श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 11 अध्याय 9
9 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः ९
कुरुरादि सप्तगुरूणां वर्णनम्, अवधूतोपाख्यानसमाप्तिश्च –
श्रीब्राह्मण उवाच –
( अनुष्टुप् )
परिग्रहो हि दुःखाय यद् यत् प्रियतमं नृणाम् ।
अनन्तं सुखमाप्नोति तद् विद्वान् यस्त्वकिञ्चनः ॥ १ ॥
अवधूत दत्तात्रेयजीने कहा-राजन्! मनुष्योंको जो वस्तुएँ अत्यन्त प्रिय लगती हैं, उन्हें इकट्ठा करना ही उनके दुःखका कारण है। जो बुद्धिमान् पुरुष यह बात समझकर अकिंचनभावसे रहता है—शरीरकी तो बात ही अलग, मनसे भी किसी वस्तुका संग्रह नहीं करता-उसे अनन्त सुखस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति होती है ।।१।।
सामिषं कुररं जघ्नुः बलिनो ये निरामिषाः ।
तदामिषं परित्यज्य स सुखं समविन्दत ॥ २ ॥
एक कुररपक्षी अपनी चोंचमें मांसका टुकड़ा लिये हुए था। उस समय दूसरे बलवान् पक्षी, जिनके पास मांस नहीं था, उससे छीननेके लिये उसे घेरकर चोंचे मारने लगे। जब कुररपक्षीने अपनी चोंचसे मांसका टुकड़ा फेंक दिया, तभी उसे सुख मिला ।।२।।
न मे मानापमानौ स्तो न चिन्ता गेहपुत्रिणाम् ।
आत्मक्रीड आत्मरतिः विचरामीह बालवत् ॥ ३ ॥
मुझे मान या अपमानका कोई ध्यान नहीं है और घर एवं परिवारवालोंको जो चिन्ता होती है, वह मुझे नहीं है। मैं अपने आत्मामें ही रमता हूँ और अपने साथ ही क्रीडा करता हूँ। यह शिक्षा मैंने बालकसे ली है। अतः उसीके समान मैं भी मौजसे रहता हूँ ||३||
द्वावेव चिन्तया मुक्तौ परमानन्द आप्लुतौ ।
यो विमुग्धो जडो बालो यो गुणेभ्यः परं गतः ॥ ४ ॥
इस जगत्में दो ही प्रकारके व्यक्ति निश्चिन्त और परमानन्दमें मग्न रहते हैं—एक तो भोलाभाला निश्चेष्ट नन्हासा बालक और दूसरा वह पुरुष जो गुणातीत हो गया हो ।।४।।
क्वचित् कुमारी त्वात्मानं वृणानान् गृहमागतान् ।
स्वयं तान् अर्हयामास क्वापि यातेषु बन्धुषु ॥ ५ ॥
एक बार किसी कुमारी कन्याके घर उसे वरण करनेके लिये कई लोग आये हुए थे। उस दिन उसके घरके लोग कहीं बाहर गये हुए थे। इसलिये उसने स्वयं ही उनका आतिथ्यसत्कार किया ||५||
तेषम् अभ्यवहारार्थं शालीन् रहसि पार्थिव ।
अवघ्नन्त्याः प्रकोष्ठस्थाः चक्रुः शङ्खाः स्वनं महत् ॥ ६ ॥
राजन! उनको भोजन करानेके लिये वह घरके भीतर एकान्तमें धान कुटने लगी। उस समय उसकी कलाईमें पड़ी शंखकी चूड़ियाँ जोर-जोरसे बज रही थीं ।।६।।
सा तत् जुगुप्सितं मत्वा महती व्रीडिता ततः ।
बभञ्जैकैकशः शङ्खान् द्वौ द्वौ पाण्योरशेषयत् ॥ ७ ॥
इस शब्दको निन्दित समझकर कुमारीको बड़ी लज्जा मालूम हुई और उसने एक-एक करके सब चूड़ियाँ तोड़ डाली और दोनों हाथोंमें केवल दो-दो चूड़ियाँ रहने दीं ।।७।।
उभयोरप्यभूद् घोषो ह्यवघ्नन्त्याः स्म शंखयोः ।
तत्राप्येकं निरभिदद् एकस्मात् नाभवद् ध्वनिः ॥ ८ ॥
