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श्रीमद् भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 12 अध्याय 6

Spread the Glory of Sri SitaRam!

6 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ६

अथ षष्ठोऽध्यायः
सूत उवाच
एतन्निशम्य मुनिनाभिहितं परीक्षिद्
व्यासात्मजेन निखिलात्मदृशा समेन
तत्पादमूलमुपसृत्य नतेन मूर्ध्ना
बद्धाञ्जलिस्तमिदमाह स विष्णुरातः १

श्रीसतजी कहते हैं-शौनकादि ऋषियो! व्यासनन्दन श्रीशुकदेव मुनि समस्त चराचर जगत्को अपनी आत्माके रूपमें अनुभव करते हैं और व्यवहारमें सबके प्रति समदृष्टि रखते हैं। भगवान्के शरणागत एवं उनके द्वारा सुरक्षित राजर्षि परीक्षित्ने उनका सम्पूर्ण उपदेश बड़े ध्यानसे श्रवण किया। अब वे सिर झुकाकर उनके चरणोंके तनिक और पास खिसक आये तथा अंजलि बाँधकर उनसे यह प्रार्थना करने लगे ||१||

राजोवाच
सिद्धोऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि भवता करुणात्मना
श्रावितो यच्च मे साक्षादनादिनिधनो हरिः २

राजा परीक्षितने कहा-भगवन्! आप करुणाके मूर्तिमान स्वरूप हैं। आपने मुझपर परम कृपा करके अनादि-अनन्त, एकरस, सत्य भगवान् श्रीहरिके स्वरूप और लीलाओंका वर्णन किया है। अब मैं आपकी कृपासे परम अनुगृहीत और कृतकृत्य हो गया हूँ ।।२।।

नात्यद्भुतमहं मन्ये महतामच्युतात्मनाम्
अज्ञेषु तापतप्तेषु भूतेषु यदनुग्रहः ३

संसारके प्राणी अपने स्वार्थ और परमार्थके ज्ञानसे शून्य हैं और विभिन्न प्रकारके दुःखोंके दावानलसे दग्ध हो रहे हैं। उनके ऊपर भगवन्मय महात्माओंका अनुग्रह होना कोई नयी घटना अथवा आश्चर्यकी बात नहीं है। यह तो उनके लिये स्वाभाविक ही है ||३||

पुराणसंहितामेतामश्रौष्म भवतो वयम्
यस्यां खलूत्तमःश्लोको भगवाननवर्ण्यते ४

मैंने और मेरे साथ और बहुत-से लोगोंने आपके मुखारविन्दसे इस श्रीमद्भागवतमहापुराणका श्रवण किया है। इस पुराणमें पद-पदपर भगवान् श्रीहरिके उस स्वरूप और उन लीलाओंका वर्णन हुआ है, जिसके गानमें बड़े-बड़े आत्माराम पुरुष रमते रहते हैं ।।४।।

भगवंस्तक्षकादिभ्यो मृत्युभ्यो न बिभेम्यहम्
प्रविष्टो ब्रह्म निर्वाणमभयं दर्शितं त्वया ५

भगवन्! आपने मुझे अभयपदका, ब्रह्म और आत्माकी एकताका साक्षात्कार करा दिया है। अब मैं परम शान्ति-स्वरूप ब्रह्ममें स्थित हूँ। अब मुझे तक्षक आदि किसी भी मृत्युके निमित्तसे अथवा दल-के-दल मृत्युओंसे भी भय नहीं है। मैं अभय हो गया हूँ ।।५।।

अनुजानीहि मां ब्रह्मन्वाचं यच्छाम्यधोक्षजे
मुक्तकामाशयं चेतः प्रवेश्य विसृजाम्यसून् ६

ब्रह्मन्! अब आप मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं अपनी वाणी बंद कर लँ, मौन हो जाऊँ और साथ ही कामनाओंके संस्कारसे भी रहित चित्तको इन्द्रियातीत परमात्माके स्वरूपमें विलीन करके अपने प्राणोंका त्याग कर दूँ ||६||

अज्ञानं च निरस्तं मे ज्ञानविज्ञाननिष्ठया
भवता दर्शितं क्षेमं परं भगवतः पदम् ७

आपके द्वारा उपदेश किये हुए ज्ञान और विज्ञानमें परिनिष्ठित हो जानेसे मेरा अज्ञान सर्वदाके लिये नष्ट हो गया। आपने भगवान्के परम कल्याणमय स्वरूपका मुझे साक्षात्कार करा दिया है ||७||

सूत उवाच
इत्युक्तस्तमनुज्ञाप्य भगवान्बादरायणिः
जगाम भिक्षुभिः साकं नरदेवेन पूजितः ८

सूतजी कहते हैं-शौनकादि ऋषियो! राजा परीक्षित्ने भगवान् श्रीशुकदेवजीसे इस प्रकार कहकर बड़े प्रेमसे उनकी पूजा की। अब वे परीक्षितसे विदा लेकर समागत त्यागी महात्माओं, भिक्षुओंके साथ वहाँसे चले गये ||८||

परीक्षिदपि राजर्षिरात्मन्यात्मानमात्मना
समाधाय परं दध्यावस्पन्दासुर्यथा तरुः ९

राजर्षि परीक्षितने भी बिना किसी बाह्य सहायताके स्वयं ही अपने अन्तरात्माको परमात्माके चिन्तनमें समाहित किया और ध्यानमग्न हो गये। उस समय उनका श्वास-प्रश्वास भी नहीं चलता था, ऐसा जान पड़ता था मानो कोई वृक्षका ढूँठ हो ।।९।।

प्राक्कूले बर्हिष्यासीनो गङ्गाकूल उदङ्मुखः
ब्रह्मभूतो महायोगी निःसङ्गश्छिन्नसंशयः १०

