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श्रीमद् भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 2 अध्याय 1

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ ॐ तत्सत् ॥
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराणम्
द्वितीयः स्कन्धः
अथ प्रथमोऽध्यायः
ध्यान-विधि और भगवान के विराट्स्वरूप का वर्णन
श्रीशुक उवाच ।

वरीयान् एष ते प्रश्नः कृतो लोकहितं नृप ।
आत्मवित् सम्मतः पुंसां श्रोतव्यादिषु यः परः ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! तुम्हारा लोकहितके लिये किया हुआ यह प्रश्न बहुत ही उत्तम है। मनुष्योंके लिये जितनी भी बातें सुनने, स्मरण करने या कीर्तन करनेकी हैं, उन सबमें यह श्रेष्ठ है। आत्मज्ञानी महापुरुष ऐसे प्रश्नका बड़ा आदर करते हैं ||१||

श्रोतव्यादीनि राजेन्द्र नृणां सन्ति सहस्रशः ।
अपश्यतां आत्मतत्त्वं गृहेषु गृहमेधिनाम् ॥ २ ॥

राजेन्द्र ! जो गृहस्थ घरके काम-धंधों में उलझे हुए हैं, अपने स्वरूपको नहीं जानते, उनके लिये हजारों बातें कहने-सुनने एवं सोचने, करनेकी रहती हैं ||२||

निद्रया ह्रियते नक्तं व्यवायेन च वा वयः ।
दिवा चार्थेहया राजन् कुटुंबभरणेन वा ॥ ३ ॥

उनकी सारी उम्र यों ही बीत जाती है। उनकी रात नींद या स्त्री-प्रसंगसे कटती है और दिन धनकी हाय-हाय या कुटुम्बियोंके भरण-पोषण में समाप्त हो जाता है ||३||

देहापत्यकलत्रादिषु आत्मसैन्येष्वसत्स्वपि ।
तेषां प्रमत्तो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति ॥ ४ ॥

संसारमें जिन्हें अपना अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्धी कहा जाता है, वे शरीर, पुत्र, स्त्री आदि कुछ नहीं हैं, असत् हैं; परन्तु जीव उनके मोहमें ऐसा पागल सा हो जाता है कि रात-दिन उनको मृत्युका ग्रास होते देखकर भी चेतता नहीं ||४||

तस्माद्भारत सर्वात्मा भगवान् ईश्वरो हरिः ।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छताभयम् ॥ ५ ॥

इसलिये परीक्षित्! जो अभय पदको प्राप्त करना चाहता है, उसे तो सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णकी ही लीलाओंका श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिये ||५||

एतावान् सांख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया ।
जन्मलाभः परः पुंसां अंते नारायणस्मृतिः ॥ ६ ॥

मनुष्य जन्मका यही – इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो- ज्ञानसे, भक्तिसे अथवा अपने धर्मकी निष्ठासे जीवनको ऐसा बना लिया जाय कि मृत्युके समय भगवान्की स्मृति अवश्य बनी रहे ||६||

प्रायेण मुनयो राजन् निवृत्ता विधिषेधतः ।
नैर्गुण्यस्था रमंते स्म गुणानुकथने हरेः ॥ ७ ॥

परीक्षित्! जो निर्गुण स्वरूपमें स्थित हैं एवं विधि-निषेधकी मर्यादाको लाँघ चुके हैं, वे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी प्रायः भगवान्के अनन्त कल्याणमय गुणगणोंके वर्णनमें रमे रहते हैं ||७||

इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
अधीतवान् द्वापरादौ पितुर्द्वैपायनादहम् ॥ ८ ॥

द्वापरके अन्तमें इस भगवद्रूप अथवा वेदतुल्य श्रीमद्भागवत नामके महापुराणका अपने पिता श्रीकृष्णद्वैपायनसे मैंने अध्ययन किया था ||८||

परिनिष्ठितोऽपि नैर्गुण्य उत्तमश्लोकलीलया ।
गृहीतचेता राजर्षे आख्यानं यत् अधीतवान् ॥ ९ ॥

राजर्षे! मेरी निर्गुणस्वरूप परमात्मामें पूर्ण निष्ठा है। फिर भी भगवान् श्रीकृष्णकी मधुर लीलाओंने बलात् मेरे हृदयको अपनी ओर आकर्षित कर लिया। यही कारण है कि मैंने इस पुराणका अध्ययन किया ||९||

