श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 12 अध्याय 4
4 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ४
श्रीशुक उवाच –
(अनुष्टुप्)
कालस्ते परमाण्वादिः द्विपरार्धावधिर्नृप ।
कथितो युगमानं च श्रृणु कल्पलयावपि ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! (तीसरे स्कन्धमें) परमाणुसे लेकर द्विपरार्धपर्यन्त कालका स्वरूप और एक-एक युग कितने-कितने वर्षोंका होता है, यह मैं तुम्हें बतला चुका हूँ। अब तुम कल्पकी स्थिति और उसके प्रलयका वर्णन भी सुनो ||१||
चतुर्युगसहस्रं तु ब्रह्मणो दिनमुच्यते ।
स कल्पो यत्र मनवः चतुर्दश विशांपते ॥ २ ॥
राजन्! एक हजार चतुर्युगीका ब्रह्माका एक दिन होता है। ब्रह्माके इस दिनको ही कल्प भी कहते हैं। एक कल्पमें चौदह मनु होते हैं ||२||
तदन्ते प्रलयस्तावान् ब्राह्मी रात्रिरुदाहृता ।
त्रयो लोका इमे तत्र कल्पन्ते प्रलयाय हि ॥ ॥
कल्पके अन्तमें उतने ही समयतक प्रलय भी रहता है। प्रलयको ही ब्रह्माकी रात भी कहते हैं। उस समय ये तीनों लोक लीन हो जाते हैं, उनका प्रलय हो जाता है ।।३।।
एष नैमित्तिकः प्रोक्तः प्रलयो यत्र विश्वसृक् ।
शेतेऽनन्तासनो विश्वं आत्मसात् कृत्य चात्मभूः ॥ ४ ॥
इसका नाम नैमित्तिक प्रलय है। इस प्रलयके अवसरपर सारे विश्वको अपने अंदर समेटकर-लीन कर ब्रह्मा और तत्पश्चात् शेषशायी भगवान् नारायण भी शयन कर जाते हैं ।।४।।
द्विपरार्धे त्वतिक्रान्ते ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ।
तदा प्रकृतयः सप्त कल्पन्ते प्रलयाय वै ॥ ५ ॥
इस प्रकार रातके बाद दिन और दिनके बाद रात होते-होते जब ब्रह्माजीकी अपने मानसे सौ वर्षकी और मनुष्योंकी दृष्टि में दो परार्द्धकी आयु समाप्त हो जाती है, तब महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्रा-ये सातों प्रकृतियाँ अपने कारण मूल प्रकृतिमें लीन हो जाती हैं ||५||
एष प्राकृतिको राजन् प्रलयो यत्र लीयते ।
अण्डकोषस्तु सङ्घातो विघाट उपसादिते ॥ ६ ॥
राजन्! इसीका नाम प्राकृतिक प्रलय है। इस प्रलयमें प्रलयका कारण उपस्थित होनेपर पंचभूतोंके मिश्रणसे बना हुआ ब्रह्माण्ड अपना स्थूलरूप छोड़कर कारणरूपमें स्थित हो जाता है, घुल-मिल जाता है ।।६।।
पर्जन्यः शतवर्षाणि भूमौ राजन्न वर्षति ।
तदा निरन्ने ह्यन्योन्यं भक्ष्यमाणाः क्षुधार्दिताः ॥ ७ ॥
परीक्षित! प्रलयका समय आनेपर सौ वर्षतक मेघ पृथ्वीपर वर्षा नहीं करते। किसीको अन्न नहीं मिलता। उस समय प्रजा भूख-प्याससे व्याकुल होकर एक-दूसरेको खाने लगती है ||७||
क्षयं यास्यन्ति शनकैः कालेनोपद्रुताः प्रजाः ।
सामुद्रं दैहिकं भौमं रसं सांवर्तको रविः ॥ ८ ॥
रश्मिभिः पिबते घोरैः सर्वं नैव विमुञ्चति
ततः संवर्तको वह्निः सङ्कर्षणमुखोत्थितः ॥ ९ ॥
