श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 12 अध्याय 13
13 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः १३
सूत उवाच –
(शार्दूलविक्रीडित)
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवैः
वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैः गायन्ति यं सामगाः ।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो
यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥ १॥
सूतजी कहते हैं-ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्गण दिव्य स्तुतियोंके द्वारा जिनके गुण-गानमें संलग्न रहते हैं; साम-संगीतके मर्मज्ञ ऋषि-मुनि अंग, पद, क्रम एवं उपनिषदोंके सहित वेदोंद्वारा जिनका गान करते रहते हैं; योगीलोग ध्यानके द्वारा निश्चल एवं तल्लीन मनसे जिनका भावमय दर्शन प्राप्त करते रहते हैं; किन्तु यह सब करते रहनेपर भी देवता, दैत्य, मनुष्य-कोई भी जिनके वास्तविक स्वरूपको पूर्णतया न जान सका, उन स्वयंप्रकाश परमात्माको नमस्कार है ।।१।।
पृष्ठे भ्राम्यदमन्दमन्दरगिरि ग्रावाग्रकण्डूयनान्
निद्रालोः कमठाकृतेर्भगवतः श्वासानिलाः पान्तु वः ।
यत्संस्कारकलानुवर्तनवशाद् वेलानिभेनाम्भसां
यातायातमतन्द्रितं जलनिधेः नाद्यापि विश्राम्यति ॥ २ ॥
जिस समय भगवानने कच्छपरूप धारण किया था और उनकी पीठपर बड़ा भारी मन्दराचल मथानीकी तरह घूम रहा था, उस समय मन्दराचलकी चट्टानोंकी नोकसे खुजलानेके कारण भगवान्को तनिक सुख मिला। वे सो गये और श्वासकी गति तनिक बढ़ गयी। उस समय उस श्वासवायुसे जो समुद्रके जलको धक्का लगा था, उसका संस्कार आज भी उसमें शेष है। आज भी समुद्र उसी श्वासवायुके थपेड़ोंके फलस्वरूप ज्वार-भाटोंके रूपमें दिन-रात चढ़ता-उतरता रहता है, उसे अबतक विश्राम न मिला। भगवान्की वहीपरमप्रभावशाली श्वासवायु आपलोगोंकी रक्षा करे ।।२।।
(अनुष्टुप्)
पुराणसङ्ख्यासंभूतिं अस्य वाच्यप्रयोजने ।
दानं दानस्य माहात्म्यं पाठादेश्च निबोधत ॥ ३ ॥
शौनकजी! अब पुराणोंकी अलग-अलग श्लोक-संख्या, उनका जोड़, श्रीमद्भागवतका प्रतिपाद्य विषय और उसका प्रयोजन भी सुनिये। इसके दानकी पद्धति तथा दान और पाठ आदिकी महिमा भी आपलोग श्रवण कीजिये ।।३।।
ब्राह्मं दश सहस्राणि पाद्मं पञ्चोनषष्टि च ।
श्रीवैष्णवं त्रयोविंशत् चतुर्विंशति शैवकम् ॥ ४ ॥
ब्रह्मपुराणमें दस हजार श्लोक, पद्मपुराणमें पचपन हजार, श्रीविष्णुपुराणमें तेईस हजार और शिवपुराणकी श्लोकसंख्याचौबीस हजार है ।।४।।
दशाष्टौ श्रीभागवतं नारदं पञ्चविंशति ।
मार्कण्डं नव वाह्नं च दशपञ्च चतुःशतम् ॥ ५ ॥
श्रीमद्भागवतमें अठारह हजार, नारदपुराणमें पचीस हजार, मार्कण्डेयपुराणमें नौ हजार तथा अग्निपुराणमें पन्द्रह हजार चार सौ श्लोक हैं ||५||
चतुर्दश भविष्यं स्यात् तथा पञ्चशतानि च ।
दशाष्टौ ब्रह्मवैवर्तं लैङ्गमेकादशैव तु ॥ ६ ॥
भविष्यपुराणकी श्लोक-संख्या चौदह हजार पाँच सौ है और ब्रह्मवैवर्तपुराणकी अठारह हजार तथा लिंगपुराणमें ग्यारह हजार श्लोक हैं ।।६।।
चतुर्विंशति वाराहं एकाशीतिसहस्रकम् ।
स्कान्दं शतं तथा चैकं वामनं दश कीर्तितम् ॥ ७ ॥
