श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 3 अध्याय 10
10 chapter
श्रीमद्भागवतपुराणम्
अध्यायः १०
विदुर उवाच –
(अनुष्टुप्)
अन्तर्हिते भगवति ब्रह्मा लोकपितामहः ।
प्रजाः ससर्ज कतिधा दैहिकीर्मानसीर्विभुः ॥ १ ॥
विदुरजीने कहा-मुनिवर! भगवान् नारायणके अन्तर्धान हो जानेपर सम्पूर्ण लोकोंके पितामह ब्रह्माजीने अपने देह और मनसे कितने प्रकारकी सृष्टि उत्पन्न की? ||१||
ये च मे भगवन्पृष्टाः त्वय्यर्था बहुवित्तम ।
तान्वदस्वानुपूर्व्येण छिन्धि नः सर्वसंशयान् ॥ २ ॥
भगवन्! इनके सिवा मैंने आपसे और जो-जो बातें पूछी हैं, उन सबका भी क्रमशः वर्णन कीजिये और मेरे सब संशयोंको दूर कीजिये; क्योंकि आप सभी बहुज्ञोंमें श्रेष्ठ हैं ।।२।।
सूत उवाच –
एवं सञ्चोदितस्तेन क्षत्त्रा कौषारवो मुनिः ।
प्रीतः प्रत्याह तान् प्रश्नान् हृदिस्थानथ भार्गव ॥ ३ ॥
सूतजी कहते हैं-शौनकजी! विदुरजीके इस प्रकार पूछनेपर मुनिवर मैत्रेयजी बड़े प्रसन्न हुए और अपने हृदयमें स्थित उन प्रश्नोंका इस प्रकार उत्तर देने लगे ।।३।।
मैत्रेय उवाच –
विरिञ्चोऽपि तथा चक्रे दिव्यं वर्षशतं तपः ।
आत्मनि आत्मानमावेश्य यथाह भगवान् अजः ॥ ४ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा-अजन्मा भगवान् श्रीहरिने जैसा कहा था, ब्रह्माजीने भी उसी प्रकार चित्तको अपने आत्मा श्रीनारायणमें लगाकर सौ दिव्य वर्षोंतक तप किया ||४||
तद् विलोक्याब्जसंभूतो वायुना यदधिष्ठितः ।
पद्मं अम्भश्च तत्काल कृतवीर्येण कम्पितम् ॥ ५ ॥
ब्रह्माजीने देखा कि प्रलयकालीन प्रबल वायुके झकोरोंसे, जिससे वे उत्पन्न हुए हैं तथा जिसपर वे बैठे हुए हैं वह कमल तथा जल काँप रहे हैं ।।५।।
तपसा हि एधमानेन विद्यया चात्मसंस्थया ।
विवृद्धविज्ञानबलो न्यपाद् वायुं सहाम्भसा ॥ ६ ॥
प्रबल तपस्या एवं हृदयमें स्थित आत्मज्ञानसे उनका विज्ञानबल बढ़ गया और उन्होंने जलके साथ वायुको पी लिया ||६||
तद्विलोक्य वियद्व्यापि पुष्करं यदधिष्ठितम् ।
अनेन लोकान्प्राग्लीनान् कल्पितास्मीत्यचिन्तयत् ॥ ७ ॥
फिर जिसपर स्वयं बैठे हुए थे, उस आकाशव्यापी कमलको देखकर उन्होंने विचार किया कि’पूर्वकल्पमें लीन हुए लोकोंको मैं इसीसे रचूँगा’ ||७||
पद्मकोशं तदाविश्य भगवत्कर्मचोदितः ।
एकं व्यभाङ्क्षीदुरुधा त्रिधा भाव्यं द्विसप्तधा ॥ ८ ॥
