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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 12 अध्याय 12

Spread the Glory of Sri SitaRam!

12 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः १२

सूत उवाच –
(अनुष्टुप्)
नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे ।
ब्रह्मणेभ्यो नमस्कृत्य धर्मान् वक्ष्ये सनातनान् ॥ १ ॥

सूतजी कहते हैं-भगवद्भक्तिरूप महान् धर्मको नमस्कार है। विश्वविधाता भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार है। अब मैं ब्राह्मणोंको नमस्कार करके श्रीमद्भागवतोक्त सनातन धर्मोका संक्षिप्त विवरण सुनाता हूँ ||१||

एतद् वः कथितं विप्रा विष्णोश्चरितमद्‌भुतम् ।
भवद्‌भिः यदहं पृष्टो नराणां पुरुषोचितम् ॥ २ ॥

शौनकादि ऋषियो! आपलोगोंने मुझसे जो प्रश्न किया था, उसके अनुसार मैंने भगवान् विष्णुका यह अद्भुत चरित्र सुनाया। यह सभी मनुष्योंके श्रवण करनेयोग्य है ।।२।।

अत्र सङ्‌कीर्तितः साक्षात् सर्वपापहरो हरिः ।
नारायणो हृषीकेशो भगवान् सात्वतां पतिः ॥ ३ ॥

इस श्रीमद्भागवतपुराणमें सर्वपापापहारी स्वयं भगवान् श्रीहरिका ही संकीर्तन हुआ है। वे ही सबके हृदयमें विराजमान, सबकी इन्द्रियोंके स्वामी और प्रेमी भक्तोंके जीवनधन हैं ।।३।।

अत्र ब्रह्म परं गुह्यं जगतः प्रभवाप्ययम् ।
ज्ञानं च तदुपाख्यानं प्रोक्तं विज्ञानसंयुतम् ॥ ४ ॥

इस श्रीमद्भागवतपुराणमें परम रहस्यमय-अत्यन्त गोपनीय ब्रह्मतत्त्वका वर्णन हुआ है। उस ब्रह्ममें ही इस जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकी प्रतीति होती है। इस पुराणमें उसीपरमतत्त्वका अनुभवात्मक ज्ञान और उसकी प्राप्तिके साधनोंका स्पष्ट निर्देश है ।।४।।

भक्तियोगः समाख्यातो वैराग्यं च तदाश्रयम् ।
पारीक्षितं उपाख्यानं नारदाख्यानमेव च ॥ ५ ॥

शौनकजी! इस महापुराणके प्रथम स्कन्धमें भक्तियोगका भलीभाँति निरूपण हुआ है और साथ ही भक्तियोगसे उत्पन्न एवं उसको स्थिर रखनेवाले वैराग्यका भी वर्णन किया गया है। परीक्षित्की कथा और व्यास-नारद-संवादके प्रसंगसे नारदचरित्र भी कहा गया है ।।५।।

प्रायोपवेशो राजर्षेः विप्रशापात् परीक्षितः ।
शुकस्य ब्रह्मर्षभस्य संवादश्च परीक्षितः ॥ ६ ॥

राजर्षि परीक्षित् ब्राह्मणका शाप हो जानेपर किस प्रकार गंगातटपर अनशन-व्रत लेकर बैठ गये और ऋषिप्रवर श्रीशुकदेवजीके साथ किस प्रकार उनका संवाद प्रारम्भ हुआ, यह कथा भी प्रथम स्कन्धमें ही है ।।६।।

योगधारणयोत्क्रान्तिः संवादो नारदाजयोः ।
अवतारानुगीतं च सर्गः प्राधानिकोऽग्रतः ॥ ७ ॥

योगधारणाके द्वारा शरीरत्यागकी विधि, ब्रह्मा और नारदका संवाद, अवतारोंकी संक्षिप्त चर्चा तथा महत्तत्त्व आदिके क्रमसे प्राकृतिक सृष्टिकी उत्पत्ति आदि विषयोंका वर्णन द्वितीय स्कन्धमें हुआ है ।।७।।

विदुरोद्धवसंवादः क्षत्तृमैत्रेययोस्ततः ।
पुराणसंहिताप्रश्नो महापुरुषसंस्थितिः ॥ ८ ॥

तीसरे स्कन्धमें पहले-पहल विदरजी और उद्धवजीके, तदनन्तर विदर तथा मैत्रेयजीके समागम और संवादका प्रसंग है। इसके पश्चात् पुराणसंहिताके विषयमें प्रश्न है और फिर प्रलयकालमें परमात्मा किस प्रकार स्थित रहते हैं, इसका निरूपण है ।।८।।

ततः प्राकृतिकः सर्गः सप्त वैकृतिकाश्च ये ।
ततो ब्रह्माण्डसम्भूतिः वैराजः पुरुषो यतः ॥ ९ ॥

