श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 12 अध्याय 11
11 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ११
आदित्यव्यूहविवरणम्
अथेममर्थं पृच्छामो भवन्तं बहुवित्तमम्
समस्ततन्त्रराद्धान्ते भवान् भागवततत्त्ववित् १
शौनकजीने कहा-सूतजी! आप भगवान्के परमभक्त और बहुज्ञोंमें शिरोमणि हैं। हमलोग समस्त शास्त्रोंके सिद्धान्तके सम्बन्धमें आपसे एक विशेष प्रश्न पूछना चाहते हैं, क्योंकि आप उसके मर्मज्ञ हैं ।।१।।
तान्त्रिकाः परिचर्यायां केवलस्य श्रियः पतेः
अङ्गोपाङ्गायुधाकल्पं कल्पयन्ति यथा च यैः २
तन्नो वर्णय भद्रं ते क्रियायोगं बुभुत्सताम्
येन क्रियानैपुणेन मर्त्यो यायादमर्त्यताम् ३
हमलोग क्रियायोगका यथावत् ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं; क्योंकि उसका कुशलतापूर्वक ठीक-ठीक आचरण करनेसे मरणधर्मा पुरुष अमरत्व प्राप्त कर लेता है। अतः आप हमें यह बतलाइये कि पांचरात्रादि तन्त्रोंकी विधि जाननेवाले लोग केवल श्रीलक्ष्मीपति भगवानकी आराधना करते समय किन-किन तत्त्वोंसे उनके चरणादि अंग, गरुडादि उपांग, सुदर्शनादि आयुध और कौस्तुभादि आभूषणोंकी कल्पना करते हैं? भगवान् आपका कल्याण करें ||२-३||
सूत उवाच
नमस्कृत्य गुरून्वक्ष्ये विभूतीर्वैष्णवीरपि
याः प्रोक्ता वेदतन्त्राभ्यामाचार्यैः पद्मजादिभिः ४
सूतजीने कहा-शौनकजी! ब्रह्मादि आचार्योंने, वेदोंने और पांचरात्रादि तन्त्र-ग्रन्थोंने विष्णभगवानकी जिन विभूतियोंका वर्णन किया है, मैं श्रीगुरुदेवके चरणोंमें नमस्कार करके आपलोगोंको वही सुनाता हूँ ।।४।।
मायाद्यैर्नवभिस्तत्त्वैः स विकारमयो विराट्
निर्मितो दृश्यते यत्र सचित्के भुवनत्रयम् ५
भगवान्के जिस चेतनाधिष्ठित विराट रूपमें यह त्रिलोकीदिखायी देती है, वह प्रकृति, सूत्रात्मा, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्रा-इन नौ तत्त्वोंके सहित ग्यारह इन्द्रिय तथा पंचभूत-इन सोलह विकारोंसे बना हुआ है ।।५।।
एतद्वै पौरुषं रूपं भूः पादौ द्यौः शिरो नभः
नाभिः सूर्योऽक्षिणी नासे वायुः कर्णौ दिशः प्रभोः ६
यह भगवान्का ही पुरुषरूप है। पृथ्वी इसके चरण हैं, स्वर्ग मस्तक है, अन्तरिक्ष नाभि है, सूर्य नेत्र हैं, वायु नासिका है और दिशाएँ कान हैं ।।६।।
प्रजापतिः प्रजननमपानो मृत्युरीशितुः
तद्बाहवो लोकपाला मनश्चन्द्रो भ्रुवौ यमः ७
प्रजापति लिंग है, मृत्यु गुदा है, लोकपालगण भुजाएँ हैं, चन्द्रमा मन है और यमराज भौंहेंहैं ।।७।।
लज्जोत्तरोऽधरो लोभो दन्ता ज्योत्स्ना स्मयो भ्रमः
रोमाणि भूरुहा भूम्नो मेघाः पुरुषमूर्धजाः ८
लज्जा ऊपरका होठ है, लोभ नीचेका होठ है, चन्द्रमाकी चाँदनी दन्तावली है, भ्रम मुसकान है, वृक्ष रोम हैं और बादल ही विराट् पुरुषके सिरपर उगे हुए बाल हैं ||८||
यावानयं वै पुरुषो यावत्या संस्थया मितः
