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श्रीमद् भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 12 अध्याय 3

Spread the Glory of Sri SitaRam!

3 CHAPTER
श्रीमद्भागवत महापुराण/स्कन्धः १२/अध्यायः ३

श्रीशुक उवाच –
(अनुष्टुप्)
दृष्ट्वाऽऽत्मनि जये व्यग्रान् नृपान् हसति भूरियम् ।
अहो मा विजिगीषन्ति मृत्योः क्रीडनका नृपाः ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब पृथ्वी देखती है कि राजा लोग मुझपर विजय प्राप्त करनेके लिये उतावले हो रहे हैं, तब वह हँसने लगती है और कहती है—”कितने आश्चर्यकी बात है कि ये राजा लोग, जो स्वयं मौतके खिलौने हैं, मुझे जीतना चाहते हैं ||१||

काम एष नरेन्द्राणां मोघः स्याद् विदुषामपि ।
येन फेनोपमे पिण्डे येऽतिविश्रम्भिता नृपाः ॥ २ ॥

राजाओंसे यह बात छिपी नहीं है कि वे एक-न-एक दिन मर जायँगे, फिर भी वे व्यर्थमें ही मुझे जीतनेकी कामना करते हैं। सचमुच इस कामनासे अंधे होनेके कारण ही वे पानीके बुलबुलेके समान क्षणभंगुर शरीरपर विश्वास कर बैठते हैं और धोखा खाते हैं ।।२।।

पूर्वं निर्जित्य षड्वर्गं जेष्यामो राजमंत्रिणः ।
ततः सचिवपौराप्त करीन्द्रानस्य कण्टकान् ॥ ३ ॥

वे सोचते हैं कि ‘हम पहले मनके सहित अपनी पाँचों इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करेंगे-अपने भीतरी शत्रुओंको वशमें करेंगे; क्योंकि इनको जीते बिना बाहरी शत्रुओंको जीतना कठिन है। उसके बाद अपने शत्रुके मन्त्रियों, अमात्यों, नागरिकों, नेताओं और समस्त सेनाको भी वशमें कर लेंगे। जो भी हमारे विजय-मार्गमें काँटे बोयेगा, उसे हम अवश्य जीत लेंगे ।।३।।

एवं क्रमेण जेष्यामः पृथ्वीं सागरमेखलाम् ।
इति आशाबद्ध हृदया न पश्यन्ति अन्तिकेऽन्तकम् ॥ ४ ॥

इस प्रकार धीरे-धीरे क्रमसे सारी पृथ्वी हमारे अधीन हो जायगी और फिर तो समुद्र ही हमारे राज्यकी खाईंका काम करेगा।’ इस प्रकार वे अपने मनमें अनेकों आशाएँ बाँध लेते हैं और उन्हें यह बात बिलकुल नहीं सूझती कि उनके सिरपर काल सवार है ||४||

समुद्रावरणां जित्वा मां विशन्त्यब्धिमोजसा ।
कियदात्मजयस्यैतन् मुक्तिरात्मजये फलम् ॥ ५ ॥

यहींतक नहीं, जब एक द्वीप उनके वशमें हो जाता है, तब वे दूसरे द्वीपपर विजय करनेके लिये बड़ी शक्ति और उत्साहके साथ समुद्रयात्रा करते हैं। अपने मनको, इन्द्रियोंको वशमें करके लोग मुक्ति प्राप्त करते हैं, परन्तु ये लोग उनको वशमें करके भी थोड़ा-सा भूभाग ही प्राप्त करते हैं। इतने परिश्रम और आत्मसंयमका यह कितना तुच्छ फल है!” ||५||

यां विसृज्यैव मनवः तत्सुताश्च कुरूद्वह ।
गता यथागतं युद्धे तां मां जेष्यन्त्यबुद्धयः ॥ ६ ॥

परीक्षित्! पृथ्वी कहती है कि ‘बड़े-बड़े मन और उनके वीर पुत्र मुझे ज्यों-की-त्यों छोड़कर जहाँसे आये थे, वहीं खाली हाथ लौट गये, मुझे अपने साथ न ले जा सके। अब ये मूर्ख राजा मुझे युद्धमें जीतकर वशमें करना चाहते हैं ।।६।।

