श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 11 अध्याय 15
15 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः १५
अष्टादशसिद्धिवर्णनम् –
श्रीभगवानुवाच।
जितेन्द्रियस्य युक्तस्य जितश्वासस्य योगिनः।
मयि धारयतश्चेत उपतिष्ठन्ति सिद्धयः १।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-प्रिय उद्धव! जब साधक इन्द्रिय, प्राण और मनको अपने वशमें करके अपना चित्त मुझमें लगाने लगता है, मेरी धारणा करने लगता है, तब उसके सामने बहुत-सी सिद्धियाँ उपस्थित होती हैं ।।१।।
श्रीउद्धव उवाच।
कया धारणया का स्वित्कथं वा सिद्धिरच्युत।
कति वा सिद्धयो ब्रूहि योगिनां सिद्धिदो भवान् २।
उद्धवजीने कहा-अच्युत! कौन-सी धारणा करनेसे किस प्रकार कौन-सी सिद्धि प्राप्त होती है और उनकी संख्या कितनी है, आप ही योगियोंको सिद्धियाँ देते हैं, अतः आप इनका वर्णन कीजिये ।।२।।
श्रीभगवानुवाच।
सिद्धयोऽष्टादश प्रोक्ता धारणा योगपारगैः।
तासामष्टौ मत्प्रधाना दशैव गुणहेतवः ३।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव! धारणायोगके पारगामी योगियोंने अठारह प्रकारकी सिद्धियाँ बतलायी हैं। उनमें आठ सिद्धियाँ तो प्रधानरूपसे मुझमें ही रहती हैं और दूसरोंमें न्यून; तथा दस सत्त्वगुणके विकाससे भी मिल जाती हैं ।।३।।
अणिमा महिमा मूर्तेर्लघिमा प्राप्तिरिन्द्रियैः।
प्राकाम्यं श्रुतदृष्टेषु शक्तिप्रेरणमीशिता ४।
उनमें तीन सिद्धियाँ तो शरीरकी हैं—’अणिमा’, ‘महिमा’ और ‘लघिमा’। इन्द्रियोंकी एक सिद्धि है-‘प्राप्ति’। लौकिक और पारलौकिक पदार्थोंका इच्छानुसार अनुभव करनेवाली सिद्धि ‘प्राकाम्य’ है। माया और उसके कार्योंको इच्छानुसार संचालित करना ‘ईशिता’ नामकी सिद्धि है ।।४।।
गुणेष्वसङ्गो वशिता यत्कामस्तदवस्यति।
एता मे सिद्धयः सौम्य अष्टावौत्पत्तिका मताः ५।
विषयोंमें रहकर भी उनमें आसक्त न होना ‘वशिता’ है और जिस-जिस सुखकी कामना करे, उसकी सीमातक पहुँच जाना ‘कामावसायिता’ नामकी आठवीं सिद्धि है। ये आठों सिद्धियाँ मुझमें स्वभावसे ही रहती हैं और जिन्हें मैं देता हूँ, उन्हींको अंशतः प्राप्त होती हैं ।।५।।
अनूर्मिमत्त्वं देहेऽस्मिन्दूरश्रवणदर्शनम्।
मनोजवः कामरूपं परकायप्रवेशनम् ६।
स्वच्छन्दमृत्युर्देवानां सहक्रीडानुदर्शनम्।
यथासङ्कल्पसंसिद्धिराज्ञाप्रतिहता गतिः ७।
इनके अतिरिक्त और भी कई सिद्धियाँ हैं। शरीरमें भूख-प्यास आदि वेगोंका न होना, बहुत दूरकी वस्तु देख लेना और बहुत दूरकी बात सुन लेना, मनके साथ ही शरीरका उस स्थानपर पहँच जाना, जो इच्छा हो वही रूप बना लेना; दूसरे शरीरमें प्रवेश करना, जब इच्छा हो तभी शरीर छोडना, अप्सराओंके साथ होनेवाली देवक्रीडाका दर्शन, संकल्पकी सिद्धि, सब जगह सबके द्वारा बिना ननु-नचके आज्ञापालन-ये दस सिद्धियाँ सत्त्वगुणके विशेष विकाससे होतीहैं ।।६-७||
