श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 11 अध्याय 17
17 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः १७
वर्णधर्मनिरूपणम्, आश्रमेषु ब्रह्मचारी गृहस्थ धर्मवर्णं च –
श्रीउद्धव उवाच –
( अनुष्टुप् )
यस्त्वयाभिहितः पूर्वं धर्मस्त्वद्भक्तिलक्षणः ।
वर्णाश्रमाचारवतां सर्वेषां द्विपदामपि ॥ १ ॥
यथानुष्ठीयमानेन त्वयि भक्तिर्नृणां भवेत् ।
स्वधर्मेणारविन्दाक्ष तत् समाख्यातुमर्हसि ॥ २ ॥
उद्धवजीने कहा-कमलनयन श्रीकृष्ण! आपने पहले वर्णाश्रम-धर्मका पालन करनेवालोंके लिये और सामान्यतः मनुष्यमात्रके लिये उस धर्मका उपदेश किया था, जिससे आपकी भक्ति प्राप्त होती है। अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि मनुष्य किस प्रकारसे अपने धर्मका अनुष्ठान करे, जिससे आपके चरणोंमें उसे भक्ति प्राप्त हो जाय ।।१-२।।
पुरा किल महाबाहो धर्मं परमकं प्रभो ।
यत्तेन हंसरूपेण ब्राह्मणेऽभ्यात्थ माधव ॥ ३ ॥
प्रभो! महाबाहु माधव! पहले आपने हंसरूपसे अवतार ग्रहण करके ब्रह्माजीको अपने परमधर्मका उपदेश किया था ||३||
स इदानीं सुमहता कालेनामित्रकर्शन ।
न प्रायो भविता मर्त्य लोके प्राक् अनुशासितः ॥ ४ ॥
रिपुदमन! बहुत समय बीत जानेके कारण वह इस समय मर्त्यलोकमेंप्रायः नहीं-सा रह गया है, क्योंकि आपको उसका उपदेश किये बहुत दिन हो गये हैं ।।४।।
वक्ता कर्ताविता नान्यो धर्मस्याच्युत ते भुवि ।
सभायामपि वैरिञ्च्यां यत्र मूर्तिधराः कलाः ॥ ५ ॥
अच्युत! पृथ्वीमें तथा ब्रह्माकी उस सभामें भी, जहाँ सम्पूर्ण वेद मूर्तिमान् होकर विराजमान रहते हैं, आपके अतिरिक्त ऐसा कोई भी नहीं है, जो आपके इस धर्मका प्रवचन, प्रवर्तन अथवा संरक्षण कर सके ||५||
कर्त्रावित्रा प्रवक्त्रा च भवता मधुसूदन ।
त्यक्ते महीतले देव विनष्टं कः प्रवक्ष्यति ॥ ६ ॥
इस धर्मके प्रवर्तक, रक्षक और उपदेशक आप ही हैं। आपने पहले जैसे मधु दैत्यको मारकर वेदोंकी रक्षा की थी, वैसे ही अपने धर्मकी भी रक्षा कीजिये। स्वयंप्रकाश परमात्मन्! जब आप पृथ्वीतलसे अपनी लीला संवरण कर लेंगे, तब तो इस धर्मका लोप ही हो जायगा तो फिर उसे कौन बतावेगा? ||६||
तत्त्वं नः सर्वधर्मज्ञ धर्मः त्वद्भक्तिलक्षणः ।
यथा यस्य विधीयेत तथा वर्णय मे प्रभो ॥ ७ ॥
आप समस्त धर्मोंके मर्मज्ञ हैं; इसलिये प्रभो! आप उस धर्मका वर्णन कीजिये, जो आपकी भक्ति प्राप्त करानेवाला है। और यह भी बतलाइये कि किसके लिये उसका कैसा विधान है ।।७।।
श्रीशुक उवाच –
इत्थं स्वभृत्यमुख्येन पृष्टः स भगवान् हरिः ।
प्रीतः क्षेमाय मर्त्यानां धर्मान् आह सनातनान् ॥ ८ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब इस प्रकार भक्तशिरोमणि उद्धवजीने प्रश्न किया, तब भगवान् श्रीकृष्णने अत्यन्त प्रसन्न होकर प्राणियोंके कल्याणके लिये उन्हें सनातन धर्मोंका उपदेश दिया ।।८।।