अब वह फिर धान कूटने लगी। परन्तु वे दो-दो चूड़ियाँ भी बजने लगीं, तब उसने एक-एक चूड़ी और तोड़ दी। जब दोनों कलाइयोंमें केवल एक-एक चूड़ी रह गयी तब किसी प्रकारकी आवाज नहीं हुई ||८||
अन्वशिक्षमिमं तस्या उपदेशमरिन्दम ।
लोकान् अनुचरन् एतान् लोकतत्त्वविवित्सया ॥ ९ ॥
वासे बहूनां कलहो भवेत् वार्ता द्वयोरपि ।
एक एव चरेत् तस्मात् कुमार्या इव कङ्कणः ॥ १० ॥
रिपुदमन! उस समय लोगोंका आचार-विचार निरखने-परखनेके लिये इधर-उधर घूमताघामता मैं भी वहाँ पहुँच गया था। मैंने उससे यह शिक्षा ग्रहण की कि जब बहुत लोग एक साथ रहते हैं तब कलह होता है और दो आदमी साथ रहते हैं तब भी बातचीत तो होती ही है; इसलिये कुमारी कन्याकी चूड़ीके समान अकेले ही विचरना चाहिये ।।९-१०||
मन एकत्र संयुञ्ज्यात् जितश्वासो जितासनः ।
वैराग्याभ्यासयोगेन ध्रियमाणमतन्द्रितः ॥ ११ ॥
राजन्! मैंने बाण बनानेवालेसे यह सीखा है कि आसन और श्वासको जीतकर वैराग्य और अभ्यासके द्वारा अपने मनको वशमें कर ले और फिर बड़ी सावधानीके साथ उसे एक लक्ष्यमें लगा दे ||११||
( मिश्र )
यस्मिन्मनो लब्धपदं यदेतत्
शनैः शनैः मुञ्चति कर्मरेणून् ।
सत्त्वेन वृद्धेन रजस्तमश्च
विधूय निर्वाणमुपैत्यनिन्धनम् ॥ १२ ॥
जब परमानन्दस्वरूप परमात्मामें मन स्थिर हो जाता है तब वह धीरेधीरे कर्मवासनाओंती धूलको धो बहाता है। सत्त्वगुणकी वृद्धिसे रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियोंका त्याग करके मन वैसे ही शान्त हो जाता है, जैसे ईंधनके बिना अग्नि ।।१२।।
( उपेंद्रवज्रा )
तदैवमात्मन्यवरुद्धचित्तो
न वेद किञ्चिद् बहिरन्तरं वा ।
यथेषुकारो नृपतिं व्रजन्तं
इषौ गतात्मा न ददर्श पार्श्वे ॥ १३ ॥
इस प्रकार जिसका चित्त अपने आत्मामें ही स्थिर–निरुद्ध हो जाता है, उसे बाहर-भीतर कहीं किसी पदार्थका भान नहीं होता। मैंने देखा था कि एक बाण बनानेवाला कारीगर बाण बनानेमें इतना तन्मय हो रहा था कि उसके पाससे ही दलबलके साथ राजाकी सवारी निकल गयी और उसे पतातक न चला ।।१३।।
( अनुष्टुप् )
एकचार्यनिकेतः स्याद् , अप्रमत्तो गुहाशयः ।
अलक्ष्यमाण आचारैः मुनिरेकोऽल्पभाषणः ॥ १४ ॥
राजन्! मैंने साँपसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासीको सर्पकी भाँति अकेले ही विचरण करना चाहिये, उसे मण्डली नहीं बाँधनी चाहिये, मठ तो बनाना ही नहीं चाहिये। वह एक स्थानमें न रहे, प्रमाद न करे, गुहा आदिमें पड़ा रहे, बाहरी आचारोंसे पहचाना न जाय। किसीसे सहायता न ले और बहुत कम बोले ।।१४।।
गृहारम्भोऽतिदुःखाय विफलश्चाध्रुवात्मनः ।
सर्पः परकृतं वेश्म प्रविश्य सुखमेधते ॥ १५ ॥
इस अनित्य शरीरके लिये घर बनानेके बखेड़ेमें पड़ना व्यर्थ और दुःखकी जड़ है। साँप दूसरोंके बनाये घरमें घुसकर बड़े आरामसेअपना समय काटता है ।।१५।।
एको नारायणो देवः पूर्वसृष्टं स्वमायया ।
संहृत्य कालकलया कल्पान्त इदमीश्वरः ॥ १६ ॥
एक एवाद्वितीयोऽभूत् आत्माधारोऽखिलाश्रयः ।