त्रिकालज्ञत्वमद्वन्द्वं परचित्ताद्यभिज्ञता।
अग्न्यर्काम्बुविषादीनां प्रतिष्टम्भोऽपराजयः ८।
भूत, भविष्य और वर्तमानकी बात जान लेना; शीत-उष्ण, सुख-दुःख और रागद्वेष आदि द्वन्द्वोंके वशमें न होना, दूसरेके मन आदिकी बात जान लेना; अग्नि, सूर्य, जल, विष आदिकी शक्तिको स्तम्भित कर देना और किसीसे भी पराजित न होना-ये पाँच सिद्धियाँ भी योगियोंको प्राप्त होती हैं ।।८।।
एताश्चोद्देशतः प्रोक्ता योगधारणसिद्धयः।
यया धारणया या स्याद्यथा वा स्यान्निबोध मे ९।
प्रिय उद्धव! योग-धारणा करनेसे जो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, उनका मैंने नाम-निर्देशके साथ वर्णन कर दिया। अब किस धारणासे कौन-सी सिद्धि कैसे प्राप्त होती है, यह बतलाता हूँ, सुनो ।।९।।
भूतसूक्ष्मात्मनि मयि तन्मात्रं धारयेन्मनः।
अणिमानमवाप्नोति तन्मात्रोपासको मम १०।
प्रिय उद्धव! पंचभूतोंकी सूक्ष्मतम मात्राएँ मेरा ही शरीर है। जो साधक केवल मेरे उसी शरीरकी उपासना करता है और अपने मनको तदाकार बनाकर उसीमें लगा देता है अर्थात् मेरे तन्मात्रात्मक शरीरके अतिरिक्त और किसी भी वस्तका चिन्तन नहीं करता, उसे ‘अणिमा’ नामकी सिद्धि अर्थात् पत्थरकी चट्टान आदिमें भी प्रवेश करनेकी शक्ति-अणुता प्राप्त हो जाती है ||१०||
महत्तत्त्वात्मनि मयि यथासंस्थं मनो दधत्।
महिमानमवाप्नोति भूतानां च पृथक्पृथक् ११।
महत्तत्त्वके रूपमें भी मैं ही प्रकाशित हो रहा हूँ और उस रूपमें समस्त व्यावहारिक ज्ञानोंका केन्द्र हूँ। जो मेरे उस रूपमें अपने मनको महत्तत्त्वाकार करके तन्मय कर देता है, उसे ‘महिमा’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है, और इसी प्रकार आकाशादि पंचभूतोंमें जो मेरे ही शरीर हैं—अलग-अलग मन लगानेसे उन-उनकी महत्ता प्राप्त होजाती है, यह भी ‘महिमा’ सिद्धिके ही अन्तर्गत है ।।११।।
परमाणुमये चित्तं भूतानां मयि रञ्जयन्।
कालसूक्ष्मार्थतां योगी लघिमानमवाप्नुयात् १२।
जो योगी वायु आदि चार भूतोंके परमाणुओंको मेरा ही रूप समझकर चित्तको तदाकार कर देता है, उसे ‘लघिमा’ सिद्धि प्राप्त हो जाती है-उसे परमाणुरूप कालके समान सूक्ष्म वस्तु बननेका सामर्थ्य प्राप्त हो जाता है ||१२||
धारयन्मय्यहंतत्त्वे मनो वैकारिकेऽखिलम्।
सर्वेन्द्रियाणामात्मत्वं प्राप्तिं प्राप्नोति मन्मनाः १३।
जो सात्त्विक अहंकारको मेरा स्वरूप समझकर मेरे उसी रूपमें चित्तकी धारणा करता है, वह समस्त इन्द्रियोंका अधिष्ठाता हो जाता है। मेरा चिन्तन करनेवाला भक्त इस प्रकार ‘प्राप्ति’ नामकी सिद्धि प्राप्त कर लेता है ||१३||
महत्यात्मनि यः सूत्रे धारयेन्मयि मानसम्।
प्राकाम्यं पारमेष्ठ्यं मे विन्दतेऽव्यक्तजन्मनः १४।
