श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 2 अध्याय 7
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः 2/अध्यायः 7
भगवान् के लीलावतारों की कथा
ब्रह्मोवाच ।
यत्रोद्यतः क्षितितलोद्धरणाय बिभ्रत् ।
क्रौडीं तनुं सकलयज्ञमयीमनन्तः ।
अन्तर्महार्णव उपागतमादिदैत्यं ।
तं दंष्ट्रयाऽद्रिमिव वज्रधरो ददार ॥ १ ॥
ब्रह्माजी कहते हैं – अनन्तभगवान्ने प्रलयके जलमें डूबी हुई पृथ्वीका उद्धार करनेके लिये समस्त
यज्ञमय वराहशरीर ग्रहण किया था। आदिदैत्य हिरण्याक्ष जलके अंदर ही लड़नेके लिये उनके
सामने आया। जैसे इन्द्रने अपने वज्रसे पर्वतोंके पंख काट डाले थे, वैसे ही वराहभगवान्ने अपनी
दाढ़ोंसे उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये ॥१॥
जातो रुचेरजनयत् सुयमान् सुयज्ञ ।
आकूतिसूनुः अमरान् अथ दक्षिणायाम् ।
लोकत्रयस्य महतीं अहरद् यदार्तिं ।
स्वायम्भुवेन मनुना हरिरित्यनूक्तः ॥ २ ॥
फिर उन्हीं प्रभुने रुचि नामक प्रजापतिकी पत्नी आकूतिके गर्भसे सुयज्ञके रूपमें अवतार ग्रहण
किया। उस अवतारमें उन्होंने दक्षिणा नामकी पत्नीसे सुयम नामके देवताओंको उत्पन्न किया और
तीनों लोकोंके बड़े-बड़े संकट हर लिये । इसीसे स्वायम्भुव मनुने उन्हें ‘हरि’ के नामसे पुकारा
||२||
जज्ञे च कर्दमगृहे द्विज देवहूत्यां ।
स्त्रीभिः समं नवभिरात्मगतिं स्वमात्रे ।
ऊचे ययाऽत्मशमलं गुणसङ्गपङ्कम् ।
अस्मिन् विधूय कपिलस्य गतिं प्रपेदे ॥ ३ ॥
नारद! कर्दम प्रजापतिके घर देवहूतिके गर्भसे नौ बहिनोंके साथ भगवान्ने कपिलके रूपमें अवतार
ग्रहण किया। उन्होंने अपनी माताको उस आत्मज्ञानका उपदेश किया, जिससे वे इसी जन्म में
अपने हृदयके सम्पूर्ण मल – तीनों गुणोंकी आसक्तिका सारा कीचड़ धोकर कपिलभगवान्के
वास्तविक स्वरूपको प्राप्त हो गयीं ||३||
अत्रेः अपत्यमभिकाङ्क्षत आह तुष्टो ।
दत्तो मयाहमिति यद् भगवान् स दत्तः ।
यत् पादपङ्कजपराग पवित्रदेहा ।
योगर्द्धिमापुरुभयीं यदुहैहयाद्याः ॥ ४ ॥
महर्षि अत्रि भगवान्को पुत्ररूपमें प्राप्त करना चाहते थे। उनपर प्रसन्न होकर भगवान्ने उनसे एक
दिन कहा कि ‘मैंने अपने आपको तुम्हें दे दिया।’ इसीसे अवतार लेनेपर भगवान्का नाम ‘दत्त’ (दत्तात्रेय) पड़ा। उनके चरणकमलोंके परागसे अपने शरीरको पवित्र करके राजा यदु और
सहस्रार्जुन आदिने योगकी, भोग और मोक्ष दोनों ही सिद्धियाँ प्राप्त कीं ॥४॥
तप्तं तपो विविधलोकसिसृक्षया मे ।
आदौ सनात् स्वतपसः स चतुःसनोऽभूत् ।
प्राक्कल्प संप्लवविनष्टमिह आत्मतत्त्वं ।
सम्यग् जगाद मुनयो यदचक्षतात्मन् ॥ ५ ॥
नारद! सृष्टिके प्रारम्भमें मैंने विविध लोकोंको रचनेकी इच्छासे तपस्या की। मेरे उस अखण्ड
तपसे प्रसन्न होकर उन्होंने ‘तप’ अर्थवाले ‘सन’ नामसे युक्त होकर सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमारके रूपमें अवतार ग्रहण किया। इस अवतारमें उन्होंने प्रलयके कारण पहले कल्पके भूले
हुए आत्मज्ञानका ऋषियोंके प्रति यथावत् उपदेश किया, जिससे उन लोगोंने तत्काल परम तत्त्वका अपने हृदयमें साक्षात्कार कर लिया ||५||
धर्मस्य दक्षदुहितर्यजनिष्ट मूर्त्यां ।
नारायणो नर इति स्वतपः प्रभावः ।
दृष्ट्वात्मनो भगवतो नियमावलोपं ।
देव्यस्त्वनङ्गपृतना घटितुं न शेकुः ॥ ६ ॥
धर्मकी पत्नी दक्षकन्या मूर्तिके गर्भसे वे नर-नारायणके रूपमें प्रकट हुए। उनकी तपस्याका प्रभाव
उन्हींके जैसा है। इन्द्रकी भेजी हुई काम की सेना अप्सराएँ उनके सामने जाते ही अपना स्वभाव