तदहं तेऽभिधास्यामि महापौरुषिको भवान् ।
यस्य श्रद्दधतामाशु स्यान् मुकुंदे मतिः सती ॥ १० ॥

तुम भगवान्के परमभक्त हो, इसलिये तुम्हें मैं इसे सुनाऊँगा । जो इसके प्रति श्रद्धा रखते हैं, उनकी शुद्ध चित्तवृत्ति भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें अनन्यप्रेमके साथ बहुत शीघ्र लग जाती है ।।१०।।

एतन्निर्विद्यमानानां इच्छतां अकुतोभयम् ।
योगिनां नृप निर्णीतं हरेर्नामानुकीर्तनम् ॥ ११ ॥

जो लोग लोक या परलोककी किसी भी वस्तुकी इच्छा रखते हैं या इसके विपरीत संसारमें दुःखका अनुभव करके जो उससे विरक्त हो गये हैं और निर्भय मोक्षपदको प्राप्त करना चाहते हैं, उन साधकोंके लिये तथा योगसम्पन्न सिद्ध ज्ञानियोंके लिये भी समस्त शास्त्रोंका यही निर्णय है कि वे भगवानुके नामोंका प्रेमसे संकीर्तन करें ||११||

किं प्रमत्तस्य बहुभिः परोक्षैर्हायनैरिह ।
वरं मुहूर्तं विदितं घटते श्रेयसे यतः ॥ १२ ॥

अपने कल्याण-साधनकी ओरसे असावधान रहनेवाले पुरुषकी वर्षों लम्बी आयु भी अनजानमें ही व्यर्थ बीत जाती है। उससे क्या लाभ ! सावधानीसे ज्ञानपूर्वक बितायी हुई घड़ी, दो घड़ी भी श्रेष्ठ है; क्योंकि उसके द्वारा अपने कल्याणकी चेष्टा तो की जा सकती है ||१२||

खट्वाङ्गो नाम राजर्षिः ज्ञात्वेयत्तामिहायुषः ।
मुहूर्तात् सर्वं उत्सृज्य गतवान् अभयं हरिम् ॥ १३ ॥

राजर्षि खट्वांग अपनी आयुकी समाप्तिका समय जानकर दो घड़ीमें ही सब कुछ त्यागकर भगवान् के अभयपदको प्राप्त हो गये ||१३||

तवाप्येतर्हि कौरव्य सप्ताहं जीवितावधिः ।
उपकल्पय तत्सर्वं तावद् यद् सांपरायिकम् ॥ १४ ॥

परीक्षित्! अभी तो तुम्हारे जीवनकी अवधि सात दिनकी है। इस बीचमें ही तुम अपने परम कल्याणके लिये जो कुछ करना चाहिये, सब कर लो ।। १४ ।।

अंतकाले तु पुरुष आगते गतसाध्वसः ।
छिन्द्याद् असङ्गशस्त्रेण स्पृहां देहेऽनु ये च तम् ॥ १५ ॥

मृत्युका समय आनेपर मनुष्य घबराये नहीं उसे चाहिये कि वह वैराग्यके शस्त्रसे शरीर और उससे सम्बन्ध रखनेवालोंके प्रति ममताको काट डाले || १५ ||

गृहात् प्रत्प्रव्रजितो धीरः पुण्यतीर्थजलाप्लुतः ।
शुचौ विविक्त आसीनो विधिवत् कल्पितासने ॥ १६ ॥

धैर्यके साथ घरसे निकलकर पवित्र तीर्थके जलमें स्नान करे और पवित्र तथा एकान्त स्थानमें विधिपूर्वक आसन लगाकर बैठ जाय ।।१६।।

अभ्यसेन् मनसा शुद्धं त्रिवृद् ब्रह्माक्षरं परम् ।
मनो यच्छेज्जितश्वासो ब्रह्मबीजं अविस्मरन् ॥ १७ ॥

तत्पश्चात् परम पवित्र ‘अ उ म्’ इन तीन मात्राओंसे युक्त प्रणवका मन-ही-मन जप करे। प्राणवायुको वशमें करके मनका दमन करे और एक क्षणके लिये भी प्रणवको न भूले ||१७||

