श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 2 अध्याय 2
द्वितीयोऽध्यायः
भगवान्के स्थूल और सूक्ष्मरूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन
श्रीशुक उवाच ।
एवं पुरा धारणयाऽऽत्मयोनिः नष्टां स्मृतिं प्रत्यवरुध्य तुष्टात् ।
तथा ससर्जेदममोघदृष्टिःयथाप्ययात् प्राक् व्यवसायबुद्धिः ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – सृष्टिके प्रारम्भमें ब्रह्माजीने इसी धारणाके द्वारा प्रसन्न हुए भगवान् से वह सृष्टिविषयक स्मृति प्राप्त की थी जो पहले प्रलयकालमें विलुप्त हो गयी थी। इससे उनकी दृष्टि अमोघं और बुद्धि निश्चयात्मिका हो गयी तब उन्होंने इस जगत्को वैसे ही रचा जैसा कि यह प्रलयके पहले था || १ ||
शाब्दस्य हि ब्रह्मण एष पन्था यन्नामभिर्ध्यायति धीरपार्थैः ।
परिभ्रमन् तत्र न विन्दतेऽर्थान् मायामये वासनया शयानः ॥ २ ॥
वेदोंकी वर्णनशैली ही इस प्रकारकी है कि लोगोंकी बुद्धि स्वर्ग आदि निरर्थक नामोंके फेरमें फँस जाती है, जीव वहाँ सुखकी वासनामें स्वप्न-सा देखता हुआ भटकने लगता है; किंतु उन मायामय लोकोंमें कहीं भी उसे सच्चे सुखकी प्राप्ति नहीं होती ।।२।।
अतः कविर्नामसु यावदर्थः स्याद् अप्रमत्तो व्यवसायबुद्धिः ।
सिद्धेऽन्यथार्थे न यतेत तत्र परिश्रमं तत्र समीक्षमाणः ॥ ३ ॥
इसलिये विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह विविध नामवाले पदार्थोंसे उतना ही व्यवहार करे, जितना प्रयोजनीय हो। अपनी बुद्धिको उनकी निस्सारताके निश्चयसे परिपूर्ण रखे और एक क्षणके लिये भी असावधान न हो। यदि संसारके पदार्थ प्रारब्धवश बिना परिश्रमके यों ही मिल जायँ, तब उनके उपार्जनका परिश्रम व्यर्थ समझकर उनके लिये कोई प्रयत्न न करे ||३||
सत्यां क्षितौ किं कशिपोः प्रयासैः बाहौ स्वसिद्धे ह्युपबर्हणैः किम् ।
सत्यञ्जलौ किं पुरुधान्नपात्र्या दिग्वल्कलादौ सति किं दुकूलैः ॥ ४ ॥
जब जमीनपर सोनेसे काम चल सकता है तब पलंगके लिये प्रयत्न करनेसे क्या प्रयोजन। जब भुजाएँ अपनेको भगवान्की कृपासे स्वयं ही मिली हुई हैं तब तकियोंकी क्या आवश्यकता। जब अंजलिसे काम चल सकता है तब बहुत-से बर्तन क्यों बटोरें। वृक्षकी छाल पहनकर या वस्त्रहीन रहकर भी यदि जीवन धारण किया जा सकता है तो वस्त्रोंकी क्या आवश्यकता ||४||
चीराणि किं पथि न सन्ति दिशन्ति भिक्षां ।
नैवाङ्घ्रिपाः परभृतः सरितोऽप्यशुष्यन् ।
रुद्धा गुहाः किमजितोऽवति नोपसन्नान् ।
कस्माद् भजंति कवयो धनदुर्मदान्धान् ॥ ५ ॥