गुणोंके क्षोभसे प्राकृतिक सृष्टि और महत्तत्त्व आदि सात प्रकृति-विकृतियों के द्वारा कार्यसृष्टिका वर्णन है। इसके बाद ब्रह्माण्डकी उत्पत्ति और उसमें विराट् पुरुषकी स्थितिका स्वरूप समझाया गया है ।।९।।

कालस्य स्थूलसूक्ष्मस्य गतिः पद्मसमुद्‌भवः ।
भुव उद्धरणेऽम्भोधेः हिरण्याक्षवधो यथा ॥ १० ॥

ऊर्ध्वतिर्यगवाक्सर्गो रुद्रसर्गस्तथैव च ।
अर्धनारीश्वरस्याथ यतः स्वायंभुवो मनुः ॥ ११ ॥

शतरूपा च या स्त्रीणां आद्या प्रकृतिरुत्तमा ।
सन्तानो धर्मपत्‍नीनां कर्दमस्य प्रजापतेः ॥ १२ ॥

अवतारो भगवतः कपिलस्य महात्मनः ।
देवहूत्याश्च संवादः कपिलेन च धीमता ॥ १३ ॥

तदनन्तर स्थूल और सूक्ष्म कालका स्वरूप, लोक-पद्मकी उत्पत्ति, प्रलय-समद्रसे पृथ्वीका उद्धार करते समय वराहभगवान्के द्वारा हिरण्याक्षका वध; देवता, पशु, पक्षी और मनुष्योंकी सष्टि एवं रुद्रोंकी उत्पत्तिका प्रसंग है। इसके पश्चात् उस अर्द्धनारी-नरके स्वरूपका विवेचन है, जिससे स्वायम्भुव मनु और स्त्रियोंकी अत्यन्त उत्तम आद्या प्रकृति शतरूपाका जन्म हुआ था। कर्दम प्रजापतिका चरित्र, उनसे मुनिपत्नियोंका जन्म, महात्मा भगवान् कपिलका अवतार और फिर कपिलदेव तथा उनकी माता देवहूतिके संवादका प्रसंग आता है ||१०-१३।।

नवब्रह्मसमुत्पत्तिः दक्षयज्ञविनाशनम् ।
ध्रुवस्य चरितं पश्चात् पृथोः प्राचीनबर्हिषः ॥ १४ ॥

नारदस्य च संवादः ततः प्रैयव्रतं द्विजाः ।
नाभेस्ततोऽनुचरितं ऋषभस्य भरतस्य च ॥ १५ ॥

द्वीपवर्षसमुद्राणां गिरिनद्युपवर्णनम् ।
ज्योतिश्चक्रस्य संस्थानं पातालनरकस्थितिः ॥ १६ ॥

चौथे स्कन्धमें मरीचि आदि नौ प्रजापतियोंकी उत्पत्ति, दक्षयज्ञका विध्वंस, राजर्षि ध्रुव एवं पृथुका चरित्र तथा प्राचीनबर्हि और नारदजीके संवादका वर्णन है। पाँचवें स्कन्धमें प्रियव्रतका उपाख्यान; नाभि, ऋषभ और भरतके चरित्र, द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत और नदियोंका वर्णन; ज्योतिश्चक्रके विस्तार एवं पाताल तथा नरकोंकी स्थितिका निरूपण हुआ है ।।१४-१६||

दक्षजन्म प्रचेतोभ्यः तत्पुत्रीणां च सन्ततिः ।
यतो देवासुरनराः तिर्यङ्‌नगखगादयः ॥ १७ ॥

त्वाष्ट्रस्य जन्मनिधनं पुत्रयोश्च दितेर्द्विजाः ।
दैत्येश्वरस्य चरितं प्रह्रादस्य महात्मनः ॥ १८ ॥

शौनकादि ऋषियो! छठे स्कन्धमें ये विषय आये हैं—प्रचेताओंसे दक्षकी उत्पत्ति; दक्षपत्रियोंकी सन्तान देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पर्वत और पक्षियोंका जन्म-कर्म; वृत्रासुरकी उत्पत्ति और उसकी परम गति। (अब सातवें स्कन्धके विषय बतलाये जाते हैं-) इस स्कन्धमें मुख्यतः दैत्यराज हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षके जन्म-कर्म एवं दैत्यशिरोमणि महात्मा प्रह्लादके उत्कृष्ट चरित्रका निरूपण है ।।१७-१८।।

मन्वन्तरानुकथनं गजेन्द्रस्य विमोक्षणम् ।
मन्वन्तरावताराश्च विष्णोर्हयशिरादयः ॥ १९ ॥

कौर्मं धान्वतरं मात्स्यं वामनं च जगत्पतेः ।
क्षीरोदमथनं तद्वद् अमृतार्थे दिवौकसाम् ॥ २० ॥