श्रीभगवानुवाच –
धर्म्य एष तव प्रश्नो नैःश्रेयसकरो नृणाम् ।
वर्णाश्रमाचारवतां तमुद्धव निबोध मे ॥ ९ ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव! तुम्हारा प्रश्न धर्ममय है, क्योंकि इससे वर्णाश्रमधर्मी मनुष्योंको परमकल्याणस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति होती है। अतः मैं तुम्हें उन धर्मोंका उपदेश करता हूँ, सावधान होकर सुनो ।।९।।
आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः ।
कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः ॥ १० ॥
जिस समय इस कल्पका प्रारम्भ हुआ था और पहला सत्ययुग चल रहा था, उस समय सभी मनुष्योंका ‘हंस’ नामक एक ही वर्ण था। उस युगमें सब लोग जन्मसे ही कृतकृत्य होते थे; इसीलिये उसका एक नाम कृतयुग भी है ।।१०।।
वेदः प्रणव एवाग्रे धर्मोऽहं वृषरूपधृक् ।
उपासते तपोनिष्ठा हंसं मां मुक्तकिल्बिषाः ॥ ११ ॥
उस समय केवल प्रणव ही वेद था और तपस्या, शौच, दया एवं सत्यरूप चार चरणोंसे युक्त मैं ही वृषभरूपधारी धर्म था। उस समयके निष्पाप एवं परमतपस्वी भक्तजन मुझ हंसस्वरूप शुद्ध परमात्माकी उपासना करते थे ||११||
त्रेतामुखे महाभाग प्राणान् मे हृदयात् त्रयी ।
विद्या प्रादुरभूत् तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः ॥ १२ ॥
परम भाग्यवान् उद्धव! सत्ययुगके बाद त्रेतायुगका आरम्भ होनेपर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद
और यजुर्वेदरूप त्रयीविद्या प्रकट हुई और उस त्रयीविद्यासे होता, अध्वर्यु और उद्गाताके कर्मरूप तीन भेदोंवाले यज्ञके रूपसे मैं प्रकट हुआ ।।१२।।
विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा मुखबाहूरुपादजाः ।
वैराजात् पुरुषात् जाता य आत्माचारलक्षणाः ॥ १३ ॥
विराट् पुरुषके मुखसे ब्राह्मण, भजासे क्षत्रिय, जंघासे वैश्य और चरणोंसे शूद्रोंकी उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरणसे होती है ।।१३।।
गृहाश्रमो जघनतो ब्रह्मचर्यं हृदो मम ।
वक्षःस्थलाद् वने वासो न्यासः शीर्षणि संस्थितः ॥ १४ ॥
उद्धवजी! विराट पुरुष भी मैं ही हूँ; इसलिये मेरे ही ऊरुस्थलसे गृहस्थाश्रम, हृदयसे ब्रह्मचर्याश्रम, वक्षःस्थलसे वानप्रस्थाश्रम और मस्तकसे संन्यासाश्रमकी उत्पत्ति हुई है ।।१४।।
वर्णानां आश्रमाणां च जन्मभूम्यनुसारिणीः ।
आसन् प्रकृतयो नॄणां नीचैः नीचोत्तमोत्तमाः ॥ १५ ॥
इन वर्ण और आश्रमोंके पुरुषोंके स्वभाव भी इनके जन्मस्थानोंके अनुसार उत्तम, मध्यम और अधम हो गये। अर्थात् उत्तम स्थानोंसे उत्पन्न होनेवाले वर्ण और आश्रमोंके स्वभाव उत्तम और अधम स्थानोंसे उत्पन्न होनेवालोंके अधम हुए ||१५||