खो बैठीं। वे अपने हाव-भावसे उन आत्मस्वरूप भगवान्की तपस्यामें विघ्न नहीं डाल सकीं ||६||
कामं दहन्ति कृतिनो ननु रोषदृष्ट्या ।
रोषं दहन्तमुत ते न दहन्त्यसह्यम् ।
सोऽयं यदन्तरमलं प्रविशन् बिभेति ।
कामः कथं नु पुनरस्य मनः श्रयेत ॥ ७ ॥
नारद! शंकर आदि महानुभाव अपनी रोषभरी दृष्टिसे कामदेवको जला देते हैं, परंतु अपने
आपको जलानेवाले असह्य क्रोधको वे नहीं जला पाते। वही क्रोध नर-नारायणके निर्मल हृदयमें
प्रवेश करनेके पहले ही डरके मारे काँप जाता है। फिर भला उनके हृदयमें कामका प्रवेश तो हो
ही कैसे सकता है ।।७।।
विद्धः सपत्न्युदितपत्रिभिरन्ति राज्ञो ।
बालोऽपि सन्नुपगतस्तपसे वनानि ।
तस्मा अदाद् ध्रुवगतिं गृणते प्रसन्नो ।
दिव्याः स्तुवन्ति मुनयो यदुपर्यधस्तात् ॥ ८ ॥
अपने पिता राजा उत्तानपादके पास बैठे हुए पाँच वर्षके बालक ध्रुवको उनकी सौतेली माता
सुरुचिने अपने वचन – बाणोंसे बेध दिया था। इतनी छोटी अवस्था होनेपर भी वे उस ग्लानिसे
तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये। उनकी प्रार्थनासे प्रसन्न होकर भगवान् प्रकट हुए और
उन्होंने ध्रुवको ध्रुवपदका वरदान दिया। आज भी ध्रुवके ऊपर-नीचे प्रदक्षिणा करते हुए दिव्य
महर्षिगण उनकी स्तुति करते रहते हैं ||८||
यद्वेनमुत्पथगतं द्विजवाक्यवज्र ।
निष्प्लुष्टपौरुषभगं निरये पतन्तम् ।
त्रात्वाऽर्थितो जगति पुत्रपदं च लेभे ।
दुग्धा वसूनि वसुधा सकलानि येन ॥ ९ ॥
कुमार्गगामी वेनका ऐश्वर्य और पौरुष ब्राह्मणोंके हुंकाररूपी वज्रसे जलकर भस्म हो गया। वह
नरकमें गिरने लगा। ऋषियोंकी प्रार्थनापर भगवान्ने उसके शरीरमन्थनसे पृथुके रूपमें अवतार
धारण कर उसे नरकोंसे उबारा और इस प्रकार ‘पुत्र शब्दको चरितार्थ किया। उसी अवतारमें
पृथ्वीको गाय बनाकर उन्होंने उससे जगत्के लिये समस्त ओषधियोंका दोहन किया ||९||
नाभेरसावृषभ आस सुदेविसूनुः ।
यो वै चचार समदृग् जडयोगचर्याम् ।
यत्पारमहंस्यमृषयः पदमामनन्ति ।
स्वस्थः प्रशान्तकरणः परिमुक्तसङ्गः ॥ १० ॥
राजा नाभिकी पत्नी सुदेवीके गर्भसे भगवान्ने ऋषभदेवके रूपमें जन्म लिया। इस अवतारमें समस्त
आसक्तियोंसे रहित रहकर, अपनी इन्द्रियों और मनको अत्यन्त शान्त करके एवं अपने स्वरूपमें
स्थित होकर समदर्शीके रूपमें उन्होंने जड़ोंकी भाँति योगचर्या का आचरण किया। इस स्थितिको
महर्षिलोग परमहंसपद अथवा अवधूतचर्या कहते हैं ||१०||
सत्रे ममाऽस भगवान् हयशीर्ष एव ।
साक्षात् स यज्ञपुरुषः तपनीयवर्णः ।
छन्दोमयो मखमयोऽखिलदेवतात्मा ।
वाचो बभूवुरुशतीः श्वसतोऽस्य नस्तः ॥ ११ ॥
इसके बाद स्वयं उन्हीं यज्ञपुरुषने मेरे यज्ञमें स्वर्णके समान कान्तिवाले हयग्रीवके रूपमें अवतार
ग्रहण किया। भगवान्का वह विग्रह वेदमय, यज्ञमय और सर्वदेवमय है। उन्हींकी नासिकासे
श्वासके रूपमें वेदवाणी प्रकट हुई || ११ ||
मत्स्यो युगान्तसमये मनुनोपलब्धः ।
क्षोणीमयो निखिलजीवनिकायकेतः ।
विस्रंसितानुरुभये सलिले मुखान्मे ।
आदाय तत्र विजहार ह वेदमार्गान् ॥ १२ ॥
चाक्षुष मन्वन्तरके अन्तमें भावी मनु सत्यव्रतने मत्स्यरूपमें भगवान्को प्राप्त किया था। उस समय
पृथ्वीरूप नौकाके आश्रय होनेके कारण वे ही समस्त जीवोंके आश्रय बने । प्रलयके उस भयंकर
जलमें मेरे मुखसे गिरे हुए वेदोंको लेकर वे उसीमें विहार करते रहे ||१२||
क्षीरोदधावमरदानवयूथपानाम् ।
उन्मथ्नताममृतलब्धय आदिदेवः ।
पृष्ठेन कच्छपवपुर्विदधार गोत्रं ।
निद्राक्षणोऽद्रिपरिवर्तकषाणकण्डूः ॥ १३ ॥