मत्कृते पितृपुत्राणां भ्रातृणां चापि विग्रहः ।
जायते ह्यसतां राज्ये ममता-बद्धचेतसाम् ॥ ७ ॥

जिनके चित्तमें यह बात दृढ़ मूल हो गयी है कि यह पृथ्वी मेरी है, उन दुष्टोंके राज्यमें मेरे लिये पिता-पुत्र और भाई-भाई भी आपसमें लड़ बैठते हैं ।।७।।

ममैवेयं मही कृत्स्ना न ते मूढेति वादिनः ।
स्पर्धमाना मिथो घ्नन्ति म्रियन्ते मत्कृते नृपाः ॥ ८ ॥

वे परस्पर इस प्रकार कहते हैं कि ‘ओ मूढ! यह सारी पृथ्वी मेरी ही है, तेरी नहीं’, इस प्रकार राजा लोग एक-दूसरेको कहते-सुनते हैं, एक-दूसरेसे स्पर्धा करते हैं, मेरे लिये एकदूसरेको मारते हैं और स्वयं मर मिटते हैं ।।८।।

पृथुः पुरूरवा गाधिः नहुषो भरतोऽर्जुनः ।
मान्धाता सगरो रामः खट्वाङ्‌गो धुन्धुहा रघुः ॥ ९ ॥

तृणबिन्दुर्ययातिश्च शर्यातिः शन्तनुर्गयः ।
भगीरथः कुवलयाश्वः ककुत्स्थो नैषधो नृगः ॥ १० ॥

हिरण्यकशिपुर्वृत्रो रावणो लोकरावणः ।
नमुचिः शंबरो भौमो हिरण्याक्षोऽथ तारकः ॥ ११ ॥

अन्ये च बहवो दैत्या राजानो ये महेश्वराः ।
सर्वे सर्वविदः शूराः सर्वे सर्वजितोऽजिताः ॥ १२ ॥

ममतां मय्यवर्तन्त कृत्वोच्चैर्मर्त्यधर्मिणः ।
कथावशेषाः कालेन ह्यकृतार्थाः कृता विभो ॥ १३ ॥

पृथु, पुरूरवा, गाधि, नहुष, भरत, सहस्रबाहु, अर्जुन, मान्धाता, सगर, राम, खट्वांग, धुन्धुमार, रघु, तृणबिन्दु, ययाति, शर्याति, शन्तनु, गय, भगीरथ, कुवलयाश्व, ककुत्स्थ, नल, नृग, हिरण्यकशिपु, वृत्रासुर, लोकद्रोही रावण, नमुचि, शम्बर, भौमासुर, हिरण्याक्ष और तारकासुर तथा और बहुत-से दैत्य एवं शक्तिशाली नरपति हो गये। ये सब लोग सब कुछ समझते थे, शूर थे, सभीने दिग्विजयमें दूसरोंको हरा दिया; किन्तु दूसरे लोग इन्हें न जीत सके, परन्तु सब-के-सब मृत्युके ग्रास बन गये। राजन्! उन्होंने अपने पूरे अन्तःकरणसे मुझसे ममता की और समझा कि ‘यह पृथ्वी मेरी है। परन्तु विकराल कालने उनकी लालसा पूरी न होने दी। अब उनके बल-पौरुष और शरीर आदिका कुछ पता ही नहीं है। केवल उनकी कहानी मात्र शेष रह गयी है ।।९-१३।।

(मिश्र-१२)
कथा इमास्ते कथिता महीयसां
विताय लोकेषु यशः परेयुषाम् ।
विज्ञानवैराग्यविवक्षया विभो
वचोविभूतीर्न तु पारमार्थ्यम् ॥ १४ ॥

परीक्षित! संसारमें बड़े-बड़े प्रतापी और महान् पुरुष हुए हैं। वे लोकोंमें अपने यशका विस्तार करके यहाँसे चल बसे। मैंने तुम्हें ज्ञान और वैराग्यका उपदेश करनेके लिये ही उनकी कथा सुनायी है। यह सब वाणीका विलास मात्र है। इसमें पारमार्थिक सत्य कुछ भी नहीं है ।।१४।।

