोक मिलते हैं, उनकी प्राप्तिका प्रकार मैं बतलाता हूँ, सुनो ।।२२।।

इष्ट्वेह देवता यज्ञैः स्वर्लोकं याति याज्ञिकः
भुञ्जीत देववत्तत्र भोगान्दिव्यान्निजार्जितान् २३

यज्ञ करनेवाला पुरुष यज्ञोंके द्वारा देवताओंकी आराधना करके स्वर्गमें जाता है और वहाँ अपने पुण्यकर्मोंके द्वारा उपार्जित दिव्य भोगोंको देवताओंके समान भोगता है ।।२३।।

स्वपुण्योपचिते शुभ्रे विमान उपगीयते
गन्धर्वैर्विहरन्मध्ये देवीनां हृद्यवेषधृक् २४

उसे उसके पुण्योंके अनुसार एक चमकीला विमान मिलता है और वह उसपर सवार होकर सुर-सुन्दरियोंके साथ विहार करता है। गन्धर्वगण उसके गुणोंका गान करते हैं और उसके रूप-लावण्यको देखकर दूसरोंका मन लुभा जाता है ।।२४।।

स्त्रीभिः कामगयानेन किङ्किणीजालमालिना
क्रीडन्न वेदात्मपातं सुराक्रीडेषु निर्वृतः २५

उसका विमान वह जहाँ ले जाना चाहता है, वहीं चला जाता है और उसकी घंटियाँ घनघनाकर दिशाओंको गंजारित करती हैं। वह अप्सराओंके साथ नन्दनवन आदि देवताओंकी विहार-स्थलियोंमें क्रीड़ाएँ करते-करते इतना बेसुध हो जाता है कि उसे इस बातका पता ही नहीं चलता कि अब मेरे पुण्य समाप्त हो जायँगे और मैं यहाँसे ढकेल दिया जाऊँगा ||२५||

तावत्स मोदते स्वर्गे यावत्पुण्यं समाप्यते
क्षीणपुण्यः पतत्यर्वागनिच्छन्कालचालितः २६

जबतक उसके पुण्य शेष रहते हैं, तबतक वह स्वर्गमें चैनकी वंशी बजाता रहता है; परन्तु पुण्य क्षीण होते ही इच्छा न रहनेपर भी उसे नीचे गिरना पड़ता है, क्योंकि कालकी चाल ही ऐसी है ।।२६।।

यद्यधर्मरतः सङ्गादसतां वाजितेन्द्रियः
कामात्मा कृपणो लुब्धः स्त्रैणो भूतविहिंसकः २७

पशूनविधिनालभ्य प्रेतभूतगणान्यजन्
नरकानवशो जन्तुर्गत्वा यात्युल्बणं तमः २८

यदि कोई मनुष्य दुष्टोंकी संगतिमें पड़कर अधर्म-परायण हो जाय, अपनी इन्द्रियोंके वशमें होकर मनमानी करने लगे, लोभवश दाने-दानेमें कृपणता करने लगे, लम्पट हो जाय अथवा प्राणियोंको सताने लगे और विधि-विरुद्ध पशुओंकी बलि देकर भूत और प्रेतोंकी उपासनामें लग जाय, तब तो वह पशुओंसे भी गया-बीता हो जाता है और अवश्य ही नरकमें जाता है। उसे अन्तमें घोर अन्धकार, स्वार्थ और परमार्थसे रहित अज्ञानमें ही भटकना पड़ता है ।।२७-२८।।

कर्माणि दुःखोदर्काणि कुर्वन्देहेन तैः पुनः
देहमाभजते तत्र किं सुखं मर्त्यधर्मिणः २९

जितने भी सकाम और बहिर्मुख करनेवाले कर्म हैं, उनका फल दुःख ही है। जो जीव शरीरमें अहंता-ममता करके उन्हींमें लग जाता है, उसे बार-बार जन्म-पर-जन्म और मत्यु-पर-मृत्यु प्राप्त होती रहती है। ऐसी स्थितिमें मृत्युधर्मा जीवको क्या सुख हो सकता है? ||२९||

लोकानां लोकपालानां मद्भयं कल्पजीविनाम्
ब्रह्मणोऽपि भयं मत्तो द्विपरार्धपरायुषः ३०