उन्होंने गंगाजीके तटपर कुशोंको इस प्रकार बिछा रखा था, जिसमें उनका अग्रभाग पूर्वकी ओर हो और उनपर स्वयं उत्तर मुँह होकर बैठे हुए थे। उनकी आसक्ति और संशय तो पहले ही मिट चुके थे। अब वे ब्रह्म और आत्माकी एकतारूप महायोगमें स्थित होकर ब्रह्मस्वरूप हो गये ।।१०।।

तक्षकः प्रहितो विप्राः क्रुद्धेन द्विजसूनुना
हन्तुकामो नृपं गच्छन्ददर्श पथि कश्यपम् ११

शौनकादि ऋषियो! मुनिकुमार शृंगीने क्रोधित होकर परीक्षित्को शाप दे दिया था। अब उनका भेजा हुआ तक्षक सर्प राजा परीक्षित्को डसनेके लिये उनके पास चला। रास्तेमें उसने कश्यप नामके एक ब्राह्मणको देखा ।।११।।

तं तर्पयित्वा द्रविणैर्निवर्त्य विषहारिणम्
द्विजरूपप्रतिच्छन्नः कामरूपोऽदशन्नृपम् १२

कश्यपब्राह्मण सर्पविषकी चिकित्सा करनेमें बड़े निपुण थे। तक्षकने बहुत-सा धन देकर कश्यपको वहींसे लौटा दिया, उन्हें राजाके पास न जाने दिया। और स्वयं ब्राह्मणके रूपमें छिपकर, क्योंकि वह इच्छानुसार रूप धारण कर सकता था, राजा परीक्षित्के पास गया और उन्हें डस लिया ||१२||

ब्रह्मभूतस्य राजर्षेर्देहोऽहिगरलाग्निना
बभूव भस्मसात्सद्यः पश्यतां सर्वदेहिनाम् १३

राजर्षि परीक्षित् तक्षकके डसनेके पहले ही ब्रह्ममें स्थित हो चुके थे। अब तक्षकके विषकी आगसे उनका शरीर सबके सामने ही जलकर भस्म हो गया ।।१३।।

हाहाकारो महानासीद्भुवि खे दिक्षु सर्वतः
विस्मिता ह्यभवन्सर्वे देवासुरनरादयः १४

पृथ्वी, आकाश और सब दिशाओंमें बड़े जोरसे ‘हाय-हाय’ की ध्वनि होने लगी। देवता, असुर, मनुष्य आदि सब-के-सब परीक्षित्की यह परम गति देखकर विस्मित हो गये ।।१४।।

देवदुन्दुभयो नेदुर्गन्धर्वाप्सरसो जगुः
ववृषुः पुष्पवर्षाणि विबुधाः साधुवादिनः १५

देवताओंकी दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। गन्धर्व और अप्सराएँ गान करने लगीं। देवतालोग ‘साधु-साधु’ के नारे लगाकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ।।१५।।

जनमेजयः स्वपितरं श्रुत्वा तक्षकभक्षितम्
यथाजुहाव सन्क्रुद्धो नागान्सत्रे सह द्विजैः १६

जब जनमेजयने सुना कि तक्षकने मेरे पिताजीको डस लिया है, तो उसे बड़ा क्रोध हुआ। अब वह ब्राह्मणोंके साथ विधिपूर्वक सोका अग्निकण्डमें हवन करने लगा ।।१६।।

सर्पसत्रे समिद्धाग्नौ दह्यमानान्महोरगान्
दृष्ट्वेन्द्रं भयसंविग्नस्तक्षकः शरणं ययौ १७

तक्षकने देखा कि जनमेजयके सर्प-सत्रकी प्रज्वलित अग्निमें बड़े-बड़े महासर्प भस्म होते जा रहे हैं, तब वह अत्यन्त भयभीत होकर देवराज इन्द्रकी शरणमें गया ।।१७।।

अपश्यंस्तक्षकं तत्र राजा पारीक्षितो द्विजान्
उवाच तक्षकः कस्मान्न दह्येतोरगाधमः १८

बहुत सॉंके भस्म होनेपर भी तक्षक न आया, यह देखकर परीक्षित्नन्दन राजा जनमेजयने ब्राह्मणोंसे कहा कि ‘ब्राह्मणो! अबतक साधम तक्षक क्यों नहीं भस्म हो रहा है?’ ||१८||

तं गोपायति राजेन्द्र शक्रः शरणमागतम्
तेन संस्तम्भितः सर्पस्तस्मान्नाग्नौ पतत्यसौ १९

ब्राह्मणोंने कहा –’राजेन्द्र! तक्षक इस समय इन्द्रकी शरणमें चला गया है और वे उसकी रक्षा कर रहे हैं। उन्होंने ही तक्षकको स्तम्भित कर दिया है, इसीसे वह अग्निकुण्डमें गिरकर भस्म नहीं हो रहा है’ ||१९||

पारीक्षित इति श्रुत्वा प्राहर्त्विज उदारधीः
सहेन्द्रस्तक्षको विप्रा नाग्नौ किमिति पात्यते २०

परीक्षितनन्दन जनमेजय बड़े ही बुद्धिमान और वीर थे। उन्होंने ब्राह्मणोंकी बात सुनकर ऋत्विजोंसे कहा कि ‘ब्राह्मणो! आपलोग इन्द्रके साथ तक्षकको क्यों नहीं अग्निमें गिरा देते?’ ||२०||

तच्छ्रुत्वाजुहुवुर्विप्राः सहेन्द्रं तक्षकं मखे
तक्षकाशु पतस्वेह सहेन्द्रेण मरुत्वता २१