तब भगवान्के द्वारा सृष्टिकार्यमें नियुक्त ब्रह्माजीने उस कमलकोशमें प्रवेश किया और उस एकके ही भूः, भुवः, स्वः—ये तीन भाग किये, यद्यपि वह कमल इतना बड़ा था कि उसके चौदह भुवन या इससे भी अधिक लोकोंके रूपमें विभाग किये जा सकते थे ।।८।।
एतावान् जीवलोकस्य संस्थाभेदः समाहृतः ।
धर्मस्य ह्यनिमित्तस्य विपाकः परमेष्ठ्यसौ ॥ ९ ॥
जीवोंके भोगस्थानके रूपमें इन्हीं तीन लोकोंका शास्त्रोंमें वर्णन हआ है; जो निष्काम कर्म करनेवाले हैं, उन्हें महः, तपः, जनः और सत्यलोकरूप ब्रह्मलोककी प्राप्ति होती है ।।९।।
विदुर उवाच –
यथात्थ बहुरूपस्य हरेरद्भुतकर्मणः ।
कालाख्यं लक्षणं ब्रह्मन् यथा वर्णय नः प्रभो ॥ १० ॥
विदुरजीने कहा-ब्रह्मन्! आपने अद्भुतकर्मा विश्वरूप श्रीहरिकी जिस काल नामक शक्तिकी बात कही थी, प्रभो! उसका कृपया विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ।।१०।।
मैत्रेय उवाच –
गुणव्यतिकराकारो निर्विशेषोऽप्रतिष्ठितः ।
पुरुषः तदुपादानं आत्मानं लीलयासृजत् ॥ ११ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा-विषयोंका रूपान्तर (बदलना) ही कालका आकार है। स्वयं तो वह निर्विशेष, अनादि और अनन्त है। उसीको निमित्त बनाकर भगवान् खेल-खेलमें अपनेआपको ही सृष्टिके रूपमें प्रकट कर देते हैं ।।११।।
विश्वं वै ब्रह्मतन्मात्रं संस्थितं विष्णुमायया ।
ईश्वरेण परिच्छिन्नं कालेनाव्यक्तमूर्तिना ॥ १२ ॥
पहले यह सारा विश्व भगवान्की मायासे लीन होकर ब्रह्मरूपसे स्थित था। उसीको अव्यक्तमूर्ति कालके द्वारा भगवान्ने पुनः पृथक् रूपसे प्रकट किया है ।।१२।।
यथेदानीं तथाग्रे च पश्चादप्येतदीदृशम् ।
सर्गो नवविधस्तस्य प्राकृतो वैकृतस्तु यः ॥ १३ ॥
यह जगत् जैसा अब है वैसा ही पहले था और भविष्यमें भी वैसा ही रहेगा। इसकी सृष्टि नौ प्रकारकी होती है तथा प्राकृत-वैकृत-भेदसे एक दसवीं सृष्टि और भी है ।।१३।।
कालद्रव्यगुणैरस्य त्रिविधः प्रतिसङ्क्रमः ।
आद्यस्तु महतः सर्गो गुणवैषम्यमात्मनः ॥ १४ ॥
और इसका प्रलय काल, द्रव्य तथा गुणोंके द्वारा तीन प्रकारसे होता है। (अब पहले मैं दस प्रकारकी सृष्टिका वर्णन करता हूँ) पहली सृष्टि महत्तत्त्वकी है। भगवान्की प्रेरणा से सत्त्वादि गुणोंमें विषमता होना ही इसका स्वरूप है ||१४||
द्वितीयस्त्वहमो यत्र द्रव्यज्ञानक्रियोदयः ।
भूतसर्गस्तृतीयस्तु तन्मात्रो द्रव्यशक्तिमान् ॥ १५ ॥
दूसरी सष्टि अहंकारकी है, जिससे पृथ्वी आदि पंचभूत एवं ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियोंकी उत्पत्ति होती है। तीसरी सृष्टि भूतसर्ग है, जिसमें पंचमहाभूतोंको उत्पन्न करनेवाला तन्मात्रवर्ग रहता है ।।१५।।