देवासुरमहायुद्धं राजवंशानुकीर्तनम् ।
इक्ष्वाकुजन्म तद्वंशः सुद्युम्नस्य महात्मनः ॥ २१ ॥

इलोपाख्यानमत्रोक्तं तारोपाख्यानमेव च ।
सूर्यवंशानुकथनं शशादाद्या नृगादयः ॥ २२ ॥

सौकन्यं चाथ शर्यातेः ककुत्स्थस्य च धीमतः ।
खट्वाङ्‌गस्य च मान्धातुः सौभरेः सगरस्य च ॥ २३ ॥

रामस्य कोशलेन्द्रस्य चरितं किल्बिषापहम् ।
निमेरङ्‌गपरित्यागो जनकानां च सम्भवः ॥ २४ ॥

आठवें स्कन्धमें मन्वन्तरोंकी कथा, गजेन्द्रमोक्ष, विभिन्न मन्वन्तरोंमें होनेवाले जगदीश्वर भगवान् विष्णुके अवतार-कूर्म, मत्स्य, वामन, धन्वन्तरि, हयग्रीव आदि; अमृत-प्राप्तिके लिये देवताओं और दैत्योंका समुद्र-मन्थन और देवासुर-संग्राम आदि विषयोंका वर्णन है। नवें स्कन्धमें मुख्यतः राजवंशोंका वर्णन है। इक्ष्वाकुके जन्म-कर्म, वंशविस्तार, महात्मा सुद्युम्न, इला एवं ताराके उपाख्यान-इन सबका वर्णन किया गया है। सूर्यवंशका वृत्तान्त, शशाद और नृग आदि राजाओंका वर्णन, सुकन्याका चरित्र, शर्याति, खट्वांग, मान्धाता, सौभरि, सगर, बुद्धिमान् ककुत्स्थ और कोसलेन्द्र भगवान् रामके सर्वपापहारी चरित्रका वर्णन भी इसी स्कन्धमें है। तदनन्तर निमिका देह-त्याग और जनकोंकी उत्पत्तिका वर्णन है ।।१९-२४।।

रामस्य भार्गवेन्द्रस्य निःक्षतृईकरणं भुवः ।
ऐलस्य सोमवंशस्य ययातेर्नहुषस्य च ॥ २५ ॥

दौष्मन्तेर्भरतस्यापि शान्तनोस्तत्सुतस्य च ।
ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशोऽनुकीर्तितः ॥ २६ ॥

भृगुवंशशिरोमणि परशुरामजीका क्षत्रियसंहार, चन्द्रवंशी नरपति पुरूरवा, ययाति, नहुष, दुष्यन्त-नन्दन भरत, शन्तन और उनके पुत्र भीष्म आदिकी संक्षिप्त कथाएँ भी नवम स्कन्धमें ही हैं। सबके अन्तमें ययातिके बड़े लड़के यदुका वंशविस्तार कहा गया है ।।२५-२६।।

यत्रावतीर्णो भगवान् कृष्णाख्यो जगदीश्वरः ।
वसुदेवगृहे जन्म ततो वृद्धिश्च गोकुले ॥ २७ ॥

तस्य कर्माण्यपाराणि कीर्तितान्यसुरद्विषः ।
पूतनासुपयःपानं शकटोच्चाटनं शिशोः ॥ २८ ॥

शौनकादि ऋषियो! इसी यदुवंशमें जगत्पति भगवान् श्रीकृष्णने अवतार ग्रहण किया था। उन्होंने अनेक असुरोंका संहार किया। उनकी लीलाएँ इतनी हैं कि कोई पार नहीं पा सकता।फिर भी दशम स्कन्धमें उनका कुछ कीर्तन किया गया है। वसुदेवकी पत्नी देवकीके गर्भसे उनका जन्म हुआ। गोकुलमें नन्दबाबाके घर जाकर बढ़े। पूतनाके प्राणोंको दूधके साथ पी लिया। बचपनमें ही छकड़ेको उलट दिया ।।२७-२८।।

तृणावर्तस्य निष्पेषः तथैव बकवत्सयोः ।
धेनुकस्य सहभ्रातुः प्रलम्बस्य च संक्षयः ॥ २९ ॥

तृणावर्त, बकासुर एवं वत्सासुरको पीस डाला। सपरिवार धेनुकासुर और प्रलम्बासुरको मार डाला ||२९||

गोपानां च परित्राणं दावाग्नेः परिसर्पतः ।
दमनं कालियस्याहेः महाहेर्नन्दमोक्षणम् ॥ ३० ॥

दावानलसे घिरे गोपोंकी रक्षा की। कालिय नागका दमन किया। अजगरसे नन्दबाबाको छुड़ाया ।।३०।।