तावानसावपि महापुरुषो लोकसंस्थया ९
शौनकजी! जिस प्रकार यह व्यष्टि पुरुष अपने परिमाणसे सात बित्तेका है उसी प्रकार वह समष्टि पुरुष भी इस लोकसंस्थितिके साथ अपने सात बित्तेका है ।।९।।
कौस्तुभव्यपदेशेन स्वात्मज्योतिर्बिभर्त्यजः
तत्प्रभा व्यापिनी साक्षात्श्रीवत्समुरसा विभुः १०
स्वयं भगवान् अजन्मा हैं। वे कौस्तुभमणिके बहाने जीव-चैतन्यरूप आत्मज्योतिको ही धारण करते हैं और उसकी सर्वव्यापिनी प्रभाको ही वक्षःस्थलपर श्रीवत्सरूपसे ।।१०।।
स्वमायां वनमालाख्यां नानागुणमयीं दधत्
वासश्छन्दोमयं पीतं ब्रह्मसूत्रं त्रिवृत्स्वरम् ११
वे अपनी सत्त्व, रज आदि गुणोंवाली मायाको वनमालाके रूपसे, छन्दको पीताम्बरके रूपसे तथा अ+उ+म्-इन तीन मात्रावाले प्रणवको यज्ञोपवीतके रूपमें धारण करते हैं ।।११।।
बिभर्ति साङ्ख्यं योगं च देवो मकरकुण्डले
मौलिं पदं पारमेष्ठ्यं सर्वलोकाभयङ्करम् १२
देवाधिदेव भगवान् सांख्य और योगरूप मकराकृत कुण्डल तथा सब लोकोंको अभय करनेवाले ब्रह्मलोकको ही मुकुटके रूपमें धारण करते हैं ।।१२।।
अव्याकृतमनन्ताख्यमासनं यदधिष्ठितः
धर्मज्ञानादिभिर्युक्तं सत्त्वं पद्ममिहोच्यते १३
मूलप्रकृति ही उनकी शेषशय्या है, जिसपर वे विराजमान रहते हैं और धर्म-ज्ञानादियुक्त सत्त्वगुण ही उनके नाभि-कमलके रूपमें वर्णित हुआ है ।।१३।।
ओजःसहोबलयुतं मुख्यतत्त्वं गदां दधत्
अपां तत्त्वं दरवरं तेजस्तत्त्वं सुदर्शनम् १४
वे मन, इन्द्रिय और शरीरसम्बन्धी शक्तियोंसे युक्त प्राण-तत्त्वरूप कौमोदकी गदा, जलतत्त्वरूप पांचजन्य शंख और तेजस्तत्त्वरूप सुदर्शनचक्रको धारण करते हैं ।।१४।।
नभोनिभं नभस्तत्त्वमसिं चर्म तमोमयम्
कालरूपं धनुः शार्ङ्गं तथा कर्ममयेषुधिम् १५
आकाशके समान निर्मल आकाशस्वरूप खड्ग, तमोमय अज्ञानरूप ढाल, कालरूप शार्ङ्गधनुष और कर्मका ही तरकस धारण किये हए हैं ।।१५।।
इन्द्रियाणि शरानाहुराकूतीरस्य स्यन्दनम्
तन्मात्राण्यस्याभिव्यक्तिं मुद्रयार्थक्रियात्मताम् १६
इन्द्रियोंको ही भगवान्के बाणोंके रूपमें कहा गया है। क्रियाशक्तियुक्त मन ही रथ है। तन्मात्राएँ रथके बाहरी भाग हैं और वर-अभय आदिकी मुद्राओंसे उनकी वरदान, अभयदान आदिके रूपमें क्रियाशीलता प्रकट होती है ।।१६।।
मण्डलं देवयजनं दीक्षा संस्कार आत्मनः
परिचर्या भगवत आत्मनो दुरितक्षयः १७
सूर्यमण्डल अथवा अग्निमण्डल ही भगवानकी पूजाका स्थान है, अन्तःकरणकी शुद्धि ही मन्त्रदीक्षा है और अपने समस्त पापोंको नष्ट कर देना ही भगवान्की पूजा है ।।१७।।
भगवान्भगशब्दार्थं लीलाकमलमुद्वहन्
धर्मं यशश्च भगवांश्चामरव्यजनेऽभजत् १८
आतपत्रं तु वैकुण्ठं द्विजा धामाकुतोभयम्
त्रिवृद्वेदः सुपर्णाख्यो यज्ञं वहति पूरुषम् १९