नियच्छेद् विषयेभ्योऽक्षान् मनसा बुद्धिसारथिः ।
मनः कर्मभिराक्षिप्तं शुभार्थे धारयेत् धिया ॥ १८ ॥

बुद्धिकी सहायतासे मनके द्वारा इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे हटा ले और कर्मकी वासनाओंसे चंचल हुए मनको विचारके द्वारा रोककर भगवान्के मंगलमय रूपमें लगाये ||१८||

तत्रैकावयवं ध्यायेत् अव्युच्छिन्नेन चेतसा ।
मनो निर्विषयं युक्त्वा ततः किञ्चन न स्मरेत् ।
पदं तत्परमं विष्णोः मनो यत्र प्रसीदति ॥ १९ ॥

स्थिर चित्तसे भगवान् के श्रीविग्रहमेंसे किसी एक अंगका ध्यान करे । इस प्रकार एक-एक अंगका ध्यान करते-करते विषय-वासनासे रहित मनको पूर्णरूपसे भगवान्में ऐसा तल्लीन कर दे कि फिर और किसी विषयका चिन्तन ही न हो। वही भगवान् विष्णुका परमपद है, जिसे प्राप्त करके मन भगवत्प्रेमरूप आनन्दसे भर जाता है ||१९||

रजस्तमोभ्यां आक्षिप्तं विमूढं मन आत्मनः ।
यच्छेद्धारणया धीरो हंति या तत्कृतं मलम् ॥ २० ॥

यदि भगवान्का ध्यान करते समय मन रजोगुणसे विक्षिप्त या तमोगुणसे मूढ़ हो जाय तो घबराये नहीं। धैर्यके साथ योगधारणाके द्वारा उसे वशमें करना चाहिये; क्योंकि धारणा उक्त दोनों गुणोंके दोषोंको मिटा देती है ||२०||

यस्यां सन्धार्यमाणायां योगिनो भक्तिलक्षणः ।
आशु संपद्यते योग आश्रयं भद्रमीक्षतः ॥ २१ ॥

धारणा स्थिर हो जानेपर ध्यानमें जब योगी अपने परम मंगलमय आश्रय (भगवान्) को देखता है तब उसे तुरंत ही भक्तियोगकी प्राप्ति हो जाती है ||२१||

राजोवाच ॥
यथा सन्धार्यते ब्रह्मन् धारणा यत्र सम्मता ।
यादृशी वा हरेदाशु पुरुषस्य मनोमलम् ॥ २२ ॥

परीक्षित्ने पूछा- ब्रह्मन् ! धारणा किस साधनसे किस वस्तुमें किस प्रकार की जाती है। और उसका क्या स्वरूप माना गया है, जो शीघ्र ही मनुष्यके मनका मैल मिटा देती है ? ||२२||

श्रीशुक उवाच ।
जितासनो जितश्वासो जितसङ्गो जितेंद्रियः ।
स्थूले भगवतो रूपे मनः सन्धारयेद् धिया ॥ २३ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! आसन, श्वास, आसक्ति और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके फिर बुद्धिके द्वारा मनको भगवान्के स्थूलरूपमें लगाना चाहिये ||२३||

विशेषस्तस्य देहोऽयं स्थविष्ठश्च स्थवीयसाम् ।
यत्रेदं दृश्यते विश्वं भूतं भव्यं भवच्च सत् ॥ २४ ॥

यह कार्यरूप सम्पूर्ण विश्व जो कुछ कभी था है या होगा – सब का सब जिसमें दीख पड़ता है वही भगवान्का स्थूल से स्थूल और विराट् शरीर है ||२४||

अण्डकोशे शरीरेऽस्मिन् सप्तावरणसंयुते ।
वैराजः पुरुषो योऽसौ भगवान् धारणाश्रयः ॥ २५ ॥

जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति- इन सात आवरणोंसे घिरे हुए इस ब्रह्माण्डशरीरमें जो विराट् पुरुष भगवान् हैं, वे ही धारणाके आश्रय हैं, उन्हींकी धारणा की जाती है ||२५||

पातालमेतस्य हि पादमूलं पठंति पार्ष्णिप्रपदे रसातलम् ।
महातलं विश्वसृजोऽथ गुल्फौ तलातलं वै पुरुषस्य जङ्घे ॥ २६ ॥