शमो दमस्तपः शौचं संतोषः क्षांतिरार्जवम् ।
मद्भक्तिश्च दया सत्यं ब्रह्मप्रकृतयस्त्विमाः ॥ १६ ॥
शम, दम, तपस्या, पवित्रता, सन्तोष, क्षमाशीलता, सीधापन, मेरी भक्ति, दया और सत्य–ये ब्राह्मण वर्णके स्वभाव हैं ।।१६।।
तेजो बलं धृतिः शौर्यं तितिक्षौदार्यमुद्यमः ।
स्थैर्यं ब्रह्मण्यतैश्वर्यं क्षत्र प्रकृतयस्त्विमाः ॥ १७ ॥
तेज, बल, धैर्य, वीरता, सहनशीलता, उदारता, उद्योगशीलता, स्थिरता, ब्राह्मणभक्ति और ऐश्वर्य-ये क्षत्रिय वर्णके स्वभाव हैं ।।१७।।
आस्तिक्यं दाननिष्ठा च अदंभो ब्रह्मसेवनम् ।
अतुष्टिः अर्थोपचयैः वैश्य प्रकृतयस्त्विमाः ॥ १८ ॥
आस्तिकता, दानशीलता, दम्भहीनता, ब्राह्मणोंकी सेवा करना और धनसंचयसे सन्तुष्ट न होना—ये वैश्य वर्णके स्वभाव हैं ।।१८।।
शुश्रूषणं द्विजगवां देवानां चापि अमायया ।
तत्र लब्धेन संतोषः शूद्र प्रकृतयस्त्विमाः ॥ १९ ॥
ब्राह्मण, गौ और देवताओंकी निष्कपटभावसे सेवा करना और उसीसे जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहना—ये शूद्र वर्णके स्वभाव हैं ।।१९।।
अशौचमनृतं स्तेयं नास्तिक्यं शुष्कविग्रहः ।
कामः क्रोधश्च तर्षश्च स्वभावोन्त्यावसायिनाम् ॥ २० ॥
अपवित्रता, झूठ बोलना, चोरी करना, ईश्वर और परलोककी परवा न करना, झूठमूठ झगड़ना और काम, क्रोध एवं तृष्णाके वशमें रहना-ये अन्त्यजोंके स्वभाव हैं ।।२०।।
अहिंसा सत्यमस्तेयं अकामक्रोधलोभता ।
भूतप्रियहितेहा च धर्मोऽयं सार्ववर्णिकः ॥ २१ ॥
उद्धवजी! चारों वर्गों और चारों आश्रमोंके लिये साधारण धर्म यह है कि मन, वाणी और शरीरसे किसीकी हिंसा न करें; सत्यपर दढ रहें; चोरी न करें; काम, क्रोध तथा लोभसे बचें और जिन कामोंके करनेसे समस्त प्राणियोंकी प्रसन्नता और उनका भला हो, वही करें ।।२१।।
द्वितीयं प्राप्यानुपूर्व्यात् जन्मोपानयनं द्विजः ।
वसन् गुरुकुले दान्तो ब्रह्माधीयीत चाहूतः ॥ २२ ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य गर्भाधान आदि संस्कारोंके क्रमसे यज्ञोपवीत संस्काररूप द्वितीय जन्म प्राप्त करके गुरुकुलमें रहे और अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखे। आचार्यके बुलानेपर वेदका अध्ययन करे और उसके अर्थका भी विचार करे ||२२||
मेखला अजिन दण्डाक्ष ब्रह्मसूत्रकमण्डलून् ।
जटिलो अधौतदद्वासः अरक्तपीठः कुशान् दधत् ॥ २३ ॥
मेखला, मृगचर्म, वर्णके अनुसार दण्ड, रुद्राक्षकी माला, यज्ञोपवीत और कमण्डलु धारण करे। सिरपर जटा रखे, शौकीनीके लिये दाँत और वस्त्र न धोवे, रंगीन आसनपर न बैठे और कुश धारण करे ।।२३।।
स्नानभोजनहोमेषु जपोच्चारे च वाग्यतः ।
न च्छिंद्यान् नखरोमाणि कक्ष-उपस्थगतान्यपि ॥ २४ ॥