(इंद्रवज्रा)
यस्तु उत्तमश्लोकगुणानुवादः
संगीगीयतेऽभीक्ष्णममंगगलघ्नः ।
तमेव नित्यं श्रृणुयादभीक्ष्णं
कृष्णेऽमलां भक्तिमभीप्समानः ॥ १५ ॥

भगवान् श्रीकृष्णका गुणानुवाद समस्त अमंगलोंका नाश करनेवाला है, बड़े-बड़े महात्मा उसीका गान करते रहते हैं। जो भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें अनन्य प्रेममयी भक्तिकी लालसा रखता हो, उसे नित्य-निरन्तर भगवान्के दिव्य गुणानुवादका ही श्रवण करते रहना चाहिये ||१५||

श्रीराजोवाच –
(अनुष्टुप्)
केनोपायेन भगवन् कलेर्दोषान् कलौ जनाः ।
विधमिष्यन्ति उपचितान् तन्मे ब्रूहि यथा मुने ॥ १६ ॥

युगानि युगधर्मांश्च मानं प्रलयकल्पयोः ।
कालस्येश्वररूपस्य गतिं विष्णोर्महात्मनः ॥ १७ ॥

राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन्! मुझे तो कलियुगमें राशि-राशि दोष ही दिखायी दे रहे हैं। उस समय लोग किस उपायसे उन दोषोंका नाश करेंगे। इसके अतिरिक्त युगोंका स्वरूप, उनके धर्म, कल्पकी स्थिति और प्रलयकालके मान एवं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् भगवान्के कालरूपका भी यथावत् वर्णन कीजिये ।।१६-१७।।

श्रीशुक उवाच –
कृते प्रवर्तते धर्मः चतुष्पात् तज्जनैर्धृतः ।
सत्यं दया तपो दानं इति पादा विभोर्नृप ॥ १८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! सत्ययुगमें धर्मके चार चरण होते हैं; वे चरण हैंसत्य, दया, तप और दान। उस समयके लोग पूरी निष्ठाके साथ अपने-अपने धर्मका पालन करते हैं। धर्म स्वयं भगवान्का स्वरूप है ।।१८।।

सन्तुष्टाः करुणा मैत्राः शान्ता दान्ताः तितिक्षवः ।
आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणा जनाः ॥ १९ ॥

सत्ययुगके लोग बड़े सन्तोषी और दयालु होते हैं। वे सबसे मित्रताका व्यवहार करते और शान्त रहते हैं। इन्द्रियाँ और मन उनके वशमें रहते हैं और सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंको वे समान भावसे सहन करते हैं। अधिकांश लोग तो समदर्शी और आत्माराम होते हैं और बाकी लोग स्वरूप-स्थितिके लिये अभ्यासमें तत्पर रहते हैं ||१९||

त्रेतायां धर्मपादानां तुर्यांशो हीयते शनैः ।
अधर्मपादैः अनृत हिंसासंतोषविग्रहैः ॥ २० ॥

परीक्षित! धर्मके समान अधर्मके भी चार चरण हैं-असत्य, हिंसा, असन्तोष और कलह। त्रेतायुगमें इनके प्रभावसे धीरे-धीरे धर्मके सत्य आदि चरणोंका चतुर्थांश क्षीण हो जाता है ।।२०।।

तदा क्रियातपोनिष्ठा नातिहिंस्रा न लंपटाः ।
त्रैवर्गिकास्त्रयीवृद्धा वर्णा ब्रह्मोत्तरा नृप ॥ २१ ॥

राजन्! उस समय वर्गों में ब्राह्मणोंकी प्रधानता अक्षुण्ण रहती है। लोगोंमें अत्यन्त हिंसा और लम्पटताका अभाव रहता है। सभी लोग कर्मकाण्ड और तपस्यामें निष्ठा रखते हैं और अर्थ, धर्म एवं कामरूप त्रिवर्गका सेवन करते हैं। अधिकांश लोग कर्मप्रतिपादक वेदोंके पारदर्शी विद्वान् होते हैं ||२१||