पहननेको क्या रास्तोंमें चिथड़े नहीं हैं? भूख लगनेपर दूसरोंके लिये ही शरीर धारण करनेवाले वृक्ष क्या फल-फूलकी भिक्षा नहीं देते? जल चाहनेवालोंके लिये नदियाँ क्या बिलकुल सूख गयी हैं? रहनेके लिये क्या पहाड़ोंकी गुफाएँ बंद कर दी गयी हैं? अरे भाई ! सब न सही, क्या भगवान् भी अपने शरणगतोंकी रक्षा नहीं करते? ऐसी स्थितिमें बुद्धिमान् लोग भी धनके नशेमें चूर घमंडी धनियोंकी चापलूसी क्यों करते हैं? ॥५॥
एवं स्वचित्ते स्वत एव सिद्ध आत्मा प्रियोऽर्थो भगवान अनंतः ।
तं निर्वृतो नियतार्थो भजेत संसारहेतूपरमश्च यत्र ॥ ६ ॥
इस प्रकार विरक्त हो जानेपर अपने हृदयमें नित्य विराजमान, स्वतः सिद्ध, आत्मस्वरूप परम प्रियतम, परम सत्य जो अनन्तभगवान् हैं, बड़े प्रेम और आनन्दसे दृढ़ निश्चय करके उन्हींका भजन करे; क्योंकि उनके भजनसे जन्म-मृत्युके चक्कर में डालनेवाले अज्ञानका नाश हो जाता है || ६ ||
कस्तां त्वनादृत्य परानुचिन्तां ऋते पशून् असतीं नाम कुर्यात् ।
पश्यञ्जनं पतितं वैतरण्यां स्वकर्मजान् परितापान् जुषाणम् ॥ ७ ॥
पशुओंकी बात तो अलग है; परन्तु मनुष्योंमें भला ऐसा कौन है जो लोगोंको इस संसाररूप वैतरणी नदीमें गिरकर अपने कर्मजन्य दुःखों को भोगते हुए देखकर भी भगवान्का मंगलमय चिन्तन नहीं करेगा, इन असत् विषय-भोगोंमें ही अपने चित्तको भटकने देगा ? ||७||
केचित् स्वदेहान्तर्हृदयावकाशे प्रादेशमात्रं पुरुषं वसन्तम् ।
चतुर्भुजं कञ्जरथाङ्गशङ्ख गदाधरं धारणया स्मरन्ति ॥ ८ ॥
कोई-कोई साधक अपने शरीरके भीतर हृदयाकाशमें विराजमान भगवान्के प्रादेशमात्र स्वरूपकी धारणा करते हैं। वे ऐसा ध्यान करते हैं कि भगवान्की चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा और पद्म हैं ||८||
प्रसन्नवक्त्रं नलिनायतेक्षणं कदंबकिञ्जल्कपिशङ्गवाससम् ।
लसन्महारत्नहिरण्मयाङ्गदं स्फुरन् महारत्नकिरीटकुण्डलम् ॥ ९ ॥
उनके मुखपर प्रसन्नता झलक रही है। कमलके समान विशाल और कोमल नेत्र हैं। कदम्बके पुष्पकी केसरके समान पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं। भुजाओंमें श्रेष्ठ रत्नोंसे जड़े हुए सोनेके बाजूबंद शोभायमान हैं। सिरपर बड़ा ही सुन्दर मुकुट और कानोंमें कुण्डल हैं, जिनमें जड़े हुए बहुमूल्य रत्न जगमगा रहे हैं ||९||
उन्निद्रहृत्पङ्कजकर्णिकालये योगेश्वरास्थापितपादपल्लवम् ।
श्रीलक्षणं कौस्तुभरत्नकन्धरं अम्लानलक्ष्म्या वनमालयाचितम् ॥ १० ॥
उनके चरणकमल योगेश्वरोंके खिले हुए हृदयकमलकी कर्णिकापर विराजित हैं। उनके हृदयपर श्रीवत्सका चिह्न – एक सुनहरी रेखा है । गलेमें कौस्तुभमणि लटक रही है। वक्षःस्थल कभी न कुम्हलानेवाली वनमालासे घिरा हुआ है || १० ||