जनमेजयकी बात सुनकर ब्राह्मणोंने उस यज्ञमें इन्द्रके साथ तक्षकका अग्निकुण्डमें आवाहन किया। उन्होंने कहा-‘रे तक्षक! तू मरुद्गणके सहचर इन्द्रके साथ इस अग्निकुण्डमें शीघ्र आ पड़’ ||२१||

इति ब्रह्मोदिताक्षेपैः स्थानादिन्द्रः प्रचालितः
बभूव सम्भ्रान्तमतिः सविमानः सतक्षकः २२

जब ब्राह्मणोंने इस प्रकार आकर्षणमन्त्रका पाठ किया, तब तो इन्द्र अपने स्थान-स्वर्गलोकसे विचलित हो गये। विमानपर बैठे हुए इन्द्र तक्षकके साथ ही बहुत घबड़ा गये और उनका विमान भी चक्कर काटने लगा ।।२२।।

तं पतन्तं विमानेन सहतक्षकमम्बरात्
विलोक्याङ्गिरसः प्राह राजानं तं बृहस्पतिः २३

अंगिरानन्दन बहस्पतिजीने देखा कि आकाशसे देवराज इन्द्र विमान और तक्षकके साथ ही अग्निकुण्डमें गिर रहे हैं; तब उन्होंने राजा जनमेजयसे कहा- ||२३||

नैष त्वया मनुष्येन्द्र वधमर्हति सर्पराट्
अनेन पीतममृतमथ वा अजरामरः २४

‘नरेन्द्र! सर्पराज तक्षकको मार डालना आपके योग्य काम नहीं है। यह अमृत पी चुका है। इसलिये यह अजर और अमर है ।।२४।।

जीवितं मरणं जन्तोर्गतिः स्वेनैव कर्मणा
राजंस्ततोऽन्यो नास्त्यस्य प्रदाता सुखदुःखयोः २५

राजन्! जगत्के प्राणी अपने-अपने कर्मके अनुसार ही जीवन, मरण और मरणोत्तर गति प्राप्त करते हैं। कर्मके अतिरिक्त और कोई भी किसीको सुख-दुःख नहीं दे सकता ||२५||

सर्पचौराग्निविद्युद्भ्यः क्षुत्तृड् व्याध्यादिभिर्नृप
पञ्चत्वमृच्छते जन्तुर्भुङ्क्त आरब्धकर्म तत् २६

जनमेजय! यों तो बहुत-से लोगोंकी मृत्यु साँप, चोर, आग, बिजली आदिसे तथा भूख-प्यास, रोग आदि निमित्तोंसे होती है; परन्तु यह तो कहनेकी बात है। वास्तवमें तो सभी प्राणी अपने प्रारब्ध-कर्मका ही उपभोग करते हैं ||२६||

तस्मात्सत्रमिदं राजन्संस्थीयेताभिचारिकम्
सर्पा अनागसो दग्धा जनैर्दिष्टं हि भुज्यते २७

राजन! तुमने बहुत-से निरपराध सोको जला दिया है। इस अभिचार-यज्ञका फल केवल प्राणियोंकी हिंसा ही है। इसलिये इसे बन्द कर देना चाहिये। क्योंकि जगत्के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्धकर्मका ही भोग कर रहे हैं ।।२७।।

सूत उवाच
इत्युक्तः स तथेत्याह महर्षेर्मानयन्वचः
सर्पसत्रादुपरतः पूजयामास वाक्पतिम् २८

सूतजी कहते हैं-शौनकादि ऋषियो! महर्षि बृहस्पतिजीकी बातका सम्मान करके जनमेजयने कहा कि ‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।’ उन्होंने सर्प-सत्र बंद कर दिया और देवगुरु बृहस्पतिजीकी विधिपूर्वक पूजा की ।।२८।।

सैषा विष्णोर्महामाया बाध्ययालक्षणा यया
मुह्यन्त्यस्यैवात्मभूता भूतेषु गुणवृत्तिभिः २९

ऋषिगण! (जिससे विद्वान् ब्राह्मणको भी क्रोध आया, राजाको शाप हुआ, मृत्यु हुई, फिर जनमेजयको क्रोध आया, सर्प मारे गये) यह वही भगवान् विष्णुकी महामाया है। यह अनिर्वचनीय है, इसीसे भगवान्के स्वरूपभूत जीव क्रोधादि गुण-वृत्तियोंके द्वारा शरीरोंमें मोहित हो जाते हैं, एक-दूसरेको दुःख देते और भोगते हैं और अपने प्रयत्नसे इसको निवृत्त नहीं कर सकते ।।२९।।

न यत्र दम्भीत्यभया विराजिता मायात्मवादेऽसकृदात्मवादिभिः
न यद्विवादो विविधस्तदाश्रयो मनश्च सङ्कल्पविकल्पवृत्ति यत् ३०

(विष्णुभगवान्के स्वरूपका निश्चय करके उनका भजन करनेसे ही मायासे निवृत्ति होती है; इसलिये उनके स्वरूपका निरूपण सुनो—) यह दम्भी है, कपटी है -इत्याकारक बुद्धिमें बार-बार जो दम्भ-कपटका स्फुरण होता है, वही माया है। जब आत्मवादी पुरुष आत्मचर्चा करने लगते हैं, तब वह परमात्माके स्वरूपमें निर्भयरूपसे प्रकाशित नहीं होती; किन्तु भयभीत होकर अपना मोह आदि कार्य न करती हई ही किसी प्रकार रहती है। इस रूपमें उसका प्रतिपादन किया गया है। मायाके आश्रित नाना प्रकारके विवाद, मतवाद भी परमात्माके स्वरूपमें नहीं हैं; क्योंकि वे विशेषविषयक हैं और परमात्मा निर्विशेष है। केवल वाद-विवादकी तो बात ही क्या, लोक-परलोकके विषयोंके सम्बन्धमें संकल्प-विकल्प करनेवाला मन भी शान्त हो जाता है ||३०||