व्रतचर्या तु कन्यानां यत्र तुष्टोऽच्युतो व्रतैः ।
प्रसादो यज्ञपत्‍नीभ्यो विप्राणां चानुतापनम् ॥ ३१ ॥

इसके बाद गोपियोंने भगवान्को पतिरूपसे प्राप्त करनेके लिये व्रत किया और भगवान् श्रीकृष्णने प्रसन्न होकर उन्हें अभिमत वर दिया। भगवान्ने यज्ञपत्नियोंपर कृपा की। उनके पतियों—ब्राह्मणोंको बड़ा पश्चत्ताप हुआ ।।३१।।

गोवर्धनोद्धारणं च शक्रस्य सुरभेरथ ।
यज्ञभिषेकं कृष्णस्य स्त्रीभिः क्रीडा च रात्रिषु ॥ ३२ ॥

गोवर्द्धनधारणकी लीला करनेपर इन्द्र और कामधेनुने आकर भगवान्का यज्ञाभिषेक किया। शरद् ऋतुकी रात्रियोंमें व्रजसुन्दरियोंके साथ रास-क्रीडा की ।।३२।।

शङ्‌खचूडस्य दुर्बुद्धेः वधोऽरिष्टस्य केशिनः ।
अक्रूरागमनं पश्चात् प्रस्थानं रामकृष्णयोः ॥ ३३ ॥

दुष्ट शंखचूड, अरिष्ट, और केशीके वधकी लीला हुई। तदनन्तर अक्रूरजी मथुरासे वृन्दावन आये और उनके साथ भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजीने मथुराके लिये प्रस्थान किया ।।३३।।

व्रजस्त्रीणां विलापश्च मथुरालोकनं ततः ।
गजमुष्टिकचाणूर कंसादीनां तथा वधः ॥ ३४ ॥

उस प्रसंगपर व्रजसुन्दरियोंने जो विलाप किया था, उसका वर्णन है। राम और श्यामने मथुरामें जाकर वहाँकी सजावट देखी और कुवलयापीड़ हाथी, मुष्टिक, चाणूर एवं कंस आदिका संहार किया ।।३४।।

मृतस्यानयनं सूनोः पुनः सान्दीपनेर्गुरोः ।
मथुरायां निवसता यदुचक्रस्य यत्प्रियम् ।
कृतमुद्धवरामाभ्यां युतेन हरिणा द्विजाः ॥ ३५ ॥

सान्दीपनि गुरुके यहाँ विद्याध्ययन करके उनके मत पत्रको लौटा लाये। शौनकादि ऋषियो! जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण मथुरामें निवास कर रहे थे, उस समय उन्होंने उद्धव और बलरामजीके साथ यदुवंशियोंका सब प्रकारसे प्रिय और हित किया ।।३५।।

जरासन्धसमानीत सैन्यस्य बहुशो वधः ।
घातनं यवनेन्द्रस्य कुशस्थल्या निवेशनम् ॥ ३६ ॥

जरासन्ध कई बार बड़ी-बड़ी सेनाएँ लेकर आया और भगवान्ने उनका उद्धार करके पृथ्वीका भार हलका किया। कालयवनको मुचुकुन्दसे भस्म करा दिया। द्वारकापुरी बसाकर रातों-रात सबको वहाँ पहुँचा दिया ।।३६।।

आदानं पारिजातस्य सुधर्मायाः सुरालयात् ।
रुक्मिण्या हरणं युद्धे प्रमथ्य द्विषतो हरेः ॥ ३७ ॥

स्वर्गसे कल्पवृक्ष एवं सुधर्मा सभा ले आये। भगवान्ने दल-के-दल शत्रुओंको युद्धमें पराजित करके रुक्मिणीका हरण किया ।।३७।।

हरस्य जृम्भणं युद्धे बाणस्य भुजकृन्तनम् ।
प्राग्ज्योतिषपतिं हत्वा कन्यानां हरणं च यत् ॥ ३८ ॥

बाणासुरके साथ युद्धके प्रसंगमें महादेवजी-पर ऐसा बाण छोड़ा कि वे अँभाई लेने लगे और इधर बाणसुरकी भुजाएँ काट डालीं। प्राग्-ज्योतिषपुरके स्वामी भौमासुरको मारकर सोलह हजार कन्याएँ ग्रहण की ||३८।।

चैद्यपौण्ड्रकशाल्वानां दन्तवक्रस्य दुर्मतेः ।
शम्बरो द्विविदः पीठो मुरः पञ्चजनादयः ॥ ३९ ॥

माहात्म्यं च वधस्तेषां वाराणस्याश्च दाहनम् ।
भारावतरणं भूमेः निमित्तीकृत्य पाण्डवान् ॥ ४० ॥