स्नान, भोजन, हवन, जप और मल-मूत्र त्यागके समय मौन रहे। और कक्ष तथागुप्तेन्द्रियके बाल और नाखूनोंको कभी न काटे ||२४||
रेतो न अवकिरेत् जातु ब्रह्मव्रतधरः स्वयम् ।
अवकीर्णे अवगाह्य अप्सु यतासुः त्रिपदीं जपेत् ॥ २५ ॥
पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करे। स्वयं तो कभी वीर्यपात करे ही नहीं। यदि स्वप्न आदिमें वीर्य स्खलित हो जाय, तो जलमें स्नान करके प्राणायाम करे एवं गायत्रीका जप करे ||२५||
अग्न्यर्काचार्य-गो-विप्र गुरु-वृद्ध-सुरान् शुचिः ।
समाहित उपासीत संध्ये च यतवाग्-जपन् ॥ २६ ॥
ब्रह्मचारीको पवित्रताके साथ एकाग्रचित्त होकर अग्नि, सूर्य, आचार्य, गौ, ब्राह्मण, गुरु, वृद्धजन और देवताओंकी उपासना करनी चाहिये तथा सायंकाल और प्रातःकाल मौन होकर सन्ध्योपासन एवं गायत्रीका जप करना चाहिये ||२६||
आचार्यं मां विजानीयात् न-अवमन्येत कर्हिचित् ।
न मर्त्यबुद्ध्यासूयेत सर्वदेवमयो गुरुः ॥ २७ ॥
आचार्यको मेरा ही स्वरूप समझे, कभी उनका तिरस्कार न करे। उन्हें साधारण मनुष्य समझकर दोषदृष्टि न करे; क्योंकि गुरु सर्वदेवमय होता है ।।२७।।
सायं प्रातः उपानीय भैक्ष्यं तस्मै निवेदयेत् ।
यच्चान्यद् अपि अनुज्ञातं उपयुञ्जीत संयतः ॥ २८ ॥
सायंकाल और प्रातःकाल दोनों समय जो कुछ भिक्षामें मिले वह लाकर गुरुदेवके आगे रख दे। केवल भोजन ही नहीं, जो कुछ हो सब। तदनन्तर उनके आज्ञानुसार बड़े संयमसे भिक्षा आदिका यथोचित उपयोग करे ||२८||
शुश्रूषमाण आचार्यं सदा-उपासीत नीचवत् ।
यान शय्यासनस्थानैः नातिदूरे कृताञ्जलिः ॥ २९ ॥
आचार्य यदि जाते हों तो उनके पीछे-पीछे चले, उनके सो जानेके बाद बड़ी सावधानीसे उनसे थोड़ी दूरपर सोवे। थके हों, तो पास बैठकर चरण दबावे और बैठे हों, तो उनके आदेशकी प्रतीक्षामें हाथ जोड़कर पासमें ही खड़ा रहे। इस प्रकार अत्यन्त छोटे व्यक्तिकी भाँति सेवा-शुश्रूषाके द्वारा सदा-सर्वदा आचार्यकी आज्ञामें तत्पर रहे ||२९||
एवंवृत्तो गुरुकुले वसेद् भोगविवर्जितः ।
विद्या समाप्यते यावद् बिभ्रद् व्रतं अखण्डितम् ॥ ३० ॥
जबतक विद्याध्ययन समाप्त न हो जाय, तबतक सब प्रकारके भोगोंसे दूर रहकर इसी प्रकार गुरुकुलमें निवास करे और कभी अपना ब्रह्मचर्यव्रत खण्डित न होने दे ।।३०।।
यदि असौ छंदसां लोकं आरोक्ष्यन् ब्रह्मविष्टपम् ।
गुरवे विन्यसेद् देहं स्वाध्यायार्थं बृहद्व्रतः ॥ ३१ ॥
यदि ब्रह्मचारीका विचार हो कि मैं मूर्तिमान् वेदोंके निवासस्थान ब्रह्मलोकमें जाऊँ, तो उसे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-व्रत ग्रहण कर लेना चाहिये। और वेदोंके स्वाध्यायके लिये अपना सारा जीवन आचार्यकी सेवामें ही समर्पित कर देना चाहिये ।।३१।।
अग्नौ गुरावात्मनि च सर्वभूतेषु मां परम् ।
अपृथग्धीः उपसीत ब्रह्मवर्चस्वी अकल्मषः ॥ ३२ ॥