ब्राह्मणो! समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य-इन छ: पदार्थोंका नाम ही लीला-कमल है, जिसे भगवान् अपने करकमलमें धारण करते हैं। धर्म और यशको क्रमशः चँवर एवं व्यजन (पंखे) के रूपसे तथा अपने निर्भय धाम वैकुण्ठको छत्ररूपसे धारण किये हुए हैं। तीनों वेदोंका ही नाम गरुड है। वे ही अन्तर्यामी परमात्माका वहन करते हैं ।।१८-१९।।
अनपायिनी भगवती श्रीः साक्षादात्मनो हरेः
विष्वक्सेनस्तन्त्रमूर्तिर्विदितः पार्षदाधिपः
नन्दादयोऽष्टौ द्वाःस्थाश्च तेऽणिमाद्या हरेर्गुणाः २०
आत्मस्वरूप भगवान्की उनसे कभी न बिछड़नेवाली आत्मशक्तिका ही नाम लक्ष्मी है। भगवान्के पार्षदोंके नायक विश्वविश्रुत विष्वक्सेन पांचरात्रादि आगमरूप हैं। भगवान्के स्वाभाविक गुण अणिमा, महिमा आदि अष्टसिद्धियोंको ही नन्द-सुनन्दादि आठ द्वारपाल कहते हैं ।।२०।।
वासुदेवः सङ्कर्षणः प्रद्युम्नः पुरुषः स्वयम्
अनिरुद्ध इति ब्रह्मन्मूर्तिव्यूहोऽभिधीयते २१
शौनकजी! स्वयं भगवान ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध—इन चार मूर्तियोंके रूपमें अवस्थित हैं; इसलिये उन्हींको चतुर्ग्रहके रूपमें कहा जाता है ।।२१।।
स विश्वस्तैजसः प्राज्ञस्तुरीय इति वृत्तिभिः
अर्थेन्द्रियाशयज्ञानैर्भगवान्परिभाव्यते २२
वे ही जाग्रत्-अवस्थाके अभिमानी ‘विश्व’ बनकर शब्द, स्पर्श आदि बाह्य विषयोंको ग्रहण करते और वे ही स्वप्नावस्थाके अभिमानी ‘तेजस’ बनकर बाह्य विषयोंके बिना ही मनही-मन अनेक विषयोंको देखते और ग्रहण करते हैं। वे ही सुषुप्ति-अवस्थाके अभिमानी ‘प्राज्ञ’ बनकर विषय और मनके संस्कारोंसे युक्त अज्ञानसे ढक जाते हैं और वही सबके साक्षी ‘तुरीय’ रहकर समस्त ज्ञानोंके अधिष्ठान रहते हैं ।।२२।।
अङ्गोपाङ्गायुधाकल्पैर्भगवांस्तच्चतुष्टयम्
बिभर्ति स्म चतुर्मूर्तिर्भगवान्हरिरीश्वरः २३
इस प्रकार अंग, उपांग, आयुध और आभूषणोंसे युक्त तथा वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध-इन चार मूर्तियोंके रूपमें प्रकट सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि ही क्रमशः विश्व, तैजस, प्राज्ञ एवं तुरीयरूपसे प्रकाशित होते हैं ।।२३।।
द्विजभ स एष ब्रह्मयोनिः स्वयंदृक्
स्वमहिमपरिपूर्णो मायया च स्वयैतत्
सृजति हरति पातीत्याख्ययानावृताक्षो
विवृत इव निरुक्तस्तत्परैरात्मलभ्यः २४
शौनकजी! वही सर्वस्वरूप भगवान् वेदोंके मूल कारण हैं, वे स्वयंप्रकाश एवं अपनी महिमासे परिपूर्ण हैं। वे अपनी मायासे ब्रह्मा आदि रूपों एवं नामोंसे इस विश्वकी सृष्टि, स्थिति और संहार सम्पन्न करते हैं। इन सब कर्मों और नामोंसे उनका ज्ञान कभी आवृत नहीं होता। यद्यपि शास्त्रोंमें भिन्नके समान उनका वर्णन हुआ है अवश्य, परन्तु वे अपने भक्तोंको आत्मस्वरूपसे ही प्राप्त होते हैं ।।२४।।
श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिध्रुग्