इस प्रकार कालके उपद्रवसे पीड़ित होकर धीरेधीरे सारी प्रजा क्षीण हो जाती है। प्रलयकालीन सांवर्तक सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणोंसे समुद्र, प्राणियोंके शरीर और पृथ्वीका सारा रस खींच-खींचकर सोख जाते हैं और फिर उन्हें सदाकी भाँति पृथ्वीपर बरसाते नहीं। उस समय संकर्षणभगवान्के मुखसे प्रलयकालीन संवर्तक अग्नि प्रकट होती है ।।८-९||
दहत्यनिलवेगोत्थः शून्यान् भूविवरानथ ।
उपर्यधः समन्ताच्च शिखाभिर्वह्निसूर्ययोः ॥ १० ॥
दह्यमानं विभात्यण्डं दग्धगोमयपिण्डवत् ।
ततः प्रचण्डपवनो वर्षाणामधिकं शतम् ॥ ११ ॥
परः सांवर्तको वाति धूम्रं खं रजसाऽऽवृतम् ।
ततो मेघकुलान्यङ्ग चित्र वर्णान्यनेकशः ॥ १२ ॥
शतं वर्षाणि वर्षन्ति नदन्ति रभसस्वनैः ।
तत एकोदकं विश्वं ब्रह्माण्डविवरान्तरम् ॥ १३ ॥
वायुके वेगसे वह और भी बढ़ जाती है और तल-अतल आदि सातों नीचेके लोकोंको भस्म कर देती है। वहाँके प्राणी तो पहले ही मर चुके होते हैं नीचेसे आगकी करारी लपटें और ऊपरसे सूर्यकी प्रचण्ड गरमी! उस समय ऊपर-नीचे, चारों ओर यह ब्रह्माण्ड जलने लगता है और ऐसा जान पड़ता है, मानो गोबरका उपला जलकरअंगारेके रूपमें दहक रहा हो। इसके बाद प्रलयकालीन अत्यन्त प्रचण्ड सांवर्तक वायु सैकड़ों वर्षांतक चलती रहती है। उस समयका आकाश धुएँ और धूलसे तो भरा ही रहता है, उसके बाद असंख्यों रंग-बिरंगे बादल आकाशमें मँडराने लगते हैं और बड़ी भयंकरताके साथ गरजगरजकर सैकड़ों वर्षोंतक वर्षा करते रहते हैं। उस समय ब्रह्माण्डके भीतरका सारा संसार एक समुद्र हो जाता है, सब कुछ जलमग्न हो जाता है ।।१०-१३।।
तदा भूमेर्गन्धगुणं ग्रसन्त्याप उदप्लवे ।
ग्रस्तगन्धा तु पृथिवी प्रलयत्वाय कल्पते ॥ १४ ॥
इस प्रकार जब जल-प्रलय हो जाता है, तब जल पृथ्वीके विशेष गुण गन्धको ग्रस लेता है -अपनेमें लीन कर लेता है। गन्ध गुणके जलमें लीन हो जानेपर पृथ्वीका प्रलय हो जाता है, वह जलमें घुल-मिलकर जलरूप बन जाती है ।।१४।।
अपां रसमथो तेजः ता लीयन्तेऽथ नीरसाः ।
ग्रसते तेजसो रूपं वायुस्तद्रहितं तदा ॥ १५ ॥
लीयते चानिले तेजो वायोः खं ग्रसते गुणम् ।
स वै विशति खं राजन् ततश्च नभसो गुणम् ॥ १६ ॥
शब्दं ग्रसति भूतादिः नभस्तमनु लीयते ।
तैजसश्चेन्द्रियाण्यङ्ग देवान्वैकारिको गुणैः ॥ १७ ॥
राजन्! इसके बाद जलके गुण रसको तेजस्तत्त्व ग्रस लेता है और जल नीरस होकर तेजमें समा जाता है। तदनन्तर वायु तेजके गुण रूपको ग्रस लेता है और तेज रूपरहित होकर वायुमें लीन हो जाता है। अब आकाश वायुके गुण स्पर्शको अपने में मिला लेता है और वायु स्पर्शहीन होकर आकाशमें शान्त हो जाता है। इसके बाद तामस अहंकार आकाशके गुण शब्दको ग्रस लेता है और आकाश शब्दहीन होकर तामस अहंकारमें लीन हो जाता है। इसी प्रकार तैजस अहंकार इन्द्रियोंको और वैकारिक (सात्त्विक) अहंकार इन्द्रियाधिष्ठातदेवता और इन्द्रियवृत्तियोंको अपनेमें लीन कर लेता है ।।१५-१७।।