ऐसा ब्रह्मचारी सचमुच ब्रह्मतेजसे सम्पन्न हो जाता है और उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। उसे चाहिये कि अग्नि, गुरु, अपने शरीर और समस्त प्राणियोंमें मेरी ही उपासना करे और यह भाव रखे कि मेरे तथा सबके हृदयमें एक ही परमात्मा विराजमान हैं ||३२||
स्त्रीणां निरीक्षण स्पर्श संलाप क्ष्वेलनादिकम् ।
प्राणिनो मिथुनीभूतान् अगृहस्थो अग्रतस्त्यजेत् ॥ ३३ ॥
ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासियोंको चाहिये कि वे स्त्रियोंको देखना, स्पर्श करना, उनसे बातचीत या हँसी-मसखरी आदि करना दूरसे ही त्याग दें; मैथुन करते हुए प्राणियोंपर तो दृष्टिपाततक न करें ।।३३।।
शौचं आचमनं स्नानं संध्योपासनमार्जवम् ।
तीर्थसेवा जपोऽस्पृश्या अभक्ष्य संभाष्यवर्जनम् ॥ ३४ ॥
सर्वाश्रमप्रयुक्तोऽयं नियमः कुलनंदन ।
मद्भवः सर्वभूतेषु मनोवाक्-कायसंयमः ॥ ३५ ॥
प्रिय उद्धव! शौच, आचमन, स्नान, सन्ध्योपासन, सरलता, तीर्थसेवन, जप, समस्त प्राणियोंमें मुझे ही देखना, मन, वाणी और शरीरका संयम—यह ब्रह्मचारी, गहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी-सभीके लिये एक-सा नियम है। अस्पश्योंको न छना, अभक्ष्य वस्तुओंको न खाना और जिनसे बोलना नहीं चाहिये उनसे न बोलना ये नियम भी सबके लिये हैं ।।३४-३५।।
एवं बृहद्व्रतधरो ब्राह्मणोऽग्निः इव ज्वलन् ।
मद्भक्तः तीव्रतपसा दग्धकर्माशयोऽमलः ॥ ३६ ॥
नैष्ठिक ब्रह्मचारी ब्राह्मण इन नियमोंका पालन करनेसे अग्निके समान तेजस्वी हो जाता है। तीव्र तपस्याके कारण उसके कर्म-संस्कार भस्म हो जाते हैं, अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और वह मेरा भक्त होकर मुझे प्राप्त कर लेता है ।।३६||
अथ अनंतरं आवेक्ष्यन् यथा जिज्ञासितागमः ।
गुरवे दक्षिणां दत्त्वा स्नायाद् गुर्वनुमोदितः ॥ ३७ ॥
प्यारे उद्धव! यदि नैष्ठिक ब्रह्मचर्य ग्रहण करनेकी इच्छा न हो-गृहस्थाश्रममें प्रवेश करना चाहता हो, तो विधिपूर्वक वेदाध्ययन समाप्त करके आचार्यको दक्षिणा देकर और उनकी अनुमति लेकर समावर्तन-संस्कार करावे-स्नातक बनकर ब्रह्मचर्याश्रम छोड़ दे ||३७।।
गृहं वनं वोपविशेत् प्रव्रजे द्वा द्विजोत्तमः ।
आश्रमादाश्रमं गच्छेत् नान्यथा मत्परश्चरेत् ॥ ३८ ॥
ब्रह्मचारीको चाहिये कि ब्रह्मचर्य-आश्रमके बाद गृहस्थ अथवा वानप्रस्थ-आश्रममें प्रवेश करे। यदि ब्राह्मण हो तो संन्यास भी ले सकता है। अथवा उसे चाहिये कि क्रमशः एक आश्रमसे दूसरे आश्रममें प्रवेश करे। किन्तु मेरा आज्ञाकारी भक्त बिना आश्रमके रहकर अथवा विपरीत क्रमसे आश्रम-परिवर्तन कर स्वेच्छाचारमें न प्रवृत्त हो ।।३८||
गृहार्थी सदृशीं भार्यां उद्वहेद् अजुगुप्सिताम् ।
यवीयसीं तु वयसा यां सवर्णां अनुक्रमात् ॥ ३९ ॥