शिशुपाल, पौण्ड्रक, शाल्व, दुष्ट दन्तवक्त्र, शम्बरासुर, द्विविद, पीठ, मुर, पंचजन आदि दैत्योंके बल-पौरुषका वर्णन करके यह बात बतलायी गयी कि भगवान्ने उन्हें कैसे-कैसे मारा। भगवान्के चक्रने काशीको जला दिया और फिर उन्होंने भारतीय युद्ध में पाण्डवोंको निमित्त बनाकर पृथ्वीका बहुत बड़ा भार उतार दिया ।।३९-४०।।

विप्रशापापदेशेन संहारः स्वकुलस्य च ।
उद्धवस्य च संवादो वसुदेवस्य चाद्‌भुतः ॥ ४१ ॥

शौनकादि ऋषियो! ग्यारहवें स्कन्धमें इस बातका वर्णन हुआ है कि भगवान्ने ब्राह्मणोंके शापके बहाने किस प्रकार यदुवंशका संहार किया। इस स्कन्धमें भगवान् श्रीकृष्ण और उद्धवका संवाद बड़ा ही अद्भुत है ।।४१।।

यत्रात्मविद्या ह्यखिला प्रोक्ता धर्मविनिर्णयः ।
ततो मर्त्यपरित्याग आत्मयोगानुभावतः ॥ ४२ ॥

उसमें सम्पूर्ण आत्मज्ञान और धर्म-निर्णयका निरूपण हुआ है और अन्तमें यह बात बतायी गयी है कि भगवान् श्रीकृष्णने अपने आत्मयोगके प्रभावसे किस प्रकार मर्त्यलोकका परित्याग किया ।।४२।।

युगलक्षणवृत्तिश्च कलौ नॄणामुपप्लवः ।
चतुर्विधश्च प्रलय उत्पत्तिस्त्रिविधा तथा ॥ ४३ ॥

बारहवें स्कन्धमें विभिन्न युगोंके लक्षण और उनमें रहनेवाले लोगोंके व्यवहारका वर्णन किया गया है तथा यह भी बतलाया गया है कि कलि-युगमें मनुष्योंकी गति विपरीत होती है। चार प्रकारके प्रलय और तीन प्रकारकी उत्पत्तिका वर्णन भी इसी स्कन्धमें है ।।४३।।

देहत्यागश्च राजर्षेः विष्णुरातस्य धीमतः ।
शाखाप्रणयनं ऋषेः मार्कण्डेयस्य सत्कथा ॥
महापुरुषविन्यासः सूर्यस्य जगदात्मनः ॥ ४४ ॥

इसके बाद परम ज्ञानी राजर्षि परीक्षित्के शरीरत्यागकी बात कही गयी है। तदनन्तर वेदोंके शाखा-विभाजनका प्रसंग आया है। मार्कण्डेयजीकी सुन्दर कथा, भगवानके अंगउपांगोंका स्वरूपकथन और सबके अन्तमें विश्वात्मा भगवान् सूर्यके गणोंका वर्णन है ।।४४।।

इति चोक्तं द्विजश्रेष्ठा यत्पृष्टोऽहं इहास्मि वः ।
लीलावतारकर्माणि कीर्तितानीह सर्वशः ॥ ४५ ॥

शौनकादि ऋषियो! आपलोगोंने इस सत्संगके अवसरपर मुझसे जो कुछ पूछा था, उसका वर्णन मैंने कर दिया। इसमें सन्देह नहीं कि इस अवसरपर मैंने हर तरहसे भगवान्की लीला और उनके अवतार-चरित्रोंका ही कीर्तन किया है ।।४५।।

पतितः स्खलितश्चार्तः क्षुत्त्वा वा विवशो ब्रुवन् ।
हरये नम इत्युच्चैः मुच्यते सर्वपातकात् ॥ ४६ ॥

जो मनुष्य गिरते-पडते, फिसलते, दुःख भोगते अथवा छींकते समय विवशतासे भी ऊँचे स्वरसे बोल उठता है—’हरये नमः’, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ।।४६।।

(उपेंद्रवज्रा)
सङ्‌कीर्त्यमानो भगवान् अनन्तः
श्रुतानुभावो व्यसनं हि पुंसाम् ।
प्रविश्य चित्तं विधुनोत्यशेषं
यथा तमोऽर्कोऽभ्रमिवातिवातः ॥ ४७ ॥

यदि देश, काल एवं वस्तुसे अपरिच्छिन्न भगवान् श्रीकृष्णके नाम, लीला, गुण आदिका संकीर्तन किया जाय अथवा उनके प्रभाव, महिमा आदिका श्रवण किया जाय तो वे स्वयं ही – हृदयमें आ विराजते हैं और श्रवण तथा कीर्तन करनेवाले पुरुषके सारे दुःख मिटा देते हैंठीक वैसे ही जैसे सूर्य अन्धकारको और आँधी बादलोंको तितर-बितर कर देती है ।।४७।।