चतुर्थ ऐन्द्रियः सर्गो यस्तु ज्ञानक्रियात्मकः ।
वैकारिको देवसर्गः पञ्चमो यन्मयं मनः ॥ १६ ॥
चौथी सृष्टि इन्द्रियोंकी है, यह ज्ञान और क्रियाशक्तिसे सम्पन्न होती है। पाँचवीं सृष्टि सात्त्विक अहंकारसे उत्पन्न हुए इन्द्रियाधिष्ठाता देवताओंकी है, मन भी इसी सृष्टिके अन्तर्गत है ।।१६||
षष्ठस्तु तमसः सर्गो यस्त्वबुद्धिकृतः प्रभोः ।
षडिमे प्राकृताः सर्गा वैकृतानपि मे श्रृणु ॥ १७ ॥
छठी सृष्टि अविद्याकी है। इसमें तामिस्र, अन्धतामिस्र, तम, मोह और महामोह-ये पाँच गाँठे हैं। यह जीवोंकी बुद्धिका आवरण और विक्षेप करनेवाली है। ये छः प्राकृत सृष्टियाँ हैं, अब वैकृत सृष्टियोंका भी विवरण सुनो ।।१७।।
रजोभाजो भगवतो लीलेयं हरिमेधसः ।
सप्तमो मुख्यसर्गस्तु षड्विधस्तस्थुषां च यः ॥ १८ ॥
जो भगवान् अपना चिन्तन करनेवालोंके समस्त दुःखोंको हर लेते हैं, यह सारी लीला उन्हीं श्रीहरिकी है। वे ही ब्रह्माके रूपमें रजोगुणको स्वीकार करके जगत्की रचना करते हैं। – छ: प्रकारकी प्राकृत सृष्टियोंके बाद सातवीं प्रधान वैकृत सृष्टि इन छ: प्रकारके स्थावर वृक्षोंकी होती है ।।१८।।
वनस्पत्योषधिलता त्वक्सारा वीरुधो द्रुमाः ।
उत्स्रोतसस्तमःप्राया अन्तःस्पर्शा विशेषिणः ॥ १९ ॥
वनस्पति’, ओषधि, लता, त्वक्सार,४ वीरुध५ और द्रुम इनका संचार नीचे (जड़)-से ऊपरकी ओर होता है, इनमें प्रायः ज्ञानशक्ति प्रकट नहीं रहती, ये भीतर-ही-भीतर केवल स्पर्शका अनुभव करते हैं तथा इनमेंसे प्रत्येकमें कोई विशेष गुण रहता है ||१९||
तिरश्चामष्टमः सर्गः सोऽष्टाविंशद्विधो मतः ।
अविदो भूरितमसो घ्राणज्ञा हृद्यवेदिनः ॥ २० ॥
आठवीं सृष्टि तिर्यग्योनियों (पशु-पक्षियों)-की है। वह अट्ठाईस प्रकारकी मानी जाती है। इन्हें कालका ज्ञान नहीं होता, तमोगुणकी अधिकताके कारण ये केवल खाना-पीना, मैथुन करना, सोना आदि ही जानते हैं, इन्हें सूंघनेमात्रसे वस्तुओंका ज्ञान हो जाता है। इनके हृदयमें विचारशक्ति या दूरदर्शिता नहीं होती ||२०||
गौरजो महिषः कृष्णः सूकरो गवयो रुरुः ।
द्विशफाः पशवश्चेमे अविरुष्ट्रश्च सत्तम ॥ २१ ॥
साधुश्रेष्ठ! इन तिर्यकोंमें गौ, बकरा, भैंसा, कृष्ण-मृग, सूअर, नीलगाय, रुरु नामका मृग, भेड़ और ऊँट–ये द्विशफ (दो खुरोंवाले) पशु कहलाते हैं ||२१||
खरोऽश्वोऽश्वतरो गौरः शरभश्चमरी तथा ।
एते चैकशफाः क्षत्तः श्रृणु पञ्चनखान् पशून् ॥ २२ ॥