विभूषितं मेखलयाऽङ्गुलीयकैः महाधनैर्नूपुरकङ्कणादिभिः ।
स्निग्धामलाकुञ्चितनीलकुन्तलैः विरोचमानाननहासपेशलम् ॥ ११ ॥
वे कमर में करधनी, अँगुलियोंमें बहुमूल्य अँगूठी, चरणोंमें नूपुर और हाथोंमें कंगन आदि आभूषण धारण किये हुए हैं। उनके बालकी लटें बहुत चिकनी, निर्मल, घुँघराली और नीली हैं। उनका मुखकमल मन्द मन्द मुसकानसे खिल रहा है ।। ११॥
अदीनलीलाहसितेक्षणोल्लसद् भ्रूभङ्गसंसूचितभूर्यनुग्रहम् ।
ईक्षेत चिन्तामयमेनमीश्वरं यावन्मनो धारणयाऽवतिष्ठते ॥ १२ ॥
लीलापूर्ण उन्मुक्त हास्य और चितवनसे शोभायमान भौंहोंके द्वारा वे भक्तजनों पर अनन्त अनुग्रहकी वर्षा कर रहे हैं। जबतक मन इस धारणाके द्वारा स्थिर न हो जाय, तबतक बार-बार इन चिन्तनस्वरूप भगवान्को देखते रहनेकी चेष्टा करनी चाहिये ||१२||
एकैकशोऽङ्गानि धियानुभावयेत् पादादि यावद् हसितं गदाभृतः ।
जितं जितं स्थानमपोह्य धारयेत् परं परं शुद्ध्यति धीर्यथा यथा ॥ १३ ॥
भगवान्के चरण–कमलोंसे लेकर उनके मुसकानयुक्त मुखकमलपर्यन्त समस्त अंगोंकी एक-एक करके बुद्धिके द्वारा धारणा करनी चाहिये। जैसे-जैसे बुद्धि शुद्ध होती जायगी, वैसे-वैसे चित्त स्थिर होता जायगा । जब एक अंगका ध्यान ठीक-ठीक होने लगे, तब उसे छोड़कर दूसरे अंगका ध्यान करना चाहिये ||१३||
यावन्न जायेत परावरेऽस्मिन् विश्वेश्वरे द्रष्टरि भक्तियोगः ।
तावत् स्थवीयः पुरुषस्य रूपं क्रियावसाने प्रयतः स्मरेत ॥ १४ ॥
ये विश्वेश्वर भगवान् दृश्य नहीं, द्रष्टा हैं। सगुण, निर्गुण – सब कुछ इन्हींका स्वरूप है। जबतक इनमें अन्य प्रेममय भक्तियोग न हो जाय तबतक साधकको नित्य नैमित्तिक कर्मोंके बाद एकाग्रतासे भगवान्के उपर्युक्त स्थूलरूपका ही चिन्तन करना चाहिये ||१४|
स्थिरं सुखं चासनमास्थितो यतिः यदा जिहासुरिममङ्ग लोकम् ।
काले च देशे च मनो न सज्जयेत् प्राणान् नियच्छेन्मनसा जितासुः ॥ १५ ॥
परीक्षित्! जब योगी पुरुष इस मनुष्यलोकको छोड़ना चाहे तब देश और कालमें मनको न लगाये। सुखपूर्वक स्थिर आसनसे बैठकर प्राणोंको जीतकर मनसे इन्द्रियोंका संयम करे ।।१५।।
मनः स्वबुद्ध्याऽमलया नियम्य क्षेत्रज्ञ एतां निनयेत् तमात्मनि ।
आत्मानमात्मन्यवरुध्य धीरो लब्धोपशान्तिर्विरमेत कृत्यात् ॥ १६ ॥
तदनन्तर अपनी निर्मल बुद्धिसे मनको नियमित करके मनके साथ बुद्धिको क्षेत्रज्ञमें और क्षेत्रज्ञको अन्तरात्मामें लीन कर दे। फिर अन्तरात्माको परमात्मामें लीन करके धीर पुरुष उस परम शान्तिमय अवस्थामें स्थित हो जाय। फिर उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता ।। १६ ।।