जब मुख्य मुख्य देवता और दानव अमृतकी प्राप्तिके लिये क्षीरसागरको मथ रहे थे, तब भगवान्ने
कच्छपके रूपमें अपनी पीठपर मन्दराचल धारण किया। उस समय पर्वतके घूमने के कारण
उसकी रगड़से उनकी पीठकी खुजलाहट थोड़ी मिट गयी, जिससे वे कुछ क्षणोंतक सुखकी नींद
सो सके ।।१३।।
त्रैविष्टपोरुभयहा स नृसिंहरूपं ।
कृत्वा भ्रमद् भ्रुकुटिदंष्ट्रकरालवक्त्रम् ।
दैत्येन्द्रमाशु गदयाऽभिपतन्तमारात् ।
ऊरौ निपात्य विददार नखैः स्फुरन्तम् ॥ १४ ॥
देवताओंका महान् भय मिटानेके लिये उन्होंने नृसिंहका रूप धारण किया। फड़कती हुई भौंहों
और तीखी दाढ़ोंसे उनका मुख बड़ा भयावना लगता था। हिरण्यकशिपु उन्हें देखते ही हाथमें गदा
लेकर उनपर टूट पड़ा। इसपर भगवान् नृसिंहने दूरसे ही उसे पकड़कर अपनी जाँघोंपर डाल
लिया और उसके छटपटाते रहनेपर भी अपने नखोंसे उसका पेट फाड़ डाला ।।१४।।
अन्तः सरस्युरुबलेन पदे गृहीतो ।
ग्राहेण यूथपतिरम्बुजहस्त आर्तः ।
आहेदमादिपुरुषाखिललोकनाथ ।
तीर्थश्रवः श्रवणमङ्गलनामधेय ॥ १५ ॥
बड़े भारी सरोवरमें महाबली ग्राहने गजेन्द्रका पैर पकड़ लिया। जब बहुत थककर वह घबरा
गया, तब उसने अपनी सूँड़में कमल लेकर भगवान्को पुकारा – ‘हे आदिपुरुष ! हे समस्त
लोकोंके स्वामी! हे श्रवणमात्रसे कल्याण करनेवाले !’ || १५ ।।
श्रुत्वा हरिस्तमरणार्थिनमप्रमेयः ।
चक्रायुधः पतगराजभुजाधिरूढः ।
चक्रेण नक्रवदनं विनिपाद्य तस्माद् ।
धस्ते प्रगृह्य भगवान् कृपयोज्जहार ॥ १६ ॥
उसकी पुकार सुनकर अनन्तशक्ति भगवान् चक्रपाणि गरुडकी पीठपर चढ़कर वहाँ आये और अपने चक्रसे उन्होंने ग्राहका मस्तक उखाड़ डाला। इस प्रकार कृपापरवश भगवान्ने अपने शरणागत गजेन्द्रकी सूँड़
पकड़कर उस विपत्तिसे उसका उद्धार किया ||१६||
ज्यायान् गुणैरवरजोऽप्यदितेः सुतानां ।
लोकान् विचक्रम इमान् यदथाधियज्ञः ।
क्ष्मां वामनेन जगृहे त्रिपदच्छलेन ।
याच्ञामृते पथि चरन् प्रभुभिर्न चाल्यः ॥ १७ ॥
भगवान् वामन अदितिके पुत्रोंमें सबसे छोटे थे, परन्तु गुणोंकी दृष्टिसे वे सबसे बड़े थे। क्योंकि
यज्ञपुरुष भगवान्ने इस अवतारमें बलिके संकल्प छोड़ते ही सम्पूर्ण लोकोंको अपने चरणोंसे ही
नाप लिया था। वामन बनकर उन्होंने तीन पग पृथ्वीके बहाने बलिसे सारी पृथ्वी ले तो ली,
परन्तु इससे यह बात सिद्ध कर दी कि सन्मार्गपर चलनेवाले पुरुषोंको याचनाके सिवा और किसी
उपायसे समर्थ पुरुष भी अपने स्थानसे नहीं हटा सकते, ऐश्वर्यसे च्युत नहीं कर सकते ||१७||
नार्थो बलेरयमुरुक्रमपादशौचम् ।
आपः शिखाधृतवतो विबुधाधिपत्यम् ।
यो वै प्रतिश्रुतमृते न चिकीर्षदन्यद् ।
आत्मानमङ्ग शिरसा हरयेऽभिमेने ॥ १८ ।
दैत्यराज बलिने अपने सिरपर स्वयं वामन भगवान्का चरणामृत धारण किया था। ऐसी स्थितिमें
उन्हें जो देवताओंके राजा इन्द्रकी पदवी मिली, इसमें कोई बलिका पुरुषार्थ नहीं था । अपने गुरु
शुक्राचार्य मना करनेपर भी वे अपनी प्रतिज्ञाके विपरीत कुछ भी करनेको तैयार नहीं हुए। और
तो क्या, भगवानुका तीसरा पग पूरा करनेके लिये उनके चरणोंमें सिर रखकर उन्होंने अपने
आपको भी समर्पित कर दिया || १८ ||
तुभ्यं च नारद भृशं भगवान्विवृद्ध ।
भावेन साधु परितुष्ट उवाच योगम् ।
ज्ञानं च भागवतमात्मसतत्त्वदीपं ।
यद्वासुदेवशरणा विदुरञ्जसैव ॥ १९ ॥
नारद! तुम्हारे अत्यन्त प्रेमभावसे परम प्रसन्न होकर हंसके रूपमें भगवान्ने तुम्हें योग, ज्ञान और
आत्मतत्त्वको प्रकाशित करनेवाले भागवतधर्मका उपदेश किया। वह केवल भगवान्के शरणागत