तपःसत्यदयादानेषु अर्धं ह्रस्वति द्वापरे ।
हिंसातुष्ट्यनृतद्वेषैः धर्मस्य-अधर्मलक्षणैः ॥ २२ ॥

द्वापरयुगमें हिंसा, असन्तोष, झूठ और द्वेष-अधर्मके इन चरणोंकी वृद्धि हो जाती है एवं इनके कारण धर्मके चारो चरण-तपस्या, सत्य, दया और दान आधे-आधे क्षीण हो जाते हैं ।।२२।।

यशस्विनो महाशीलाः स्वाध्यायाध्ययने रताः ।
आढ्याः कुटुम्बिनो हृष्टा वर्णाः क्षत्रद्विजोत्तराः ॥ २ ॥

उस समयके लोग बड़े यशस्वी, कर्मकाण्डी और वेदोंके अध्ययन-अध्यापनमें बड़े । तत्पर होते हैं। लोगोंके कुटुम्ब बड़े-बड़े होते हैं, प्रायः लोग धनाढ्य एवं सुखी होते हैं। उस समय वर्णोंमें क्षत्रिय और ब्राह्मण दो वर्गों की प्रधानता रहती है ।।२३।।

कलौ तु धर्महेतूनां तुर्यांशोऽधर्महेतुभिः ।
एधमानैः क्षीयमाणो ह्यन्ते सोऽपि विनङ्‌क्ष्यति ॥ २४ ॥

कलियुगमें तो अधर्मके चारों चरण अत्यन्त बढ़ जाते हैं। उनके कारण धर्मके चारों चरण क्षीण होने लगते हैं और उनका चतुर्थांश ही बच रहता है। अन्तमें तो उस चतुर्थांशका भी लोप हो जाताहै ।।२४।।

तस्मिन् लुब्धा दुराचारा निर्दयाः शुष्कवैरिणः ।
दुर्भगा भूरितर्षाश्च शूद्रदासोत्तराः प्रजाः ॥ २५ ॥

कलियुगमें लोग लोभी, दुराचारी और कठोरहृदय होते हैं। वे झूठमूठ एक-दूसरेसे वैर मोल ले लेते हैं, एवं लालसा-तृष्णाकी तरंगोंमें बहते रहते हैं। उस समयके अभागे लोगोंमें शूद्र, केवट आदिकी ही प्रधानता रहती है ।।२५।।

सत्त्वं रजस्तम इति दृश्यन्ते पुरुषे गुणाः ।
कालसञ्चोदितास्ते वै परिवर्तन्त आत्मनि ॥ २६ ॥

सभी प्राणियों में तीन गण होते हैं—सत्त्व, रज और तम। कालकी प्रेरणासे समय-समयपर शरीर, प्राण और मनमें उनका ह्रास और विकास भी हआ करता है ||२६||

प्रभवन्ति यदा सत्त्वे मनोबुद्धीन्द्रियाणि च ।
तदा कृतयुगं विद्यात् ज्ञाने तपसि यद् रुचिः ॥ २७ ॥

जिस समय मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ सत्त्वगुणमें स्थित होकर अपना-अपना काम करने लगती हैं, उस समय सत्ययुग समझना चाहिये। सत्त्वगुणकी प्रधानताके समय मनुष्य ज्ञान और तपस्यासे अधिक प्रेम करने लगता है ||२७||

यदा धर्मार्थ कामेषु भक्तिर्यशसि देहिनाम् ।
तदा त्रेता रजोवृत्तिः इति जानीहि बुद्धिमन् ॥ २८ ॥

जिस समय मनुष्योंकी प्रवृत्ति और रुचि धर्म, अर्थ और लौकिकपारलौकिक सुख-भोगोंकी ओर होती है तथा शरीर, मन एवं इन्द्रियाँ रजोगुणमें स्थित होकर काम करने लगती हैं—बुद्धिमान् परीक्षित! समझना चाहिये कि उस समय त्रेतायुग अपना काम कर रहा है ।।२८।।