सारे लोक और लोकपालोंकी आयु भी केवल एक कल्प है, इसलिये मुझसे भयभीत रहते हैं। औरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मा भी मुझसे भयभीत रहते हैं; क्योंकि उनकी आयु भी कालसे सीमित-केवल दो परार्द्ध है ।।३०।।

गुणाः सृजन्ति कर्माणि गुणोऽनुसृजते गुणान्
जीवस्तु गुणसंयुक्तो भुङ्क्ते कर्मफलान्यसौ ३१

सत्त्व, रज और तम-ये तीनों गुण – इन्द्रियोंको उनके कर्मोंमें प्रेरित करते हैं और इन्द्रियाँ कर्म करती हैं। जीव अज्ञानवश सत्त्व, रज आदि गुणों और इन्द्रियोंको अपना स्वरूप मान बैठता है और उनके किये हुए कर्मोंका फल सुख-दुःख भोगने लगता है ।।३१।।

यावत्स्याद्गुणवैषम्यं तावन्नानात्वमात्मनः
नानात्वमात्मनो यावत्पारतन्त्र्यं तदैव हि ३२

जबतक गुणोंकी विषमता है अर्थात् शरीरादिमें मैंऔर मेरेपनका अभिमान है; तभीतक आत्माके एकत्वकी अनुभूति नहीं होती-वह अनेक जान पड़ता है; और जबतक आत्माकी अनेकता है, तबतक तो उन्हें काल अथवा कर्म किसीके अधीन रहना ही पड़ेगा ||३२||

यावदस्यास्वतन्त्रत्वं तावदीश्वरतो भयम्
य एतत्समुपासीरंस्ते मुह्यन्ति शुचार्पिताः ३३

जबतक परतन्त्रता है, तबतक ईश्वरसे भय बना ही रहता है। जो मैं और मेरेपनके भावसे ग्रस्त रहकर आत्माकी अनेकता, परतन्त्रता आदि मानते हैं और वैराग्य न ग्रहण करके बहिर्मुख करनेवाले कर्मोंका ही सेवन करते रहते हैं, उन्हें शोक और मोहकी प्राप्ति होती है ।।३३।।

काल आत्मागमो लोकः स्वभावो धर्म एव च
इति मां बहुधा प्राहुर्गुणव्यतिकरे सति ३४

प्यारे उद्धव! जब मायाके गुणोंमें क्षोभ होता है, तब मुझ आत्माको ही काल, जीव, वेद, लोक, स्वभाव और धर्म आदि अनेक नामोंसे निरूपण करने लगते हैं। (ये सब मायामय हैं। वास्तविक सत्य मैं आत्मा ही हूँ) ||३४।।

श्रीउद्धव उवाच
गुणेषु वर्तमानोऽपि देहजेष्वनपावृतः
गुणैर्न बध्यते देही बध्यते वा कथं विभो ३५

उद्धवजीने पूछा-भगवन्! यह जीव देह आदि रूप गुणोंमें ही रह रहा है। फिर देहसे होनेवाले कर्मों या सुख-दुःख आदि रूप फलोंमें क्यों नहीं बँधता है? अथवा यह आत्मा गुणोंसे निर्लिप्त है, देह आदिके सम्पर्कसे सर्वथा रहित है, फिर इसे बन्धनकी प्राप्ति कैसे होती है? ||३५||

कथं वर्तेत विहरेत्कैर्वा ज्ञायेत लक्षणैः
किं भुञ्जीतोत विसृजेच्छयीतासीत याति वा ३६

बद्ध अथवा मुक्त पुरुष कैसा बर्ताव करता है, वह कैसे विहार करता है, या वह किन लक्षणोंसे पहचाना जाता है, कैसे भोजन करता है? और मल-त्याग आदि कैसे करता है? कैसे सोता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? ||३६।।

एतदच्युत मे ब्रूहि प्रश्नं प्रश्नविदां वर
नित्यबद्धो नित्यमुक्त एक एवेति मे भ्रमः ३७

अच्युत! प्रश्नका मर्मजाननेवालोंमें आप श्रेष्ठ हैं। इसलिये आप मेरे इस प्रश्नका उत्तर दीजिये-एक ही आत्मा अनादि गुणोंके संसर्गसे नित्यबद्ध भी मालूम पड़ता है और असंग होनेके कारण नित्यमुक्त भी। इस बातको लेकर मुझे भ्रम हो रहा है ।।३७।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे भगवदुद्धवसंवादे दशमोऽध्यायः


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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