भक्तोंको ही सुगमतासे प्राप्त होता है ।। १९ । ।
चक्रं च दिक्ष्वविहतं दशसु स्वतेजो ।
मन्वन्तरेषु मनुवंशधरो बिभर्ति ।
दुष्टेषु राजसु दमं व्यदधात्स्वकीर्तिं ।
सत्ये त्रिपृष्ठ उशतीं प्रथयंश्चरित्रैः ॥ २० ॥
वे ही भगवान् स्वायम्भुव आदि मन्वन्तरोंमें मनुके रूपमें अवतार लेकर मनुवंशकी रक्षा करते हुए दसों दिशाओंमें अपने सुदर्शनचक्र के समान तेजसे बेरोक-टोक – निष्कण्टक राज्य करते हैं। तीनों लोकोंके ऊपर सत्यलोकतक उनके चरित्रोंकी कमनीय कीर्ति फैल जाती है और उसी रूपमें वे समय- समयपर पृथ्वीके भारभूत दुष्ट राजाओंका दमन भी करते रहते हैं ||२०||
धन्वन्तरिश्च भगवान् स्वयमेव कीर्तिः ।
नाम्ना नृणां पुरुरुजां रुज आशु हन्ति ।
यज्ञे च भागममृतायुरवावचन्ध ।
आयुश्च वेदमनुशास्त्यवतीर्य लोके ॥ २१ ॥
स्वनामधन्य भगवान् धन्वन्तरि अपने नामसे ही बड़े-बड़े रोगियोंके रोग तत्काल नष्ट कर देते हैं।
उन्होंने अमृत पिलाकर देवताओंको अमर कर दिया और दैत्योंके द्वारा हरण किये हुए उनके
यज्ञभाग उन्हें फिरसे दिला दिये। उन्होंने ही अवतार लेकर संसारमें आयुर्वेदका प्रवर्तन किया ॥२१॥
क्षत्रं क्षयाय विधिनोपभृतं महात्मा ।
ब्रह्मध्रुगुज्झितपथं नरकार्तिलिप्सु ।
उद्धन्त्यसाववनिकण्टकमुग्रवीर्यः ।
त्रिःसप्तकृत्व उरुधारपरश्वधेन ॥ २२ ॥
जब संसारमें ब्राह्मणद्रोही आर्यमर्यादाका उल्लंघन करनेवाले नारकीय क्षत्रिय अपने
नाशके लिये ही दैववश बढ़ जाते हैं और पृथ्वीके काँटे बन जाते हैं, तब भगवान् महापराक्रमी
परशुरामके रूपमें अवतीर्ण होकर अपनी तीखी धारवाले फरसेसे इक्कीस बार उनका संहार करते
हैं ||२२||
अस्मत्प्रसादसुमुखः कलया कलेश ।
इक्ष्वाकुवंश अवतीर्य गुरोर्निदेशे ।
तिष्ठन् वनं सदयितानुज आविवेश ।
यस्मिन् विरुध्य दशकन्धर आर्तिमार्च्छत् ॥ २३ ॥
मायापति भगवान् हमपर अनुग्रह करनेके लिये अपनी कलाओं- भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मणके साथ
श्रीरामके रूपसे इक्ष्वाकुके वंशमें अवतीर्ण होते हैं। इस अवतारमें अपने पिताकी आज्ञाका पालन
करनेके लिये अपनी पत्नी और भाईके साथ वे वनमें निवास करते हैं। उसी समय उनसे विरोध
करके रावण उनके हाथों मरता है ||२३||
यस्मा अदादुदधिरूढभयाङ्गवेपो ।
मार्गं सपद्यरिपुरं हरवद् दिधक्षोः ।
दूरे सुहृन्मथितरोष सुशोणदृष्ट्या ।
तातप्यमानमकरोरगनक्रचक्रः ॥ २४ ॥
त्रिपुर विमानको जलानेके लिये उद्यत शंकरके समान, जिस समय भगवान् राम शत्रुकी नगरी लंकाको भस्म करनेके लिये समुद्रतटपर पहुँचते हैं, उस समय सीताके वियोगके कारण बढ़ी हुई क्रोधाग्निसे उनकी आँखें इतनी लाल हो जाती हैं कि उनकी दृष्टिसे ही समुद्रके मगरमच्छ, साँप और ग्राह आदि जीव जलने लगते हैं और भयसे थर-थर काँपता हुआ समुद्र झटपट उन्हें मार्ग दे देता है ।। २४ ।।
वक्षःस्थलस्पर्शरुग्णमहेन्द्रवाह ।
दन्तैर्विडम्बितककुब्जुष ऊढहासम् ।
सद्योऽसुभिः सह विनेष्यति दारहर्तुः ।
विस्फूर्जितैर्धनुष उच्चरतोऽधि सैन्ये ॥ २५ ॥
जब रावणकी कठोर छातीसे टकराकर इन्द्रके वाहन ऐरावतके दाँत चूर-चूर होकर चारों ओर फैल गये थे, जिससे दिशाएँ सफेद हो गयी थीं, तब दिग्विजयी रावण घमंडसे फूलकर हँसने लगा था। वही रावण जब श्रीरामचन्द्रजीकी पत्नी सीताजीको चुराकर ले जाता है और लड़ाईके मैदानमें उनसे लड़नेके लिये गर्वपूर्वक आता है, तब भगवान् श्रीरामके धनुषकी टंकारसे ही उसका वह घमंड प्राणोंके साथ तत्क्षण विलीन हो जाता है ||२५||