न यत्र सृज्यं सृजतोभयोः परं श्रेयश्च जीवस्त्रिभिरन्वितस्त्वहम्
तदेतदुत्सादितबाध्यबाधकं निषिध्य चोर्मीन्विरमेत तन्मुनिः ३१

कर्म, उसके सम्पादनकी सामग्री और उनके द्वारा साध्यकर्म-इन तीनोंसे अन्वित अहंकारात्मक जीव-यह सब जिसमें नहीं हैं, वह आत्म-स्वरूप परमात्मा न तो कभी किसीके द्वारा बाधित होता है और न तो किसीका विरोधी ही है। जो पुरुष उस परमपदके स्वरूपका विचार करता है, वह मनकी मायामयी लहरों, अहंकार आदिका बाध करके स्वयं अपने आत्मस्वरूपमें विहार करने लगता है ।।३१।।

परं पदं वैष्णवमामनन्ति तद्यन्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः
विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहृदा हृदोपगुह्यावसितं समाहितैः ३२

जो मुमुक्षु एवं विचारशील पुरुष परमपदके अतिरिक्त वस्तुका परित्याग करते हुए ‘नेति-नेति’ के द्वारा उसका निषेध करके ऐसी वस्तु प्राप्त करते हैं, जिसका कभी निषेध नहीं हो सकता और न तो कभी त्याग ही, वही विष्णुभगवान्का परमपद है; यह बात सभी महात्मा और श्रुतियाँ एक मतसे स्वीकार करती हैं। अपने चित्तको एकाग्र करनेवाले पुरुष अन्तःकरणकी अशुद्धियोंको, अनात्म-भावनाओंको सदा-सर्वदाके लिये मिटाकर अनन्य प्रेमभावसे परिपूर्ण हृदयके द्वारा उसी परमपदका आलिंगन करते हैं और उसीमें समा जाते हैं ||३२||

त एतदधिगच्छन्ति विष्णोर्यत्परमं पदम्
अहं ममेति दौर्जन्यं न येषां देहगेहजम् ३३

विष्णभगवानका यही वास्तविक स्वरूप है, यही उनका परमपद है। इसकी प्राप्ति उन्हीं लोगोंको होती है, जिनके अन्तःकरणमें शरीरके प्रति अहंभाव नहीं है और न तो इसकेसम्बन्धी गृह आदि पदार्थों में ममता ही। सचमुच जगत्की वस्तुओंमें मैंपन और मेरेपनका आरोप बहुत बड़ी दुर्जनता है ।।३३।।

अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन
न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित् ३४

शौनकजी! जिसे इस परमपदकी प्राप्ति अभीष्ट है, उसे चाहिये कि वह दूसरोंकी कटु वाणी सहन कर ले और बदले में किसीका अपमान न करे। इस क्षणभंगुर शरीरमें अहंता-ममता करके किसी भी प्राणीसे कभी वैर न करे ||३४||

नमो भगवते तस्मै कृष्णायाकुण्ठमेधसे
यत्पादाम्बुरुहध्यानात्संहितामध्यगामिमाम् ३५

भगवान् श्रीकृष्णका ज्ञान अनन्त है। उन्हींके चरणकमलोंके ध्यानसे मैंने इस श्रीमद्भागवतमहापुराणका अध्ययन किया है। मैं अब उन्हींको नमस्कार करके यह पुराण समाप्त करता हूँ ||३५||

श्रीशौनक उवाच
पैलादिभिर्व्यासशिष्यैर्वेदाचार्यैर्महात्मभिः
वेदाश्च कथिता व्यस्ता एतत्सौम्याभिधेहि नः ३६

शौनकजीने पूछा-साधुशिरोमणि सूतजी! वेदव्यासजीके शिष्य पैल आदि महर्षि बड़े महात्मा और वेदोंके आचार्य थे। उन लोगोंने कितने प्रकारसे वेदोंका विभाजन किया, यह बात आप कृपा करके हमें सुनाइये ।।३६।।

सूत उवाच
समाहितात्मनो ब्रह्मन्ब्रह्मणः परमेष्ठिनः
हृद्याकाशादभून्नादो वृत्तिरोधाद्विभाव्यते ३७

सूतजीने कहा-ब्रह्मन्! जिस समय परमेष्ठी ब्रह्माजी पूर्वसृष्टिका ज्ञान सम्पादन करनेके लिये एकाग्रचित्त हुए, उस समय उनके हृदयाकाशसे कण्ठ-ताल आदि स्थानोंके संघर्षसे रहित एक अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रकट हुआ। जब जीव अपनी मनोवृत्तियोंको रोक लेता है, तब उसे भी उस अनाहत नादका अनुभव होता है ||३७।।

यदुपासनया ब्रह्मन्योगिनो मलमात्मनः
द्रव्यक्रियाकारकाख्यं धूत्वा यान्त्यपुनर्भवम् ३८

शौनकजी! बड़े-बड़े योगी उसी अनाहत नादकी उपासना करते हैं और उसके प्रभावसेअन्तःकरणके द्रव्य (अधिभूत), क्रिया (अध्यात्म) और कारक (अधिदैव) रूप मलको नष्ट करके वह परमगतिरूप मोक्ष प्राप्त करते हैं, जिसमें जन्म-मृत्युरूप संसारचक्र नहीं है ।।३८।।

ततोऽभूत्त्रिवृदॐकारो योऽव्यक्तप्रभवः स्वराट्
यत्तल्लिङ्गं भगवतो ब्रह्मणः परमात्मनः ३९