महान् ग्रसत्यहङ्कारं गुणाः सत्त्वादयश्च तम् ।
ग्रसतेऽव्याकृतं राजन् गुणान् कालेन चोदितम् ॥ १८ ॥
तत्पश्चात् महत्तत्त्व अहंकारको और सत्त्व आदि गुण महत्तत्त्वको ग्रस लेते हैं। परीक्षित्! यह सब कालकी महिमा है। उसीकी प्रेरणासे अव्यक्त प्रकृति गुणोंको ग्रस लेती है और तब केवल प्रकृति-ही-प्रकृति शेष रह जाती है ।।१८।।
न तस्य कालावयवैः परिणामादयो गुणाः ।
अनाद्यनन्तमव्यक्तं नित्यं कारणमव्ययम् ॥ १९ ॥
वही चराचर जगत्का मूल कारण है। वह अव्यक्त, अनादि, अनन्त, नित्य और अविनाशी है। जब वह अपने कार्योंको लीन करके प्रलयके समय साम्यावस्थाको प्राप्त हो जाती है, तब कालके अवयव वर्ष, मास, दिन-रात क्षण आदिके कारण उसमें परिणाम, क्षय, वृद्धि आदि किसी प्रकारके विकार नहीं होते ||१९||
(मिश्र-११)
न यत्र वाचो न मनो न सत्त्वं
तमो रजो वा महदादयोऽमी ।
न प्राणबुद्धीन्द्रियदेवता वा
न सन्निवेशः खलु लोककल्पः ॥ २० ॥
उस समय प्रकृतिमें स्थूल अथवा सूक्ष्मरूपसे वाणी, मन, सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण, महत्तत्त्व आदि विकार, प्राण, बुद्धि, इन्द्रिय और उनके देवता आदि कुछ नहीं रहते। सृष्टिके समय रहनेवाले लोकोंकी कल्पना और उनकी स्थिति भी नहीं रहती ।।२०।।
न स्वप्नजाग्रन्न च तत्सुषुप्तं
न खं जलं भूरनिलोऽग्निरर्कः ।
संसुप्तवत् शून्यवदप्रतर्क्यं
तन्मूलभूतं पदमामनन्ति ॥ २१ ॥
उस समय स्वप्न, जाग्रत और सषप्ति—ये तीन अवस्थाएँ नहीं रहतीं। आकाश, जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि और सूर्य भी नहीं रहते। सब कुछ सोये हुएके समान शून्य-सा रहता है। उस अवस्थाका तर्कके द्वारा अनुमान करना भी असम्भव है। उस अव्यक्तको ही जगत्का मूलभूत तत्त्व कहते हैं ||२१||
(अनुष्टुप्)
लयः प्राकृतिको ह्येष पुरुषाव्यक्तयोर्यदा ।
शक्तयः सम्प्रलीयन्ते विवशाः कालविद्रुताः ॥ २२ ॥
इसी अवस्थाका नाम ‘प्राकृत प्रलय’ है। उस समय पुरुष और प्रकृति दोनोंकी शक्तियाँ कालके प्रभावसे क्षीण हो जाती हैं और विवश होकर अपने मूल-स्वरूपमें लीन हो जाती हैं ||२२||
बुद्धीन्द्रियार्थरूपेण ज्ञानं भाति तदाश्रयम् ।
दृश्यत्वाव्यतिरेकाभ्यां आद्यन्तवदवस्तु यत् ॥ २३ ॥
परीक्षित्! (अब आत्यन्तिक प्रलय अर्थात् मोक्षका स्वरूप बतलाया जाता है।) बुद्धि, इन्द्रिय और उनके विषयोंके रूपमें उनका अधिष्ठान, ज्ञानस्वरूप वस्तु ही भासित हो रही है। उन सबका तो आदि भी है और अन्त भी। इसलिये वे सब सत्य नहीं हैं। वे दृश्य हैं और अपने अधिष्ठानसे भिन्न उनकी सत्ता भी नहीं है। इसलिये वे सर्वथा मिथ्या-मायामात्र हैं ।।२३।।
दीपश्चक्षुश्च रूपं च ज्योतिषो न पृथग्भवेत् ।
एवं धीः खानि मात्राश्च न स्युरन्यतमादृतात् ॥ २४ ॥