यदा लोभस्तु असन्तोषो मानो दम्भोऽथ मत्सरः ।
कर्मणां चापि काम्यानां द्वापरं तद् रजस्तमः ॥ २९ ॥

जिस समय लोभ, असन्तोष, अभिमान, दम्भ और मत्सर आदि दोषोंका बोलबाला हो और मनुष्य बड़े उत्साह तथा रुचिके साथ सकाम कर्मोंमें लगना चाहे, उस समय द्वापरयुग समझना चाहिये। अवश्य ही रजोगुण और तमोगणकी मिश्रितप्रधानताका नाम ही द्वापरयुग है ।।२९।।

यदा मायानृतं तन्द्रा निद्रा हिंसा विषादनम् ।
शोकमोहौ भयं दैन्यं स कलिस्तामसः स्मृतः ॥ ३० ॥

जिस समय झूठ-कपट, तन्द्रा-निद्रा, हिंसा-विषाद, शोक-मोह, भय और दीनताकी प्रधानता हो, उसे तमोगुण-प्रधान कलियुग समझना चाहिये ||३०||

यस्मात् क्षुद्रदृशो मर्त्याः क्षुद्रभाग्या महाशनाः ।
कामिनो वित्तहीनाश्च स्वैरिण्यश्च स्त्रियोऽसतीः ॥ ३१ ॥

जब कलियुगका राज्य होता है, तब लोगोंकी दृष्टि क्षुद्र हो जाती है; अधिकांश लोग होते तो हैं अत्यन्त निर्धन, परन्तु खाते हैं बहुत अधिक। उनका भाग्य तो होता है बहुत ही मन्द और चित्तमें कामनाएँ होती हैं बहुत बड़ी-बड़ी। स्त्रियोंमें दुष्टता और कुलटापनकी वृद्धि हो जाती है ||३१।।

दस्यूत्कृष्टा जनपदा वेदाः पाषण्डदूषिताः ।
राजानश्च प्रजाभक्षाः शिश्नोदरपरा द्विजाः ॥ ३२ ॥

सारे देशमें, गाँव-गाँवमें लुटेरोंकी प्रधानता एवं प्रचुरता हो जाती है। पाखण्डी लोग अपने नये-नये मत चलाकर मनमाने ढंगसे वेदोंका तात्पर्य निकालने लगते हैं और इस प्रकार उन्हें कलंकित करते हैं। राजा कहलानेवाले लोग प्रजाकी सारी कमाई हड़पकर उन्हें चूसने लगते हैं। ब्राह्मणनामधारी जीव पेट भरने और जननेन्द्रियको तृप्त करने में ही लग जाते हैं ||३२||

अव्रता वटवोऽशौचा भिक्षवश्च कुटुम्बिनः ।
तपस्विनो ग्रामवासा न्यासिनोऽत्यर्थलोलुपाः ॥ ३३ ॥

ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्यव्रतसे रहित और अपवित्र रहने लगते हैं। गृहस्थ दूसरोंको भिक्षा देनेके बदले स्वयं भीख माँगने लगते हैं, वानप्रस्थी गाँवोंमें बसने लगते हैं और संन्यासी धनके अत्यन्त लोभी-अर्थपिशाच हो जाते हैं ।।३३।।

ह्रस्वकाया महाहारा भूर्यपत्या गतह्रियः ।
शश्वत्कटुकभाषिण्यः चौर्यमायोरुसाहसाः ॥ ३४ ॥

स्त्रियोंका आकार तो छोटा हो जाता है, पर भूख बढ़ जाती है। उन्हें सन्तान बहुत अधिक होती है और वे अपनी कुल-मर्यादाका उल्लंघन करके लाज-हया–जो उनका भूषण है—छोड़ बैठती हैं। वे सदा-सर्वदा कड़वी बात कहती रहती हैं और चोरी तथा कपटमें बड़ी निपुण हो जाती हैं। उनमें साहस भी बहुत बढ़ जाता है ।।३४।।

पणयिष्यन्ति वै क्षुद्राः किराटाः कूटकारिणः ।
अनापद्यपि मंस्यन्ते वार्तां साधु जुगुप्सिताम् ॥ ३५ ॥

