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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 11 अध्याय 6

Spread the Glory of Sri SitaRam!

6 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः ६

श्रीकृष्णोद्धवसंवाद आरंभ –
श्रीशुक उवाच।
अथ ब्रह्मात्मजैर्देवैः प्रजेशैरावृतोऽभ्यगात्।
भवश्च भूतभव्येशो ययौ भूतगणैर्वृतः १।

इन्द्रो मरुद्भिर्भगवानादित्या वसवोऽश्विनौ।
ऋभवोऽङ्गिरसो रुद्रा विश्वे साध्याश्च देवताः २।

गन्धर्वाप्सरसो नागाः सिद्धचारणगुह्यकाः।
ऋषयः पितरश्चैव सविद्याधरकिन्नराः ३।

द्वारकामुपसञ्जग्मुः सर्वे कृष्णदिदृक्षवः।
वपुषा येन भगवान्नरलोकमनोरमः ।
यशो वितेने लोकेषु सर्वलोकमलापहम् ४।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब देवर्षि नारद वसुदेवजीको उपदेश करके चले गये, तब अपने पुत्र सनकादिकों, देवताओं और प्रजापतियों के साथ ब्रह्माजी, भूतगणोंके साथ सर्वेश्वर महादेवजी और मरुद्गणोंके साथ देवराज इन्द्र द्वारकानगरीमें आये। साथ ही सभी आदित्यगण, आठों वसु, अश्विनीकुमार, ऋभु, अंगिराके वंशज ऋषि, ग्यारहों रुद्र, विश्वेदेव, साध्यगण, गन्धर्व, अप्सराएँ, नाग, सिद्ध, चारण, गुह्यक, ऋषि, पितर, विद्याधर और किन्नर भी वहीं पहुँचे। इन लोगोंके आगमनका उद्देश्य यह था कि मनुष्यका-सा मनोहर वेष धारण करनेवाले और अपने श्यामसुन्दर विग्रहसे सभी लोगोंका मन अपनी ओर खींचकर रमा लेनेवाले भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन करें; क्योंकि इस समय उन्होंने अपना श्रीविग्रह प्रकट करके उसके द्वारा तीनों लोकोंमें ऐसी पवित्र कीर्तिका विस्तार किया है, जो समस्त लोकोंके पाप-तापको सदाके लिये मिटा देती है ।।१-४।।

तस्यां विभ्राजमानायां समृद्धायां महर्द्धिभिः।
व्यचक्षतावितृप्ताक्षाः कृष्णमद्भुतदर्शनम् ५।

द्वारकापुरी सब प्रकारकी सम्पत्ति और ऐश्वर्योंसे समद्ध तथा अलौकिक दीप्तिसे देदीप्यमान हो रही थी। वहाँ आकर उन लोगोंने अनूठी छबिसे युक्त भगवान श्रीकृष्णके दर्शन किये। भगवानकी रूप-माधुरीका निर्निमेष नयनोंसे पान करनेपर भी उनके नेत्र तृप्त न होते थे। वे एकटक बहुत देरतक उन्हें देखते ही रहे ।।५।।

स्वर्गोद्यानोपगैर्माल्यैश्छादयन्तो यदूत्तमम्।
गीर्भिश्चित्रपदार्थाभिस्तुष्टुवुर्जगदीश्वरम् ६।

उन लोगोंने स्वर्गके उद्यान नन्दन-वन, चैत्ररथ आदिके दिव्य पुष्पोंसे जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णको ढक दिया और चित्र-विचित्र पदों तथा अर्थोंसे युक्त वाणीके द्वारा उनकी स्तुति करने लगे ।।६।।

श्रीदेवा ऊचुः।
नताः स्म ते नाथ पदारविन्दं बुद्धीन्द्रियप्राणमनोवचोभिः।
यच्चिन्त्यतेऽन्तर्हृदि भावयुक्तैर्मुमुक्षुभिः कर्ममयोरुपाशात् ७।

