RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 12 अध्याय 7

Spread the Glory of Sri SitaRam!

7 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ७

सूत उवाच –
(अनुष्टुप्)
अथर्ववित्सुमन्तुश्च शिष्यम् अध्यापयत् स्वकाम् ।
संहितां सोऽपि पथ्याय वेददर्शाय चोक्तवान् ॥ १ ॥

सूतजी कहते हैं-शौनकादि ऋषियो! मैं कह चुका हूँ कि अथर्ववेदके ज्ञाता सुमन्तुमुनि थे। उन्होंने अपनी संहिता अपने प्रिय शिष्य कबन्धको पढ़ायी। कबन्धने उस संहिताके दो भाग करके पथ्य और वेद-दर्शको उसका अध्ययन कराया ।।१।।

शौक्लायनिर्ब्रह्मबलिः मादोषः पिप्पलायनिः ।
वेददर्शस्य शिष्यास्ते पथ्यशिष्यानथो श्रृणु ।
कुमुदः शुनको ब्रह्मन् जाजलिश्चाप्यथर्ववित् ॥ २ ॥

वेददर्शके चार शिष्य हएशौक्लायनि, ब्रह्मबलि, मोदोष और पिप्पलायनि। अब पथ्यके शिष्योंके नाम सुनो ||२||

बभ्रुः शिष्योऽथांगिरसः सैन्धवायन एव च ।
अधीयेतां संहिते द्वे सावर्णाद्यास्तथापरे ॥ ३ ॥

नक्षत्रकल्पः शान्तिश्च कश्यपाङ्‌गिरसादयः ।
एते आथर्वणाचार्याः श्रृणु पौराणिकान् मुने ॥ ४ ॥

शौनकजी! पथ्यके तीन शिष्य थे—कुमुद, शुनक और अथर्ववेत्ता जाजलि। अंगिरा-गोत्रोत्पन्न शुनकके दो शिष्य थे-बभ्रु और सैन्धवायन। उन लोगोंने दो संहिताओंका अध्ययन किया। अथर्ववेदके आचार्योंमें इनके अतिरिक्त सैन्धवायनादिके शिष्य सावर्ण्य आदि तथा नक्षत्रकल्प, शान्ति, कश्यप, आंगिरस आदि कई विद्वान् और भी हुए। अब मैं तुम्हें पौराणिकोंके सम्बन्धमें सुनाता हूँ ।।३-४।।

त्रय्यारुणिः कश्यपश्च सावर्णिः अकृतव्रणः ।
वैशंपायनहारीतौ षड् वै पौराणिका इमे ॥ ५ ॥

शौनकजी! पुराणोंके छ: आचार्य प्रसिद्ध हैं-त्रय्यारुणि, कश्यप, सावर्णि, अकृतव्रण, वैशम्पायन और हारीत ।।५।।

अधीयन्त व्यासशिष्यात् संहितां मत्पितुर्मुखात् ।
एकैकाम् अहमेतेषां शिष्यः सर्वाः समध्यगाम् ॥ ६ ॥

इन लोगोंने मेरे पिताजीसे एक-एक पुराणसंहिता पढ़ी थी और मेरे पिताजीने स्वयं भगवान व्याससे उन संहिताओंका अध्ययन किया था। मैंने उन छहों आचार्योंसे सभी संहिताओंका अध्ययन किया था ।।६।।

कश्यपोऽहं च सावर्णी रामशिष्योऽकृतव्रणः ।
अधीमहि व्यासशिष्यात् चत्वारो मूलसंहिताः ॥ ७ ॥

उन छः संहिताओंके अतिरिक्त और भी चार मूल संहिताएँ थीं। उन्हें भी कश्यप, सावर्णि, परशुरामजीके शिष्य अकृतव्रण और उन सबके साथ मैंने व्यासजीके शिष्य श्रीरोमहर्षणजीसे, जो मेरे पिता थे, अध्ययन किया था ।।७।।

पुराणलक्षणं ब्रह्मन् ब्रह्मर्षिभिः निरूपितम् ।
श्रृणुष्व बुद्धिमाश्रित्य वेदशास्त्रानुसारतः ॥ ८ ॥

शौनकजी! महर्षियोंने वेद और शास्त्रोंके अनुसार पुराणोंके लक्षण बतलाये हैं। अब तुम स्वस्थ होकर सावधानीसे उनका वर्णन सुनो ।।८।।

सर्गोऽस्याथ विसर्गश्च वृत्तिरक्षान्तराणि च ।
वंशो वंशानुचरितं संस्था हेतुरपाश्रयः ॥ ९ ॥

दशभिः लक्षणैर्युक्तं पुराणं तद्विदो विदुः ।
केचित्पञ्चविधं ब्रह्मन् महदल्पव्यवस्थया ॥ १० ॥