उसी अनाहत नादसे ‘अ’ कार, ‘उ’ कार और ‘म’ काररूप तीन मात्राओंसे युक्त ॐकार प्रकट हुआ। इस ॐकारकी शक्तिसे ही प्रकृति अव्यक्तसे व्यक्तरूपमें परिणत हो जाती है। ॐकार स्वयं भी अव्यक्त एवं अनादि है और परमात्म-स्वरूप होनेके कारण स्वयंप्रकाश भी है। जिस परम वस्तुको भगवान् ब्रह्म अथवा परमात्माके नामसे कहा जाता है, उसके स्वरूपका बोध भी ॐकारके द्वारा ही होता है ||३९||

शृणोति य इमं स्फोटं सुप्तश्रोत्रे च शून्यदृक्
येन वाग्व्यज्यते यस्य व्यक्तिराकाश आत्मनः ४०

जब श्रवणेन्द्रियकी शक्ति लुप्त हो जाती है, तब भी इस ॐकारको समस्त अर्थों को प्रकाशित करनेवाले स्फोट तत्त्वको जो सुनता है और सुषुप्ति एवं समाधि-अवस्थाओंमें सबके अभावको भी जानता है, वही परमात्माका विशुद्ध स्वरूप है। वही ॐकार परमात्मासे हृदयाकाशमें प्रकट होकर वेदरूपा वाणीको अभिव्यक्त करता है ।।४०।।

स्वधाम्नो ब्राह्मणः साक्षाद्वाचकः परमात्मनः
स सर्वमन्त्रोपनिषद्वेदबीजं सनातनम् ४१

ॐकार अपने आश्रय परमात्मा परब्रह्मका साक्षात् वाचक है और ॐकार ही सम्पूर्ण मन्त्र, उपनिषद् और वेदोंका सनातन बीज है ।।४१||

तस्य ह्यासंस्त्रयो वर्णा अकाराद्या भृगूद्वह
धार्यन्ते यैस्त्रयो भावा गुणनामार्थवृत्तयः ४२

शौनकजी! ॐकारके तीन वर्ण हैं – ‘अ’, ‘उ’, और ‘म’। ये ही तीनों वर्ण सत्त्व, रज, तम-इन तीन गुणों; ऋक्, यजुः, साम–इन तीन नामों; भूः, भुवः, स्वः-इन तीन अर्थों और जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति इन तीन वृत्तियोंके रूपमें तीन-तीनकी संख्यावाले भावोंको धारण करते हैं ।।४२।।

ततोऽक्षरसमाम्नायमसृजद्भगवानजः
अन्तस्थोष्मस्वरस्पर्श ह्रस्वदीर्घादिलक्षणम् ४३

इसके बाद सर्वशक्तिमान् ब्रह्माजीने ॐकारसे ही अन्तःस्थ (य, र, ल, व), ऊष्म (श, ष, स, ह), स्वर (‘अ’ से ‘औ’ तक), स्पर्श (‘क’ से ‘म’ तक) तथा ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणोंसे युक्त अक्षर-समाम्नाय अर्थात् वर्णमालाकी रचना की ||४३||

तेनासौ चतुरो वेदांश्चतुर्भिर्वदनैर्विभुः
सव्याहृतिकान्सॐकारांश्चातुर्होत्रविवक्षया ४४

पुत्रानध्यापयत्तांस्तु ब्रह्मर्षीन्ब्रह्मकोविदान्
ते तु धर्मोपदेष्टारः स्वपुत्रेभ्यः समादिशन् ४५

उसी वर्णमालाद्वारा उन्होंने अपने चार मुखोंसे होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा-इन चार ऋत्विजोंके कर्म बतलानेके लिये ॐकार और व्याहृतियोंके सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र ब्रह्मर्षि मरीचि आदिको वेदाध्ययनमें कुशल देखकर उन्हें वेदोंकी शिक्षा दी। वे सभी जब धर्मका उपदेश करने में निपुण हो गये, तब उन्होंने अपने पुत्रोंको उनका अध्ययन कराया ।।४४-४५||

ते परम्परया प्राप्तास्तत्तच्छिष्यैर्धृतव्रतैः
चतुर्युगेष्वथ व्यस्ता द्वापरादौ महर्षिभिः ४६

तदनन्तर, उन्हीं लोगोंके नैष्ठिक ब्रह्मचारी शिष्य-प्रशिष्योंके द्वारा चारों युगोंमें सम्प्रदायके रूपमें वेदोंकी रक्षा होती रही। द्वापरके अन्तमें महर्षियोंने उनका विभाजन भी किया ।।४६।।

क्षीणायुषः क्षीणसत्त्वान्दुर्मेधान्वीक्ष्य कालतः
वेदान्ब्रह्मर्षयो व्यस्यन्हृदिस्थाच्युतचोदिताः ४७

जब ब्रह्मवेत्ता ऋषियोंने देखा कि समयके फेरसे लोगोंकी आयु, शक्ति और बुद्धि क्षीण हो गयी है, तब उन्होंने अपने हृदय-देशमें विराजमान परमात्माकी प्रेरणासे वेदोंके अनेकों विभाग कर दिये ।।४७||

अस्मिन्नप्यन्तरे ब्रह्मन्भगवान्लोकभावनः
ब्रह्मेशाद्यैर्लोकपालैर्याचितो धर्मगुप्तये ४८

पराशरात्सत्यवत्यामंशांशकलया विभुः
अवतीर्णो महाभाग वेदं चक्रे चतुर्विधम् ४९

शौनकजी! इस वैवस्वत मन्वन्तरमें भी ब्रह्मा-शंकर आदि लोकपालोंकी प्रार्थनासे अखिल विश्वके जीवनदाता भगवान्ने धर्मकी रक्षाके लिये महर्षि पराशरद्वारा सत्यवतीके गर्भसे अपने अंशांश-कलास्वरूप व्यासके रूपमें अवतार ग्रहण किया है। परम भाग्यवान शौनकजी! उन्होंने ही वर्तमान युगमें वेदके चार विभाग किये हैं ।।४८-४९।।