जैसे दीपक, नेत्र और रूप-ये तीनों तेजसे भिन्न नहीं हैं, वैसे ही बुद्धि इन्द्रिय और इनके विषय तन्मात्राएँ भी अपने अधिष्ठान स्वरूप ब्रह्मसे भिन्न नहीं हैं यद्यपि वह इनसे सर्वथा भिन्न है; (जैसे रज्जुरूप अधिष्ठानमें अध्यस्त सर्प अपने अधिष्ठानसे पृथक् नहीं है, परन्तु अध्यस्त सर्पसे अधिष्ठानका कोई सम्बन्ध नहीं है) ||२४||
बुद्धेर्जागरणं स्वप्नः सुषुप्तिरिति चोच्यते ।
मायामात्रमिदं राजन् नानात्वं प्रत्यगात्मनि ॥ २५ ॥
परीक्षित्! जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति-ये तीनों अवस्थाएँ बुद्धिकी ही हैं। अतः इनके कारण अन्तरात्मामें जो विश्व, तैजस और प्राज्ञरूप नानात्वकी प्रतीति होती है, वह केवल मायामात्र है। बुद्धिगत नानात्वका एकमात्र सत्य आत्मासे कोई सम्बन्ध नहीं है ||२५||
यथा जलधरा व्योम्नि भवन्ति न भवन्ति च ।
ब्रह्मणीदं तथा विश्वमवयव्युदयाप्ययात् ॥ २६ ॥
यह विश्व उत्पत्ति और प्रलयसे ग्रस्त है, इसलिये अनेक अवयवोंका समूह अवयवी है। अतः यह कभी ब्रह्ममें होता है और कभी नहीं होता, ठीक वैसे ही जैसे आकाशमें मेघमाला कभी होती है और कभी नहीं होती ।।२६।।
सत्यं ह्यवयवः प्रोक्तः सर्वावयविनामिह ।
विनार्थेन प्रतीयेरन् पटस्येवाङ्ग तन्तवः ॥ २७ ॥
परीक्षित्! जगत्के व्यवहारमें जितने भी अवयवी पदार्थ होते हैं, उनके न होनेपर भी उनके भिन्न-भिन्न अवयव सत्य माने जाते हैं। क्योंकि वे उनके कारण हैं। जैसे वस्त्ररूप अवयवीके न होनेपर भी उसके कारणरूप सूतका अस्तित्व माना ही जाता है, उसी प्रकार कार्यरूप जगत्के अभावमें भी इस जगत्के कारणरूप अवयवकी स्थिति हो सकती है ।।२७।।
यत्सामान्यविशेषाभ्यां उपलभ्येत स भ्रमः ।
अन्योन्यापाश्रयात् सर्वमाद्यन्तवदवस्तु यत् ॥ २८ ॥
परन्तु ब्रह्ममें यह कार्य-कारणभाव भी वास्तविक नहीं है। क्योंकि देखो, कारण तो सामान्य वस्तु है और कार्य विशेष वस्तु। इस प्रकारका जो भेद दिखायी देता है, वह केवल भ्रम ही है। इसका हेतु यह है कि सामान्य और विशेष भाव आपेक्षिक हैं, अन्योन्याश्रित हैं। विशेषके बिना सामान्य और सामान्यके बिना विशेषकी स्थिति नहीं हो सकती। कार्य और कारणभावका आदि और अन्त दोनों ही मिलते हैं, इसलिये भी वह स्वाप्निक भेद-भावके समान सर्वथा अवस्तु है ।।२८।।
विकारः ख्यायमानोऽपि प्रत्यगात्मानमन्तरा ।
न निरूप्योऽस्त्यणुरपि स्याच्चेच्चित्सम आत्मवत् ॥ २९ ॥
इसमें सन्देह नहीं कि यह प्रपंचरूप विकार स्वाप्निक विकारके समान ही प्रतीत हो रहा है, तो भी यह अपने अधिष्ठान ब्रह्मस्वरूप आत्मासे भिन्न नहीं है। कोई चाहे भी तो आत्मासे भिन्न रूपमें अणमात्र भी इसका निरूपण नहीं कर सकता। यदि आत्मासे पृथक इसकी सत्ता मानी भी जाय तो यह भी चिद्रूप आत्माके समान स्वयंप्रकाश होगा, और ऐसी स्थितिमें वह आत्माकी भाँति ही एकरूप सिद्ध होगा ||२९||
न हि सत्यस्य नानात्वमविद्वान्यदि मन्यते ।
