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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 3 अध्याय 19

Spread the Glory of Sri SitaRam!

19 chapter
श्रीमद्भागवतपुराणम्
अध्यायः १९

मैत्रेय उवाच –
अवधार्य विरिञ्चस्य निर्व्यलीकामृतं वचः ।
प्रहस्य प्रेमगर्भेण तदपाङ्‌गेन सोऽग्रहीत् ॥ १ ॥
मैत्रेयजी कहते हैं-विदुरजी! ब्रह्माजीके ये कपटरहित अमृतमय वचन सुनकर भगवानने उनके भोलेपनपर मुसकराकर अपने प्रेमपूर्ण कटाक्षके द्वारा उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली ।।१।।

ततः सपत्‍नं मुखतः चरन्तं अकुतोभयम् ।
जघानोत्पत्य गदया हनौ असुरमक्षजः ॥ २ ॥
सा हता तेन गदया विहता भगवत्करात् ।
विघूर्णित अपतद् रेजे तदद्‍भुतं इवाभवत् ॥ ३ ॥
फिर उन्होंने झपटकर अपने सामने निर्भय विचरते हुए शत्रुकी ठुड्डीपर गदा मारी। किन्तु हिरण्याक्षकी गदासे टकराकर वह गदा भगवान्के हाथसे छूट गयी और चक्कर काटती हई जमीनपर गिरकर सुशोभित हुई। किंतु यह बड़ी अद्भुत-सी घटना हुई ।।२-३।।

स तदा लब्धतीर्थोऽपि न बबाधे निरायुधम् ।
मानयन् स मृधे धर्मं विष्वक्सेनं प्रकोपयन् ॥ ४ ॥
उस समय शत्रुपर वार करनेका अच्छा अवसर पाकर भी हिरण्याक्षने उन्हें निरस्त्र देखकर युद्धधर्मका पालन करते हुए उनपर आक्रमण नहीं किया। उसने भगवान्का क्रोध बढ़ानेके लिये ही ऐसा किया था ।।४।।

गदायां अपविद्धायां हाहाकारे विनिर्गते ।
मानयामास तद् धर्मं सुनाभं चास्मरद्विभुः ॥ ५ ॥
गदा गिर जानेपर और लोगोंका हाहाकार बंद हो जानेपर प्रभुने उसकी धर्मबुद्धिकी प्रशंसा की और अपने सुदर्शनचक्रका स्मरण किया ।।५।।

तं व्यग्रचक्रं दितिपुत्राधमेन स्वपार्षदमुख्येन विषज्जमानम् ।
चित्रा वाचोऽतद्विदां खेचराणां तत्रास्मासन् स्वस्ति तेऽमुं जहीति ॥ ६ ॥
चक्र तुरंत ही उपस्थित होकर भगवान्के हाथमें घूमने लगा। किंतु वे अपने प्रमुख पार्षद दैत्याधम हिरण्याक्षके साथ विशेषरूपसे क्रीडा करने लगे। उस समय उनके प्रभावको न जाननेवाले देवताओंके ये विचित्र वचन सुनायी देने लगे—’प्रभो! आपकी जय हो; इसे और न खेलाइये, शीघ्र ही मार डालिये’ ||६||

स तं निशाम्यात्तरथाङ्‌गमग्रतो व्यवस्थितं पद्मपलाशलोचनम् ।
विलोक्य चामर्ष परिप्लुतेन्द्रियो रुषा स्वदन्तच्छदमादशच्छ्वसन् ॥ ७ ॥
जब हिरण्याक्षने देखा कि कमल-दल-लोचन श्रीहरि उसके सामने चक्र लिये खड़े हैं, तब उसकी सारी इन्द्रियाँ क्रोधसे तिलमिला उठीं और वह लम्बी साँसें लेता हुआ अपने दाँतोंसे होठ चबाने लगा ||७||

(अनुष्टुप्)
करालदंष्ट्रश्चक्षुर्भ्यां सञ्चक्षाणो दहन्निव ।
अभिप्लुत्य स्वगदया हतोऽसीत्याहनद् हरिम् ॥ ८ ॥
उस समय वह तीखी दाढ़ोंवाला दैत्य, अपने नेत्रोंसे इस प्रकार उनकी ओर घूरने लगा मानो वह भगवान्को भस्म कर देगा। उसने उछलकर ‘ले, अब तू नहीं बच सकता’ इस प्रकार ललकारते हुए श्रीहरिपर गदासे प्रहार किया ||८||