जो पुरुष मुझ महत्तत्त्वाभिमानी सूत्रात्मामें अपना चित्त स्थिर करता है, उसे मुझ अव्यक्तजन्मा (सूत्रात्मा) की ‘प्राकाम्य’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है जिससे इच्छानुसार सभी भोग प्राप्त हो जाते हैं ।।१४।।
विष्णौ त्र्यधीश्वरे चित्तं धारयेत्कालविग्रहे।
स ईशित्वमवाप्नोति क्षेत्रज्ञक्षेत्रचोदनाम् १५।
जो त्रिगुणमयी मायाके स्वामी मेरे काल-स्वरूप विश्वरूपकी धारणा करता है, वह शरीरों और जीवोंको अपने इच्छानुसार प्रेरित करनेकी सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। इस सिद्धिका नाम ‘ईशित्व’ है ।।१५।।
नारायणे तुरीयाख्ये भगवच्छब्दशब्दिते।
मनो मय्यादधद्योगी मद्धर्मा वशितामियात् १६।
जो योगी मेरे नारायण-स्वरूपमें जिसे तुरीय और भगवान् भी कहते हैं -मनको लगा देता है, मेरे स्वाभाविक गुण उसमें प्रकट होने लगते हैं और उसे ‘वशिता’ नामकी सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।।१६।।
निर्गुणे ब्रह्मणि मयि धारयन्विशदं मनः।
परमानन्दमाप्नोति यत्र कामोऽवसीयते १७।
निर्गुण ब्रह्म भी मैं ही हूँ। जो अपना निर्मल मन मेरे इस ब्रह्मस्वरूपमें स्थित कर लेता है, उसे परमानन्द-स्वरूपिणी ‘कामावसायिता’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है। इसके मिलनेपर उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं, समाप्त हो जाती हैं ||१७||
श्वेतद्वीपपतौ चित्तं शुद्धे धर्ममये मयि।
धारयञ्छ्वेततां याति षडूर्मिरहितो नरः १८।
प्रिय उद्धव! मेरा वह रूप, जो श्वेतद्वीपका स्वामी है, अत्यन्त शुद्ध और धर्ममय है। जो उसकी धारणा करता है, वह भूख-प्यास, जन्म-मृत्य और शोक-मोह-इन छ: ऊर्मियोंसे मुक्त हो जाता है और उसे शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति होती है ।।१८।।
मय्याकाशात्मनि प्राणे मनसा घोषमुद्वहन्।
तत्रोपलब्धा भूतानां हंसो वाचः शृणोत्यसौ १९।
मैं ही समष्टिप्राणरूप आकाशात्मा हूँ। जो मेरे इस स्वरूपमें मनके द्वारा अनाहत नादका चिन्तन करता है, वह ‘दूर श्रवण’ नामकी सिद्धिसे सम्पन्न हो जाता है और आकाशमें उपलब्ध होनेवाली विविध प्राणियोंकी बोली सुन-समझ सकता है ।।१९।।
चक्षुस्त्वष्टरि संयोज्य त्वष्टारमपि चक्षुषि।
मां तत्र मनसा ध्यायन्विश्वं पश्यति दूरतः २०।
जो योगी नेत्रोंको सूर्यमें और सूर्यको नेत्रोंमें संयुक्त कर देता है और दोनोंके संयोगमें मन-ही-मन मेरा ध्यान करता है, उसकी दृष्टि सूक्ष्म हो जाती है, उसे ‘दूरदर्शन’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है और वह सारे संसारको देख सकता है ||२०||
मनो मयि सुसंयोज्य देहं तदनुवायुना।
मद्धारणानुभावेन तत्रात्मा यत्र वै मनः २१।
मन और शरीरको प्राणवायूके सहित मेरे साथ संयुक्त कर दे और मेरी धारणा करे तो इससे ‘मनोजव’ नामकी सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इसके प्रभावसे वह योगी जहाँ भी जानेका संकल्प करता है, वहीं उसका शरीर उसी क्षण पहुँच जाता है ।।२१।।