देवताओंने प्रार्थना की-स्वामी! कर्मोंके विकट फंदोंसे छुटनेकी इच्छावाले मुमुक्षुजन भक्ति-भावसे अपने हृदयमें जिसका चिन्तन करते रहते हैं, आपके उसी चरणकमलको हमलोगोंने अपनी बुद्धि, इन्द्रिय, प्राण, मन और वाणीसे साक्षात् नमस्कार किया है। अहो! आश्चर्य है!* |७||

त्वं मायया त्रिगुणयात्मनि दुर्विभाव्यं।
व्यक्तं सृजस्यवसि लुम्पसि तद्गुणस्थः।
नैतैर्भवानजित कर्मभिरज्यते वै।
यत्स्वे सुखेऽव्यवहितेऽभिरतोऽनवद्यः ८।

अजित! आप मायिक रज आदि गुणोंमें स्थित होकर इस अचिन्त्य नाम-रूपात्मक प्रपंचकी त्रिगुणमयी मायाके द्वारा अपनेआपमें ही रचना करते हैं, पालन करते और संहार करते हैं। यह सब करते हुए भी इन कर्मोंसे आप लिप्त नहीं होते हैं; क्योंकि आप राग-द्वेषादि दोषोंसे सर्वथा मुक्त हैं और अपने निरावरण अखण्ड स्वरूपभूत परमानन्दमें मग्न रहते हैं ।।८।।

शुद्धिर्नृणां न तु तथेड्य दुराशयानां।
विद्याश्रुताध्ययनदानतपःक्रियाभिः।
सत्त्वात्मनामृषभ ते यशसि प्रवृद्ध।
सच्छ्रद्धया श्रवणसम्भृतया यथा स्यात् ९।

स्तुति करनेयोग्य परमात्मन्! जिन मनुष्योंकी चित्तवृत्ति राग-द्वेषादिसे कलुषित हैं, वे उपासना, वेदाध्ययन, दान, तपस्या और यज्ञ आदि कर्म भले ही करें; परंतु उनकी वैसी शुद्धि नहीं हो सकती, जैसी श्रवणके द्वारा सम्पुष्ट शुद्धान्तःकरण सज्जन पुरुषोंकी आपकी लीलाकथा, कीर्तिके विषयमें दिनोंदिन बढ़कर परिपूर्ण होनेवाली श्रद्धासे होती है ।।९।।

स्यान्नस्तवाङ्घ्रिरशुभाशयधूमकेतुः।
क्षेमाय यो मुनिभिरार्द्रहृदोह्यमानः।
यः सात्वतैः समविभूतय आत्मवद्भिर्।
व्यूहेऽर्चितः सवनशः स्वरतिक्रमाय १०।

यश्चिन्त्यते प्रयतपाणिभिरध्वराग्नौ।
त्रय्या निरुक्तविधिनेश हविर्गृहीत्वा।
अध्यात्मयोग उत योगिभिरात्ममायां।
जिज्ञासुभिः परमभागवतैः परीष्टः ११।

मननशील मुमुक्षुजन मोक्ष-प्राप्तिके लिये अपने प्रेमसे पिघले हुए हृदयके द्वारा जिन्हें लिये-लिये फिरते हैं, पांचरात्र विधिसे उपासना करनेवाले भक्तजन समान ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध-इस चतुर्दूहके रूपमें जिनका पूजन करते हैं और जितेन्द्रिय धीरपुरुष स्वर्गलोकका अतिक्रमण करके भगवद्धामकी प्राप्तिके लिये तीनों समय जिनकी पूजा किया करते हैं, याज्ञिक लोग तीनों वेदोंके द्वारा बतलायी हुई विधिसे अपने संयत हाथोंमें हविष्य लेकर यज्ञकुण्डमें आहुति देते और उन्हींका चिन्तन करते हैं। आपकी आत्म-स्वरूपिणी मायाके जिज्ञासु योगीजन हृदयके अन्तर्देशमें दहरविद्या आदिके द्वारा आपके चरणकमलोंका ही ध्यान करते हैं और आपके बड़े-बड़े प्रेमी भक्तजन उन्हींको अपना परम इष्ट आराध्यदेव मानते हैं। प्रभो! आपके वे ही चरणकमल हमारी समस्त अशुभ वासनाओं—विषयवासनाओंको भस्म करनेके लिये अग्निस्वरूप हों। वे अग्निके समान हमारे पापतापोंको भस्म कर दें ||१०-११।।