पदा सव्येन तां साधो भगवान् यज्ञसूकरः ।
लीलया मिषतः शत्रोः प्राहरद् वातरंहसम् ॥ ९ ॥
आह चायुधमाधत्स्व घटस्व त्वं जिगीषसि ।
इत्युक्तः स तदा भूयः ताडयन् व्यनदद् भृशम् ॥ १० ॥
साधुस्वभाव विदरजी! यज्ञमूर्ति श्रीवराहभगवान्ने शत्रुके देखते-देखते लीलासे ही अपने बायें पैरसे उसकी वह वायुके समान वेगवाली गदा पृथ्वीपर गिरा दी और उससे कहा, ‘अरे दैत्य! तू मुझे जीतना चाहता है, इसलिये अपना शस्त्र उठा ले और एक बार फिर वार कर।’ भगवान्के इस प्रकार कहनेपर उसने फिर गदा चलायी और बड़ी भीषण गर्जना करने लगा ||९-१०||

तां स आपततीं वीक्ष्य भगवान् समवस्थितः ।
जग्राह लीलया प्राप्तां गरुत्मानिव पन्नगीम् ॥ ११ ॥
गदाको अपनी ओर आते देखकर भगवान्ने, जहाँ खड़े थे वहींसे, उसे आते ही अनायास इस प्रकार पकड़ लिया, जैसे गरुड साँपिनको पकड़ ले ।।११।।

स्वपौरुषे प्रतिहते हतमानो महासुरः ।
नैच्छद्‌गदां दीयमानां हरिणा विगतप्रभः ॥ १२ ॥
अपने उद्यमको इस प्रकार व्यर्थ हुआ देख उस महादैत्यका घमंड ठंडा पड़ गया और उसका तेज नष्ट हो गया। अबकी बार भगवान्के देनेपर उसने उस गदाको लेना न चाहा ।।१२।।

जग्राह त्रिशिखं शूलं ज्वलज्ज्वलनलोलुपम् ।
यज्ञाय धृतरूपाय विप्रायाभिचरन् यथा ॥ १३ ॥
किंतु जिस प्रकार कोई ब्राह्मणके ऊपर निष्फल अभिचार (मारणादि प्रयोग) करे-मूठ आदि चलाये, वैसे ही उसने श्रीयज्ञपुरुषपर प्रहार करनेके लिये एक प्रज्वलित अग्निके समान लपलपाता हुआ त्रिशूल लिया ।।१३।।

तदोजसा दैत्यमहाभटार्पितं
चकासदन्तःख उदीर्णदीधिति ।
चक्रेण चिच्छेद निशातनेमिना
हरिर्यथा तार्क्ष्यपतत्रमुज्झितम् ॥ १४ ॥
महाबली हिरण्याक्षका अत्यन्त वेगसे छोड़ा हुआ वह तेजस्वी त्रिशूल आकाशमें बड़ी तेजीसे चमकने लगा। तब भगवान्ने उसे अपनी तीखी धारवाले चक्रसे इस प्रकार काट डाला, जैसे इन्द्रने गरुडजीके छोड़े हुए तेजस्वी पंखको काट डाला था* ||१४।।

वृक्णे स्वशूले बहुधारिणा हरेः
प्रत्येत्य विस्तीर्णमुरो विभूतिमत् ।
प्रवृद्धरोषः स कठोरमुष्टिना
नदन् प्रहृत्यान्तरधीयतासुरः ॥ १५ ॥
भगवान्के चक्रसे अपने त्रिशूलके बहुत-से टुकड़े हुए देखकर उसे बड़ा क्रोध हुआ। उसने पास आकर उनके विशाल वक्षःस्थलपर, जिसपर श्रीवत्सका चिह्न सुशोभित है, कसकर चूसा मारा और फिर बड़े जोरसे गरजकर अन्तर्धान हो गया ।।१५।।

तेनेत्थमाहतः क्षत्तः भगवान् आदिसूकरः ।
नाकम्पत मनाक्क्वापि स्रजा हत इव द्विपः ॥ १६ ॥
विदुरजी! जैसे हाथीपर पुष्पमालाको चोटका कोई असर नहीं होता, उसी प्रकार उसकेइस प्रकार घूसा मारनेसे भगवान् आदिवराह तनिक भी टस-से-मस नहीं हुए ।।१६।।