वराहपुराणमें चौबीस हजार, स्कन्धपुराणकी श्लोक-संख्या इक्यासी हजार एक सौ है और वामनपुराणकी दस हजार ||७||
कौर्मं सप्तदशाख्यातं मात्स्यं तत्तु चतुर्दश ।
एकोनविंशत् सौपर्णं ब्रह्माण्डं द्वादशैव तु ॥ ८ ॥
कूर्मपुराण सत्रह हजार श्लोकोंका और मत्स्यपुराण चौदह हजार श्लोकोंका है। गरुडपुराणमें
उन्नीस हजार श्लोक हैं और ब्रह्माण्डपुराणमें बारह हजार ||८||
एवं पुराणसन्दोहः चतुर्लक्ष उदाहृतः ।
तत्राष्टदशसाहस्रं श्रीभागवतं इष्यते ॥ ९ ॥
इस प्रकार सब पुराणोंकी श्लोकसंख्या कुल मिलाकर चार लाख होती है। उनमें श्रीमद्भागवत, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अठारह हजार श्लोकोंका है ।।९||
इदं भगवता पूर्वं ब्रह्मणे नाभिपङ्कजे ।
स्थिताय भवभीताय कारुण्यात् संप्रकाशितम् ॥ १० ॥
शौनकजी! पहले-पहल भगवान् विष्णुने अपने नाभिकमलपर स्थित एवं संसारसे भयभीत ब्रह्मापर परम करुणा करके इस पुराणको प्रकाशित किया था ।।१०।।
आदिमध्यावसानेषु वैराग्याख्यानसंयुतम् ।
हरिलीलाकथाव्रात अमृतानन्दितसत्सुरम् ॥ ११ ॥
इसके आदि, मध्य और अन्तमें वैराग्य उत्पन्न करनेवाली बहुत-सी कथाएँ हैं। इस महापुराणमें जो भगवान् श्रीहरिकी लीला-कथाएँ हैं, वे तो अमृतस्वरूप हैं ही; उनके सेवनसे सत्पुरुष और देवताओंको बड़ा ही आनन्द मिलता है ।।११||
सर्ववेदान्तसारं यद् ब्रह्मात्मैकत्वलक्षणम् ।
वस्तु अद्वितीयं तन्निष्ठं कैवल्यैकप्रयोजनम् ॥ १२ ॥
आपलोग जानते हैं कि समस्त उपनिषदोंका सार है ब्रह्म और आत्माका एकत्वरूप अद्वितीय सद्वस्तु। वही श्रीमद्भागवतका प्रतिपाद्य विषय है। इसके निर्माणका प्रयोजन है एकमात्र कैवल्य-मोक्ष ।।१२।।
प्रौष्ठपद्यां पौर्णमास्यां हेमसिंहसमन्वितम् ।
ददाति यो भागवतं स याति परमां गतिम् ॥ १३ ॥
जो पुरुष भाद्रपद मासकी पूर्णिमाके दिन श्रीमद्भागवतको सोनेके सिंहासनपर रखकर उसका दान करता है, उसे परमगति प्राप्त होती है ||१३||
राजन्ते तावदन्यानि पुराणानि सतां गणे ।
यावद् न दृष्यते साक्षात् श्रीमद् भागवतं परम् ॥ १४ ॥
संतोंकी सभामें तभीतक दूसरे पुराणोंकी शोभा होती है, जबतक सर्वश्रेष्ठ स्वयं श्रीमद्भागवतमहापुराणके दर्शन नहीं होते ।।१४।।
सर्ववेदान्तसारं हि श्रीभागवतमिष्यते ।
तद् रसामृततृप्तस्य नान्यत्र स्याद् रतिः क्वचित् ॥ १५ ॥
यह श्रीमद्भागवत समस्त उपनिषदोंका सार है। जो इस रस-सुधाका पान करके छक चुका है, वह किसी और पुराण-शास्त्रमें रम नहीं सकता ।।१५।।
निम्नगानां यथा गङ्गा देवानामच्युतो यथा ।
वैष्णवानां यथा शम्भुः पुराणानां इदं तथा ॥ १६ ॥
जैसे नदियोंमें गंगा, देवताओंमें विष्णु और वैष्णवोंमें श्रीशंकरजी सर्वश्रेष्ठ हैं, वैसे ही पुराणोंमें श्रीमद्भागवत है ।।१६।।
क्षेत्राणां चैव सर्वेषां यथा काशी ह्यनुत्तमा ।
तथा पुराणव्रातानां श्रीमद्भागवतं द्विजाः ॥ १७ ॥
शौनकादि ऋषियो! जैसे सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें काशी सर्वश्रेष्ठ है, वैसे ही पुराणोंमें श्रीमद्भागवतका स्थान सबसे ऊँचा है ।।१७।।
(शार्दूलविक्रीडित)
श्रीमद्भागवतं पुराणममलं यद्वैष्णवानां प्रियं