कालेनात्मानुभावेन साम्यं नीतासु शक्तिषु ।
सत्त्वादिष्वादिपुरुषः प्रधानपुरुषेश्वरः ॥ १७ ॥
परावराणां परम, आस्ते कैवल्यसंज्ञितः ।
केवलानुभवानन्द सन्दोहो निरुपाधिकः ॥ १८ ॥
केवलात्मानुभावेन स्वमायां त्रिगुणात्मिकाम् ।
सङ्क्षोभयन् सृजत्यादौ तया सूत्रमरिन्दम ॥ १९ ॥
तामाहुः त्रिगुणव्यक्तिं सृजन्तीं विश्वतोमुखम् ।
यस्मिन् प्रोतम् इदं विश्वं येन संसरते पुमान् ॥ २० ॥
अब मकड़ीसे ली हुई शिक्षा सुनो। सबके प्रकाशक और अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् भगवानने पूर्वकल्पमें बिना किसी अन्य सहायकके अपनी ही मायासे रचे हए जगतको कल्पके अन्तमें (प्रलयकाल उपस्थित होनेपर) कालशक्तिके द्वारा नष्ट कर दिया—उसे अपनेमें लीन कर लिया और सजातीय, विजातीय तथा स्वगतभेदसे शून्य अकेले ही शेष रह गये। वे सबके अधिष्ठान हैं, सबके आश्रय हैं; परन्तु स्वयं अपने आश्रय-अपने ही आधारसे रहते हैं, उनका कोई दूसरा आधार नहीं है। वे प्रकृति और पुरुष दोनोंके नियामक, कार्य और कारणात्मक जगत्के आदिकारण परमात्मा अपनी शक्ति कालके प्रभावसे सत्त्व-रज आदि समस्त शक्तियोंको साम्यावस्थामें पहँचा देते हैं और स्वयं कैवल्यरूपसे एक और अद्वितीयरूपसे विराजमान रहते हैं। वे केवल अनुभवस्वरूप और आनन्दघन मात्र हैं। किसी भी प्रकारकी उपाधिका उनसे सम्बन्ध नहीं है। वे ही प्रभु केवल अपनी शक्ति कालके द्वारा अपनी त्रिगणमयी मायाको क्षुब्ध करते हैं और उससे पहले क्रियाशक्ति-प्रधान सूत्र (महत्तत्त्व) की रचना करते हैं। यह सूत्ररूप महत्तत्त्व ही तीनों गुणोंकी पहली अभिव्यक्ति है, वही सब प्रकारकी सृष्टिका मूल कारण है। उसीमें यह सारा विश्व, सूतमें ताने-बानेकी तरह ओतप्रोत है और इसीके कारण जीवको जन्म-मृत्युके चक्करमें पड़ना पड़ता है ||१६-२०||
यथोर्णनाभिः हृदयाद् ऊर्णां सन्तत्य वक्त्रतः ।
तया विहृत्य भूयस्तां ग्रसत्येवं महेश्वरः ॥ २१ ॥
जैसे मकड़ी अपने हृदयसे मुँहके द्वारा जाला फैलाती है, उसीमें विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है, वैसे ही परमेश्वर भी इस जगत्को अपनेमेंसे उत्पन्न करते हैं, उसमें जीवरूपसे विहार करते हैं और फिर उसे अपनेमें लीन कर लेते हैं ।।२१।।
यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया ।
स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वापि याति तत् तत्स्वरूपताम् ॥ २२ ॥
राजन्! मैंने भुंगी (बिलनी) कीड़ेसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि यदि प्राणी स्नेहसे, द्वेषसे अथवा भयसे भी जान-बूझकर एकाग्ररूपसे अपना मन किसीमें लगा दे तो उसे उसी वस्तुका स्वरूप प्राप्त हो जाता है ।।२२।।
कीटः पेशस्कृतं ध्यायन् कुड्यां तेन प्रवेशितः ।
याति तत्सात्मतां राजन् पूर्वरूपमसन्त्यजन् ॥ २३ ॥