प्रिय उद्धव! यदि ब्रह्मचर्याश्रमके बाद गृहस्थाश्रम स्वीकार करना हो तो ब्रह्मचारीको चाहिये कि अपने अनुरूप एवं शास्त्रोक्त लक्षणोंसे सम्पन्न कुलीन कन्यासे विवाह करे। वह अवस्थामें अपनेसे छोटी और अपने ही वर्णकी होनी चाहिये। यदि कामवश अन्य वर्णकी कन्यासे और विवाह करना हो तो क्रमशः अपनेसे निम्न वर्णकी कन्यासे विवाह कर सकता है ||३९||
इज्य-अध्ययन-दानानि सर्वेषां च द्विजन्मनाम् ।
प्रतिग्रहो-अध्यापनं च ब्राह्मणस्यैव याजनम् ॥ ४० ॥
यज्ञ-यागादि, अध्ययन और दान करनेका अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्योंको समान-रूपसे है। परन्तु दान लेने, पढ़ाने और यज्ञ करानेका अधिकार केवल ब्राह्मणोंको ही है ।।४०।।
प्रतिग्रहं मन्यमानः तपस्तेजोयशोनुदम् ।
अन्याभ्यामेव जीवेत शिलैर्वा दोषदृक् तयोः ॥ ४१ ॥
ब्राह्मणको चाहिये कि इन तीनों वृत्तियोंमें प्रतिग्रह अर्थात् दान लेनेकी वृत्तिको तपस्या, तेज और यशका नाश करनेवाली समझकर पढ़ाने और यज्ञ करानेके द्वारा ही अपना जीवन-निर्वाह करे और यदि इन दोनों वृत्तियोंमें भी दोषदृष्टि हो–परावलम्बन, दीनता आदि दोष दीखते हों तो अन्न कटनेके बाद खेतोंमें पड़े हए दाने बीनकर ही अपने जीवनका निर्वाह कर ले ||४१।।
ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते ।
कृच्छ्राय तपसे चेह प्रेत्यानन्तसुखाय च ॥ ४२ ॥
उद्धव! ब्राह्मणका शरीर अत्यन्त दुर्लभ है। यह इसलिये नहीं है कि इसके द्वारा तुच्छ विषय-भोग ही भोगे जायँ। यह तो जीवन-पर्यन्त कष्ट भोगने, तपस्या करने और अन्तमें अनन्त आनन्दस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति करनेके लिये है ।।४२।।
( इंद्रवज्रा )
शिलोञ्छवृत्त्या परितुष्टचित्तो
धर्मं महांतं विरजं जुषाणः ।
मय्यर्पितात्मा गृह एव तिष्ठन्
नातिप्रसक्तः समुपैति शांतिम् ॥ ४३ ॥
जो ब्राह्मण घरमें रहकर अपने महान् धर्मका निष्कामभावसे पालन करता है और खेतोंमें तथा बाजारों में गिरे-पड़े दाने चुनकर सन्तोषपूर्वक अपने जीवनका निर्वाह करता है, साथ ही अपना शरीर, प्राण, अन्तःकरण और आत्मा मुझे समर्पित कर देता है और कहीं भी अत्यन्त आसक्ति नहीं करता, वह बिना संन्यास लिये ही परमशान्तिस्वरूप परमपद प्राप्त कर लेता है ।।४३।।
( अनुष्टुप् )
समुद्धरंति ये विप्रं सीदंतं मत्परायणम् ।
तान् उद्धरिष्ये न चिराद् आपद्भ्यो नौः इवार्णवात् ॥ ४४ ॥
जो लोग विपत्तिमें पड़े कष्ट पा रहे मेरे भक्त ब्राह्मणको विपत्तियोंसे बचा लेते हैं, उन्हें मैं शीघ्र ही समस्त आपत्तियोंसे उसी प्रकार बचा लेता हूँ, जैसे समुद्र में डूबते हए प्राणीको नौका बचा लेती है ||४४।।
सर्वाः समुद्धरेद् राजा पितेव व्यसनात् प्रजाः ।