व्यापारियोंके हृदय अत्यन्त क्षुद्र हो जाते हैं। वे कौड़ी-कौड़ीसे लिपटे रहते औरछदाम-छदामके लिये धोखाधड़ी करने लगते हैं। और तो क्या-आपत्तिकाल न होनेपर तथा धनी होनेपर भी वे निम्नश्रेणीके व्यापारोंको, जिनकी सत्पुरुष निन्दा करते हैं, ठीक समझने और अपनाने लगते हैं ।।३५।।

पतिं त्यक्ष्यन्ति निर्द्रव्यं भृत्या अप्यखिलोत्तमम् ।
भृत्यं विपन्नं पतयः कौलं गाश्चापयस्विनीः ॥ ३६ ॥

स्वामी चाहे सर्वश्रेष्ठ ही क्यों न हों-जब सेवक लोग देखते हैं कि इसके पास धन-दौलत नहीं रही, तब उसे छोड़कर भाग जाते हैं। सेवक चाहे कितना ही पुराना क्यों न हो-परन्तु जब वह किसी विपत्तिमें पड़ जाता है, तब स्वामी उसे छोड़ देते हैं, और तो क्या, जब गौएँ बकेन हो जाती हैं दूध देना बन्द कर देती हैं, तब लोग उनका भी परित्याग कर देते हैं ।।३६||

पितृभ्रातृसुहृत् ज्ञातीन् हित्वा सौरतसौहृदाः ।
ननान्दृश्यालसंवादा दीनाः स्त्रैणाः कलौ नराः ॥ ३७ ॥

प्रिय परीक्षित्! कलियुगके मनुष्य बड़े ही लम्पट हो जाते हैं, वे अपनी कामवासनाको तप्त करनेके लिये ही किसीसे प्रेम करते हैं। वे विषयवासनाके वशीभूत होकर इतने दीन हो जाते हैं कि माता-पिता, भाई-बन्धु और मित्रोंको भी छोड़कर केवल अपनी साली और सालोंसे ही सलाह लेने लगते हैं ।।३७।।

शूद्राः प्रतिग्रहीष्यन्ति तपोवेषोपजीविनः ।
धर्मं वक्ष्यन्ति अधर्मज्ञा अधिरुह्योत्तमासनम् ॥ ३८ ॥

शूद्र तपस्वियोंका वेष बनाकर अपना पेट भरते और दान लेने लगते हैं। जिन्हें धर्मका रत्तीभर भी ज्ञान नहीं है, वे ऊँचे सिंहासनपर विराजमान होकर धर्मका उपदेश करने लगते हैं ।।३८।।

नित्यं उद्विग्नमनसो दुर्भिक्षकरकर्शिताः ।
निरन्ने भूतले राजन् अनावृष्टिभयातुराः ॥ ३९ ॥

प्रिय परीक्षित्! कलियुगकी प्रजा सूखा पड़नेके कारण अत्यन्त भयभीत और आतुर हो जाती है। एक तो दुर्भिक्ष और दूसरे शासकोंकी करवृद्धि! प्रजाके शरीरमें केवल अस्थिपंजर और मनमें केवल उद्वेग शेष रह जाता है। प्राणरक्षाके लिये रोटीका टुकड़ा मिलना भी कठिन हो जाता है ।।३९।।

वासोऽन्नपानशयन व्यवायस्नानभूषणैः ।
हीनाः पिशाचसन्दर्शा भविष्यन्ति कलौ प्रजाः ॥ ४० ॥

कलियुगमें प्रजा शरीर ढकनेके लिये वस्त्र और पेटकी ज्वाला शान्त करनेके लिये रोटी, पीनेके लिये पानी और सोनेके लिये दो हाथ जमीनसे भी वंचित हो जाती है। उसे दाम्पत्य-जीवन, स्नान और आभूषण पहननेतककी सुविधा नहीं रहती। लोगोंकी आकृति, प्रकृति और चेष्टाएँ पिशाचोंकी-सी हो जाती हैं ।।४०।।

कलौ काकिणिकेऽप्यर्थे विगृह्य त्यक्तसौहृदाः ।
त्यक्ष्यन्ति च प्रियान्प्राणान् हनिष्यन्ति स्वकानपि ॥ ४१ ॥