तत्त्वज्ञ पुरुष उनका इस प्रकार वर्णन करते हैं- पाताल विराट् पुरुषके तलवे हैं, उनकी एड़ियाँ और पंजे रसातल हैं, दोनों गुल्फ – एड़ीके ऊपरकी गाँठे महातल हैं, उनके पैरके पिंडे तलातल हैं, ||२६||

द्वे जानुनी सुतलं विश्वमूर्तेः ऊरुद्वयं वितलं चातलं च ।
महीतलं तज्जघनं महीपते नभस्तलं नाभिसरो गृणन्ति ॥ २७ ॥

विश्व-मूर्तिभगवान् के दोनों घुटने सुतल हैं, जाँघें वितल और अतल हैं, पेड़ू भूतल है और परीक्षित्! उनके नाभिरूप सरोवरको ही आकाश कहते हैं ||२७||

उरःस्थलं ज्योतिरनीकमस्य ग्रीवा महर्वदनं वै जनोऽस्य ।
तपो रराटीं विदुरादिपुंसः सत्यं तु शीर्षाणि सहस्रशीर्ष्णः ॥ २८ ॥

आदिपुरुष परमात्माकी छातीको स्वर्गलोक, गलेको महर्लोक, मुखको जनलोक और ललाटको तपोलोक कहते हैं। उन सहस्र सिरवाले भगवान्का मस्तकसमूह ही सत्यलोक है ||२८||

इन्द्रादयो बाहव आसुरुस्राः कर्णौ दिशः श्रोत्रममुष्य शब्दः ।
नासत्यदस्रौ परमस्य नासे घ्राणोऽस्य गंधो मुखमग्निरिद्धः ॥ २९ ॥

इन्द्रादि देवता उनकी भुजाएँ हैं। दिशाएँ कान और शब्द श्रवणेन्द्रिय हैं। दोनों अश्विनीकुमार उनकी नासिकाके छिद्र हैं; गन्ध घ्राणेन्द्रिय है और धधकती हुई आग उनका मुख है ||२९||

द्यौरक्षिणी चक्षुरभूत्पतङ्गः पक्ष्माणि विष्णोरहनी उभे च ।
तद्भ्रूविजृम्भः परमेष्ठिधिष्ण्यं आपोऽस्य तालू रस एव जिह्वा ॥ ३० ॥

भगवान् विष्णुके नेत्र अन्तरिक्ष हैं, उनमें देखनेकी शक्ति सूर्य है, दोनों पलकें रात और दिन हैं, उनका भूविलास ब्रह्मलोक है। तालु जल है और जिह्वा रस ||३०||

छन्दांस्यनन्तस्य शिरो गृणंति दंष्ट्रा यमः स्नेहकला द्विजानि ।
हासो जनोन्मादकरी च माया दुरन्तसर्गो यदपाङ्गमोक्षः ॥ ३१ ॥

वेदोंको भगवानुका ब्रह्मरन्ध्र कहते हैं और यमको दाढ़ें। सब प्रकारके स्नेह दाँत हैं और उनकी जगन्मोहिनी मायाको ही उनकी मुसकान कहते हैं। यह अनन्त सृष्टि उसी मायाका कटाक्ष- विक्षेप है ||३१||

व्रीडोत्तरौष्ठोऽधर एव लोभो धर्मः स्तनोऽधर्मपथोऽस्य पृष्ठम् ।
कस्तस्य मेढ्रं वृषणौ च मित्रौ कुक्षिः समुद्रा गिरयोऽस्थिसङ्घाः ॥ ३२ ॥

लज्जा ऊपरका होठ और लोभ नीचेका होठ है। धर्म स्तन और अधर्म पीठ है। प्रजापति उनके मूत्रेन्द्रिय हैं, मित्रावरुण अण्डकोश हैं, समुद्र कोख है और बड़े-बड़े पर्वत उनकी हड्डियाँ हैं ||३२||

नद्योऽस्य नाड्योऽथ तनूरुहाणि महीरुहा विश्वतनोर्नृपेन्द्र ।
अनन्तवीर्यः श्वसितं मातरिश्वा गतिर्वयः कर्म गुणप्रवाहः ॥ ३३ ॥