भूमेः सुरेतरवरूथविमर्दितायाः ।
क्लेशव्ययाय कलया सितकृष्णकेशः ।
जातः करिष्यति जनानुपलक्ष्यमार्गः ।
कर्माणि चाऽऽत्ममहिमोपनिबन्धनानि ॥ २६ ॥
जिस समय झुंड के झुंड दैत्य पृथ्वीको रौंद डालेंगे उस समय उसका भार उतारनेके लिये भगवान्
अपने सफेद और काले केशसे बलराम और श्रीकृष्णके रूपमें कलावतार ग्रहण करेंगे।* वे अपनी
महिमाको प्रकट करनेवाले इतने अद्भुत चरित्र करेंगे कि संसारके मनुष्य उनकी लीलाओंका
रहस्य बिलकुल नहीं समझ सकेंगे ||२६||
तोकेन जीवहरणं यदुलूकिकायाः ।
त्रैमासिकस्य च पदा शकटोऽपवृत्तः ।
यद् रिङ्गतान्तरगतेन दिविस्पृशोर्वा ।
उन्मूलनं त्वितरथाऽर्जुनयोर्न भाव्यम् ॥ २७ ॥
बचपनमें ही पूतनाके प्राण हर लेना, तीन महीनेकी अवस्थामें पैर उछालकर बड़ा भारी छकड़ा
उलट देना और घुटनोंके बल चलते-चलते आकाशको छूनेवाले यमलार्जुनवृक्षोंके बीचमें जाकर उन्हें उखाड़ डालना – ये सब ऐसे कर्म हैं, जिन्हें भगवान्के सिवा और कोई नहीं कर सकता ।।२७।।
यद्वै व्रजे व्रजपशून् विषतोयपीतान् ।
पालांस्त्वजीव यदनुग्रहदृष्टिवृष्ट्या ।
तच्छुद्धयेऽतिविषवीर्य विलोलजिह्वम् ।
उच्चाटयिष्यदुरगं विहरन् ह्रदिन्याम् ॥ २८ ॥
उसी दिन रातको जब सब लोग वहीं यमुना-तटपर सो जायँगे और दावाग्निसे आस-पासका मूँजका वन चारों ओरसे जलने लगेगा, तब बलरामजीके साथ वे प्राणसंकटमें पड़े हुए व्रजवासियोंको उनकी आँखें बंद कराकर उस अग्निसे बचा लेंगे। उनकी यह लीला भी अलौकिक ही होगी। उनकी शक्ति वास्तवमें अचिन्त्य है ।। २९ ।।
तत्कर्म दिव्यमिव यन्निशि निःशयानं ।
दावाग्निना शुचिवने परिदह्यमाने ।
उन्नेष्यति व्रजमतोऽवसितान्तकालं ।
नेत्रे पिधाप्य सबलोऽनधिगम्यवीर्यः ॥ २९ ॥
उसी दिन रातको जब सब लोग वहीं यमुना-तटपर सो जायँगे और दावाग्निसे आस-पासका मूँजका वन चारों ओरसे जलने लगेगा, तब बलरामजीके साथ वे प्राणसंकटमें पड़े हुए व्रजवासियोंको उनकी आँखें बंद कराकर उस अग्निसे बचा लेंगे। उनकी यह लीला भी अलौकिक ही होगी। उनकी शक्ति वास्तवमें अचिन्त्य है ।। २९ ।।
गृह्णीत यद् यदुपबन्धममुष्य माता ।
शुल्बं सुतस्य न तु तत् तदमुष्य माति ।
यज्जृम्भतोऽस्य वदने भुवनानि गोपी ।
संवीक्ष्य शंकितमनाः प्रतिबोधिताऽऽसीत् ॥ ३० ॥
उनकी माता उन्हें बाँधनेके लिये जो-जो रस्सी लायेंगी वही उनके उदरमें पूरी नहीं पड़ेगी, दो
अंगुल छोटी ही रह जायगी । तथा जँभाई लेते समय श्रीकृष्णके मुखमें चौदहों भुवन देखकर
पहले तो यशोदा भयभीत हो जायँगी, परन्तु फिर वे सँभल जायँगी ||३०||
नन्दं च मोक्ष्यति भयाद् वरुणस्य पाशात् ।
गोपान् बिलेषु पिहितान् मयसूनुना च ।
अह्न्यापृतं निशि शयानमतिश्रमेण ।
लोकं विकुण्ठ मुपनेष्यति गोकुलं स्म ॥ ३१ ॥
अजगरके भयसे और वरुणके पाशसे छुड़ायेंगे। मय दानवका पुत्र व्योमासुर जब गोपबालोंको
पहाड़की गुफाओंमें बन्द कर देगा, तब वे उन्हें भी वहाँसे बचा लायेंगे। गोकुलके लोगोंको, जो
दिनभर तो काम-धंधों में व्याकुल रहते हैं और रातको अत्यन्त थककर सो जाते हैं, साधनाहीन
होनेपर भी वे अपने परमधाममें ले जायँगे ||३१||
गोपैर्मखे प्रतिहते व्रजविप्लवाय ।
देवेऽभिवर्षति पशून् कृपया रिरक्षुः ।
धर्तोच्छिलीन्ध्रमिव सप्तदिनानि सप्त ।
वर्षो महीध्रमनघैककरे सलीलम् ॥ ३२ ॥
वे नन्दबाबाको निष्पाप नारद! जब श्रीकृष्णकी सलाहसे गोपलोग इन्द्रका यज्ञ बंद कर देंगे, तब इन्द्र व्रजभूमिका नाश करनेके लिये चारों ओरसे मूसलधार वर्षा करने लगेंगे। उससे उनकी तथा उनके पशुओंकी रक्षा करनेके लिये भगवान् कृपापरवश हो सात वर्षकी अवस्थामें ही सात दिनोंतक गोवर्द्धन पर्वतको एक ही हाथसे छत्रकपुष्प (कुकुरमुत्ते) की तरह खेल-खेल में ही धारण किये रहेंगे ||३२||