अथोरुधासृजन् मायां योगमायेश्वरे हरौ ।
यां विलोक्य प्रजास्त्रस्ता मेनिरेऽस्योपसंयमम् ॥ १७ ॥
तब वह महामायावी दैत्य मायापति श्रीहरिपर अनेक प्रकारकी मायाओंका प्रयोग करने लगा, जिन्हें देखकर सभी प्रजा बहुत डर गयी और समझने लगी कि अब संसारका प्रलय होनेवाला है ||१७||

प्रववुर्वायवश्चण्डाः तमः पांसवमैरयन् ।
दिग्भ्यो निपेतुर्ग्रावाणः क्षेपणैः प्रहिता इव ॥ १८ ॥
बड़ी प्रचण्ड आँधी चलने लगी, जिसके कारण धूलसे सब ओर अन्धकार छा गया। सब ओरसे पत्थरोंकी वर्षा होने लगी, जो ऐसे जान पडते थे मानो किसी क्षेपणयन्त्र (गलेल)से फेंके जा रहे हों ।।१८।।

द्यौर्नष्टभगणाभ्रौघैः सविद्युत् स्तनयित्‍नुभिः ।
वर्षद्‌भिः पूयकेशासृग् विण्मूत्रास्थीनि चासकृत् ॥ १९ ॥
बिजलीकी चमचमाहट और कड़कके साथ बादलोंके घिर आनेसे आकाशमें सूर्य, चन्द्र आदि ग्रह छिप गये तथा उनसे निरन्तर पीब, केश, रुधिर, विष्ठा, मूत्र और हड्डियोंकी वर्षा होने लगी ।।१९।।

गिरयः प्रत्यदृश्यन्त नानायुधमुचोऽनघ ।
दिग्वाससो यातुधान्यः शूलिन्यो मुक्तमूर्धजाः ॥ २० ॥
विदुरजी! ऐसे-ऐसे पहाड़ दिखायी देने लगे, जो तरहतरहके अस्त्र-शस्त्र बरसा रहे थे। हाथमें त्रिशूल लिये बाल खोले नंगी राक्षसियाँ दीखने लगीं ||२०||

बहुभिर्यक्षरक्षोभिः पत्त्यश्व रथकुञ्जरैः ।
आततायिभिरुत्सृष्टा हिंस्रा वाचोऽतिवैशसाः ॥ २१ ॥
बहत-से पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथियोंपर चढ़े सैनिकोंके साथ आततायी यक्ष-राक्षसोंका ‘मारो-मारो, काटो-काटो’ ऐसा अत्यन्त क्रूर और हिंसामय कोलाहल सुनायी देने लगा ।।२१।।

प्रादुष्कृतानां मायानां आसुरीणां विनाशयत् ।
सुदर्शनास्त्रं भगवान् प्रायुङ्‌क्त दयितं त्रिपात् ॥ २२ ॥
इस प्रकार प्रकट हुए उस आसुरी माया-जालका नाश करनेके लिये यज्ञमूर्ति भगवान् वराहने अपना प्रिय सुदर्शनचक्र छोड़ा ||२२||

तदा दितेः समभवत् सहसा हृदि वेपथुः ।
स्मरन्त्या भर्तुः आदेशं स्तनात् च असृक् प्रसुस्रुवे ॥ २३ ॥
उस समय अपने पतिका कथन स्मरण हो आनेसे दितिका हृदय सहसा कॉप उठा और उसके स्तनोंसे रक्त बहने लगा ।।२३।।

विनष्टासु स्वमायासु भूयश्चाव्रज्य केशवम् ।
रुषोपगूहमानोऽमुं ददृशेऽवस्थितं बहिः ॥ २४ ॥
अपना माया-जाल नष्ट हो जानेपर वह दैत्य फिर भगवानके पास आया। उसने उन्हें क्रोधसे दबाकर चूर-चूर करनेकी इच्छासे भुजाओंमें भर लिया, किंतु देखा कि वे तो बाहर ही खड़े हैं ||२४।।