नानात्वं छिद्रयोर्यद्वत् ज्योतिषोर्वातयोरिव ॥ ३० ॥
परन्तु इतना तो सर्वथा निश्चित है कि परमार्थ-सत्य वस्तुमें नानात्व नहीं है। यदि कोई अज्ञानी परमार्थ-सत्य वस्तुमें नानात्व स्वीकार करता है, तो उसका वह मानना वैसा ही है, जैसा महाकाश और घटाकाशका, आकाशस्थित सूर्य और जलमें प्रतिबिम्बित सूर्यका तथा बाह्य वायु और आन्तर वायुका भेद मानना ।।३०।।
(मिश्र-१२)
यथा हिरण्यं बहुधा समीयते
नृभिः क्रियाभिर्व्यवहारवर्त्मसु ।
एवं वचोभिर्भगवानधोक्षजो
व्याख्यायते लौकिकवैदिकैर्जनैः ॥ ३१ ॥
जैसे व्यवहारमें मनुष्य एक ही सोनेको अनेकों रूपोंमें गढ़-गलाकर तैयार कर लेते हैं और वह कंगन, कुण्डल, कड़ा आदि अनेकों रूपोंमें मिलता है; इसी प्रकार व्यवहारमें निपुण विद्वान् लौकिक और वैदिक वाणीके द्वारा इन्द्रियातीत आत्मस्वरूप भगवान्का भी अनेकों रूपोंमें वर्णन करते हैं ।।३१।।
यथा घनोऽर्कप्रभवोऽर्कदर्शितो
ह्यर्कांशभूतस्य च चक्षुषस्तमः ।
एवं त्वहं ब्रह्मगुणस्तदीक्षितो
ब्रह्मांशकस्यात्मन आत्मबन्धनः ॥ ३२ ॥
देखो न, बादल सूर्यसे उत्पन्न होता है और सूर्यसे ही प्रकाशित। फिर भी वह सूर्यके ही अंश नेत्रोंके लिये सूर्यका दर्शन होने में बाधक बन बैठता है। इसी प्रकार अहंकार भी ब्रह्मसे ही उत्पन्न होता, ब्रह्मसे ही प्रकाशित होता और ब्रह्मके अंश जीवके लिये ब्रह्मस्वरूपके साक्षात्कारमें बाधक बन बैठता है ||३२||
घनो यदार्कप्रभवो विदीर्यते
चक्षुः स्वरूपं रविमीक्षते तदा ।
यदा ह्यहङ्कार उपाधिरात्मनो
जिज्ञासया नश्यति तर्ह्यनुस्मरेत् ॥ ३३ ॥
जब सूर्यसे प्रकट होनेवाला बादल तितर-बितर हो जाता है, तब नेत्र अपने स्वरूप सूर्यका दर्शन करने में समर्थ होते हैं। ठीक वैसेही, जब जीवके हृदयमें जिज्ञासा जगती है, तब आत्माकी उपाधि अहंकार नष्ट हो जाता है और उसे अपने स्वरूपका साक्षात्कार हो जाता है ।।३३।।
यदैवमेतेन विवेकहेतिना
मायामयाहङ्करणात्मबन्धनम् ।
छित्त्वाच्युतात्मानुभवोऽवतिष्ठते
तमाहुरात्यन्तिकमङ्ग सम्प्लवम् ॥ ३४ ॥
प्रिय परीक्षित्! जब जीव विवेकके खड्गसे मायामय अहंकारका बन्धन काट देता है, तब यह अपने एकरस आत्मस्वरूपके साक्षात्कारमें स्थित हो जाता है। आत्माकी यह मायामुक्त वास्तविक स्थिति ही आत्यन्तिक प्रलय कही जाती है ।।३४।।
(अनुष्टुप्)
नित्यदा सर्वभूतानां ब्रह्मादीनां परन्तप ।
उत्पत्तिप्रलयौ एके सूक्ष्मज्ञाः सम्प्रचक्षते ॥ ३५ ॥
हे शत्रुदमन! तत्त्वदर्शी लोग कहते हैं कि ब्रह्मासे लेकर तिनकेतक जितने प्राणी या पदार्थ हैं, सभी हर समय पैदा होते और मरते रहते हैं। अर्थात् नित्यरूपसे उत्पत्ति और प्रलय होता ही रहता है ||३५||
कालस्रोतोजवेनाशु ह्रियमाणस्य नित्यदा ।
परिणामिनामवस्थास्ता जन्मप्रलयहेतवः ॥ ३६ ॥