पर्युष्टया तव विभो वनमालयेयं।
संस्पर्धिनी भगवती प्रतिपत्निवच्छ्रीः।
यः सुप्रणीतममुयार्हणमाददन्नो।
भूयात्सदाङ्घ्रिरशुभाशयधूमकेतुः १२।

प्रभो! यह भगवती लक्ष्मी आपके वक्षः-स्थलपर मुरझायी हुई बासी वनमालासे भी सौतकी तरह स्पर्धा रखती हैं। फिर भी आप उनकी परवा न कर भक्तोंके द्वारा इस बासी मालासे की हुई पूजा भी प्रेमसे स्वीकार करते हैं। ऐसे भक्तवत्सल प्रभुके चरणकमल सर्वदा हमारी विषयवासनाओंको जलाने-वाले अग्निस्वरूप हों ||१२||

केतुस्त्रिविक्रमयुतस्त्रिपतत्पताको।
यस्ते भयाभयकरोऽसुरदेवचम्वोः।
स्वर्गाय साधुषु खलेष्वितराय भूमन्।
पादः पुनातु भगवन्भजतामघं नः १३।

अनन्त! वामनावतारमें दैत्यराज बलिकी दी हुई पृथ्वीकोनापनेके लिये जब आपने अपना पग उठाया था और वह सत्यलोकमें पहुँच गया था, तब यह ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई बहुत बड़ा विजयध्वज हो। ब्रह्माजीके पखारनेके बाद उससे गिरती हुई गंगाजीके जलकी तीन धाराएँ ऐसी जान पड़ती थीं, मानो उसमें लगी हुई तीन पताकाएँ फहरा रही हों। उसे देखकर असुरोंकी सेना भयभीत हो गयी थी और देवसेना निर्भय। आपका वह चरणकमल साधुस्वभाव पुरुषोंके लिये आपके धाम वैकुण्ठलोककी प्राप्तिका और दुष्टोंके लिये अधो-गतिका कारण है। भगवन! आपका वही पादपद्म हम भजन करनेवालोंके सारे पाप-ताप धो-बहा दे ।।१३।।

नस्योतगाव इव यस्य वशे भवन्ति।
ब्रह्मादयस्तनुभृतो मिथुरर्द्यमानाः।
कालस्य ते प्रकृतिपूरुषयोः परस्य।
शं नस्तनोतु चरणः पुरुषोत्तमस्य १४।

ब्रह्मा आदि जितने भी शरीरधारी हैं, वे सत्त्व, रज, तम-इन तीनों गुणोंके परस्पर-विरोधी त्रिविध भावोंकी टक्करसे जीते-मरते रहते हैं। वे सुख-दुःखके थपेड़ोंसे बाहर नहीं हैं और ठीक वैसे ही आपके वशमें हैं, जैसे नथे हुए बैल अपने स्वामीके वशमें होते हैं। आप उनके लिये भी कालस्वरूप हैं। उनके जीवनका आदि, मध्य और अन्त आपके ही अधीन है। इतना ही नहीं, आप प्रकृति और पुरुषसे भी परे स्वयं पुरुषोत्तम हैं। आपके चरणकमल हम-लोगोंका कल्याण करें ।।१४।।

अस्यासि हेतुरुदयस्थितिसंयमानाम्।
अव्यक्तजीवमहतामपि कालमाहुः।
सोऽयं त्रिणाभिरखिलापचये प्रवृत्तः।
कालो गभीररय उत्तमपूरुषस्त्वम् १५।