तं मुष्टिभिर्विनिघ्नन्तं वज्रसारैः अधोक्षजः ।
करेण कर्णमूलेऽहन् यथा त्वाष्ट्रं मरुत्पतिः ॥ २५ ॥
अब वह भगवान्को वज्रके समान कठोर मुक्कोंसे मारने लगा। तब इन्द्रने जैसे वृत्रासुरपर प्रहार किया था, उसी प्रकार भगवान्ने उसकी कनपटीपर एक तमाचा मारा ||२५||

स आहतो विश्वजिता ह्यवज्ञया परिभ्रमद्‌गात्र उदस्तलोचनः ।
विशीर्णबाह्वङ्‌‌घ्रिशिरोरुहोऽपतद् यथा नगेन्द्रो लुलितो नभस्वता ॥ २६ ॥
विश्वविजयी भगवान्ने यद्यपि बड़ी उपेक्षासे तमाचा मारा था, तो भी उसकी चोटसे हिरण्याक्षका शरीर घूमने लगा, उसके नेत्र बाहर निकल आये तथा हाथ-पैर और बाल छिन्नभिन्न हो गये और वह निष्प्राण होकर आँधीसे उखड़े हुए विशाल वृक्षके समान पृथ्वीपर गिर पड़ा ||२६||

क्षितौ शयानं तमकुण्ठवर्चसं करालदंष्ट्रं परिदष्टदच्छदम् ।
अजादयो वीक्ष्य शशंसुरागता अहो इमं को नु लभेत संस्थितिम् ॥ २७ ॥
हिरण्याक्षका तेज अब भी मलिन नहीं हुआ था। उस कराल दाढ़ोंवाले दैत्यको दाँतोंसे होठ चबाते पृथ्वीपर पड़ा देख वहाँ युद्ध देखनेके लिये आये हए ब्रह्मादि देवता उसकी प्रशंसा करने लगे कि ‘अहो! ऐसी अलभ्य मृत्यु किसको मिल सकती है ||२७||

यं योगिनो योगसमाधिना रहो ध्यायन्ति लिङ्‌गादसतो मुमुक्षया ।
तस्यैष दैत्यऋषभः पदाहतो मुखं प्रपश्यन् तनुमुत्ससर्ज ह ॥ २८ ॥
अपनी मिथ्या उपाधिसे छूटनेके लिये जिनका योगिजन समाधियोगके द्वारा एकान्तमें ध्यान करते हैं, उन्हींके चरण-प्रहारसे उनका मुख देखते-देखते इस दैत्यराजने अपना शरीर त्यागा ||२८||

(अनुष्टुप्)
एतौ तौ पार्षदावस्य शापाद् यातौ असद्‌गतिम् ।
पुनः कतिपयैः स्थानं प्रपत्स्येते ह जन्मभिः ॥ २९ ॥
ये हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु भगवान्के ही पार्षद हैं। इन्हें शापवश यह अधोगति प्राप्त हुई है। अब कुछ जन्मोंमें ये फिर अपने स्थानपर पहुँच जायँगे’ ||२९||

देवा ऊचुः –
नमो नमस्तेऽखिलयज्ञतन्तवे स्थितौ गृहीतामलसत्त्वमूर्तये ।
दिष्ट्या हतोऽयं जगतामरुन्तुदः त्वत् पादभक्त्या वयमीश निर्वृताः ॥ ३० ॥
देवतालोग कहने लगे—प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है। आप सम्पूर्ण यज्ञोंका विस्तार करनेवाले हैं तथा संसारकी स्थितिके लिये शुद्धसत्त्वमय मंगलविग्रह प्रकट करते हैं। बड़े आनन्दकी बात है कि संसारको कष्ट देनेवाला यह दुष्ट दैत्य मारा गया। अब आपके चरणोंकी भक्तिके प्रभावसे हमें भी सुख-शान्ति मिल गयी ।।३०।।

मैत्रेय उवाच –
एवं हिरण्याक्षमसह्यविक्रमं स सादयित्वा हरिरादिसूकरः ।
जगाम लोकं स्वमखण्डितोत्सवं समीडितः पुष्करविष्टरादिभिः ॥ ३१ ॥
मैत्रेयजी कहते हैं-विदुरजी! इस प्रकार महापराक्रमी हिरण्याक्षका वध करके भगवान्आदिवराह अपने अखण्ड आनन्दमय धामको पधार गये। उस समय ब्रह्मादि देवता उनकी स्तुति कर रहे थे ।।३१।।