क्रीडन् वने निशि निशाकररश्मिगौर्यां ।
रासोन्मुखः कलपदायतमूर्च्छितेन ।
उद्दीपितस्मररुजां व्रजभृद्वधूनां ।
हर्तुर्हरिष्यति शिरो धनदानुगस्य ॥ ३३ ॥
वृन्दावनमें विहार करते हुए रास करनेकी इच्छासे वे रातके समय जब चन्द्रमाकी उज्ज्वल चाँदनी
चारों ओर छिटक रही होगी, अपनी बाँसुरीपर मधुर संगीतकी लम्बी तान छेड़ेंगे। उससे
प्रेमविवश होकर आयी हुई गोपियोंको जब कुबेरका सेवक शंखचूड़ हरण करेगा, तब वे उसका
सिर उतार लेंगे ||३३||
ये च प्रलम्बखरदर्दुरकेश्यरिष्ट ।
मल्लेभकंसयवनाः कपिपौण्ड्रकाद्याः ।
अन्ये च शाल्वकुजबल्वलदन्तवक्र ।
सप्तोक्षशम्बरविदूरथ रुक्मिमुख्याः ॥ ३४ ॥
ये वा मृधे समितिशालिन आत्तचापाः ।
काम्बोजमत्स्यकुरुकैकयसृञ्जयाद्याः ।
यास्यन्त्यदर्शनमलं बलपार्थभीम ।
व्याजाह्वयेन हरिणा निलयं तदीयम् ॥ ३५ ॥
और भी बहुत से प्रलम्बासुर, धेनुकासुर, बकासुर, केशी, अरिष्टासुर
आदि दैत्य, चाणूर आदि पहलवान, कुवलयापीड हाथी, कंस, कालयवन, भौमासुर,
मिथ्यावासुदेव, शाल्व, द्विविद वानर, बल्वल, दन्तवक्त्र, राजा नग्नजित्के सात बैल, शम्बरासुर,
विदूरथ और रुक्मी आदि तथा काम्बोज, मत्स्य, कुरु, कैकय और संजय आदि देशोंके राजालोग
एवं जो भी योद्धा धनुष धारण करके युद्धके मैदानमें सामने आयेंगे, वे सब बलराम, भीमसेन
और अर्जुन आदि नामोंकी आड़में स्वयं भगवान्के द्वारा मारे जाकर उन्हींके धाममें चले जायेंगे
।। ३४-३५ ।।
कालेन मीलितधियामवमृश्य नॄणां ।
स्तोकायुषां स्वनिगमो बत दूरपारः ।
आविर्हितस्त्वनुयुगं स हि सत्यवत्यां ।
वेदद्रुमं विटपशो विभजिष्यति स्म ॥ ३६ ॥
समयके फेरसे लोगोंकी समझ कम हो जाती है, आयु भी कम होने लगती है। उस समय जब
भगवान् देखते हैं कि अब ये लोग मेरे तत्त्वको बतलानेवाली वेदवाणीको समझनेमें असमर्थ होते
जा रहे हैं, तब प्रत्येक कल्पमें सत्यवतीके गर्भसे व्यासके रूपमें प्रकट होकर वे वेदरूपी वृक्षका
विभिन्न शाखाओंके रूपमें विभाजन कर देते हैं ||३६||
देवद्विषां निगमवर्त्मनि निष्ठितानां ।
पूर्भिर्मयेन विहिताभिरदृश्यतूर्भिः ।
लोकान् घ्नतां मतिविमोहमतिप्रलोभं ।
वेषं विधाय बहु भाष्यत औपधर्म्यम् ॥ ३७ ॥
देवताओंके शत्रु दैत्यलोग भी वेदमार्गका सहारा लेकर मयदानवके बनाये हुए अदृश्य वेगवाले
नगरोंमें रहकर लोगोंका सत्यानाश करने लगेंगे, तब भगवान् लोगोंकी बुद्धिमें मोह और अत्यन्त
लोभ उत्पन्न करनेवाला वेष धारण करके बुद्धके रूपमें बहुत-से उपधर्मोंका उपदेश करेंगे ।।३७।।
यर्ह्यालयेष्वपि सतां न हरेः कथाः स्युः ।
पाषण्डिनो द्विजजना वृषला नृदेवाः ।
स्वाहा स्वधा वषडिति स्म गिरो न यत्र ।
शास्ता भविष्यति कलेर्भगवान् युगान्ते ॥ ३८ ॥
कलियुगके अन्तमें जब सत्पुरुषोंके घर भी भगवान्की कथा होने में बाधा पड़ने लगेगी; ब्राह्मण,
क्षत्रिय तथा वैश्य पाखण्डी और शूद्र राजा हो जायँगे, यहाँतक कि कहीं भी ‘स्वाहा’, ‘स्वधा’
और ‘वषट्कार’ की ध्वनि – देवता – पितरोंके यज्ञ श्राद्धकी बाततक नहीं सुनायी पड़ेगी, तब
कलियुगका शासन करनेके लिये भगवान् कल्कि अवतार ग्रहण करेंगे ||३८||
सर्गे तपोऽहमृषयो नव ये प्रजेशाः ।
स्थाने च धर्ममखमन्वमरावनीशाः ।
अन्ते त्वधर्महरमन्युवशासुराद्या ।
मायाविभूतय इमाः पुरुशक्तिभाजः ॥ ३९ ॥