यस्मिन् पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं परं गीयते ।
तत्र ज्ञानविरागभक्तिसहितं नैष्कर्म्यमाविस्कृतं
तत् श्रृण्वन् विपठन् विचारणपरो भक्त्या विमुच्येन्नरः ॥ १८ ॥
यह श्रीमद्भागवतपुराण सर्वथा निर्दोष है। भगवानके प्यारे भक्त वैष्णव इससे बड़ा प्रेम करते हैं। इस पुराणमें जीवन्मुक्त परमहंसोंके सर्वश्रेष्ठ, अद्वितीय एवं मायाके लेशसे रहित ज्ञानका गान किया गया है। इस ग्रन्थकी सबसे बड़ी विलक्षणता यह है कि इसका नैष्कर्म्य अर्थात् कर्मोकी आत्यन्तिक निवृत्ति भी ज्ञानवैराग्य एवं भक्तिसे युक्त है। जो इसका श्रवण, पठन और मनन करने लगता है, उसे भगवान्की भक्ति प्राप्त हो जाती है और वह मुक्त हो जाता है ।।१८।।
कस्मै येन विभासितोऽयमतुलो ज्ञानप्रदीपः पुरा
तद् रूपेण च नारदाय मुनये कृष्णाय तद् रूपिणा ।
योगीन्द्राय तदात्मनाथ भगवत् राताय कारुण्यतः
तच्छुद्धं विमलं विशोकममृतं सत्यं परं धीमहि ॥ १९ ॥
यह श्रीमद्भागवत भगवत्तत्त्वज्ञानका एक श्रेष्ठ प्रकाशक है। इसकी तुलनामें और कोई भी पुराण नहीं है। इसे पहले-पहल स्वयं भगवान् नारायणने ब्रह्माजीके लिये प्रकट किया था। फिर उन्होंने ही ब्रह्माजीके रूपसे देवर्षि नारदको उपदेश किया और नारदजीके रूपसे भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासको। तदनन्तर उन्होंने ही व्यासरूपसे योगीन्द्र शुकदेवजीको और श्रीशुकदेवजीके रूपसे अत्यन्त करुणावश राजर्षि परीक्षित्को उपदेश किया। वे भगवान् परम शुद्ध एवं मायामलसे रहित हैं। शोक और मृत्यु उनके पासतक नहीं फटक सकते। हम सब उन्हीं परम सत्यस्वरूप परमेश्वरका ध्यान करते हैं ।।१९।।
(अनुष्टुप्)
नमस्तस्मै भगवते वासुदेवाय साक्षिणे ।
य इदं कृपया कस्मै व्याचचक्षे मुमुक्षवे ॥ २० ॥
हम उन सर्वसाक्षी भगवान् वासुदेवको नमस्कार करते हैं, जिन्होंने कृपा करके मोक्षाभिलाषी ब्रह्माजीको इस श्रीमद्भागवतमहापुराणका उपदेश किया ।।२०।।
योगीन्द्राय नमस्तस्मै शुकाय ब्रह्मरूपिणे ।
संसारसर्पदष्टं यो विष्णुरातममूमुचत् ॥ २१ ॥
साथ ही हम उन योगिराज ब्रह्मस्वरूप श्रीशुकदेवजीको भी नमस्कार करते हैं, जिन्होंने श्रीमद्भागवतमहापुराण सुनाकर संसार-सर्पसे डसे हुए राजर्षि परीक्षित्को मुक्त किया ।।२१।।
भवे भवे यथा भक्तिः पादयोस्तव जायते ।
तथा कुरुष्व देवेश नाथस्त्वं नो यतः प्रभो ॥ २२ ॥
देवताओंके आराध्यदेव सर्वेश्वर! आप ही हमारे एकमात्र स्वामी एवं सर्वस्व हैं। अब आप ऐसी कृपा कीजिये कि बार-बार जन्म ग्रहण करते रहनेपर भी आपके चरणकमलोंमें हमारी अविचल भक्ति बनी रहे ।।२२।।
नामसङ्कीर्तनं यस्य सर्वपाप प्रणाशनम् ।
प्रणामो दुःखशमनः त नमामि हरिं परम् ॥ २३ ॥
जिन भगवानके नामोंका संकीर्तन सारे पापोंको सर्वथा नष्ट कर देता है और जिन भगवान्के चरणोंमें आत्मसमर्पण, उनके चरणोंमं- प्रणति सर्वदाके लिये सब प्रकारके दुःखोंको शान्त कर देती है, उन्हीं परम-तत्त्वस्वरूप श्रीहरिको मैं नमस्कार करता हूँ ।।२३।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां द्वादशस्कन्धे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