मया यथानूक्तमवादि ते हरेः कृतावतारस्य सुमित्र चेष्टितम् ।
यथा हिरण्याक्ष उदारविक्रमो महामृधे क्रीडनवन्निराकृतः ॥ ३२ ॥
भगवान् अवतार लेकर जैसी लीलाएँ करते हैं और जिस प्रकार उन्होंने भीषण संग्राममें खिलौनेकी भाँति महापराक्रमी हिरण्याक्षका वध कर डाला, मित्र विदुरजी! वह सब चरित जैसा मैंने गुरुमुखसे सुना था, तुम्हें सुना दिया ।।३२।।

सूत उवाच –
(अनुष्टुप्)
इति कौषारवाख्यातां आश्रुत्य भगवत्कथाम् ।
क्षत्तानन्दं परं लेभे महाभागवतो द्विज ॥ ३३ ॥
सूतजी कहते हैं-शौनकजी! मैत्रेयजीके मुखसे भगवान्की यह कथा सुनकर परम भागवत विदुरजीको बड़ा आनन्द हुआ ||३३।।

अन्येषां पुण्यश्लोकानां उद्दामयशसां सताम् ।
उपश्रुत्य भवेन्मोदः श्रीवत्साङ्‌कस्य किं पुनः ॥ ३४ ॥
जब अन्य पवित्रकीर्ति और परम यशस्वी महापुरुषोंका चरित्र सुननेसे ही बड़ा आनन्द होता है, तब श्रीवत्सधारी भगवान्की ललितललाम लीलाओंकी तो बात ही क्या है ।।३४।।

यो गजेन्द्रं झषग्रस्तं ध्यायन्तं चरणाम्बुजम् ।
क्रोशन्तीनां करेणूनां कृच्छ्रतोऽमोचयद्द्रुतम् ॥ ३५ ॥
तं सुखाराध्यमृजुभिः अनन्यशरणैर्नृभिः ।
कृतज्ञः को न सेवेत दुराराध्यं असाधुभिः ॥ ३६ ॥
जिस समय ग्राहके पकड़नेपर गजराज प्रभुके चरणोंका ध्यान करने लगे और उनकी हथिनियाँ दुःखसे चिग्घाड़ने लगीं, उस समय जिन्होंनेउन्हें तत्काल दुःखसे छुड़ाया और जो सब ओरसे निराश होकर अपनी शरणमें आये हुए सरलहृदय भक्तोंसे सहजमें ही प्रसन्न हो जाते हैं, किंतु दुष्ट पुरुषोंके लिये अत्यन्त दुराराध्य हैं -उनपर जल्दी प्रसन्न नहीं होते, उन प्रभुके उपकारोंको जाननेवाला ऐसा कौन पुरुष है, जो उनका सेवन न करेगा? ||३५-३६।।

यो वै हिरण्याक्षवधं महाद्‍भुतं विक्रीडितं कारणसूकरात्मनः ।
श्रृणोति गायत्यनुमोदतेऽञ्जसा विमुच्यते ब्रह्मवधादपि द्विजाः ॥ ३७ ॥
शौनकादि ऋषियो! पृथ्वीका उद्धार करनेके लिये वराहरूप धारण करनेवाले श्रीहरिकी इस हिरण्याक्ष-वध नामक परम अद्भुत लीलाको जो पुरुष सुनता, गाता अथवा अनुमोदन करता है, वह ब्रह्महत्या-जैसे घोर पापसे भी सहजमें ही छूट जाता हैं ||३७।।

एतन् महापुण्यमलं पवित्रं धन्यं यशस्यं पदमायुराशिषाम् ।
प्राणेन्द्रियाणां युधि शौर्यवर्धनं नारायणोऽन्ते गतिरङ्‌ग श्रृण्वताम् ॥ ३८ ॥
यह चरित्र उत्यन्त पुण्यप्रद परम पवित्र, धन और यशकी प्राप्ति करानेवाला आयुवर्द्धक और कामनाओंकी पूर्ति करनेवाला तथा युद्धमें प्राण और इन्द्रियोंकी शक्ति बढ़ानेवाला है। जो लोग इसे सुनते हैं, उन्हें अन्तमें श्रीभगवान्का आश्रय प्राप्त होता है ।।३८।।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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