न यत्र कालोऽनिमिषां परः प्रभुः कुतो नु देवा जगतां य ईशिरे ।
न यत्र सत्त्वं न रजस्तमश्च न वै विकारो न महान् प्रधानम् ॥ १७ ॥
इस अवस्थामें सत्त्वगुण भी नहीं है, फिर रजोगुण और तमोगुणकी तो बात ही क्या है। अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृतिका भी वहाँ अस्तित्व नहीं है। उस स्थितिमें जब देवताओंके नियामक कालकी भी दाल नहीं गलती, तब देवता और उनके अधीन रहनेवाले प्राणी तो रह ही कैसे सकते हैं? ||१७||
परं पदं वैष्णवमामनन्ति तद् यन्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः ।
विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहृदा हृदोपगुह्यार्हपदं पदे पदे ॥ १८ ॥
योगीलोग यह नहीं, यह नहीं – इस प्रकार परमात्मासे भिन्न पदार्थोंका त्याग करना चाहते हैं और शरीर तथा उसके सम्बन्धी पदार्थोंमें आत्मबुद्धिका त्याग करके हृदयके द्वारा पद-पदपर भगवान् के जिस परम पूज्य स्वरूपका आलिंगन करते हुए अनन्य प्रेमसे परिपूर्ण रहते हैं, वही भगवान् विष्णुका परम पद है – इस विषयमें समस्त शास्त्रोंकी सम्मति है ||१८||
इत्थं मुनिस्तूपरमेद् व्यवस्थितो विज्ञानदृग्वीर्य सुरन्धिताशयः ।
स्वपार्ष्णिनऽपीड्य गुदं ततोऽनिलं स्थानेषु षट्सून्नमयेज्जितक्लमः ॥ १९ ॥
ज्ञानदृष्टिके बलसे जिसके चित्तकी वासना नष्ट हो गयी है, उस ब्रह्मनिष्ठ योगीको इस प्रकार अपने शरीरका त्याग करना चाहिये। पहले एड़ीसे अपनी गुदाको दबाकर स्थिर हो जाय और तब बिना घबड़ाहटके प्राणवायुको षट्चक्रभेदनकी रीतिसे ऊपर ले जाय ।।१९।।
नाभ्यां स्थितं हृद्यधिरोप्य तस्माद् उदुदानगत्योरसि तं नयेन्मुनिः ।
ततोऽनुसन्धाय धिया मनस्वी स्वतालुमूलं शनकैर्नयेत ॥ २० ॥
मनस्वी योगीको चाहिये कि नाभिचक्र मणिपूरकमें स्थित वायुको हृदयचक्र अनाहतमें, वहाँसे उदानवायुके द्वारा वक्षःस्थलके ऊपर विशुद्ध चक्रमें, फिर उस वायुको धीरे-धीरे तालुमूलमें (विशुद्ध चक्रके अग्रभागमें) चढ़ा दे ||२०||
तस्माद् भ्रुवोरन्तरमुन्नयेत निरुद्धसप्तायतनोऽनपेक्षः ।
स्थित्वा मुहूर्तार्धमकुण्ठदृष्टिः निर्भिद्य मूर्धन् विसृजेत् परं गतः ॥ २१ ॥
तदनन्तर् दो आँख, दो कान, दो नासाछिद्र और मुख – इन सातों छिद्रोंको रोककर उस तालुमूलमें स्थित वायुको भौंहोंके बीच आज्ञाचक्रमें ले जाय। यदि किसी लोकमें जानेकी इच्छा न हो तो आधी घड़ीतक उस वायुको वहीं रोककर स्थिर लक्ष्यके साथ उसे सहस्रारमें ले जाकर परमात्मामें स्थित हो जाय। इसके बाद ब्रह्मरन्ध्रका भेदन करके शरीर- इन्द्रियादिको छोड़ दे ||२१||