राजन्! विश्वमूर्ति विराट् पुरुषकी नाड़ियाँ नदियाँ हैं। वृक्ष रोम हैं। परम प्रबल वायु श्वास काल उनकी चाल है और गुणोंका चक्कर चलाते रहना ही उनका कर्म है || ३३ ||

ईशस्य केशान्न् विदुरम्बुवाहान् वासस्तु सन्ध्यां कुरुवर्य भूम्नः ।
अव्यक्तमाहुः हृदयं मनश्च स चन्द्रमाः सर्वविकारकोशः ॥ ३४ ॥

परीक्षित्! बादलोंको उनके केश मानते हैं। सन्ध्या उन अनन्तका वस्त्र है। महात्माओंने अव्यक्त (मूलप्रकृति) को ही उनका हृदय बतलाया है और सब विकारोंका खजाना उनका मन चन्द्रमा कहा गया है ||३४||

विज्ञानशक्तिं महिमामनन्ति सर्वात्मनोऽन्तःकरणं गिरित्रम् ।
अश्वाश्वतर्युष्ट्रगजा नखानि सर्वे मृगाः पशवः श्रोणिदेशे ॥ ३५ ॥

महत्तत्त्वको सर्वात्मा भगवान्का चित्त कहते हैं और रुद्र उनके अहंकार कहे गये हैं। घोड़े, खच्चर, ऊँट और हाथी उनके नख हैं। वनमें रहनेवाले सारे मृग और पशु उनके कटिप्रेदशमें स्थित हैं ||३५||

वयांसि तद् व्याकरणं विचित्रं मनुर्मनीषा मनुनो निवासः ।
गंधर्वविद्याधरचारणाप्सरः स्वरस्मृतीः असुरानीकवीर्यः ॥ ३६ ॥

तरह-तरहके पक्षी उनके अद्भुत रचना कौशल हैं। स्वायम्भुव मनु उनकी बुद्धि हैं और मनुकी सन्तान मनुष्य उनके निवासस्थान हैं। गन्धर्व, विद्याधर, चारण और अप्सराएँ उनके षड्ज आदि स्वरोंकी स्मृति हैं। दैत्य उनके वीर्य हैं ||३६||

ब्रह्माननं क्षत्रभुजो महात्मा विडूरुरङ्घ्रिश्रितकृष्णवर्णः ।
नानाभिधाभीज्यगणोपपन्नो द्रव्यात्मकः कर्म वितानयोगः ॥ ३७ ॥

ब्राह्मण मुख, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य जंघाएँ और शूद्र उन विराट् पुरुषके चरण हैं। विविध देवताओंके नामसे जो बड़े-बड़े द्रव्यमय यज्ञ किये जाते हैं, वे उनके कर्म हैं ||३७||

इयान् असौ ईश्वरविग्रहस्य यः सन्निवेशः कथितो मया ते ।
सन्धार्यतेऽस्मिन् वपुषि स्थविष्ठे मनः स्वबुद्ध्या न यतोऽस्ति किञ्चित् ॥ ३८ ॥

परीक्षित्! विराट्भगवान्के स्थूलशरीरका यही स्वरूप है, सो मैंने तुम्हें सुना दिया | इसीमें मुमुक्षु पुरुष बुद्धिके द्वारा मनको स्थिर करते हैं; क्योंकि इससे भिन्न और कोई वस्तु नहीं है ||३८||

स सर्वधीवृत्त्यनुभूतसर्व आत्मा यथा स्वप्नजनेक्षितैकः ।
तं सत्यमानंदनिधिं भजेत नान्यत्र सज्जेद्यत आत्मपातः ॥ ३९ ॥

जैसे स्वप्न देखनेवाला स्वप्नावस्थामें अपने आपको ही विविध पदार्थोंके रूपमें देखता है, वैसे ही सबकी बुद्धि-वृत्तियोंके द्वारा सब कुछ अनुभव करनेवाला सर्वान्तर्यामी परमात्मा भी एक ही है। उन सत्यस्वरूप आनन्दनिधि भगवान्का ही भजन करना चाहिये, अन्य किसी भी वस्तुमें आसक्ति नहीं करनी चाहिये। क्योंकि यह आसक्ति जीवके अधःपतनका हेतु है ।। ३९ ।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कन्धे महापुरुषसंस्थानुवर्णने
प्रथमोऽध्यायः || १ ||


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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