आत्मानं आत्मना धीरो यथा गजपतिर्गजान् ॥ ४५ ॥
राजा पिताके समान सारी प्रजाका कष्टसे उद्धार करे—उन्हें बचावे, जैसे गजराज दूसरे गजोंकी रक्षा करता है और धीर होकर स्वयं अपने-आपसे अपना उद्धार करे ।।४५||
एवंविधो नरपतिः विमानेनार्कवर्चसा ।
विधूय इह अशुभं कृत्स्नं इंद्रेण सह मोदते ॥ ४६ ॥
जो राजा इस प्रकार प्रजाकी रक्षा करता है, वह सारे पापोंसे मुक्त होकर अन्त समयमें सूर्यके समान तेजस्वी विमानपर चढ़कर स्वर्गलोकमें जाता है और इन्द्रके साथ सुख भोगता है ।।४६।।
सीदन् विप्रः वणिक् वृत्त्या पण्यैः एवापदं तरेत् ।
खड्गेन वा आपदाक्रांतो न श्ववृत्त्या कथञ्चन ॥ ४७ ॥
यदि ब्राह्मण अध्यापन अथवा यज्ञ-यागादिसे अपनी जीविका न चला सके, तो वैश्य-वत्तिका आश्रय ले ले, और जबतक विपत्ति दर न हो जाय तबतक करे। यदि बहुत बड़ी आपत्तिका सामना करना पड़े तो तलवार उठाकर क्षत्रियोंकी वृत्तिसे भी अपना काम चला ले, परन्तु किसी भी अवस्थामें नीचोंकी सेवा-जिसे ‘श्वानवृत्ति’ कहते हैं—न करे ।।४७||
वैश्यवृत्त्या तु राजन्यो जीवेत् मृगययापदि ।
चरेद् वा विप्ररूपेण न श्ववृत्त्या कथञ्चन ॥ ४८ ॥
इसी प्रकार यदि क्षत्रिय भी प्रजापालन आदिके द्वारा अपने जीवनका निर्वाह न कर सके तो वैश्यवृत्ति व्यापार आदि कर ले। बहुत बड़ी आपत्ति हो तो शिकारके द्वारा अथवा विद्यार्थियोंको पढ़ाकर अपनी आपत्तिके दिन काट दे, परन्तु नीचोंकी सेवा, ‘श्वानवृत्ति’ का आश्रय कभी न ले ।।४८।।
शूद्रवृत्तिं भजेद् वैश्यः शूद्रः कारुकटक्रियाम् ।
कृच्छ्रान् मुक्तो न गर्ह्येण वृत्तिं लिप्सेत कर्मणा ॥ ४९ ॥
वैश्य भी आपत्तिके समय शूद्रोंकी वृत्ति सेवासे अपना जीवननिर्वाह कर ले और शूद्र चटाई बुनने आदि कारुवृत्तिका आश्रय ले ले; परन्तु उद्धव! ये सारी बातें आपत्तिकालके लिये ही हैं। आपत्तिका समय बीत जानेपर निम्नवर्णों की वृत्तिसे जीविकोपार्जन करनेका लोभ न करे ||४९||
वेदाध्याय स्वधा स्वाहा बलि अन्नाद्यैः यथोदयम् ।
देवर्षिपितृभूतानि मद् रूपाणि अन्वहं यजेत् ॥ ५० ॥
गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि वेदाध्ययनरूप ब्रह्मयज्ञ, तर्पणरूप पितृयज्ञ, हवनरूप देवयज्ञ, काकबलि आदि भूतयज्ञ और अन्नदानरूप अतिथियज्ञ आदिके द्वारा मेरे स्वरूपभूत ऋषि, देवता, पितर, मनुष्य एवं अन्य समस्त प्राणियोंकी यथाशक्ति प्रतिदिन पूजा करता रहे ।।५०||
यदृच्छया उपपन्नेन शुक्लेन उपार्जितेन वा ।
धनेन अपीडयन् भृत्यान् न्यायेन एव आहरेत् क्रतून् ॥ ५१ ॥
गृहस्थ पुरुष अनायास प्राप्त अथवा शास्त्रोक्त रीतिसे उपार्जित अपने शुद्ध धनसे अपने भृत्य, आश्रित प्रजाजनको किसी प्रकारका कष्ट न पहुँचाते हुए न्याय और विधिके साथ ही यज्ञ करे ।।५१।।
कुटुंबेषु न सज्जेत न प्रमाद्येत् कुटुंबी अपि ।