यदि प्रयास्यन् नृप पारमेष्ठ्यं वैहायसानामुत यद् विहारम् ।
अष्टाधिपत्यं गुणसन्निवाये सहैव गच्छेन्मनसेन्द्रियैश्च ॥ २२ ॥
परीक्षित्! यदि योगीकी इच्छा हो कि मैं ब्रह्म-लोकमें जाऊँ, आठों सिद्धियाँ प्राप्त करके आकाशचारी सिद्धोंके साथ विहार करूँ अथवा त्रिगुणमय ब्रह्माण्डके किसी भी प्रदेशमें विचरण करूँ तो उसे मन और इन्द्रियोंको साथ ही लेकर शरीरसे निकलना चाहिये ||२२||
योगेश्वराणां गतिमाहुरन्तः बहिस्त्रिलोक्याः पवनान्तरात्मनाम् ।
न कर्मभिस्तां गतिमाप्नुवन्ति विद्यातपोयोगसमाधिभाजाम् ॥ २३ ॥
योगियोंका शरीर वायुकी भाँति सूक्ष्म होता है। उपासना, तपस्या, योग और ज्ञानका सेवन करनेवाले योगियोंको त्रिलोकीके बाहर और भीतर सर्वत्र स्वछन्दरूपसे विचरण करनेका अधिकार होता है। केवल कर्मोंके द्वारा इस प्रकार बेरोक-टोक विचरना नहीं हो सकता ||२३||
वैश्वानरं याति विहायसा गतः सुषुम्नया ब्रह्मपथेन शोचिषा ।
विधूतकल्कोऽथ हरेरुदस्तात् प्रयाति चक्रं नृप शैशुमारम् ॥ २४ ॥
परीक्षित्! योगी ज्योतिर्मय मार्ग सुषुम्णाके द्वारा जब ब्रह्मलोककेलिये प्रस्थान करता है, तब पहले वह आकाशमार्गसे अग्निलोकमें जाता है; वहाँ उसके बचे-खुचे मल भी जल जाते हैं। इसके बाद वह वहाँसे ऊपर भगवान् श्रीहरिके शिशुमार नामक ज्योतिर्मय चक्रपर पहुँचता है ||२४||
[ योऽन्तः पचति भूतानां यस्तपत्यण्डमध्यगः ।
सोऽग्निर्वैश्वानरो मार्गो देवानां पितृणां मुनेः ॥
देवयानं पिङ्गलाभिः हन्येति शतायुषा ।
रात्रीरिडाभिः पितृणां विषुवत्तां सुषुम्नया ॥ ]
These two shlokas are found only in Madhwa school edition and Shri Vijayadhwajatirtha commented on these.
तद्विश्वनाभिं त्वतिवर्त्य विष्णोः अणीयसा विरजेनात्मनैकः ।
नमस्कृतं ब्रह्मविदामुपैति कल्पायुषो यद् विबुधा रमन्ते ॥ २५ ॥
भगवान् विष्णुका यह शिशुमार चक्र विश्व ब्रह्माण्डके भ्रमणका केन्द्र है। उसका अतिक्रमण करके अत्यन्त सूक्ष्म एवं निर्मल शरीरसे वह अकेला ही महलोंकमें जाता है। वह लोक ब्रह्मवेत्ताओंके द्वारा भी वन्दित है और उसमें कल्पपर्यन्त जीवित रहनेवाले देवता विहार करते रहते हैं ||२५||
अथो अनन्तस्य मुखानलेन दन्दह्यमानं स निरीक्ष्य विश्वम् ।
निर्याति सिद्धेश्वरयुष्टधिष्ण्यं यद् द्वैपरार्ध्यं तदु पारमेष्ठ्यम् ॥ २६ ॥
फिर जब प्रलयका समय आता है, तब नीचेके लोकोंको शेषके मुखसे निकली हुई आगके द्वारा भस्म होते देख वह ब्रह्मलोकमें चला जाता है, जिस ब्रह्मलोकमें बड़े-बड़े सिद्धेश्वर विमानोंपर निवास करते हैं। उस ब्रह्मलोककी आयु ब्रह्माकी आयुके समान ही दो परार्द्धकी है ||२६||