राजन्! जैसे भुंगी एक कीड़ेको ले जाकर दीवारपर अपने रहनेकी जगह बंद कर देता है और वह कीड़ा भयसे उसीका चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीरका त्याग किये बिना ही उसी शरीरसे तद्रूप हो जाता है ।।२३।।
एवं गुरुभ्य एतेभ्य एषा मे शिक्षिता मतिः ।
स्वात्मोपशिक्षितां बुद्धिं श्रृणु मे वदतः प्रभो ॥ २४ ॥
राजन्! इस प्रकार मैंने इतने गुरुओंसे ये शिक्षाएँ ग्रहण की। अब मैंने अपने शरीरसे जो कुछ सीखा है, वह तुम्हें बताता हूँ, सावधान होकर सुनो ||२४||
( वसंततिलका )
देहो गुरुर्मम विरक्तिविवेकहेतुः
बिभ्रत् स्म सत्त्वनिधनं सततार्त्युदर्कम् ।
तत्त्वान्यनेन विमृशामि यथा तथापि
पारक्यमित्यवसितो विचराम्यसङ्गः ॥ २५ ॥
यह शरीर भी मेरा गुरु ही है; क्योंकि यह मुझे विवेक और वैराग्यकी शिक्षा देता है। मरना और जीना तो इसके साथ लगा ही रहता है। इस शरीरको पकड़ रखनेका फल यह है कि दुःख-पर-दुःख भोगते जाओ। यद्यपि इस शरीरसे तत्त्वविचार करने में सहायता मिलती है, तथापि मैं इसे अपना कभी नहीं समझता; सर्वदा यही निश्चय रखता हूँ कि एक दिन इसे सियार-कुत्ते खा जायँगे। इसीलिये मैं इससे असंग होकर विचरता हूँ ||२५||
जायात्मजार्थपशुभृत्यगृहाप्तवर्गान्
पुष्णाति यत्प्रियचिकीर्षुतया वितन्वन् ।
स्वान्ते सकृच्छ्रमवरुद्धधनः स देहः
सृष्ट्वास्य बीजमवसीदति वृक्षधर्मा ॥ २६ ॥
जीव जिस शरीरका प्रिय करनेके लिये ही अनेकों प्रकारकी कामनाएँ और कर्म करता है तथा स्त्री-पुत्र, धन-दौलत, हाथी-घोड़े, नौकर-चाकर, घर-द्वार और भाई-बन्धुओंका विस्तार करते हुए उनके पालन-पोषणमें लगा रहता है। बड़ीबड़ी कठिनाइयाँ सहकर धनसंचय करता है। आयुष्य पूरी होनेपर वही शरीर स्वयं तो नष्ट होता ही है, वृक्षके समान दूसरे शरीरके लिये बीज बोकर उसके लिये भी दुःखकी व्यवस्था कर जाता है ।।२६।।
जिह्वैकतोऽमुमपकर्षति कर्हि तर्षा
शिश्नोऽन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित् ।
घ्राणोऽन्यतश्चपलदृक् क्व च कर्मशक्तिः
बह्व्यः सपत्न्य इव गेहपतिं लुनन्ति ॥ २७ ॥
जैसे बहुत-सी सौतें अपने एक पतिको अपनी-अपनी ओर खींचती हैं, वैसे ही जीवको जीभ एक और स्वादिष्ट पदार्थों की ओर खींचती है तो प्यास दूसरी ओरजलकी ओर; जननेन्द्रिय एक ओर-स्त्रीसंभोगकी ओर ले जाना चाहती है तो त्वचा, पेट और कान दूसरी ओर-कोमल स्पर्श, भोजन और मधुर शब्दकी ओर खींचने लगते हैं। नाक कहीं सुन्दर गन्ध सँघनेके लिये ले जाना चाहती है तो चंचल नेत्र कहीं दूसरी ओर सुन्दर रूप देखनेके लिये। इस प्रकार कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ दोनों ही इसे सताती रहती हैं ||२७।।
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयाऽऽत्मशक्त्या
वृक्षान् सरीसृप पशून् खगदंशमत्स्यान् ।
तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ।
ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः ॥ २८ ॥