राजन्यवंशदहनानपवर्गवीर्य
गोविन्द गोपवनिताव्रजभृत्यगीत
तीर्थश्रवः श्रवणमङ्गल पाहि भृत्यान् २५
सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप अर्जुनके सखा हैं। आपने यदवंशशिरोमणिके रूपमें अवतार ग्रहण करके पथ्वीके द्रोही भुपालोंको भस्म कर दिया है। आपका पराक्रम सदा एकरस रहता है। व्रजकी गोपबालाएँ और आपके नारदादि प्रेमी निरन्तर आपके पवित्र यशका गान करते रहते हैं। गोविन्द! आपके नाम, गण और लीलादिका श्रवण करनेसे ही जीवका मंगल हो जाता है। हम सब आपके सेवक हैं। आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये ।।२५।।
य इदं कल्य उत्थाय महापुरुषलक्षणम्
तच्चित्तः प्रयतो जप्त्वा ब्रह्म वेद गुहाशयम् २६
पुरुषोत्तमभगवान्के चिह्नभूत अंग, उपांग और आयुध आदिके इस वर्णनका जो मनुष्य भगवानमें ही चित्त लगाकर पवित्र होकर प्रातःकाल पाठ करेगा, उसे सबके हृदयमें रहनेवाले । ब्रह्मस्वरूप परमात्माका ज्ञान हो जायगा ||२६||
श्रीशौनक उवाच
शुको यदाह भगवान्विष्णुराताय शृण्वते
सौरो गणो मासि मासि नाना वसति सप्तकः २७
तेषां नामानि कर्माणि नियुक्तानामधीश्वरैः
ब्रूहि नः श्रद्दधानानां व्यूहं सूर्यात्मनो हरेः २८
शौनकजीने कहा-सूतजी! भगवान् श्रीशुकदेवजीने श्रीमद्भागवत-कथा सुनाते समय राजर्षि परीक्षित्से (पंचम स्कन्धमें) कहा था कि ऋषि, गन्धर्व, नाग, अप्सरा, यक्ष, राक्षस और देवताओंका एक सौरगण होता है और ये सातों प्रत्येक महीने में बदलते रहते हैं। ये बारह गण अपने स्वामी द्वादश आदित्योंके साथ रहकर क्या काम करते हैं और उनके अन्तर्गत ।व्यक्तियोंके नाम क्या हैं? सूर्यके रूपमें भी स्वयं भगवान् ही हैं; इसलिये उनके विभागको हम बड़ी श्रद्धाके साथ सुनना चाहते हैं, आप कृपा करके कहिये ।।२७-२८।।
सूत उवाच
अनाद्यविद्यया विष्णोरात्मनः सर्वदेहिनाम्
निर्मितो लोकतन्त्रोऽयं लोकेषु परिवर्तते २९
सूतजीने कहा-समस्त प्राणियोंके आत्मा भगवान् विष्णु ही हैं। अनादि अविद्यासे अर्थात उनके वास्तविक स्वरूपके अज्ञानसे ही समस्त लोकोंके व्यवहार-प्रवर्तक प्राकृत सूर्यमण्डलका निर्माण हुआ है। वही लोकोंमें भ्रमण किया करता है ।।२९।।
एक एव हि लोकानां सूर्य आत्मादिकृद्धरिः
सर्ववेदक्रियामूलमृषिभिर्बहुधोदितः ३०
असलमें समस्त लोकोंके आत्मा एवं आदिकर्ता एकमात्र श्रीहरि ही अन्तर्यामीरूपसे सूर्य बने हुए हैं। वे यद्यपि एक ही हैं, तथापि ऋषियोंने उनका बहुत रूपोंमें वर्णन किया है, वे ही समस्त वैदिक क्रियाओंके मूल हैं ||३०||
कालो देशः क्रिया कर्ता करणं कार्यमागमः
द्रव्यं फलमिति ब्रह्मन्नवधोक्तोऽजया हरिः ३१
शौनकजी! एक भगवान् ही मायाके द्वारा काल, देश, यज्ञादि क्रिया, कर्ता, युवा आदि करण, यागादि कर्म, वेदमन्त्र, शाकल्य आदि द्रव्य और फलरूपसे नौ प्रकारके कहे जाते हैं ||३१||