ऋगथर्वयजुःसाम्नां राशीरुद्धृत्य वर्गशः
चतस्रः संहिताश्चक्रे मन्त्रैर्मणिगणा इव ५०

तासां स चतुरः शिष्यानुपाहूय महामतिः
एकैकां संहितां ब्रह्मन्नेकैकस्मै ददौ विभुः ५१

जैसे मणियोंके समूहमेंसे विभिन्न जातिकी मणियाँ छाँटकर अलग-अलग कर दी जाती हैं, वैसे ही महामति भगवान् व्यासदेवने मन्त्र-समुदायमेंसे भिन्न-भिन्न प्रकरणोंके अनुसार मन्त्रोंका संग्रह करके उनसे ऋग, यजुः, साम और अथर्व-ये चार संहिताएँ बनायीं और अपने चार शिष्योंको बुलाकर प्रत्येकको एक-एक संहिताकी शिक्षा दी ।।५०-५१।।

पैलाय संहितामाद्यां बह्वृचाख्यां उवाच ह
वैशम्पायनसंज्ञाय निगदाख्यं यजुर्गणम् ५२

साम्नां जैमिनये प्राह तथा छन्दोगसंहिताम्
अथर्वाङ्गिरसीं नाम स्वशिष्याय सुमन्तवे ५३

उन्होंने ‘बहच’ नामकी पहली ऋक्संहिता पैलको, ‘निगद’ नामकी दूसरी यजुःसंहिता वैशम्पायनको, सामश्रुतियोंकी ‘छन्दोग-संहिता’ जैमिनिको और अपने शिष्य सुमन्तुको ‘अथर्वांगिरससंहिता’ का अध्ययन कराया ।।५२-५३।।

पैलः स्वसंहितामूचे इन्द्र प्रमितये मुनिः
बाष्कलाय च सोऽप्याह शिष्येभ्यः संहितां स्वकाम् ५४

चतुर्धा व्यस्य बोध्याय याज्ञवल्क्याय भार्गव
पराशरायाग्निमित्र इन्द्र प्रमितिरात्मवान् ५५

अध्यापयत्संहितां स्वां माण्डूकेयमृषिं कविम्
तस्य शिष्यो देवमित्रः सौभर्यादिभ्य ऊचिवान् ५६

शौनकजी! पैल मुनिने अपनी संहिताके दो विभाग करके एकका अध्ययन इन्द्रप्रमितिको और दूसरेका बाष्कलको कराया। बाष्कलने भी अपनी शाखाके चार विभाग करके उन्हें अलग-अलग अपने शिष्य बोध, याज्ञवल्क्य, पराशर और अग्निमित्रको पढ़ाया। परमसंयमी इन्द्र-प्रमितिने प्रतिभाशाली माण्डुकेय ऋषिको अपनी संहिताका अध्ययन कराया। माण्डूकेयके शिष्य थे—देवमित्र। उन्होंने सौभरि आदि ऋषियोंको वेदोंका अध्ययन कराया ।।५४-५६।।

शाकल्यस्तत्सुतः स्वां तु पञ्चधा व्यस्य संहिताम्
वात्स्यमुद्गलशालीय गोखल्यशिशिरेष्वधात् ५७

माण्डूकेयके पुत्रका नाम था शाकल्य। उन्होंने अपनी संहिताके पाँच विभाग करके उन्हें वात्स्य, मुद्गल, शालीय, गोखल्य और शिशिर नामक शिष्योंको पढ़ाया ।।५७।।

जातूकर्ण्यश्च तच्छिष्यः सनिरुक्तां स्वसंहिताम्
बलाकपैलजाबाल विरजेभ्यो ददौ मुनिः ५८

शाकल्यके एक और शिष्य थे—जातकर्ण्यमनि। उन्होंने अपनी संहिताके तीन विभाग करके तत्सम्बन्धी निरुक्तके साथ अपने शिष्य बलाक, पैज, वैताल और विरजको पढ़ाया ।।५८||

बाष्कलिः प्रतिशाखाभ्यो वालखिल्याख्यसंहिताम्
चक्रे बालायनिर्भज्यः कासारश्चैव तां दधुः ५९

बाष्कलके पुत्र बाष्कलिने सब शाखाओंसे एक ‘वालखिल्य’ नामकी शाखा रची। उसे बालायनि, भज्य एवं कासारने ग्रहण किया ।।५९।।

बह्वृचाः संहिता ह्येता एभिर्ब्रह्मर्षिभिर्धृताः
श्रुत्वैतच्छन्दसां व्यासं सर्वपापैः प्रमुच्यते ६०

इन ब्रह्मर्षियोंने पूर्वोक्त सम्प्रदायके अनुसार ऋग्वेदसम्बन्धी बहूच शाखाओंको धारण किया। जो मनुष्य यह वेदोंके विभाजनका इतिहास श्रवण करता है, वह सब पापोंसे छूट जाता है ।।६०।।

वैशम्पायनशिष्या वै चरकाध्वर्यवोऽभवन्
यच्चेरुर्ब्रह्महत्यांहः क्षपणं स्वगुरोर्व्रतम् ६१

शौनकजी! वैशम्पायनके कुछ शिष्योंका नाम था चरकाध्वर्यु। इन लोगोंने अपने गुरुदेवके ब्रह्महत्या-जनित पापका प्रायश्चित्त करनेके लिये एक व्रतका अनुष्ठान किया। इसीलिये इनका नाम ‘चरकाध्वर्यु’ पड़ा ।।६१।।

याज्ञवल्क्यश्च तच्छिष्य आहाहो भगवन्कियत्
चरितेनाल्पसाराणां चरिष्येऽहं सुदुश्चरम् ६२