संसारके परिणामी पदार्थ नदी-प्रवाह और दीप-शिखा आदि क्षण-क्षण बदलते रहते हैं। उनकी बदलती हुई अवस्थाओंको देखकर यह निश्चय होता है कि देह आदि भी कालरूप सोतेके वेगमें बहते-बदलते जा रहे हैं। इसलिये क्षण-क्षणमें उनकी उत्पत्ति औरप्रलय हो रहा है ।।३६।।
अनाद्यन्तवतानेन कालेनेश्वरमूर्तिना ।
अवस्था नैव दृश्यन्ते वियति ज्योतिषामिव ॥ ३७ ॥
जैसे आकाशमें तारे हर समय चलते ही रहते हैं, परन्तु उनकी गति स्पष्टरूपसे नहीं दिखायी पड़ती, वैसे ही भगवान्के स्वरूपभूत अनादि-अनन्त कालके कारण प्राणियोंकी प्रतिक्षण होनेवाली उत्पत्ति और प्रलयका भी पता नहीं चलता ।।३७||
नित्यो नैमित्तिकश्चैव तथा प्राकृतिको लयः ।
आत्यन्तिकश्च कथितः कालस्य गतिरीदृशी ॥ ३८ ॥
परीक्षित्! मैंने तुमसे चार प्रकारके प्रलयका वर्णन किया; उनके नाम हैं—नित्य प्रलय, नैमित्तिक प्रलय, प्राकृतिक प्रलय और आत्यन्तिक प्रलय। वास्तवमें कालकी सूक्ष्म गति ऐसी ही है ।।३८।।
(मिश्र-११)
एताः कुरुश्रेष्ठ जगद्विधातुः
नारायणस्याखिलसत्त्वधाम्नः ।
लीलाकथास्ते कथिताः समासतः
कार्त्स्न्येन नाजोऽप्यभिधातुमीशः ॥ ३९ ॥
हे कुरुश्रेष्ठ! विश्वविधाता भगवान् नारायण ही समस्त प्राणियों और शक्तियोंके आश्रय हैं। जो कुछ मैंने संक्षेपसे कहा है, वह सब उन्हींकी लीला-कथा है। भगवान्की लीलाओंका पूर्ण वर्णन तो स्वयं ब्रह्माजी भी नहीं कर सकते ।।३९।।
(वसंततिलका)
संसारसिन्धुमतिदुस्तरमुत्तितीर्षोः
नान्यः प्लवो भगवतः पुरुषोत्तमस्य ।
लीलाकथारसनिषेवणमन्तरेण
पुंसो भवेद्विविधदुःखदवार्दितस्य ॥ ४० ॥
जो लोग अत्यन्त दुस्तर संसार-सागरसे पार जाना चाहते हैं अथवा जो लोग अनेकों प्रकारके दुःख-दावानलसे दग्ध हो रहे हैं, उनके लिये पूषोत्तमभगवानकी लीला-कथारूप रसके सेवनके अतिरिक्त और कोई साधन, कोई नौका नहीं है। ये केवल लीला-रसायनका सेवन करके ही अपना मनोरथ सिद्ध कर सकते हैं ।।४०।।
(अनुष्टुप्)
पुराणसंहितामेताम् ऋषिर्नारायणोऽव्ययः ।
नारदाय पुरा प्राह कृष्णद्वैपायनाय सः ॥ ४१ ॥
जो कुछ मैंने तुम्हें सुनाया है, यही श्रीमद्भागवतपुराण है। इसे सनातन ऋषि नर-नारायणने पहले देवर्षि नारदको सुनाया था और उन्होंने मेरे पिता महर्षि कष्णद्वैपायनको ||४१।।
स वै मह्यं महाराज भगवान् बादरायणः ।
इमां भागवतीं प्रीतः संहितां वेदसम्मिताम् ॥ ४२ ॥
महाराज! उन्हीं बदरीवनविहारी भगवान श्रीकृष्णदैपायनने प्रसन्न होकर मुझे इस वेदतुल्य श्रीभागवतसंहिताका उपदेश किया ।।४२।।
इमां वक्ष्यत्यसौ सूत ऋषिभ्यो नैमिषालये ।
दीर्घसत्रे कुरुश्रेष्ठ सम्पृष्टः शौनकादिभिः ॥ ४३ ॥
कुरुश्रेष्ठ! आगे चलकर जब शौनकादि ऋषि नैमिषारण्य क्षेत्रमें बहुत बड़ा सत्र करेंगे, तब उनके प्रश्न करनेपर पौराणिक वक्ता श्रीसूतजी उन लोगोंको इस संहिताका श्रवण करायेंगे ।।४३।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां द्वादशस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