यदा मन उपादाय यद्यद्रूपं बुभूषति।
तत्तद्भवेन्मनोरूपं मद्योगबलमाश्रयः २२।
जिस समय योगी मनको उपादान-कारण बनाकर किसी देवता आदिका रूप धारण करना चाहता है तो वह अपने मनके अनुकूल वैसा ही रूप धारण कर लेता है। इसका कारण यह है कि उसने अपने चित्तको मेरे साथ जोड़ दिया है ।।२२।।
परकायं विशन्सिद्ध आत्मानं तत्र भावयेत्।
पिण्डं हित्वा विशेत्प्राणो वायुभूतः षडङ्घ्रिवत् २३।
जो योगी दूसरे शरीरमें प्रवेश करना चाहे, वह ऐसी भावना करे कि मैं उसी शरीरमें हूँ। ऐसा करनेसे उसका प्राण वायुरूप धारण कर लेता है और वह एक फूलसे दूसरे फूलपर जानेवाले भौंरेके समान अपना शरीर छोड़कर दूसरे
शरीरमें प्रवेश कर जाता है ||२३||
पार्ष्ण्यापीड्य गुदं प्राणं हृदुरःकण्ठमूर्धसु।
आरोप्य ब्रह्मरन्ध्रेण ब्रह्म नीत्वोत्सृजेत्तनुम् २४।
योगीको यदि शरीरका परित्याग करना हो तो एडीसे गुदाद्वारको दबाकर प्राणवायुको क्रमशः हृदय, वक्षःस्थल, कण्ठ और मस्तकमें ले जाय। फिर ब्रह्मरन्ध्रके द्वारा उसे ब्रह्ममें लीन करके शरीरका परित्याग कर दे ||२४||
विहरिष्यन्सुराक्रीडे मत्स्थं सत्त्वं विभावयेत्।
विमानेनोपतिष्ठन्ति सत्त्ववृत्तीः सुरस्त्रियः २५।
यदि उसे देवताओंके विहारस्थलोंमें क्रीड़ा करनेकी इच्छा हो, तो मेरे शुद्ध सत्त्वमय स्वरूपकी भावनाकरे। ऐसा करनेसे सत्त्वगुणकी अंशस्वरूपा सुर-सुन्दरियाँ विमानपर चढ़कर उसके पास पहुँच जाती हैं ||२५||
यथा सङ्कल्पयेद्बुद्ध्या यदा वा मत्परः पुमान्।
मयि सत्ये मनो युञ्जंस्तथा तत्समुपाश्नुते २६।
जिस पुरुषने मेरे सत्यसंकल्पस्वरूपमें अपना चित्त स्थिर कर दिया है, उसीके ध्यानमें संलग्न है, वह अपने मनसे जिस समय जैसा संकल्प करता है, उसी समय उसका वह संकल्प सिद्ध हो जाता है ।।२६।।
यो वै मद्भावमापन्न ईशितुर्वशितुः पुमान्।
कुतश्चिन्न विहन्येत तस्य चाज्ञा यथा मम २७।
मैं ‘ईशित्व’ और ‘वशित्व’-इन दोनों सिद्धियोंका स्वामी हूँ; इसलिये कभी कोई मेरी आज्ञा टाल नहीं सकता। जो मेरे उस रूपका चिन्तन करके उसी भावसे युक्त हो जाता है, मेरे समान उसकी आज्ञाको भी कोई टाल नहीं सकता ||२७||
मद्भक्त्या शुद्धसत्त्वस्य योगिनो धारणाविदः।
तस्य त्रैकालिकी बुद्धिर्जन्ममृत्यूपबृंहिता २८।
जिस योगीका चित्त मेरी धारणा करते-करते मेरी भक्तिके प्रभावसे शुद्ध हो गया है, उसकी बुद्धि जन्म-मृत्यु आदि अदष्ट विषयोंको भी जान लेती है। और तो क्या-भूत, भविष्य और वर्तमानकी सभी बातें उसे मालम हो जाती हैं ||२८||
अग्न्यादिभिर्न हन्येत मुनेर्योगमयं वपुः।
मद्योगशान्तचित्तस्य यादसामुदकं यथा २९।
जैसे जलके द्वारा जलमें रहनेवाले प्राणियोंका नाश नहीं होता, वैसे ही जिस योगीने अपना चित्त मुझमें लगाकर शिथिल कर दिया है, उसके योगमय शरीरको अग्नि, जल आदि कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं कर सकते ||२९||