प्रभो! आप इस जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके परम कारण हैं; क्योंकि शास्त्रोंने ऐसा कहा है कि आप प्रकृति, पुरुष और महत्तत्त्वके भी नियन्त्रण करनेवाले काल हैं। शीत, ग्रीष्म और वर्षाकालरूप तीन नाभियोंवाले संवत्सरके रूपमें सबको क्षयकी ओर ले जानेवाले काल आप ही हैं। आपकी गति अबाध और गम्भीर है। आप स्वयं पुरुषोत्तम हैं ||१५||

त्वत्तः पुमान्समधिगम्य ययास्य वीर्यं।
धत्ते महान्तमिव गर्भममोघवीर्यः।
सोऽयं तयानुगत आत्मन आण्डकोशं।
हैमं ससर्ज बहिरावरणैरुपेतम् १६।

यह पुरुष आपसे शक्ति प्राप्त करके अमोघवीर्य हो जाता है और फिर मायाके साथ संयुक्त होकर विश्वके महत्तत्त्वरूप गर्भका स्थापन करता है। इसके बाद वह महत्तत्त्व त्रिगुणमयी मायाका अनुसरण करके पृथ्वी, जल, तेज, वायू, आकाश, अहंकार और मनरूप सात आवरणों (परतों) वाले इस सुवर्णवर्ण ब्रह्माण्डकी रचना करता है ||१६||

तत्तस्थूषश्च जगतश्च भवानधीशो।
यन्माययोत्थगुणविक्रिययोपनीतान्।
अर्थाञ्जुषन्नपि हृषीकपते न लिप्तो।
येऽन्ये स्वतः परिहृतादपि बिभ्यति स्म १७।

इसलिये हृषीकेश! आप समस्त चराचर जगतके अधीश्वर हैं। यही कारण है कि मायाकी गुण विषमताके कारण बननेवाले विभिन्न पदार्थों का उपभोग करते हुए भी आप उनमें लिप्त नहीं होते। यह केवल आपकी ही बात है। आपके अतिरिक्त दूसरे तो स्वयं उनका त्याग करके भी उन विषयोंसे डरते रहते हैं ||१७||

स्मायावलोकलवदर्शितभावहारि।
भ्रूमण्डलप्रहितसौरतमन्त्रशौण्डैः।
पत्न्यस्तु षोडशसहस्रमनङ्गबाणैर्।
यस्येन्द्रियं विमथितुं करणैर्न विभ्व्यः १८।

सोलह हजारसे अधिक रानियाँ आपके साथ रहती हैं। वे सब अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवनसे युक्त
मनोहर भौंहोंके इशारेसे और सुरतालापोंसे प्रौढ़ सम्मोहक कामबाण चलाती हैं और कामकलाकी विविध रीतियोंसे आपका मन आकर्षित करना चाहती हैं; परंतु फिर भी वे अपने परिपुष्ट कामबाणोंसे आपका मन तनिक भी न डिगा सकीं, वे असफल ही रहीं ।।१८।।

विभ्व्यस्तवामृतकथोदवहास्त्रिलोक्याः।
पादावनेजसरितः शमलानि हन्तुम्।
आनुश्रवं श्रुतिभिरङ्घ्रिजमङ्गसङ्गैस्।
तीर्थद्वयं शुचिषदस्त उपस्पृशन्ति १९।

आपने त्रिलोकीकी पाप-राशिको धो बहानेके लिये दो प्रकारकी पवित्र नदियाँ बहा रखी हैं-एक तो आपकी अमृतमयी लीलासे भरी कथानदी और दूसरी आपके पाद-प्रक्षालनके जलसे भरी गंगाजी। अतः सत्संगसेवी विवेकीजन कानोंके
द्वारा आपकी कथा-नदीमें और शरीरके द्वारा गंगाजीमें गोता लगाकर दोनों ही तीर्थोंका सेवन करते हैं और अपने पाप-ताप मिटा देते हैं ।।१९।।