जब संसारकी रचनाका समय होता है, तब तपस्या, नौ प्रजापति, मरीचि आदि ऋषि और मेरे
रूपमें; जब सृष्टिकी रक्षाका समय होता है, तब धर्म, विष्णु, मनु, देवता और राजाओंके रूपमें
तथा जब सृष्टिके प्रलयका समय होता है, तब अधर्म, रुद्र तथा क्रोधवश नामके सर्प एवं दैत्य
आदिके रूपमें सर्वशक्तिमान् भगवान्की माया – विभूतियाँ ही प्रकट होती हैं ।। ३९।।
विष्णोर्नु वीर्यगणनां कतमोऽर्हतीह ।
यः पार्थिवान्यपि कविर्विममे रजांसि ।
चस्कम्भ यः स्वरहसास्खलता त्रिपृष्ठं ।
यस्मात् त्रिसाम्यसदनाद् उरुकम्पयानम् ॥ ४० ॥
अपनी प्रतिभाके बलसे पृथ्वीके एक-एक धूलिकणको गिन चुकनेपर भी जगत्में ऐसा कौन पुरुष है, जो
भगवान्की शक्तियोंकी गणना कर सके। जब वे त्रिविक्रम – अवतार लेकर त्रिलोकीको नाप रहे
थे, उस समय उनके चरणोंके अदम्य वेगसे प्रकृतिरूप अन्तिम आवरणसे लेकर सत्यलोकतक सारा
ब्रह्माण्ड काँपने लगा था। तब उन्होंने ही अपनी शक्तिसे उसे स्थिर किया था ||४०||
नान्तं विदाम्यहममी मुनयोऽग्रजास्ते ।
मायाबलस्य पुरुषस्य कुतोऽपरे ये ।
गायन् गुणान् दशशतानन आदिदेवः ।
शेषोऽधुनापि समवस्यति नास्य पारम् ॥ ४१ ॥
समस्त सृष्टिकी रचना और संहार करनेवाली माया उनकी एक शक्ति है। ऐसी-ऐसी अनन्त शक्तियोंके
आश्रय उनके स्वरूपको न मैं जानता हूँ और न वे तुम्हारे बड़े भाई सनकादि ही; फिर दूसरोंका
तो कहना ही क्या है। आदिदेव भगवान् शेष सहस्र मुखसे उनके गुणोंका गायन करते आ रहे हैं;
परन्तु वे अब भी उसके अन्तकी कल्पना नहीं कर सके ||४१ ।।
येषां स एष भगवान् दययेदनन्तः ।
सर्वात्मनाऽश्रितपदो यदि निर्व्यलीकम् ।
ते दुस्तरामतितरन्ति च देवमायां ।
नैषां ममाहमिति धीः श्वशृगालभक्ष्ये ॥ ४२ ॥
जो निष्कपटभावसे अपना सर्वस्व और अपने आपको भी उनके चरणकमलोंमें निछावर कर देते हैं, उनपर वे अनन्तभगवान् स्वयं ही अपनी ओरसे दया करते हैं और उनकी दयाके पात्र ही उनकी दुस्तर मायाका स्वरूप
जानते हैं और उसके पार जा पाते हैं। वास्तवमें ऐसे पुरुष ही कुत्ते और सियारोंके कलेवारूप अपने और पुत्रादिके शरीरमें ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ ऐसा भाव नहीं करते ||४२ ||
वेदाहमङ्ग परमस्य हि योगमायां ।
यूयं भवश्च भगवानथ दैत्यवर्यः ।
पत्नी मनोः स च मनुश्च तदात्मजाश्च ।
प्राचीनबर्हि ऋभुरङ्ग उत ध्रुवश्च ॥ ४३ ॥
प्यारे नारद! परम पुरुषकी उस योगमायाको मैं जानता हूँ तथा तुमलोग, भगवान् शंकर, दैत्यकुल
भूषण प्रह्लाद, शतरूपा, मनु मनुपुत्र प्रियव्रत आदि, प्राचीनबर्हि, ऋभु और ध्रुव भी जानते हैं ||४३||
इक्ष्वाकुरैलमुचुकुन्दविदेहगाधि ।
रघ्वम्बरीषसगरा गयनाहुषाद्याः ।
मान्धात्रलर्कशतधन्वनुरन्तिदेवा ।
देवव्रतो बलिरमूर्त्तरयो दिलीपः ॥ ४४ ॥
सौभर्युतङ्कशिबिदेवलपिप्पलाद ।
सारस्वतोद्धवपराशरभूरिषेणाः ।
येऽन्ये विभीषणहनूमदुपेन्द्रदत्त ।
पार्थार्ष्टिषेणविदुरश्रुतदेव वर्याः ॥ ४५ ॥
इनके सिवा इक्ष्वाकु, पुरूरवा, मुचुकुन्द, जनक, गाधि, रघु, अम्बरीष, सगर, गय, ययाति आदि तथा मान्धाता, अलर्क, शतधन्वा, अनु, रन्तिदेव, भीष्म, बलि अमूर्त्तरय, दिलीप, सौभरि उत्तंक, शिबि, देवल, पिप्पलाद, सारस्वत, उद्धव, पराशर, भूरिषेण एवं विभीषण, हनुमान, शुकदेव, अर्जुन, आर्ष्टिषेण, विदुर और श्रुतदेव आदि महात्मा भी जानते हैं ।। ४४-४५ ।।
ते वै विदन्त्यतितरन्ति च देवमायां ।
स्त्रीशूद्रहूणशबरा अपि पापजीवाः ।
यद्यद्भुतक्रम परायणशीलशिक्षाः ।
तिर्यग्जना अपि किमु श्रुतधारणा ये ॥ ४६ ॥