विपश्चित् नश्वरं पश्येद् अदृष्टमपि दृष्टवत् ॥ ५२ ॥
प्रिय उद्धव! गृहस्थ पुरुष कुटुम्बमें आसक्त न हो। बड़ा कुटुम्ब होनेपर भी भजनमें प्रमाद न करे। बुद्धिमान् पुरुषको यह बात भी समझ लेनी चाहिये कि जैसे इस लोककी सभी वस्तुएँ नाशवान् हैं, वैसे ही स्वर्गादि परलोकके भोग भी नाशवान् ही हैं ।।५२।।
पुत्रदारा आप्तबंधूनां संगमः पांथसङ्गमः ।
अनुदेहं वियन्त्येते स्वप्नो निद्रानुगो यथा ॥ ५३ ॥
यह जो स्त्री-पुत्र, । भाई-बन्धु और गुरुजनोंका मिलना-जुलना है, यह वैसा ही है, जैसे किसी प्याऊपर कुछ
बटोही इकट्ठे हो गये हों। सबको अलग-अलग रास्ते जाना है। जैसे स्वप्न नींद टूटनेतक ही रहता है, वैसे ही इन मिलने-जुलनेवालोंका सम्बन्ध ही बस, शरीरके रहनेतक ही रहता है; फिर तो कौन किसको पूछता है ।।५३||
इत्थं परिमृशन् मुक्तो गृहेषु अतिथिवद् वसन् ।
न गृहैः अनुबध्येत निर्ममो निरहङ्कृतः ॥ ५४ ॥
गृहस्थको चाहिये कि इस प्रकार विचार करके घरगृहस्थीमें फँसे नहीं, उसमें इस प्रकार अनासक्तभावसे रहे मानो कोई अतिथि निवास कर रहा हो। जो शरीर आदिमें अहंकार और घर आदिमें ममता नहीं करता, उसे घर-गृहस्थीके फंदे बाँध नहीं सकते ।।५४।।
कर्मभिः गृहमेधीयैः इष्ट्वा मामेव भक्तिमान् ।
तिष्ठेद् वनं वोपविशेत् प्रजावान् वा परिव्रजेत् ॥ ५५ ॥
भक्तिमान् पुरुष गृहस्थोचित शास्त्रोक्त कर्मों के द्वारा मेरी आराधना करता हुआ घरमें ही रहे, अथवा यदि पुत्रवान् हो तो वानप्रस्थ आश्रममें चला जाय या संन्यासाश्रम स्वीकार कर ले ||५५।।
यस्तु आसक्तमतिः गेहे पुत्रवित्तैषणा आतुरः ।
स्त्रैणः कृपणधीः मूढो मम अहं इति बध्यते ॥ ५६ ॥
प्रिय उद्धव! जो लोग इस प्रकारका गहस्थजीवन नबिताकर घर-गृहस्थीमें ही आसक्त हो जाते हैं, स्त्री, पुत्र और धनकी कामनाओंमें फँसकर हाय-हाय करते रहते और मूढ़तावश स्त्रीलम्पट और कृपण होकर मैं-मेरेके फेरमें पड़ जाते हैं, वे बँध जाते हैं ।।५६||
अहो मे पितरौ वृद्धौ भार्या बालात्मजऽऽत्मजाः ।
अनाथा मामृते दीनाः कथं जीवन्ति दुःखिताः ॥ ५७ ॥
वे सोचते रहते हैं-हाय! हाय! मेरे माँ-बाप बूढ़े हो गये; पत्नीके बाल बच्चे अभी छोटे-छोटे हैं, मेरे न रहनेपर ये दीन, अनाथ और दुःखी हो जायँगे; फिर इनका जीवन कैसे रहेगा?’ ||५७।।
एवं गृहाशयाक्षिप्त हृदयो मूढधीः अयम् ।
अतृप्तस्तान् अनुध्यायन् मृतोऽन्धं विशते तमः ॥ ५८ ॥
इस प्रकार घर-गृहस्थीकी वासनासे जिसका चित्त विक्षिप्त हो रहा है, वह मूढ़बुद्धि पुरुष विषयभोगोंसे कभी तृप्त नहीं होता, उन्हींमें उलझकर अपना जीवन खो बैठता है और मरकर घोर तमोमय नरकमें जाता है ।।५८।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां एकादशस्कन्धे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