मद्विभूतीरभिध्यायन्श्रीवत्सास्त्रविभूषिताः।
ध्वजातपत्रव्यजनैः स भवेदपराजितः ३०।
जो पुरुष श्रीवत्स आदि चिह्न और शंख-गदा-चक्र-पद्म आदि आयुधोंसे विभूषित तथा ध्वजा-छत्र-चँवर आदिसे सम्पन्न मेरे अवतारोंका ध्यान करता है, वह अजेय हो जाता है ||३०||
उपासकस्य मामेवं योगधारणया मुनेः।
सिद्धयः पूर्वकथिता उपतिष्ठन्त्यशेषतः ३१।
इस प्रकार जो विचारशील पुरुष मेरी उपासना करता है और योगधारणाके द्वारा मेरा चिन्तन करता है, उसे वे सभी सिद्धियाँ पूर्णतः प्राप्त हो जाती हैं, जिनका वर्णन मैंने किया है ।।३१।।
जितेन्द्रियस्य दान्तस्य जितश्वासात्मनो मुनेः।
मद्धारणां धारयतः का सा सिद्धिः सुदुर्लभा ३२।
प्यारे उद्धव! जिसने अपने प्राण, मन और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर ली है, जो संयमी है और मेरे ही स्वरूपकी धारणा कर रहा है, उसके लिये ऐसी कोई भी सिद्धि नहीं, जो दुर्लभ हो। उसे तो सभी सिद्धियाँ प्राप्त ही हैं ||३२||
अन्तरायान्वदन्त्येता युञ्जतो योगमुत्तमम्।
मया सम्पद्यमानस्य कालक्षपणहेतवः ३३।
परन्तु श्रेष्ठ पुरुष कहते हैं कि जो लोग भक्तियोग अथवा ज्ञानयोगादि उत्तम योगोंका अभ्यास कर रहे हैं, जो मुझसे एक हो रहे हैं उनके लिये इन सिद्धियोंका प्राप्त होना एक विघ्न ही है; क्योंकि इनके कारण व्यर्थ ही उनके समयका दुरुपयोग होता है ||३३।।
जन्मौषधितपोमन्त्रैर्यावतीरिह सिद्धयः।
योगेनाप्नोति ताः सर्वा नान्यैर्योगगतिं व्रजेत् ३४।
जगत्में जन्म, ओषधि, तपस्या और मन्त्रादिके द्वारा जितनी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, वे सभी योगके द्वारा मिल जाती हैं; परन्तु योगकी अन्तिम सीमा—मेरे सारूप्य, सालोक्य आदिकी प्राप्ति बिना मुझमें चित्त लगाये किसी भी साधनसे नहीं प्राप्त हो सकती ||३४||
सर्वासामपि सिद्धीनां हेतुः पतिरहं प्रभुः।
अहं योगस्य साङ्ख्यस्य धर्मस्य ब्रह्मवादिनाम् ३५।
ब्रह्मवादियोंने बहुत-से साधन बतलाये हैं-योग, सांख्य और धर्म आदि। उनका एवं समस्त सिद्धियोंका एकमात्र मैं ही हेतु, स्वामी और प्रभु हूँ ||३५||
अहमात्मान्तरो बाह्योऽनावृतः सर्वदेहिनाम्।
यथा भूतानि भूतेषु बहिरन्तः स्वयं तथा ३६।
जैसे स्थूल पंचभूतोंमें बाहर, भीतर–सर्वत्र सूक्ष्म पंच-महाभूत ही हैं, सूक्ष्म भूतोंके अतिरिक्त स्थूल भूतोंकी कोई सत्ता ही नहीं है, वैसे ही मैं समस्त प्राणियोंके भीतर द्रष्टारूपसे और बाहर दृश्यरूपसे स्थित हूँ। मुझमें बाहर-भीतरका भेद भी नहीं है; क्योंकि मैं निरावरण, एकअद्वितीय आत्मा हूँ ।।३६।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे पञ्चदशोऽध्यायः
Pingback: श्रीमद् भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित | Srimad Bhagwat Mahapuran 11th Skandh with Hindi Meaning