वैशम्पायनके एक शिष्य याज्ञवल्क्यमुनि भी थे। उन्होंने अपने गुरुदेवसे कहा-‘अहो भगवन्! ये चरकाध्वर्यु ब्राह्मण तो बहुत ही थोड़ी शक्ति रखते हैं। इनके व्रतपालनसे लाभ ही कितना है? मैं आपके प्रायश्चित्तके लिये बहुत ही कठिन तपस्या करूँगा’ ||६२।।

इत्युक्तो गुरुरप्याह कुपितो याह्यलं त्वया
विप्रावमन्त्रा शिष्येण मदधीतं त्यजाश्विति ६३

याज्ञवल्क्यमुनिकी यह बात सुनकर वैशम्पायनमुनिको क्रोध आ गया। उन्होंने कहा—’बस-बस’, चुप रहो। तुम्हारे-जैसे ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाले शिष्यकीमुझे कोई आवश्यकता नहीं है। देखो, अबतक तुमने मुझसे जो कुछ अध्ययन किया है उसका शीघ्र-से-शीघ्र त्याग कर दो और यहाँसे चले जाओ ।।६३ ।।

देवरातसुतः सोऽपि छर्दित्वा यजुषां गणम्
ततो गतोऽथ मुनयो ददृशुस्तान्यजुर्गणान् ६४

यजूंषि तित्तिरा भूत्वा तल्लोलुपतयाऽऽददुः
तैत्तिरीया इति यजुः शाखा आसन्सुपेशलाः ६५

याज्ञवल्क्यजी देवरातके पुत्र थे। उन्होंने गुरुजीकी आज्ञा पाते ही उनके पढ़ाये हुए यजुर्वेदका वमन कर दिया और वे वहाँसे चले गये। जब मुनियोंने देखा कि याज्ञवल्क्यने तो यजुर्वेदका वमन कर दिया, तब उनके चित्तमें इस बातके लिये बड़ा लालच हुआ कि हमलोग किसी प्रकार इसको ग्रहण कर लें। परन्तु ब्राह्मण होकर उगले हुए मन्त्रोंको ग्रहण करना अनुचित है, ऐसा सोचकर वे तीतर बन गये और उस संहिताको चुग लिया। इसीसे यजुर्वेदकी वह परम रमणीय शाखा ‘तैत्तिरीय’ के नामसे प्रसिद्ध हुई ।।६४-६५।।

याज्ञवल्क्यस्ततो ब्रह्मंश्छन्दांस्यधि गवेषयन्
गुरोरविद्यमानानि सूपतस्थेऽर्कमीश्वरम् ६६

शौनकजी! अब याज्ञवल्क्यने सोचा कि मैं ऐसी श्रुतियाँ प्राप्त करूँ, जो मेरे गुरुजीके पास भी न हों। इसके लिये वे सूर्यभगवान्का उपस्थान करने लगे ।।६६।।

श्रीयाज्ञवल्क्य उवाच
ॐ नमो भगवते आदित्यायाखिलजगतामात्मस्वरूपेण काल
स्वरूपेण चतुर्विधभूतनिकायानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानामन्तर्हृदयेषु
बहिरपि चाकाश इवोपाधिनाव्यवधीयमानो भवानेक
एव क्षणलवनिमेषावयवोपचितसंवत्सरगणेनापामादान
विसर्गाभ्यामिमां लोकयात्रामनुवहति ६७

याज्ञवल्क्यजी इस प्रकार उपस्थान करते हैं-मैं ॐकारस्वरूप भगवान् सूर्यको नमस्कार करता हूँ। आप सम्पूर्ण जगत्के आत्मा और कालस्वरूप हैं। ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त जितने भी जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज–चार प्रकारके प्राणी हैं, उन सबके हृदयदेशमें और बाहर आकाशके समान व्याप्त रहकर भी आप उपाधिके धर्मोंसे असंग रहनेवाले अद्वितीय भगवान् ही हैं। आप ही क्षण, लव, निमेष आदि अवयवोंसे संघटित संवत्सरोंके द्वारा एवं जलके आकर्षण-विकर्षण-आदान-प्रदानके द्वारा समस्त लोकोंकीजीवनयात्रा चलाते हैं ।।६७।।

यदु ह वाव विबुधर्षभ सवितरदस्तपत्यनुसवनमहर्
अहराम्नायविधिनोपतिष्ठमानानामखिलदुरितवृजिन
बीजावभर्जन भगवतः समभिधीमहि तपन मण्डलम् ६८

प्रभो! आप समस्त देवताओंमें श्रेष्ठ हैं। जो लोग प्रतिदिन तीनों
समय वेद-विधिसे आपकी उपासना करते हैं, उनके सारे पाप और दुःखोंके बीजोंको आप । भस्म कर देते हैं। सूर्यदेव! आप सारी सष्टिके मूल कारण एवं समस्त ऐश्वर्योंके स्वामी हैं। इसलिये हम आपके इस तेजोमय मण्डलका पूरी एकाग्रताके साथ ध्यान करते हैं ||६८।।

य इह वाव स्थिरचरनिकराणां निजनिकेतनानां मनैन्द्रियासु
गणाननात्मनः स्वयमात्मान्तर्यामी प्रचोदयति ६९

आप सबके आत्मा और अन्तर्यामी हैं। जगत्में जितने चराचर प्राणी हैं, सब आपके ही आश्रित हैं। आप ही उनके अचेतन मन, इन्द्रिय और प्राणोंके प्रेरक हैं ||६९||

य एवेमं लोकमतिकरालवदनान्धकारसंज्ञाजगरग्रह
गिलितं मृतकमिव विचेतनमवलोक्यानुकम्पया परमकारुणिक
ईक्षयैवोत्थाप्याहरहरनुसवनं श्रेयसि स्वधर्माख्यात्माव स्थने प्रवर्तयति ७०