श्रीबादरायणिरुवाच।
इत्यभिष्टूय विबुधैः सेशः शतधृतिर्हरिम्।
अभ्यभाषत गोविन्दं प्रणम्याम्बरमाश्रितः २०।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! समस्त देवताओं और भगवान् शंकरके साथ ब्रह्माजीने इस प्रकार भगवान्की स्तुति की। इसके बाद वे प्रणाम करके अपने धाममें जानेके लिये आकाशमें स्थित होकर भगवान्से इस प्रकार कहने लगे ।।२०।।

श्रीब्रह्मोवाच।
भूमेर्भारावताराय पुरा विज्ञापितः प्रभो।
त्वमस्माभिरशेषात्मन्तत्तथैवोपपादितम् २१।

ब्रह्माजीने कहा-सर्वात्मन् प्रभो! पहले हमलोगोंने आपसे अवतार लेकर पृथ्वीका भार उतारनेके लिये प्रार्थना की थी। सो वह काम आपने हमारी प्रार्थनाके अनुसार ही यथोचितरूपसे पूरा कर दिया ||२१||

धर्मश्च स्थापितः सत्सु सत्यसन्धेषु वै त्वया।
कीर्तिश्च दिक्षु विक्षिप्ता सर्वलोकमलापहा २२।

आपने सत्यपरायण साधुपुरुषों के कल्याणार्थ धर्मकी स्थापना भी कर दी और दसों दिशाओंमें ऐसी कीर्ति फैला दी, जिसे सुन-सुनाकर सब लोग अपने मनका मैल मिटा देते हैं ।।२२।।

अवतीर्य यदोर्वंशे बिभ्रद्रूपमनुत्तमम्।
कर्माण्युद्दामवृत्तानि हिताय जगतोऽकृथाः २३।

आपने यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंशमें अवतार लिया और जगतके हितके लिये उदारता और पराक्रमसे भरी अनेकों लीलाएँ की ।।२३।।

यानि ते चरितानीश मनुष्याः साधवः कलौ।
शृण्वन्तः कीर्तयन्तश्च तरिष्यन्त्यञ्जसा तमः २४।

प्रभो! कलियुगमें जो साधुस्वभाव मनुष्य आपकी इन लीलाओंका श्रवण-कीर्तन करेंगे वे सुगमतासे ही इस अज्ञानरूप अन्धकारसे पार हो जायँगे ||२४||

यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरुषोत्तम।
शरच्छतं व्यतीयाय पञ्चविंशाधिकं प्रभो २५।

पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान् प्रभो! आपको यदुवंशमें अवतार ग्रहण किये एक सौ पचीस वर्ष बीत गये हैं ||२५||

नाधुना तेऽखिलाधार देवकार्यावशेषितम्।
कुलं च विप्रशापेन नष्टप्रायमभूदिदम् २६।

सर्वाधार! अब हमलोगोंका ऐसा कोई काम बाकी नहीं है, जिसे पूर्ण करनेके लिये आपके यहाँ रहनेकी आवश्यकता हो। ब्राह्मणोंके शापके कारण आपका यह कुल भी एक प्रकारसे नष्ट हो ही चुका है ।।२६।।

ततः स्वधाम परमं विशस्व यदि मन्यसे।
सलोकाल्लोकपालान्नः पाहि वैकुण्ठकिङ्करान् २७।

इसलिये वैकुण्ठनाथ! यदि आप उचित समझें तो अपने परमधाममें पधारिये और अपने सेवक हम लोकपालोंका तथा हमारे लोकोंका पालन-पोषण कीजिये ।।२७।।

श्रीभगवानुवाच।
अवधारितमेतन्मे यदात्थ विबुधेश्वर।
कृतं वः कार्यमखिलं भूमेर्भारोऽवतारितः २८।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा-ब्रह्माजी! आप जैसा कहते हैं, मैं पहलेसे ही वैसा निश्चय कर चुका हूँ। मैंने आपलोगोंका सब काम पूरा करके पृथ्वीका भार उतार दिया ||२८||

तदिदं यादवकुलं वीर्यशौर्यश्रियोद्धतम्।
लोकं जिघृक्षद्रुद्धं मे वेलयेव महार्णवः २९।