(मिश्र-१२)
मृषा गिरस्ता ह्यसतीरसत्कथा
न कथ्यते यद्‌भगवानधोक्षजः ।
तदेव सत्यं तदुहैव मङ्‌गलं
तदेव पुण्यं भगवद्‌गुणोदयम् ॥ ४८ ॥

जिस वाणीके द्वारा घट-घटवासी अविनाशी भगवानके नाम, लीला, गण आदिका उच्चारण नहीं होता, वह वाणी भावपूर्ण होनेपर भी निरर्थक है—सारहीन है, सुन्दर होनेपर भी असुन्दर है और उत्तमोत्तम विषयोंका प्रतिपादन करनेवाली होनेपर भी असत्कथा है। जो वाणी और वचन भगवान्के गुणोंसे परिपूर्ण रहते हैं, वे ही परम पावन हैं, वे ही मंगलमय हैं और वे ही परम सत्य हैं ।।४८।।

तदेव रम्यं रुचिरं नवं नवं
तदेव शश्वन्मनसो महोत्सवम् ।
तदेव शोकार्णवशोषणं नृणां
यदुत्तमःश्लोकयशोऽनुगीयते ॥ ४९ ॥

जिस वचनके द्वारा भगवान्के परम पवित्र यशका गान होता है, वही परम रमणीय, रुचिकर एवं प्रतिक्षण नया-नया जान पड़ता है। उससे अनन्त कालतक मनको परमानन्दकी अनुभूति होती रहती है। मनुष्योंका सारा शोक, चाहे वह समुद्रके समान लंबा और गहरा क्यों न हो, उस वचनके प्रभावसे सदाके लिये सूख जाता है ।।४९।।

न यद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो
जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित् ।
तद् ध्वाङ्‌क्षतीर्थं न तु हंससेवितं
यत्राच्युतस्तत्र हि साधवोऽमलाः ॥ ५० ॥

जिस वाणीसे–चाहे वह रस, भाव, अलंकार आदिसे युक्त ही क्यों न हो-जगत्को पवित्र करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके यशका कभी गान नहीं होता, वह तो कौओंके लिये उच्छिष्ट फेंकनेके स्थानके समान अत्यन्त अपवित्र है। मानससरोवर-निवासी हंस अथवा ब्रह्मधाममें विहार करनेवाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त उसका कभी सेवन नहीं करते। निर्मल हृदयवाले साधुजन तो वहीं निवास करते हैं, जहाँ भगवान् रहते हैं ।।५०||

तद्वाग्विसर्गो जनताघसंप्लवो
यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि ।
नामान्यनन्तस्य यशोऽङ्‌कितानि यत्
श्रृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः ॥ ५१ ॥

इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो व्याकरण आदिकी दृष्टि से दूषित शब्दोंसे युक्त भी है, परन्तु जिसके प्रत्येक श्लोकमें भगवानके सुयशसूचक नाम जड़े हुए हैं, वह वाणी लोगोंके सारे पापोंका नाश कर देती है; क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणीका श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं ।। ५१।।

नैष्कर्म्यमप्यच्युत भाववर्जितं
न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।
कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे
न ह्यर्पितं कर्म यदप्यनुत्तमम् ॥ ५२ ॥

वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्षकी प्राप्तिका साक्षात् साधन है, यदि भगवान्की भक्तिसे रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती। फिर जो कर्म भगवान्को अर्पण नहीं किया गया है—वह चाहे कितना ही ऊँचा क्यों न हो—सर्वदा अमंगलरूप, दुःख देनेवाला ही है; वह तो शोभन—वरणीय हो ही कैसे सकता है? ||५२।।

यशःश्रियामेव परिश्रमः परो
वर्णाश्रमाचारतपःश्रुतादिषु ।
अविस्मृतिः श्रीधरपादपद्मयोः
गुणानुवादश्रवणादरादिभिर्हरेः ॥ ५३ ॥

वर्णाश्रमके अनुकूल आचरण, तपस्या और अध्ययन आदिके लिये जो बहुत बड़ा परिश्रम किया जाता है, उसका फल है केवल यश अथवा लक्ष्मीकी प्राप्ति। परन्तु भगवान्के गुण, लीला, नाम आदिका श्रवण, कीर्तन आदि तो उनके श्रीचरणकमलोंकी अविचल स्मृति प्रदान करता है ।।५३||

(मिश्र-११,१२)
अविस्मृतिः कृष्णपदारविन्दयोः
क्षिणोत्यभद्राणि च शं तनोति च ।
सत्त्वस्य शुद्धिं परमात्मभक्तिं
ज्ञानं च विज्ञानविरागयुक्तम् ॥ ५४ ॥

भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी अविचल स्मृति सारे पाप-ताप और अमंगलोंको नष्टकर देती और परम शान्तिका विस्तार करती है। उसीके द्वारा अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, भगवान्की भक्ति प्राप्त होती है एवं परवैराग्यसे युक्त भगवान्के स्वरूपका ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त होता है ।।५४।।

(इंद्रवज्रा)
यूयं द्विजाग्र्या बत भूरिभागा
यच्छश्वदात्मन्यखिलात्मभूतम् ।
नारायणं देवमदेवमीशं
अजस्रभावा भजताविवेश्य ॥ ५५ ॥

शौनकादि ऋषियो! आपलोग बड़े भाग्यवान् हैं। धन्य हैं, धन्य हैं! क्योंकि आपलोग बड़े प्रेमसे निरन्तर अपने हृदयमें सर्वान्तर्यामी, सर्वात्मा, सर्व-शक्तिमान् आदिदेव सबके आराध्यदेव एवं स्वयं दूसरे आराध्यदेवसे रहित नारायण भगवान्को स्थापित करके भजन करते रहते हैं ।।५५।।

(मिश्र-११,१२)
अहं च संस्मारित आत्मतत्त्वं
श्रुतं पुरा मे परमर्षिवक्त्रात् ।
प्रायोपवेशे नृपतेः परीक्षितः
सदस्यृषीणां महतां च श्रृण्वताम् ॥ ५६ ॥

जिस समय राजर्षि परीक्षित अनशन करके बड़े-बड़े ऋषियोंकी भरी सभामें सबके सामने श्रीशुकदेवजी महाराजसे श्रीमद्भागवतकी कथा सुन रहे थे, उस समय वहीं बैठकर मैंने भी उन्हीं परमर्षिके मुखसे इस आत्मतत्त्वका श्रवण किया था। आपलोगोंने उसका स्मरणकराकर मुझपर बड़ा अनुग्रह किया। मैं इसके लिये आपलोगोंका बड़ा ऋणी हूँ ।।५६।।

(अनुष्टुप्)
एतद्वः कथितं विप्राः कथनीयोरुकर्मणः ।
माहात्म्यं वासुदेवस्य सर्वाशुभविनाशनम् ॥ ५७ ॥

शौनकादि ऋषियो! भगवान् वासुदेवकी एक-एक लीला सर्वदा श्रवण-कीर्तन करनेयोग्य है। मैंने इस प्रसंगमें उन्हींकी महिमाका वर्णन किया है; जो सारे अशुभ संस्कारोंको धो बहाती है ।।५७।।

य एतत्श्रावयेन्नित्यं यामक्षणमनन्यधीः ।
श्रद्धावान् योऽनुश्रृणुयात् पुनात्यात्मानमेव सः ॥ ५८ ॥

जो मनुष्य एकाग्रचित्तसे एक पहर अथवा एक क्षण ही प्रतिदिन इसका कीर्तन करता है और जो श्रद्धाके साथ इसका श्रवण करता है, वह अवश्य ही शरीरसहित अपने अन्तःकरणको पवित्र बना लेता है ।।५८।।

द्वादश्यामेकादश्यां वा श्रृण्वन्नायुष्यवान् भवेत् ।
पठत्यनश्नन् प्रयतः ततो भवत्यपातकी ॥ ५९ ॥

जो पुरुष द्वादशी अथवा एकादशीके दिन इसका श्रवण करता है, वह दीर्घायु हो जाता है और जो संयमपूर्वक निराहार रहकर पाठ करता है, उसके पहलेके पाप तो नष्ट हो ही जाते हैं, पापकी प्रवृत्ति भी नष्ट हो जाती है ।।५९।।

पुष्करे मथुरायां च द्वारवत्यां यतात्मवान् ।
उपोष्य संहितामेतां पठित्वा मुच्यते भयात् ॥ ६० ॥

जो मनुष्य इन्द्रियों और अन्तःकरणको अपने वशमें करके उपवासपूर्वक पुष्कर, मथुरा अथवा द्वारकामें इस पुराणसंहिताका पाठ करता है, वह सारे भयोंसे मुक्त हो जाता है ।।६०।।

देवता मुनयः सिद्धाः पितरो मनवो नृपाः ।
यच्छन्ति कामान् गृणतः श्रृण्वतो यस्य कीर्तनात् ॥ ६१ ॥

जो मनुष्य इसका श्रवण या उच्चारण करता है, उसके कीर्तनसे देवता, मुनि, सिद्ध, पितर, मनु और नरपति सन्तुष्ट होते हैं और उसकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं ।।६१।।

ऋचो यजूंषि सामानि द्विजोऽधीत्यानुविन्दते ।
मधुकुल्या घृतकुल्याः पयःकुल्याश्च तत्फलम् ॥ ६२ ॥

ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके पाठसे ब्राह्मणको मधुकुल्या, घृतकुल्या और पयःकुल्या (मधु, घी एवं दूधकी नदियाँ अर्थात् सब प्रकारकी सुख-समृद्धि) की प्राप्ति होती है। वही फल श्रीमद्भागवतके पाठसे भी मिलता है ।।६२।।

पुराणसंहितां एतां अधीत्य प्रयतो द्विजः ।
प्रोक्तं भगवता यत्तु तत्पदं परमं व्रजेत् ॥ ६३ ॥

जो द्विज संयमपूर्वक इस पुराणसंहिताका अध्ययन करता है, उसे उसी परमपदकी प्राप्ति होती है, जिसका वर्णन स्वयं भगवान्ने किया है ।।६३।।

विप्रोऽधीत्याप्नुयात् प्रज्ञां राजन्योदधिमेखलाम् ।
वैश्यो निधिपतित्वं च शूद्रः शुध्येत पातकात् ॥ ६४ ॥

इसके अध्ययनसे ब्राह्मणको ऋतम्भरा प्रज्ञा (तत्त्वज्ञानको प्राप्त करानेवाली बुद्धि) की प्राप्ति होती है और क्षत्रियको समुद्रपर्यन्त भूमण्डलका राज्य प्राप्त होता है। वैश्य कुबेरका पद प्राप्त करता है और शूद्र सारे पापोंसे छुटकारा पा जाता है ।।६४।।

कलिमलसंहतिकालनोऽखिलेशो
हरिरितरत्र न गीयते ह्यभीक्ष्णम् ।
इह तु पुनर्भगवानशेषमूर्तिः
परिपठितोऽनुपदं कथाप्रसङ्‌गैः ॥ ६५ ॥

भगवान् ही सबके स्वामी हैं और समूह-के-समूह कलिमलोंको ध्वंस करनेवाले हैं। यों तो उनका वर्णन करनेके लिये बहुत-से पुराण हैं, परन्तु उनमें सर्वत्र और निरन्तर भगवान्का वर्णन नहीं मिलता। श्रीमद्भागवत महापुराणमें तो प्रत्येक कथा-प्रसंगमें पद-पदपर सर्वस्वरूप भगवान्का ही वर्णन हुआ है ।।६५।।
(पुष्पिताग्रा)
तमहमजमनन्तमात्मतत्त्वं
जगदुदयस्थितिसंयमात्मशक्तिम् ।
द्युपतिभिरजशक्रशङ्‌कराद्यैः
दुरवसितस्तवमच्युतं नतोऽस्मि ॥ ६६ ॥

वे जन्म-मृत्यु आदि विकारोंसे रहित, देशकाला-दिकृत परिच्छेदोंसे मुक्त एवं स्वयं आत्मतत्त्व ही हैं। जगत्की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करनेवाली शक्तियाँ भी उनकी स्वरूपभत ही हैं, भिन्न नहीं। ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि लोकपाल भी उनकी स्तुति करना लेशमात्र भी नहीं जानते। उन्हीं एकरस सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ ।।६६||

उपचितनवशक्तिभिः स्व आत्मनि
उपरचितस्थिरजङ्‌गमालयाय ।
भगवत उपलब्धिमात्रधाम्ने
सुरऋषभाय नमः सनातनाय ॥ ६७ ॥

जिन्होंने अपने स्वरूपमें ही प्रकति आदि नौ शक्तियोंका संकल्प करके इस चराचर जगत्की सृष्टि की है और जो इसके अधिष्ठानरूपसे स्थित हैं तथा जिनका परम पद केवल अनुभूतिस्वरूप है, उन्हीं देवताओंके आराध्यदेव सनातन भगवान्के चरणोंमें मैं नमस्कार करता हूँ ।।६७।।

(मालिनी)
स्वसुखनिभृतचेतास्तद्व्युदस्तान्यभावोऽपि
अजितरुचिरलीलाकृष्टसारस्तदीयम् ।
व्यतनुत कृपया यः तत्त्वदीपं पुराणं
तमखिलवृजिनघ्नं व्याससूनुं नतोऽस्मि ॥ ६८ ॥

श्रीशकदेवजी महाराज अपने आत्मानन्दमें ही निमग्न थे। इस अखण्ड अद्वैत स्थितिसे उनकी भेददृष्टि सर्वथा निवृत्त हो चुकी थी। फिर भी मुरलीमनोहर श्यामसुन्दरकी मधुमयी, मंगलमयी, मनोहारिणी लीलाओंने उनकी वृत्तियोंको अपनी ओर आकर्षित कर लिया और उन्होंने जगत्के प्राणियोंपर कृपा करके भगवत्तत्त्वको प्रकाशित करनेवाले इस महापुराणका विस्तार किया। मैं उन्हीं सर्वपापहारी व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजीके चरणोंमें नमस्कारकरता हूँ ||६८।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां द्वादशस्कन्धे द्वादशस्कन्धार्थनिरूपणं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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