कलियुगमें लोग, अधिक धनकी तो बात ही क्या, कुछ कौड़ियोंके लिये आपसमें वैर-विरोध करने लगते और बहुत दिनोंके सद्भाव तथा मित्रताको तिलांजलि दे देते हैं। इतना ही नहीं, वे दमड़ी-दमड़ीके लिये अपने सगे-सम्बन्धियोंतककी हत्या कर बैठते और अपने प्रिय प्राणोंसे भी हाथ धो बैठते हैं ।।४१।।

न रक्षिष्यन्ति मनुजाः स्थविरौ पितरौ अपि ।
पुत्रान् सर्वार्थ कुशलान् क्षुद्राः शिश्नोदरंभराः ॥ ४२ ॥

परीक्षित्! कलियुगके क्षुद्र प्राणी केवल कामवासनाकी पूर्ति और पेट भरनेकी धुनमें ही लगे रहते हैं। पुत्र अपने बूढ़े मा-बापकी भी रक्षा-पालन-पोषण नहीं करते, उनकी उपेक्षा कर देते हैं और पिता अपने निपुण-से-निपुण, सब कामोंमें योग्य पुत्रोंकी भी परवा नहीं करते, उन्हें अलग कर देते हैं ।।४२||

(मिश्र-१२)
कलौ न राजन् जगतां परं गुरुं
त्रिलोकनाथानतपादपङ्‌कजम् ।
प्रायेण मर्त्या भगवन्तमच्युतं
यक्ष्यन्ति पाषण्डविभिन्नचेतसः ॥ ४३ ॥

परीक्षित्! श्रीभगवान् ही चराचर जगत्के परम पिता और परम गुरु हैं। इन्द्र-ब्रह्मा आदि त्रिलोकाधिपति उनके चरणकमलोंमें अपना सिर झुकाकर सर्वस्व समर्पण करते रहते हैं। उनका ऐश्वर्य अनन्त है और वे एकरस अपने स्वरूपमें स्थित हैं। परन्तु कलियुगमें लोगोंमें इतनी मूढ़ता फैल जाती है, पाखण्डियोंके कारण लोगोंका चित्त इतना भटक जाता है कि प्रायः लोग अपने कर्म और भावनाओंके द्वारा भगवान्की पूजासे भी विमुख हो जाते हैं ।।४३।।

यन्नामधेयं म्रियमाण आतुरः
पतन् स्खलन् वा विवशो गृणन् पुमान् ।
विमुक्तकर्मार्गल उत्तमां गतिं
प्राप्नोति यक्ष्यन्ति न तं कलौ जनाः ॥ ४४ ॥

मनुष्य मरनेके समय आतुरताकी स्थितिमें अथवा गिरते या फिसलते समय विवश होकर भी यदि भगवानके किसी एक नामका उच्चारण कर ले, तो उसके सारे कर्मबन्धन छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और उसे उत्तम-से-उत्तम गति प्राप्त होती है। परन्तु हाय रे कलियुग! कलियुगसे प्रभावित होकर लोग उन भगवान्की आराधनासे भी विमुख हो जाते हैं ।।४४।।

(अनुष्टुप्)
पुंसां कलिकृतान् दोषान् द्रव्यदेशात्मसंभवान् ।
सर्वान् हरति चित्तस्थो भगवान् पुरुषोत्तमः ॥ ४५ ॥

परीक्षित्! कलियुगके अनेकों दोष हैं। कुल वस्तुएँ दूषित हो जाती हैं, स्थानोंमें भी दोषकी प्रधानता हो जाती है। सब दोषोंका मूल स्रोत तो अन्तःकरण है ही, परन्तु जब पुरुषोत्तमभगवान् हृदयमें आ विराजते हैं, तब उनकी सन्निधिमात्रसे ही सब-के-सब दोष नष्ट हो जाते हैं ।।४५||

श्रुतः सङ्‌कीर्तितो ध्यातः पूजितश्चादृतोऽपि वा ।
नृणां धुनोति भगवान् हृत्स्थो जन्मायुताशुभम् ॥ ४६ ॥