मध्वादिषु द्वादशसु भगवान्कालरूपधृक्
लोकतन्त्राय चरति पृथग्द्वादशभिर्गणैः ३२
कालरूपधारी भगवान् सूर्य लोगोंका व्यवहार ठीक-ठीक चलानेके लिये चैत्रादि बारह महीनोंमें अपने भिन्न-भिन्न बारह गणोंके साथ चक्कर लगाया करते हैं ||३२||
धाता कृतस्थली हेतिर्वासुकी रथकृन्मुने
पुलस्त्यस्तुम्बुरुरिति मधुमासं नयन्त्यमी ३३
शौनकजी! धाता नामक सूर्य, कृतस्थली अप्सरा, हेति राक्षस, वासुकि सर्प, रथकृत् यक्ष, पुलस्त्य ऋषि और तुम्बुरु गन्धर्व—ये चैत्र मासमें अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं ||३३।।
अर्यमा पुलहोऽथौजाः प्रहेतिः पुञ्जिकस्थली
नारदः कच्छनीरश्च नयन्त्येते स्म माधवम् ३४
अर्यमा सूर्य, पुलह ऋषि, अथौजा यक्ष, प्रहेति राक्षस, पुंजिकस्थली अप्सरा, नारद गन्धर्व और कच्छनीर सर्प-ये वैशाख मासके कार्य-निर्वाहक हैं ||३४।।
मित्रोऽत्रिः पौरुषेयोऽथ तक्षको मेनका हहाः
रथस्वन इति ह्येते शुक्रमासं नयन्त्यमी ३५
मित्र सूर्य, अत्रि ऋषि, पौरुषेय राक्षस, तक्षक सर्प, मेनका अप्सरा, हाहा गन्धर्व और रथस्वन यक्ष-ये ज्येष्ठ मासके कार्यनिर्वाहक हैं ||३५||
वसिष्ठो वरुणो रम्भा सहजन्यस्तथा हुहूः
शुक्रश्चित्रस्वनश्चैव शुचिमासं नयन्त्यमी ३६
आषाढ़में वरुण नामक सूर्यके साथ वसिष्ठ ऋषि, रम्भा अप्सरा, सहजन्य यक्ष, हह गन्धर्व, शुक्र नाग और चित्रस्वन राक्षस अपने-अपने कार्यका निर्वाह करते हैं ||३६||
इन्द्रो विश्वावसुः श्रोता एलापत्रस्तथाङ्गिराः
प्रम्लोचा राक्षसो वर्यो नभोमासं नयन्त्यमी ३७
श्रावण मास इन्द्र नामक सूर्यका कार्यकाल है। उनके साथ विश्वावसु गन्धर्व, श्रोता यक्ष, एलापत्र नाग, अंगिरा ऋषि, प्रम्लोचा अप्सरा एवं वर्य नामक राक्षस अपने कार्यका सम्पादन करते हैं ||३७||
विवस्वानुग्रसेनश्च व्याघ्र आसारणो भृगुः
अनुम्लोचा शङ्खपालो नभस्याख्यं नयन्त्यमी ३८
भाद्रपदके सूर्यका नाम है विवस्वान्। उनके साथ उग्रसेन गन्धर्व, व्याघ्र राक्षस, आसारण यक्ष, भृगु ऋषि, अनुम्लोचा अप्सरा और शंखपाल नाग रहते हैं ||३८||
पूषा धनञ्जयो वातः सुषेणः सुरुचिस्तथा
घृताची गौतमश्चेति तपोमासं नयन्त्यमी ३९
शौनकजी! माघ मासमें पूषा नामके सूर्य रहते हैं। उनके साथ धनंजय नाग, वात राक्षस, सुषेण गन्धर्व, सुरुचि यक्ष, घृताची अप्सरा और गौतम ऋषि रहते हैं ||३९||
ऋतुर्वर्चा भरद्वाजः पर्जन्यः सेनजित्तथा
विश्व ऐरावतश्चैव तपस्याख्यं नयन्त्यमी ४०
फाल्गुन मासका कार्यकाल पर्जन्य नामक सूर्यका है। उनके साथ क्रतु यक्ष, वर्चा राक्षस, भरद्वाज ऋषि, सेनजित् अप्सरा, विश्व गन्धर्व और ऐरावत सर्प रहते हैं ।।४०।।
अथांशुः कश्यपस्तार्क्ष्य ऋतसेनस्तथोर्वशी
विद्युच्छत्रुर्महाशङ्खः सहोमासं नयन्त्यमी ४१
मार्गशीर्ष मासमें सूर्यका नाम होता है अंशु। उनके साथ कश्यप ऋषि, तार्क्ष्य यक्ष, ऋतसेन गन्धर्व, उर्वशी अप्सरा, विद्युच्छत्रु राक्षस और महाशंख नाग रहते हैं ।।४१||