जिन्हें भगवान् के प्रेमी भक्तोंका-सा स्वभाव बनानेकी शिक्षा मिली है, वे स्त्री, शूद्र,
हूण, भील और पापके कारण पशु-पक्षी आदि योनियोंमें रहनेवाले भी भगवान्की मायाका रहस्य
जान जाते हैं और इस संसारसागरसे सदाके लिये पार हो जाते हैं; फिर जो लोग वैदिक
सदाचारका पालन करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ||४६ ||
शश्वत् प्रशान्तमभयं प्रतिबोधमात्रं ।
शुद्धं समं सदसतः परमात्मतत्त्वम् ।
शब्दो न यत्र पुरुकारकवान् क्रियार्थो ।
माया परैत्यभिमुखे च विलज्जमाना ॥ ४७ ॥
परमात्माका वास्तविक स्वरूप एकरस, शान्त, अभय एवं केवल ज्ञानस्वरूप है। न उसमें मायाका
मल है और न तो उसके द्वारा रची हुई विषमताएँ ही वह सत् और असत् दोनोंसे परे है। किसी
भी वैदिक या लौकिक शब्दकी वहाँतक पहुँच नहीं है। अनेक प्रकारके साधनोंसे सम्पन्न होनेवाले
कर्मोंका फल भी वहाँतक नहीं पहुँच सकता। और तो क्या, स्वयं माया भी उसके सामने नहीं जा
पाती, लजाकर भाग खड़ी होती है ||४७||
तद्वै पदं भगवतः परमस्य पुंसो ।
ब्रह्मेति यद्विदुरजस्रसुखं विशोकम् ।
सध्र्यङ् नियम्य यतयो यमकर्तहेतिं ।
जह्युः स्वराडिव निपानखनित्रमिन्द्रः ॥ ४८ ॥
परमपुरुष भगवान्का वही परमपद है। महात्मालोग उसीका शोकरहित अनन्त आनन्दस्वरूप ब्रह्मके रूपमें साक्षात्कार करते हैं। संयमशील पुरुष उसीमें अपने मनको समाहित करके स्थित हो जाते हैं। जैसे इन्द्र स्वयं मेघरूपसे विद्यमान होनेके कारण जलके लिये कुआँ खोदनेकी कुदाल नहीं रखते वैसे ही वे भेद दूर करनेवाले ज्ञान-
साधनोंको भी छोड़ देते हैं ।४८।।
स श्रेयसामपि विभुर्भगवान् यतोऽस्य ।
भावस्वभावविहितस्य सतः प्रसिद्धिः ।
देहे स्वधातुविगमेऽनुविशीर्यमाणे ।
व्योमेव तत्र पुरुषो न विशीर्यतेऽजः ॥ ४९ ॥
समस्त कर्मोंके फल भी भगवान् ही देते हैं। क्योंकि मनुष्य अपने स्वभावके अनुसार जो शुभकर्म करता है, वह सब उन्हींकी प्रेरणासे होता है। इस शरीरमें रहनेवाले पंचभूतोंके अलग-अलग हो जानेपर जब यह शरीर नष्ट हो जाता है, तब भी इसमें रहनेवाला अजन्मा पुरुष आकाशके समान नष्ट नहीं होता ।।४९ ।।
(अनुष्टुप्)
सोऽयं तेऽभिहितस्तात भगवान् विश्वभावनः ।
समासेन हरेर्नान्यद् अन्यस्मात् सदसच्च यत् ॥ ५० ॥
बेटा नारद! संकल्पसे विश्वकी रचना करनेवाले षडैश्वर्यसम्पन्न श्रीहरिका मैंने तुम्हारे सामने
संक्षेपसे वर्णन किया। जो कुछ कार्य कारण अथवा भाव अभाव है, वह सब भगवानुसे भिन्न नहीं
है। फिर भी भगवान् तो इससे पृथक् भी हैं ही || ५० ।।
इदं भागवतं नाम यन्मे भगवतोदितम् ।
सङ्ग्रहोऽयं विभूतीनां त्वमेतद् विपुली कुरु ॥ ५१ ॥
भगवान् ने मुझे जो उपदेश किया था, वह यही ‘भागवत’ है। इसमें भगवान्की विभूतियोंका संक्षिप्त वर्णन है। तुम इसका विस्तार करो ।। ५१ ।।
राजोवाच
यथा हरौ भगवति नृणां भक्तिर्भविष्यति ।
सर्वात्मन्यखिलाधारे इति सङ्कल्प्य वर्णय ॥ ५२ ॥
जिस प्रकार सबके आश्रय और सर्वस्वरूप भगवान् श्रीहरिमें लोगोंकी प्रेममयी भक्ति हो, ऐसा निश्चय करके इसका वर्णन करो ।। ५२ ।।
मायां वर्णयतोऽमुष्य ईश्वरस्यानुमोदतः ।
शृण्वतः श्रद्धया नित्यं माययाऽऽत्मा न मुह्यति ॥ ५3 ॥
जो पुरुष भगवानकी अचिन्त्य शक्ति मायाका वर्णन या दूसरेके द्वारा किये हुए वर्णनका अनुमोदन करते हैं अथवा श्रद्धाके साथ नित्य श्रवण करते हैं, उनका चित्त मायासे कभी मोहित नहीं होता ।। ५३ ।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कन्धे ब्रह्मनारदसंवादे सप्तमोऽध्यायः
॥ ७ ॥