परन्तु अभी एक काम बाकी है; वह यह कि यदुवंशी बल-विक्रम, वीरताशरता और धन-सम्पत्तिसे उन्मत्त हो रहे हैं। ये सारी पृथ्वीको ग्रस लेनेपर तले हए हैं। इन्हें मैंने ठीक वैसे ही रोक रखा है, जैसे समुद्रको उसके तटकी भूमि ||२९||

यद्यसंहृत्य दृप्तानां यदूनां विपुलं कुलम्।
गन्तास्म्यनेन लोकोऽयमुद्वेलेन विनङ्क्ष्यति ३०।

यदि मैं घमंडी और उच्छृखल यदुवंशियोंका यह विशाल वंश नष्ट किये बिना ही चला जाऊँगातो ये सब मर्यादाका उल्लंघन करके सारे लोकोंका संहार कर डालेंगे ||३०||

इदानीं नाश आरब्धः कुलस्य द्विजशापजः।
यास्यामि भवनं ब्रह्मन्नेतदन्ते तवानघ ३१।

निष्पाप ब्रह्माजी! अब ब्राह्मणोंके शापसे इस वंशका नाश प्रारम्भ हो चुका है। इसका अन्त हो जानेपर मैं आपके धाममें होकर जाऊँगा ।।३१||

श्रीशुक उवाच।
इत्युक्तो लोकनाथेन स्वयम्भूः प्रणिपत्य तम्।
सह देवगणैर्देवः स्वधाम समपद्यत ३२।

श्रीशकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! जब अखिललोकाधिपति भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार कहा, तब ब्रह्माजीने उन्हंअ प्रणाम किया और देवताओंके साथ वे अपने धामको चले गये ||३२||

अथ तस्यां महोत्पातान्द्वारवत्यां समुत्थितान्।
विलोक्य भगवानाह यदुवृद्धान्समागतान् ३३।

उनके जाते ही द्वारकापुरीमें बड़े-बड़े अपशकुन, बड़े-बड़े उत्पात उठ खड़े हुए। उन्हें देखकर यदुवंशके बड़े-बूढ़े भगवान् श्रीकृष्णके पास आये। भगवान् श्रीकृष्णने उनसे यह बात कही ।।३३।।

श्रीभगवानुवाच।
एते वै सुमहोत्पाता व्युत्तिष्ठन्तीह सर्वतः।
शापश्च नः कुलस्यासीद्ब्राह्मणेभ्यो दुरत्ययः ३४।

न वस्तव्यमिहास्माभिर्जिजीविषुभिरार्यकाः।
प्रभासं सुमहत्पुण्यं यास्यामोऽद्यैव मा चिरम् ३५।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा-गुरुजनो! आजकल द्वारकामें जिधर देखिये, उधर ही बड़े-बड़े अपशकुन और उत्पात हो रहे हैं। आपलोग जानते ही हैं कि ब्राह्मणोंने हमारे वंशको ऐसा शाप दे दिया है, जिसे टाल सकना बहुत ही कठिन है। मेरा ऐसा विचार है कि यदि हमलोग अपने प्राणोंकी रक्षा चाहते हों तो हमें यहाँ नहीं रहना चाहिये। अब विलम्ब करनेकी आवश्यकता नहीं है। हमलोग आज ही परम पवित्र प्रभासक्षेत्रके लिये निकल पड़ें ||३४-३५।।

यत्र स्नात्वा दक्षशापाद्गृहीतो यक्ष्मणोदुराट्।
विमुक्तः किल्बिषात्सद्यो भेजे भूयः कलोदयम् ३६।

प्रभासक्षेत्रकी महिमा बहुत प्रसिद्ध है। जिस समय दक्ष प्रजापतिके शापसे चन्द्रमाको राजयक्ष्मा रोगने ग्रस लिया था, उस समय उन्होंने प्रभासक्षेत्रमें जाकर स्नान किया और वे तत्क्षण उस पापजन्य रोगसे छूट गये। साथ ही उन्हें कलाओंकी अभिवृद्धि भी प्राप्त हो गयी ।।३६।।