भगवान्के रूप, गुण, लीला, धाम और नामके श्रवण, संकीर्तन, ध्यान, पूजन और आदरसे वे मनुष्यके हृदयमें आकर विराजमान हो जाते हैं। और एक-दो जन्मके पापोंको तो बात ही क्या, हजारों जन्मोंके पापके ढेर-के-ढेर भी क्षणभरमें भस्म कर देते हैं ।।४६।।

यथा हेम्नि स्थितो वह्निः दुर्वर्णं हन्ति धातुजम् ।
एवं आत्मगतो विष्णुः योगिनां अशुभाशयम् ॥ ४७ ॥

जैसे सोनेके साथ संयुक्त होकर अग्नि उसके धातुसम्बन्धी मलिनता आदि दोषोंको नष्ट कर देती है, वैसे ही साधकोंके हृदयमें स्थित होकर भगवान् विष्णु उनके अशुभ संस्कारोंको सदाके लिये मिटा देते हैं ।।४७||

(इंद्रवज्रा)
विद्यातपःप्राणनिरोधमैत्री
तीर्थाभिषेक व्रतदानजप्यैः ।
नात्यन्तशुद्धिं लभतेऽन्तरात्मा
यथा हृदिस्थे भगवत्यनन्ते ॥ ४८ ॥

परीक्षित्! विद्या, तपस्या, प्राणायाम, समस्त प्राणियों के प्रति मित्रभाव, तीर्थस्नान, व्रत, दान और जप आदि किसी भी साधनसे मनुष्यके अन्तःकरणकी वैसी वास्तविक शुद्धि नहीं होती, जैसी शुद्धि भगवान् पुरुषोत्तमके हृदयमें विराजमान हो जानेपर होती है ।।४८।।

(अनुष्टुप्)
तस्मात् सर्वात्मना राजन् हृदिस्थं कुरु केशवम् ।
म्रियमाणो हि अवहितः ततो यासि परां गतिम् ॥ ४९ ॥

परीक्षित्! अब तुम्हारी मृत्युका समय निकट आ गया है। अब सावधान हो जाओ। पूरी शक्तिसे और अन्तःकरणकी सारी वृत्तियोंसे भगवान् श्रीकृष्णको अपने हृदयसिंहासनपर बैठा लो। ऐसा करनेसे अवश्य ही तुम्हें परमगतिकी प्राप्ति होगी ।।४९||

म्रियमाणैरभिध्येयो भगवान् परमेश्वरः ।
आत्मभावं नयत्यङ्‌ग सर्वात्मा सर्वसंश्रयः ॥ ५० ॥

जो लोग मृत्युके निकट पहुंच रहे हैं, उन्हें सब प्रकारसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान्का ही ध्यान करना चाहिये। प्यारे परीक्षित्! सबके परम आश्रय और सर्वात्मा भगवान् अपना ध्यान करनेवालेको अपने स्वरूपमें लीन कर लेते हैं, उसे अपना स्वरूप बना लेते हैं ।।५०।।

कलेर्दोषनिधे राजन् अस्ति ह्येको महान् गुणः ।
कीर्तनात् एव कृष्णस्य मुक्तसङ्‌गः परं व्रजेत् ॥ ५१ ॥

परीक्षित्! यों तो कलियुग दोषोंका खजाना है, परन्तु इसमें एक बहुत बड़ा गुण है। वह गुण यही है कि कलियुगमें केवल भगवान् श्रीकृष्णका संकीर्तन करनेमात्रसे ही सारी आसक्तियाँ छूट जाती हैं और परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है ।।५१।।

कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः ।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद् हरिकीर्तनात् ॥ ५२ ॥

सत्ययुगमें भगवान्का ध्यान करनेसे, त्रेतामें बड़े-बड़े यज्ञोंके द्वारा उनकी आराधना करनेसे और द्वापरमें विधि-पूर्वक उनकी पूजा-सेवासे जो फल मिलता है, वह कलियुगमें केवल भगवन्नामका कीर्तन करनेसे ही प्राप्त हो जाता है ।।५२।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां द्वादशस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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