गधा, घोड़ा, खच्चर, गौरमग, शरफ और चमरी-ये एकशफ (एक खुरवाले) हैं। अब पाँच नखवाले पशु-पक्षियों के नाम सनो ||२२||
श्वा सृगालो वृको व्याघ्रो मार्जारः शशशल्लकौ ।
सिंहः कपिर्गजः कूर्मो गोधा च मकरादयः ॥ २३ ॥
कत्ता, गीदड, भेडिया, बाघ, बिलाव, खरगोश, साही, सिंह, बंदर, हाथी, कछुआ, गोह और मगर आदि (पशु) हैं ||२३||
कङ्कगृध्रबकश्येन भासभल्लूकबर्हिणः ।
हंससारसचक्राह्व काकोलूकादयः खगाः ॥ २४ ॥
कंक (बगुला), गिद्ध, बटेर, बाज, भास, भल्लूक, मोर, हंस, सारस, चकवा, कौआ और उल्लू आदि उड़नेवाले जीव पक्षी कहलाते हैं ।।२४।।
अर्वाक्स्रोतस्तु नवमः क्षत्तरेकविधो नृणाम् ।
रजोऽधिकाः कर्मपरा दुःखे च सुखमानिनः ॥ २५ ॥
विदुरजी! नवीं सृष्टि मनुष्योंकी है। यह एक ही प्रकारकी है। इसके आहारका प्रवाह ऊपर (मुँह)-से नीचेकी ओर होता है। मनुष्य रजोगुणप्रधान, कर्मपरायण और दुःखरूप विषयोंमें ही सुख माननेवाले होते हैं ।।२५।।
वैकृतास्त्रय एवैते देवसर्गश्च सत्तम ।
वैकारिकस्तु यः प्रोक्तः कौमारस्तूभयात्मकः ॥ २६ ॥
स्थावर, पशु-पक्षी और मनुष्य ये तीनों प्रकारकी सृष्टियाँ तथा आगे कहा जानेवाला देवसर्ग वैकृत सृष्टि हैं तथा जो महत्तत्त्वादिरूप वैकारिक देवसर्ग है, उसकी गणना पहले प्राकृत सृष्टि में की जा चुकी है। इनके अतिरिक्त सनत्कुमार आदि ऋषियोंका जो कौमारसर्ग है, वह प्राकृत-वैकृत दोनों प्रकारका है ।।२६।।
देवसर्गश्चाष्टविधो विबुधाः पितरोऽसुराः ।
गन्धर्वाप्सरसः सिद्धा यक्षरक्षांसि चारणाः ॥ २७ ॥
भूतप्रेतपिशाचाश्च विद्याध्राः किन्नरादयः ।
दशैते विदुराख्याताः सर्गास्ते विश्वसृक्कृताः ॥ २८ ॥
देवता, पितर, असुर, गन्धर्व-अप्सरा, यक्ष-राक्षस, सिद्ध-चारण-विद्याधर, भूत-प्रेतपिशाच और किन्नर-किम्पुरुष-अश्वमुख आदि भेदसे देवसृष्टि आठ प्रकारकी है। विदुरजी! इस प्रकार जगत्कर्ता श्रीब्रह्माजीकी रची हुई यह दस प्रकारकी सृष्टि मैंने तुमसे कही ।।२७-२८।।
अतः परं प्रवक्ष्यामि वंशान् मन्वन्तराणि च ।
एवं रजःप्लुतः स्रष्टा कल्पादिष्वात्मभूर्हरिः ।
सृजत्यमोघसङ्कल्प आत्मैवात्मानमात्मना ॥ २९ ॥
अब आगे मैं वंश और मन्वन्तरादिका वर्णन करूँगा। इस प्रकार सृष्टि करनेवाले सत्यसंकल्प भगवान हरि ही ब्रह्माके रूपसे प्रत्येक कल्पके आदिमें रजोगुणसे व्याप्त होकर स्वयं ही जगत्के रूपमें अपनी ही रचना करते हैं ।।२९।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे दशमोऽध्यायः ।।१०।।