शौनकजी! पुराणोंके पारदर्शी विद्वान् बतलाते हैं कि पुराणोंके दस लक्षण हैं—विश्वसर्ग, विसर्ग, वृत्ति, रक्षा, मन्वन्तर, वंश, वंशानुचरित, संस्था (प्रलय), हेतु (ऊति) और अपाश्रय। कोई-कोई आचार्य पुराणोंके पाँच ही लक्षण मानते हैं। दोनों ही बातें ठीक हैं, क्योंकि महापुराणोंमें दस लक्षण होते हैं और छोटे पुराणोंमें पाँच। विस्तार करके दस बतलाते हैं और संक्षेप करके पाँच ।।९-१०।।

अव्याकृतगुणक्षोभान् महतस्त्रिवृतोऽहमः ।
भूतसूक्ष्मेन्द्रियार्थानां संभवः सर्ग उच्यते ॥ ११ ॥

(अब इनके लक्षण सुनो) जब मूल प्रकृतिमें लीन गुण क्षुब्ध होते हैं, तब महत्तत्त्वकी उत्पत्ति होती है। महत्तत्त्वसे तामस, राजस और वैकारिक (सात्त्विक)–तीन प्रकारके अहंकार बनते हैं। त्रिविध अहंकारसे ही पंचतन्मात्रा, इन्द्रिय और विषयोंकी उत्पत्ति होती है। इसी उत्पत्तिक्रमका नाम ‘सर्ग’ है ||११||

पुरुषानुगृहीतानाम् एतेषां वासनामयः ।
विसर्गोऽयं समाहारो बीजाद्बीजं चराचरम् ॥ १२ ॥

परमेश्वरके अनुग्रहसे सृष्टिका सामर्थ्य प्राप्त करके महत्तत्त्व आदि पूर्वकर्मों के अनुसार अच्छी और बुरी वासनाऔंकी प्रधानतासे जो यह चराचर शरीरात्मक जीवकी उपाधिकी सृष्टि करते हैं, एक बीजसे दूसरे बीजके समान, इसीको विसर्ग कहते हैं ||१२||

वृत्तिर्भूतानि भूतानां चराणाम् अचराणि च ।
कृता स्वेन नृणां तत्र कामात् चोदनयापि वा ॥ १३ ॥

चर प्राणियोंकी अचर-पदार्थ ‘वृत्ति’ अर्थात् जीवन-निर्वाहकी सामग्री है। चर प्राणियोंके दुग्ध आदि भी इनमेंसे मनुष्योंने कुछ तो स्वभाववश कामनाके अनुसार निश्चित कर ली है और कुछने शास्त्रके आज्ञानुसार ।।१३।।

रक्षाच्युतावतारेहा विश्वस्यानु युगे युगे ।
तिर्यङ्‌मर्त्यर्षिदेवेषु हन्यन्ते यैस्त्रयीद्विषः ॥ १४ ॥

भगवान युग-युगमें पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, देवता आदिके रूपमें अवतार ग्रहण करके अनेकों लीलाएँ करते हैं। इन्हीं अवतारोंमें वे वेदधर्मके विरोधियोंका संहार भी करते हैं। उनकी यह अवतार-लीला विश्वकी रक्षाके लिये ही होती है, इसीलिये उसका नाम ‘रक्षा’ है ।।१४।।

मन्वन्तरं मनुर्देवा मनुपुत्राः सुरेश्वराः ।
ऋषयोंऽशावताराश्च हरेः षड्‌विधमुच्यते ॥ १५ ॥

मनु, देवता, मनुपुत्र, इन्द्र, सप्तर्षि और भगवान्के अंशावतार–इन्हीं छः बातोंकी विशेषतासे युक्त समयको ‘मन्वन्तर’ कहते हैं ।।१५।।

राज्ञां ब्रह्मप्रसूतानां वंशस्त्रैकालिकोऽन्वयः ।
वंशानुचरितं तेषां वृत्तं वंशधराश्च ये ॥ १६ ॥

ब्रह्माजीसे जितने राजाओंकी सृष्टि हुई है, उनकी भूत, भविष्य और वर्तमानकालीन सन्तान-परम्पराको ‘वंश’ कहते हैं। उन राजाओंके तथा उनके वंशधरोंके चरित्रका नाम ‘वंशानुचरित’ है ||१६||

नैमित्तिकः प्राकृतिको नित्य आत्यन्तिको लयः ।
संस्थेति कविभिः प्रोक्तः चतुर्धास्य स्वभावतः ॥ १७ ॥

इस विश्वब्रह्माण्डका स्वभावसे ही प्रलय हो जाता है। उसके चार भेद हैं—नैमित्तिक, प्राकृतिक, नित्य और आत्यन्तिका तत्त्वज्ञ विद्वानोंने इन्हींको ‘संस्था’ कहा है ।।१७।।

हेतुर्जीवोऽस्य सर्गादेः अविद्याकर्मकारकः ।
यं चानुशायिनं प्राहुः अव्याकृतमुतापरे ॥ १८ ॥