न यत्र शोको न जरा न मृत्युः न आर्तिः न चोद्वेग ऋते कुतश्चित् ।
यच्चित्ततोऽदः कृपयानिदं विदां दुरन्तदुःखप्रभवानुदर्शनात् ॥ २७ ॥
वहाँ न शोक है न दुःख, न बुढ़ापा है न मृत्यु। फिर वहाँ किसी प्रकारका उद्वेग या भय तो हो ही कैसे सकता है। वहाँ यदि दुःख है तो केवल एक बातका। वह यही क इस परमपदको न जाननेवाले लोगोंके जन्म-मृत्युमय अत्यन्त घोर संकटोंको देखकर दयावश वहाँके लोगोंके मनमें बड़ी व्यथा होती है ||२७||
ततो विशेषं प्रतिपद्य निर्भयः तेनात्मनापोऽनलमूर्तिरत्वरन् ।
ज्योतिर्मयो वायुमुपेत्य काले वाय्वात्मना खं बृहदात्मलिङ्गम् ॥ २८ ॥
सत्यलोक पहुँचने के पश्चात् वह योगी निर्भय होकर अपने सूक्ष्म शरीरको पृथ्वीसे मिला देता है और फिर उतावली न करते हुए सात आवरणका भेदन करता है। पृथ्वीरूपसे जलको और जलरूपसे अग्निमय आवरणोंको प्राप्त होकर वह ज्योतिरूपसे वायुरूप आवरणमें आ जाता है और वहाँसे समयपर ब्रह्मकी अनन्तताका बोध करानेवाले आकाशरूप आवरणको प्राप्त करता है ।।२८।।
घ्राणेन गन्धं रसनेन वै रसं रूपं च दृष्ट्या श्वसनं त्वचैव ।
श्रोत्रेण चोपेत्य नभोगुणत्वं प्राणेन चाकूतिमुपैति योगी ॥ २९ ॥
इस प्रकार स्थूल आवरणोंको पार करते समय उसकी इन्द्रियाँ भी अपने सूक्ष्म अधिष्ठानमें लीन होती जाती हैं। घ्राणेन्द्रिय गन्धतन्मात्रामें, रसना रसतन्मात्रामें, नेत्र रूपतन्मात्रामें, त्वचा स्पर्शतन्मात्रामें, श्रोत्र शब्दतन्मात्रामें और कर्मेन्द्रियाँ अपनी-अपनी क्रियाशक्तिमें मिलकर अपने-अपने सूक्ष्मस्वरूपको प्राप्त हो जाती हैं ।। २९ ।
स भूतसूक्ष्मेन्द्रियसन्निकर्षं मनोमयं देवमयं विकार्यम् ।
संसाद्य गत्या सह तेन याति विज्ञानतत्त्वं गुणसंनिरोधम् ॥ ३० ॥
इस प्रकार योगी पंचभूतोंके स्थूल सूक्ष्म आवरणोंको पार करके अहंकारमें प्रवेश करता है। वहाँ सूक्ष्म भूतोंको तामस अहंकारमें, इन्द्रियोंको राजस अहंकारमें तथा मन और इन्द्रियोंके अधिष्ठाता देवताओंको सात्त्विक अहंकारमें लीन कर देता है। इसके बाद अहंकारके सहित लयरूप गतिके द्वारा महत्तत्त्वमें प्रवेश करके अन्तमें समस्त गुणोंके लयस्थान प्रकृतिरूप आवरणमें जा मिलता है ||३०||
तेनात्मनात्मानमुपैति शान्तं आनंदमानंदमयोऽवसाने ।
एतां गतिं भागवतीं गतो यः स वै पुनर्नेह विषज्जतेऽङ्ग ॥ ३१ ॥
परीक्षित्! महाप्रलयके समय प्रकृतिरूप आवरणका भी लय हो जानेपर वह योगी स्वयं आनन्दस्वरूप होकर अपने उस निरावरण रूपसे आनन्दस्वरूप शान्त परमात्माको प्राप्त हो जाता है। जिसे इस भगवन्मयी गतिकी प्राप्ति हो जाती है उसे फिर इस संसारमें नहीं आना पड़ता ||३१||
एते सृती ते नृप वेदगीते त्वयाभिपृष्टे च सनातने च ।
ये वै पुरा ब्रह्मण आह तुष्ट आराधितो भगवान् वासुदेवः ॥ ३२ ॥
परीक्षित्! तुमने जो पूछा था, उसके उत्तरमें मैंने वेदोक्त द्विविध सनातन मार्ग सद्योमुक्ति और क्रममुक्तिका तुमसे वर्णन किया। पहले ब्रह्माजीने भगवान् वासुदेवकी आराधना करके उनसे जब प्रश्न किया था, तब उन्होंने उत्तरमें इन्हीं दोनों मार्गोंकी बात ब्रह्माजी से कही थी ||३२||
न ह्यतोऽन्यः शिवः पन्था विशतः संसृताविह ।
वासुदेवे भगवति भक्तियोगो यतो भवेत् ॥ ३३ ॥
संसारचक्रमें पड़े हुए मनुष्यके लिये जिस साधनके द्वारा उसे भगवान् श्रीकृष्णकी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाय, उसके अतिरिक्त और कोई भी कल्याणकारी मार्ग नहीं है ।।३३।।
भगवान्ब्रह्म कार्त्स्न्येन त्रिरन् वीक्ष्य मनीषया ।
तदध्यवस्यत् कूटस्थो रतिरात्मन् यतो भवेत् ॥ ३४ ॥
भगवान् ब्रह्माने एकाग्रचित्तसे सारे वेदोंका तीन बार अनुशीलन करके अपनी बुद्धिसे यही निश्चय किया कि जिससे सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्णके प्रति अनन्यप्रेम प्राप्त हो वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है || ३४।।
भगवान् सर्वभूतेषु लक्षितः स्वात्मना हरिः ।
दृश्यैर्बुद्ध्यादिभिर्द्रष्टा लक्षणैः अनुमापकैः ॥ ३५ ॥
समस्त चर-अचर प्राणियोंमें उनके आत्मारूपसे भगवान् श्रीकृष्ण ही लक्षित होते हैं; क्योंकि ये बुद्धि आदि दृश्य पदार्थ उनका अनुमान करानेवाले लक्षण हैं, वे इन सबके साक्षी एकमात्र द्रष्टा हैं ||३५||
तस्मात् सर्वात्मना राजन् हरिः सर्वत्र सर्वदा ।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यो भगवान् नृणाम् ॥ ३६ ॥
परीक्षित्! इसलिये मनुष्योंको चाहिये कि सब समय और सभी स्थितियोंमें अपनी सम्पूर्ण शक्तिसे भगवान् श्रीहरिका ही श्रवण, कीर्तन और स्मरण करें ||३६||
पिबन्ति ये भगवत आत्मनः सतां कथामृतं श्रवणपुटेषु सम्भृतम् ।
पुनन्ति ते विषयविदूषिताशयं व्रजन्ति तच्चरणसरोरुहान्तिकम् ॥ ३७ ॥
राजन् ! संत पुरुष आत्मस्वरूप भगवान्की कथाका मधुर अमृत बाँटते ही रहते हैं; जो अपने कानके दोनोंमें भर-भरकर उनका पान करते हैं, उनके हृदयसे विषयोंका विषैला प्रभाव जाता रहता है, वह शुद्ध हो जाता है और वे भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी सन्निधि प्राप्त कर लेते हैं ।। ३७।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कन्धे पुरुषसंस्थावर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ||२||