वैसे तो भगवान्ने अपनी अचिन्त्य शक्ति मायासे वृक्ष, सरीसृप (रेंगनेवाले जन्तु) पशु, पक्षी, डाँस और मछली आदि अनेकों प्रकारकी योनियाँ रची; परन्तु उनसे उन्हें सन्तोष न हुआ। तब उन्होंने मनुष्यशरीरकी सृष्टि की। यह ऐसी बुद्धिसे युक्त है जो ब्रह्मका साक्षात्कार कर सकती है। इसकी रचना करके वे बहुत आनन्दित हुए ||२८||
लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसंभवान्ते
मानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीरः ।
तूर्णं यतेत न पतेदनुमृत्यु यावन्
निःश्रेयसाय विषयः खलु सर्वतः स्यात् ॥ २९ ॥
यद्यपि यह मनुष्यशरीर है तो अनित्य ही मृत्यु सदा इसके पीछे लगी रहती है। परन्तु इससे परमपुरुषार्थकी प्राप्ति हो सकती है। इसलिये अनेक जन्मोंके बाद यह अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर पाकर बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि शीघ्र-से-शीघ्र, मृत्युके पहले ही मोक्ष-प्राप्तिका प्रयत्न कर ले। इस जीवनका मुख्यउद्देश्य मोक्ष ही है। विषय-भोग तो सभी योनियोंमें प्राप्त हो सकते हैं, इसलिये उनके संग्रहमें यह अमूल्य जीवन नहीं खोना चाहिये ।।२९।।
( अनुष्टुप् )
एवं सञ्जातवैराग्यो विज्ञानालोक आत्मनि ।
विचरामि महीमेतां मुक्तसङ्गोऽनहङ्कृतिः ॥ ३० ॥
राजन्! यही सब सोच-विचारकर मुझे जगत्से वैराग्य हो गया। मेरे हृदयमें ज्ञानविज्ञानकी ज्योति जगमगाती रहती है। न तो कहीं मेरी आसक्ति है और न कहीं अहंकार ही। अब मैं स्वच्छन्दरूपसे इस पृथ्वीमें विचरण करता हूँ ||३०||
न ह्येकस्मात् गुरोर्ज्ञानं सुस्थिरं स्यात् सुपुष्कलम् ।
ब्रह्मैतदद्वितीयं वै गीयते बहुधर्षिभिः ॥ ३१ ॥
राजन्! अकेले गुरुसे ही यथेष्ट और सुदढ़ बोध नहीं होता, उसके लिये अपनी बुद्धिसे भी बहुत कुछ सोचने-समझनेकी आवश्यकता है। देखो! ऋषियोंने एक ही अद्वितीय ब्रह्मका अनेकों प्रकारसे गान किया है। (यदि तुम स्वयं विचारकर निर्णय न करोगे तो ब्रह्मके वास्तविक स्वरूपको कैसे जान सकोगे?) ||३१||
श्रीभगवानुवाच –
इत्युक्त्वा स यदुं विप्रः तमामन्त्र्य गभीरधीः ।
वन्दितोऽभ्यर्थितो राज्ञा ययौ प्रीतो यथागतम् ॥ ३२ ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा-प्यारे उद्धव! गम्भीरबुद्धि अवधूत दत्तात्रेयने राजा यदुको इस प्रकार उपदेश किया। यदुने उनकी पूजा और वन्दना की, दत्तात्रेयजी उनसे अनुमति लेकर बड़ी प्रसन्नतासे इच्छानुसार पधार गये ।।३२।।
अवधूतवचः श्रुत्वा पूर्वेषां नः स पूर्वजः ।
सर्वसङ्गविनिर्मुक्तः समचित्तो बभूव ह ॥ ३३ ॥
हमारे पूर्वजोंके भी पूर्वज राजा यदु अवधूत दत्तात्रेयकी यह बात सुनकर समस्त आसक्तियोंसे छुटकारा पा गये और समदर्शी हो गये। (इसी प्रकार तुम्हें भी समस्त आसक्तियोंका परित्याग करके समदर्शी हो जाना चाहिये) ।।३३।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां एकादशस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