वयं च तस्मिन्नाप्लुत्य तर्पयित्वा पितॄन्सुरान्।
भोजयित्वोशिजो विप्रान्नानागुणवतान्धसा ३७।

तेषु दानानि पात्रेषु श्रद्धयोप्त्वा महान्ति वै।
वृजिनानि तरिष्यामो दानैर्नौभिरिवार्णवम् ३८।

हमलोग भी प्रभासक्षेत्रमें चलकर स्नान करेंगे, देवता एवं पितरोंका तर्पण करेंगे और साथ ही अनेकों गुणवाले पकवान तैयार करके श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको भोजन करायेंगे। वहाँ हमलोग उन सत्पात्र ब्राह्मणोंको पूरी श्रद्धासे बड़ी-बड़ी दान-दक्षिणा देंगे और इस प्रकार उनके द्वारा अपने बड़े-बड़े संकटोंको वैसे ही पार कर जायँगे, जैसे कोई जहाजके द्वारा समुद्र पार कर जाय! ||३७-३८।।

श्रीशुक उवाच।
एवं भगवतादिष्टा यादवाः कुरुनन्दन।
गन्तुं कृतधियस्तीर्थं स्यन्दनान्समयूयुजन् ३९।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-कुलनन्दन! जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार आज्ञा दी, तब यदुवंशियोंने एक मतसे प्रभास जानेका निश्चय कर लिया और सब अपने-अपने रथ सजाने-जोतने लगे ||३९।।

तन्निरीक्ष्योद्धवो राजन्श्रुत्वा भगवतोदितम्।
दृष्ट्वारिष्टानि घोराणि नित्यं कृष्णमनुव्रतः ४०।

विविक्त उपसङ्गम्य जगतामीश्वरेश्वरम्।
प्रणम्य शिरसा पादौ प्राञ्जलिस्तमभाषत ४१।

परीक्षित्! उद्धवजी भगवान् श्रीकृष्णके बड़े प्रेमी और सेवक थे। उन्होंने जब यदुवंशियोंको यात्राकी तैयारी करते देखा, भगवान्की आज्ञा सुनी और अत्यन्त घोर अपशकुन देखे तब वे जगतके एकमात्र अधिपति भगवान श्रीकृष्णके पास एकान्तमें गये, उनके चरणोंपर अपना सिर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना करने लगे ।।४०-४१।।

श्रीउद्धव उवाच।
देवदेवेश योगेश पुण्यश्रवणकीर्तन।
संहृत्यैतत्कुलं नूनं लोकं सन्त्यक्ष्यते भवान्।
विप्रशापं समर्थोऽपि प्रत्यहन्न यदीश्वरः ४२।

उद्धवजीने कहा-योगेश्वर! आप देवाधिदेवोंके भी अधीश्वर हैं। आपकी लीलाओंके श्रवण-कीर्तनसे जीव पवित्र हो जाता है। आप सर्वशक्तिमान् परमेश्वर हैं। आप चाहते तो ब्राह्मणोंके शापको मिटा सकते थे। परन्तु आपने वैसा किया नहीं। इससे मैं यह समझ गया कि अब आप यदुवंशका संहार करके, इसे समेटकर अवश्य ही इस लोकका परित्याग कर देंगे ||४२।।

नाहं तवाङ्घ्रिकमलं क्षणार्धमपि केशव।
त्यक्तुं समुत्सहे नाथ स्वधाम नय मामपि ४३।

परन्तु घुघराली अलकोंवाले श्यामसुन्दर! मैं आधे क्षणके लिये भी आपके चरणकमलोंके त्यागकी बात सोच भी नहीं सकता। मेरे जीवनसर्वस्व, मेरे स्वामी! आप मुझे भी अपने धाममें ले चलिये ।।४३||

तव विक्रीडितं कृष्ण नृणां परममङ्गलम्।
कर्णपीयूषमासाद्य त्यजन्त्यन्यस्पृहां जनाः ४४।