भगः स्फूर्जोऽरिष्टनेमिरूर्ण आयुश्च पञ्चमः
कर्कोटकः पूर्वचित्तिः पुष्यमासं नयन्त्यमी ४२
पौष मासमें भग नामक सूर्यके साथ स्फूर्ज राक्षस, अरिष्टनेमि गन्धर्व, ऊर्ण यक्ष, आयु ऋषि, पूर्वचित्ति अप्सरा और कर्कोटक नाग रहते हैं ||४२||
त्वष्टा ऋचीकतनयः कम्बलश्च तिलोत्तमा
ब्रह्मापेतोऽथ शतजिद्धृतराष्ट्र इषम्भराः ४३
आश्विन मासमें त्वष्टा सूर्य, जमदग्नि ऋषि, कम्बल नाग, तिलोत्तमा अप्सरा, ब्रह्मापेत राक्षस, शतजित् यक्ष और धृतराष्ट्र गन्धर्वका कार्यकाल है ||४३||
विष्णुरश्वतरो रम्भा सूर्यवर्चाश्च सत्यजित्
विश्वामित्रो मखापेत ऊर्जमासं नयन्त्यमी ४४
तथा कार्तिकमें विष्णु नामक सूर्यके साथ अश्वतर नाग, रम्भा अप्सरा, सूर्यवर्चा गन्धर्व, सत्यजित् यक्ष, विश्वामित्र ऋषि और मखापेत राक्षस अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं ।।४४।।
एता भगवतो विष्णोरादित्यस्य विभूतयः
स्मरतां सन्ध्ययोर्नॄणां हरन्त्यंहो दिने दिने ४५
शौनकजी! ये सब सूर्यरूप भगवान्की विभूतियाँ हैं। जो लोग इनका प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल स्मरण करते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ।।४५||
द्वादशस्वपि मासेषु देवोऽसौ षड्भिरस्य वै
चरन्समन्तात्तनुते परत्रेह च सन्मतिम् ४६
ये सूर्यदेव अपने छः गणोंके साथ बारहों महीने सर्वत्र विचरते रहते हैं और इस लोक तथा परलोकमें विवेकबद्धिका विस्तार करते हैं ||४६||
सामर्ग्यजुर्भिस्तल्लिङ्गैरृषयः संस्तुवन्त्यमुम्
गन्धर्वास्तं प्रगायन्ति नृत्यन्त्यप्सरसोऽग्रतः ४७
सूर्यभगवानके गणोंमें ऋषिलोग तो सूर्यसम्बन्धी ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके मन्त्रोंद्वारा उनकी स्तुति करते हैं और गंधर्व उनके सुयशका गान करते रहते हैं। अप्सराएँ आगे-आगे नृत्य करती चलती हैं ।।४७।।
उन्नह्यन्ति रथं नागा ग्रामण्यो रथयोजकाः
चोदयन्ति रथं पृष्ठे नैरृता बलशालिनः ४८
नागगण रस्सीकी तरह उनके रथको कसे रहते हैं। यक्षगण रथका साज सजाते हैं और बलवान् राक्षस उसे पीछेसे ढकेलते हैं ।।४८||
वालखिल्याः सहस्राणि षष्टिर्ब्रह्मर्षयोऽमलाः
पुरतोऽभिमुखं यान्ति स्तुवन्ति स्तुतिभिर्विभुम् ४९
इनके सिवा वालखिल्य नामके साठ हजार निर्मलस्वभाव ब्रह्मर्षि सूर्यकी ओर मुँह करके उनके आगे-आगे स्तुतिपाठ करते चलतेहैं ।।४९।।
एवं ह्यनादिनिधनो भगवान्हरिरीश्वरः
कल्पे कल्पे स्वमात्मानं व्यूह्य लोकानवत्यजः ५०
इस प्रकार अनादि, अनन्त, अजन्मा भगवान् श्रीहरि ही कल्प-कल्पमें अपने स्वरूपका विभाग करके लोकोंका पालन-पोषण करते-रहते हैं ।।५०||
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे आदित्यव्यूहविवरणं नामैकादशोऽध्यायः