यह लोक प्रतिदिन अन्धकाररूप अजगरके विकराल मुँहमें पड़कर अचेत और मुर्दा-सा हो जाता है। आप परम करुणास्वरूप हैं, इसलिये कृपा करके अपनी दृष्टिमात्रसे ही इसे सचेत कर देते हैं और परम कल्याणके साधन समय-समयके धर्मानुष्ठानोंमें लगाकर आत्माभिमुख करते हैं। जैसे राजा दुष्टोंको भयभीत करता हआ अपने राज्यमें विचरण करता है, वैसे ही आप चोरजार आदि दुष्टोंको भयभीत करते हुए विचरते रहते हैं ||७०||

अवनिपतिरिवासाधूनां भयमुदीरयन्नटति परित आशापालैस्
तत्र तत्र कमलकोशाञ्जलिभिरुपहृतार्हणः ७१

चारों ओर सभी दिक्पाल स्थान-स्थानपर अपनी कमलकी कलीके समान अंजलियोंसे आपको उपहार समर्पित करते हैं ||७१।।

अथ ह भगवंस्तव चरणनलिनयुगलं त्रिभुवनगुरुभिरभिवन्दितम्
अहमयातयामयजुष्काम उपसरामीति ७२

भगवन्! आपके दोनों चरणकमल तीनों लोकोंके गुरु-सदृश महानुभावोंसे भी वन्दित हैं। मैंने आपके युगल चरणकमलोंकी इसलिये शरण ली है कि मुझे ऐसे यजुर्वेदकी प्राप्ति हो, जो अबतक किसीको न मिला हो ||७२||

सूत उवाच
एवं स्तुतः स भगवान्वाजिरूपधरो रविः
यजूंष्ययातयामानि मुनयेऽदात्प्रसादितः ७३

सूतजी कहते हैं-शौकनादि ऋषियो! जब याज्ञवल्क्यमुनिने भगवान् सूर्यकी इस प्रकार स्तुति की, तब वे प्रसन्न होकर उनके सामने अश्वरूपसे प्रकट हुए और उन्हें यजुर्वेदके उन मन्त्रोंका उपदेश किया, जो अबतक किसीको प्राप्त न हुए थे ||७३।।

यजुर्भिरकरोच्छाखा दश पञ्च शतैर्विभुः
जगृहुर्वाजसन्यस्ताः काण्वमाध्यन्दिनादयः ७४

इसके बाद याज्ञवल्क्यमनिने यजुर्वेदके असंख्य मन्त्रोंसे उसकी पंद्रह शाखाओंकी रचना की। वही वाजसनेय शाखाके नामसे प्रसिद्ध हैं। उन्हें कण्व, माध्यन्दिन आदि ऋषियोंने ग्रहण किया ।।७४।।

जैमिनेः समगस्यासीत्सुमन्तुस्तनयो मुनिः
सुत्वांस्तु तत्सुतस्ताभ्यामेकैकां प्राह संहिताम् ७५

यह बात मैं पहले ही कह चूका हूँ कि महर्षि श्रीकृष्ण-द्वैपायनने जैमिनिमुनिको सामसंहिताका अध्ययन कराया। उनके पुत्र थे सुमन्तुमुनि और पौत्र थे सुन्वान्। जैमिनिमनिने अपने पुत्र और पौत्रको एक-एक संहिता पढ़ायी ।।७५।।

सुकर्मा चापि तच्छिष्यः सामवेदतरोर्महान्
सहस्रसंहिताभेदं चक्रे साम्नां ततो द्विज ७६

जैमिनिमुनिके एक शिष्यका नाम था सुकर्मा। वह एक महान् पुरुष था। जैसे एक वृक्षमें बहुत-सी डालियाँ होती हैं, वैसे ही सुकर्माने सामवेदकी एक हजार संहिताएँ बना दीं ।।७६||

हिरण्यनाभः कौशल्यः पौष्यञ्जिश्च सुकर्मणः
शिष्यौ जगृहतुश्चान्य आवन्त्यो ब्रह्मवित्तमः ७७

सुकर्माके शिष्य कोसलदेशनिवासी हिरण्यनाभ, पौष्यंजि और ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ आवन्त्यने उन शाखाओंको ग्रहण किया ||७७||

उदीच्याः सामगाः शिष्या आसन्पञ्चशतानि वै
पौष्यञ्ज्यावन्त्ययोश्चापि तांश्च प्राच्यान्प्रचक्षते ७८

पौष्यंजि और आवन्त्यके पाँच सौ शिष्य थे। वे उत्तर दिशाके निवासी होनेके कारण औदीच्य सामवेदी कहलाते थे। उन्हींको प्राच्य सामवेदी भी कहते हैं। उन्होंने एक-एक संहिताका अध्ययन किया ||७८||

लौगाक्षिर्माङ्गलिः कुल्यः कुशीदः कुक्षिरेव च
पौष्यञ्जिशिष्या जगृहुः संहितास्ते शतं शतम् ७९

पौष्यंजिके और भी शिष्य थे—लौगाक्षि, मांगलि, कुल्य, कुसीद और कुक्षि। इसमेंसे प्रत्येकने सौ-सौ संहिताओंका अध्ययन किया ||७९।।

कृतो हिरण्यनाभस्य चतुर्विंशति संहिताः
शिष्य ऊचे स्वशिष्येभ्यः शेषा आवन्त्य आत्मवान् ८०

हिरण्यनाभका शिष्य था-कृत। उसने अपने शिष्योंको चौबीस संहिताएँ पढ़ायीं। शेष संहिताएँ परम संयमी आवन्त्यने अपने शिष्योंको दी। इस प्रकार सामवेदका विस्तार हुआ ।।८०||

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे वेदशाखाप्रणयनं नाम षष्ठोऽध्यायः


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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