शय्यासनाटनस्थान स्नानक्रीडाशनादिषु।
कथं त्वां प्रियमात्मानं वयं भक्तास्त्यजेम हि ४५।

प्यारे कृष्ण! आपकी एक-एक लीला मनुष्योंके लिये परम मंगलमयी और कानोंके लिये अमृतस्वरूप है। जिसे एक बार उस रसका चसका लग जाता है, उसके मनमें फिर किसी दूसरी वस्तुके लिये लालसा ही नहीं रह जाती। प्रभो! हम तो उठते-बैठते, सोतेजागते, घूमते-फिरते आपके साथ रहे हैं, हमने आपके साथ स्नान किया, खेल खेले, भोजन किया; कहाँतक गिनावें, हमारी एक-एक चेष्टा आपके साथ होती रही। आप हमारे प्रियतम हैं; और तो क्या, आप हमारे आत्मा ही हैं। ऐसी स्थितिमें हम आपके प्रेमी भक्त आपको कैसे छोड़ सकते हैं? ||४४-४५।।

त्वयोपभुक्तस्रग्गन्ध वासोऽलङ्कारचर्चिताः।
उच्छिष्टभोजिनो दासास्तव मायां जयेम हि ४६।

हमने आपकी धारण की हुई माला पहनी, आपके लगाये हुए चन्दन लगाये, आपके उतारे हुए वस्त्र पहने और आपकेधारण किये हुए गहनोंसे अपने-आपको सजाते रहे। हम आपकी जूठन खानेवाले सेवक हैं। इसलिये हम आपकी मायापर अवश्य ही विजय प्राप्त कर लेंगे। (अतः प्रभो! हमें आपकी मायाका डर नहीं है, डर है तो केवल आपके वियोगका) ||४६।।

वातरशना य ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनः।
ब्रह्माख्यं धाम ते यान्ति शान्ताः सन्न्यासिनोऽमलाः ४७।

हम जानते हैं कि मायाको पार कर लेना बहुत ही कठिन है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि दिगम्बर रहकर और आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्यका पालन करके अध्यात्मविद्याके लिये अत्यन्त परिश्रम करते हैं। इस प्रकारकी कठिन साधनासे उन संन्यासियोंके हृदय निर्मल हो पाते हैं और तब कहीं वे समस्त वृत्तियोंकी शान्तिरूप नैष्कर्म्य-अवस्थामें स्थित होकर आपके ब्रह्मनामक धामको प्राप्त होते हैं ।।४७।।

वयं त्विह महायोगिन्भ्रमन्तः कर्मवर्त्मसु।
त्वद्वार्तया तरिष्यामस्तावकैर्दुस्तरं तमः ४८।

स्मरन्तः कीर्तयन्तस्ते कृतानि गदितानि च।
गत्युत्स्मितेक्षणक्ष्वेलि यन्नृलोकविडम्बनम् ४९।

महायोगेश्वर! हमलोग तो कर्म-मार्गमें ही भ्रमभटक रहे हैं! परन्तु इतना निश्चित है कि हम आपके भक्तजनोंके साथ आपके गुणों और लीलाओंकी चर्चा करेंगे तथा मनुष्यकी-सी लीला करते हुए आपने जो कुछ किया या कहा है, उसका स्मरण-कीर्तन करते रहेंगे। साथ ही आपकी चाल-ढाल, मुसकानचितवन और हास-परिहासकी स्मृतिमें तल्लीन हो जायँगे। केवल इसीसे हम दुस्तर मायाको पार कर लेंगे। (इसलिये हमें मायासे पार जानेकी नहीं, आपके विरहकी चिन्ता है। आप हमें छोड़िये नहीं, साथ ले चलिये) ।।४८-४९।।

श्रीशुक उवाच।
एवं विज्ञापितो राजन्भगवान्देवकीसुतः।
एकान्तिनं प्रियं भृत्यमुद्धवं समभाषत ५०।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब उद्धवजीने देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंने अपने अनन्यप्रेमी सखा एवं सेवकउद्धवजीसे कहा ।।५०।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः।


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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