पुराणोंके लक्षणमें ‘हेतु’ नामसे जिसका व्यवहार होता है, वह जीव ही है; क्योंकि वास्तवमें वही सर्ग-विसर्ग आदिका हेतु है और अविद्यावश अनेकों प्रकारके कर्मकलापमें उलझ गया है। जो लोग उसे चैतन्यप्रधानकी दृष्टिसे देखते हैं, वे उसे अनुशयी अर्थात् प्रकृतिमें शयन करनेवाला कहते हैं; और जो उपाधिकी दृष्टिसे कहते हैं, वे उसे अव्याकृत अर्थात् प्रकृतिरूप कहते हैं ।।१८।।

व्यतिरेकान्वयो यस्य जाग्रत् स्वप्नसुषुप्तिषु ।
मायामयेषु तद्ब्रह्म जीववृत्तिष्वपाश्रयः ॥ १९ ॥

जीवकी वृत्तियोंके तीन विभाग हैं—जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति। जो इन अवस्थाओंमें इनके अभिमानी विश्व, तैजस और प्राज्ञके मायामय रूपोंमें प्रतीत होता है और इन अवस्थाओंसे परे तुरीयतत्त्वके रूपमें भी लक्षित होता है, वही ब्रह्म है; उसीको यहाँ ‘अपाश्रय’ शब्दसे कहा गया है ||१९||

पदार्थेषु यथा द्रव्यं सन्मात्रं रूपनामसु ।
बीजादिपञ्चतान्तासु ह्यवस्थासु युतायुतम् ॥ २० ॥

नामविशेष और रूपविशेषसे युक्त पदार्थोंपर विचार करें तो वे सत्तामात्र वस्तुके रूपमें सिद्ध होते हैं। उनकी विशेषताएँ लुप्त हो जाती हैं। असलमें वह सत्ता ही उन विशेषताओंके रूपमें प्रतीत भी हो रही है और उनसे पृथक भी है। ठीक इसी न्यायसे शरीर और विश्वब्रह्माण्डकी उत्पत्तिसे लेकर मृत्यु और महाप्रलयपर्यन्त जितनी भी विशेष अवस्थाएँ हैं, उनके रूपमें परम सत्यस्वरूप ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है और वह उनसे सर्वथा पृथक् भी है। यही वाक्य-भेदसे अधिष्ठान और साक्षीके रूपमें ब्रह्म ही पुराणोक्त आश्रयतत्त्व है ||२०||

विरमेत यदा चित्तं हित्वा वृत्तित्रयं स्वयम् ।
योगेन वा तदात्मानं वेदेहाया निवर्तते ॥ २१ ॥

जब चित्त स्वयं आत्मविचार अथवा योगाभ्यासके द्वारा सत्त्वगणरजोगुण-तमोगुण-सम्बन्धी व्यावहारिक वृत्तियों और जाग्रत्-स्वप्न आदि स्वाभाविक वृत्तियोंका त्याग करके उपराम हो जाता है, तब शान्तवृत्तिमें ‘तत्त्वमसि’ आदि महावाक्योंके द्वारा आत्मज्ञानका उदय होता है। उस समय आत्मवेत्ता पुरुष अविद्याजनित कर्म-वासना और कर्मप्रवृत्तिसे निवृत्त हो जाता है ।।२१।।

एवं लक्षणलक्ष्याणि पुराणानि पुराविदः ।
मुनयोऽष्टादश प्राहुः क्षुल्लकानि महान्ति च ॥ २२ ॥

शौनकादि ऋषियो! पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानोंने इन्हीं लक्षणोंके द्वारा पुराणोंकी यह पहचान बतलायी है। ऐसे लक्षणोंसे युक्त छोटे-बड़े अठारह पुराण हैं ।।२२।।

ब्राह्मं पाद्मं वैष्णवं च शैवं लैङ्‌गं सगारुडं ।
नारदीयं भागवतं आग्नेयं स्कान्दसंज्ञितम् ॥ २३ ॥

भविष्यं ब्रह्मवैवर्तं मार्कण्डेयं सवामनम् ।
वाराहं मात्स्यं कौर्मं च ब्रह्माण्डाख्यमिति त्रिषट् ॥ २४ ॥

उनके नाम ये हैं –ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, लिंगपुराण, गरुडपुराण, नारदपुराण, भागवतपुराण, अग्निपुराण, स्कन्दपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, मार्कण्डेयपुराण, वामनपुराण, वराहपुराण, मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण और ब्रह्माण्डपुराण यह अठारह हैं ||२३-२४।।

ब्रह्मन्निदं समाख्यातं शाखाप्रणयनं मुनेः ।
शिष्यशिष्यप्रशिष्याणां ब्रह्मतेजोविवर्धनम् ॥ २५ ॥

शौनकजी! व्यासजीकी शिष्य-परम्पराने जिस प्रकार वेदसंहिता और पुराणसंहिताओंका अध्ययन-अध्यापन, विभाजन आदि किया वह मैंने तुम्हें सुना दिया। यहप्रसंग सुनने और पढ़नेवालोंके ब्रह्मतेजकी अभिवृद्धि करता है ।।२५।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां द्वादशस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सत्य सनातन फाउंडेशन (रजि.) भारत सरकार से स्वीकृत संस्था है। हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! हम धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: