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श्रीमद् भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 3 अध्याय 3: विदुरोद्धवसंवाद

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3rd chapter
श्रीमद्भागवतपुराणम्
अध्यायः ३

उद्धव उवाच ।
ततः स आगत्य पुरं स्वपित्रोः चिकीर्षया शं बलदेवसंयुतः ।
निपात्य तुङ्गाद् रिपुयूथनाथं हतं व्यकर्षद् व्यसुमोजसोर्व्याम् ॥ १ ॥
उद्धवजी कहते हैं इसके बाद श्रीकृष्ण अपने माता-पिता देवकी-वसुदेवको सुख पहुँचानेकी इच्छासे बलदेवजीके साथ मथुरा पधारे और उन्होंने शत्रुसमुदायके स्वामी कंसको ऊँचे सिंहासनसे नीचे पटककर तथा उसके प्राण लेकर उसकी लाशको बड़े जोरसे पृथ्वीपर घसीटा ।।१।।

सान्दीपनेः सकृत् प्रोक्तं ब्रह्माधीत्य सविस्तरम् ।
तस्मै प्रादाद् वरं पुत्रं मृतं पञ्चजनोदरात् ॥ २ ॥
सान्दीपनि मुनिके द्वारा एक बार उच्चारण किये हुए सांगोपांग वेदका अध्ययन करके दक्षिणास्वरूप उनके मरे हुए पुत्रको पंचजन नामक राक्षसके पेटसे (यमपुरीसे) लाकर दे दिया ||२||

समाहुता भीष्मककन्यया ये श्रियः सवर्णेन बुभूषयैषाम् ।
गान्धर्ववृत्त्या मिषतां स्वभागं जह्रे पदं मूर्ध्नि दधत्सुपर्णः ॥ ३ ॥
भीष्मकनन्दिनी रुक्मिणीके सौन्दर्यसे अथवा रुक्मीके बुलानेसे जो शिशुपाल और उसके सहायक वहाँ आये हए थे, उनके सिरपर पैर रखकर गान्धर्व विधिके द्वारा विवाह करनेके लिये अपनी नित्यसंगिनी रुक्मिणीको वे वैसे ही हरण कर लाये, जैसे गरुड अमृतकलशको ले आये थे ।।३।।

ककुद्मिनोऽविद्धनसो दमित्वा स्वयंवरे नाग्नजितीमुवाह ।
तद्‍भग्नमानानपि गृध्यतोऽज्ञान् जघ्नेऽक्षतः शस्त्रभृतः स्वशस्त्रैः ॥ ४ ॥
स्वयंवरमें सात बिना नथे हुए बैलोंको नाथकर नाग्नजिती (सत्या)-से विवाह किया। इस प्रकार मानभंग हो जानेपर मूर्ख राजाओंने शस्त्र उठाकर राजकुमारीको छीनना चाहा। तब भगवान् श्रीकृष्णने स्वयं बिना घायल हुए अपने शस्त्रोंसे उन्हें मार डाला ||४||

प्रियं प्रभुर्ग्राम्य इव प्रियाया विधित्सुरार्च्छद् द्युतरुं यदर्थे ।
वज्र्याद्रवत्तं सगणो रुषान्धः क्रीडामृगो नूनमयं वधूनाम् ॥ ५ ॥
भगवान् विषयी पुरुषोंकी-सी लीला करते हुए अपनी प्राणप्रिया सत्यभामाको प्रसन्न करनेकी इच्छासे उनके लिये स्वर्गसे कल्पवृक्ष उखाड़ लाये। उस समय इन्द्रने क्रोधसे अंधे होकर अपने सैनिकोंसहित उनपर आक्रमण कर दिया; क्योंकि वह निश्चय ही अपनी स्त्रियोंका क्रीडामग बना हुआ है ||५||

सुतं मृधे खं वपुषा ग्रसन्तं दृष्ट्वा सुनाभोन्मथितं धरित्र्या ।
आमंत्रितस्तत् तनयाय शेषं दत्त्वा तदन्तःपुरमाविवेश ॥ ६ ॥
अपने विशाल डीलडौलसे आकाशको भी ढक देनेवाले अपने पुत्र भौमासुरको भगवान्के हाथसे मरा हुआ देखकर पृथ्वीने जब उनसे प्रार्थना की, तब उन्होंने भौमासुरके पुत्र भगदत्तको उसका बचा हुआ राज्य देकर उसके अन्तःपुरमें प्रवेश किया ।।६।।

तत्राहृतास्ता नरदेवकन्याः कुजेन दृष्ट्वा हरिमार्तबन्धुम् ।
उत्थाय सद्यो जगृहुः प्रहर्ष व्रीडानुरागप्रहितावलोकैः ॥ ७ ॥
वहाँ भौमासुरद्वारा हरकर लायी हुई बहुत-सी राजकन्याएँ थीं। वे दीनबन्धु श्रीकृष्णचन्द्रको देखते ही खड़ी हो गयीं और सबने महान् हर्ष, लज्जा एवं प्रेमपूर्ण चितवनसे तत्काल ही भगवान्को पतिरूपमें वरण कर लिया ।।७।।

(अनुष्टुप्) आसां मुहूर्त एकस्मिन् नानागारेषु योषिताम् ।
सविधं जगृहे पाणीन् अनुरूपः स्वमायया ॥ ८ ॥
तब भगवान्ने अपनी निजशक्ति योगमायासे उन ललनाओंके अनुरूप उतने ही रूप धारणकर उन सबका अलग-अलग महलोंमें एक ही मुहूर्तमें विधिवत् पाणिग्रहण किया ।।८।।

तास्वपत्यान्यजनयद् आत्मतुल्यानि सर्वतः ।
एकैकस्यां दश दश प्रकृतेर्विबुभूषया ॥ ९ ॥
अपनी लीलाका विस्तार करनेके लिये उन्होंने उनसे प्रत्येकके गर्भसे सभी गुणोंमें अपने ही समान दस-दस पुत्र उत्पन्न किये ।।९।।

कालमागधशाल्वादीन् अनीकै रुन्धतः पुरम् ।
अजीघनत् स्वयं दिव्यं स्वपुंसां तेज आदिशत् ॥ १० ॥
जब कालयवन, जरासन्ध और शाल्वादिने अपनी सेनाओंसे मथुरा और द्वारकापुरीको घेरा था, तब भगवान्ने निजजनोंको अपनी अलौकिक शक्ति देकर उन्हें स्वयं मरवाया था ||१०||

शम्बरं द्विविदं बाणं मुरं बल्वलमेव च ।
अन्यांश्च दन्तवक्रादीन् अवधीत्कांश्च घातयत् ॥ ११ ॥
शम्बर, द्विविद, बाणासुर, मुर, बल्वल तथा दन्तवक्त्र आदि अन्य योद्धाओंमेंसे भी किसीको उन्होंने स्वयं मारा था और किसीको दूसरोंसे मरवाया ।।११।।

अथ ते भ्रातृपुत्राणां पक्षयोः पतितान् नृपान् ।
चचाल भूः कुरुक्षेत्रं येषां आपततां बलैः ॥ १२ ॥
इसके बाद उन्होंने आपके भाई धृतराष्ट्र और पाण्डुके पुत्रोंका पक्ष लेकर आये हुए राजाओंका भी संहार किया, जिनके सेनासहित कुरुक्षेत्रमें पहुँचनेपर पृथ्वीडगमगाने लगी थी ।।१२।।

स कर्णदुःशासनसौबलानां कुमंत्रपाकेन हतश्रियायुषम् ।
सुयोधनं सानुचरं शयानं भग्नोरुमूर्व्यां न ननन्द पश्यन् ॥ १३ ॥
कर्ण, दुःशासन और शकुनिकी खोटी सलाहसे जिसकी आयु और श्री दोनों नष्ट हो चुकी थीं तथा भीमसेनकी गदासे जिसकी जाँघ टूट चुकी थी, उस दुर्योधनको अपने साथियोंके सहित पृथ्वीपर पड़ा देखकर भी उन्हें प्रसन्नता न हई ||१३||

कियान् भुवोऽयं क्षपितोरुभारो यद्द्रोणभीष्मार्जुन भीममूलैः ।
अष्टादशाक्षौहिणिको मदंशैः आस्ते बलं दुर्विषहं यदूनाम् ॥ १४ ॥
वे सोचने लगे -यदि द्रोण, भीष्म, अर्जुन और भीमसेनके द्वारा इस अठारह अक्षौहिणी सेनाका विपुल संहार हो भी गया, तो इससे पृथ्वीका कितना भार हलका हुआ। अभी तो मेरे अंशरूप प्रद्यम्न आदिके बलसे बढ़े हुए यादवोंका दुःसह दल बना ही हआ है ||१४||

मिथो यदैषां भविता विवादो मध्वामदाताम्रविलोचनानाम् ।
नैषां वधोपाय इयानतोऽन्यो मय्युद्यतेऽन्तर्दधते स्वयं स्म ॥ १५ ॥
जब ये मधुपानसे मतवाले हो लाल-लाल आँखें करके आपसमें लड़ने लगेंगे, तब उससे ही इनका नाश होगा। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। असलमें मेरे संकल्प करनेपर ये स्वयं ही अन्तर्धान हो जायँगे ।।१५।।

(अनुष्टुप्) एवं सञ्चिन्त्य भगवान् स्वराज्ये स्थाप्य धर्मजम् ।
नन्दयामास सुहृदः साधूनां वर्त्म दर्शयन् ॥ १६ ॥
यों सोचकर भगवान्ने युधिष्ठिरको अपनी पैतृक राजगद्दीपर बैठाया और अपने सभी सगे-सम्बन्धियोंको सत्पुरुषोंका मार्ग दिखाकर आनन्दित किया ।।१६।।

उत्तरायां धृतः पूरोः वंशः साध्वभिमन्युना ।
स वै द्रौण्यस्त्रसंछिन्नः पुनर्भगवता धृतः ॥ १७ ॥
उत्तराके उदरमें जो अभिमन्युने पूरुवंशका बीज स्थापित किया था, वह भी अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे नष्ट-सा हो चुका था; किन्तु भगवान्ने उसे बचा लिया ।।१७।।

अयाजयद् धर्मसुतं अश्वमेधैस्त्रिभिर्विभुः ।
सोऽपि क्ष्मामनुजै रक्षन् रेमे कृष्णमनुव्रतः ॥ १८ ॥
उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिरसे तीन अश्वमेधयज्ञ करवाये और वे भी श्रीकृष्णके अनुगामी होकर अपने छोटे भाइयोंकी सहायतासे पथ्वीकी रक्षा करते हए बडे आनन्दसे रहने लगे ||१८||

भगवान् अपि विश्वात्मा लोकवेदपथानुगः ।
कामान् सिषेवे द्वार्वत्यां असक्तः साङ्ख्यमास्थितः ॥ १९ ॥
विश्वात्मा श्रीभगवानने भी द्वारकापुरीमें रहकर लोक और वेदकी मर्यादाका पालन करते हुए सब प्रकारके भोग भोगे, किन्तु सांख्ययोगकी स्थापना करनेके लिये उनमें कभी आसक्त नहीं हुए ।।१९।।

स्निग्धस्मितावलोकेन वाचा पीयूषकल्पया ।
चरित्रेणानवद्येन श्रीनिकेतेन चात्मना ॥ २० ॥
इमं लोकममुं चैव रमयन् सुतरां यदून् ।
रेमे क्षणदया दत्त क्षणस्त्रीक्षणसौहृदः ॥ २१ ॥
मधुर मुसकान, स्नेहमयी चितवन, सुधामयी वाणी, निर्मल चरित्र तथा समस्त शोभा और सुन्दरताके निवास अपने श्रीविग्रहसे लोक-परलोक और विशेषतया यादवोंको आनन्दित किया तथा रात्रिमें अपनी प्रियाओंके साथ क्षणिक अनुरागयुक्त होकर समयोचित विहार किया और इस प्रकार उन्हें भी सुख दिया ।।२०-२१।।

तस्यैवं रममाणस्य संवत्सरगणान् बहून् ।
गृहमेधेषु योगेषु विरागः समजायत ॥ २२ ॥
इस तरह बहुत वर्षोंतक विहार करतेकरते उन्हें गृहस्थ-आश्रम-सम्बन्धी भोग-सामग्रियोंसे वैराग्य हो गया ||२२||

दैवाधीनेषु कामेषु दैवाधीनः स्वयं पुमान् ।
को विश्रम्भेत योगेन योगेश्वरमनुव्रतः ॥ २३ ॥
ये भोगसामग्रियाँ ईश्वरके अधीन हैं और जीव भी उन्हींके अधीन है। जब योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णको ही उनसे वैराग्य हो गया तब भक्तियोगके द्वारा उनका अनुगमन करनेवाला भक्त तो उनपर विश्वास ही कैसे करेगा? ।।२३।।

पुर्यां कदाचित् क्रीडद्‌भिः यदुभोजकुमारकैः ।
कोपिता मुनयः शेपुः भगवन् मतकोविदाः ॥ २४ ॥
एक बार द्वारकापुरीमें खेलते हुए यदुवंशी और भोजवंशी बालकोंने खेल-खेलमें कुछ मुनीश्वरोंको चिढ़ा दिया। तब यादवकुलका नाश ही भगवानको अभीष्ट है—यह समझकर उन ऋषियोंने बालकोंको शाप दे दिया ।।२४।।

ततः कतिपयैर्मासैः वृष्णिभोज अन्धकादयः ।
ययुः प्रभासं संहृष्टा रथैर्देवविमोहिताः ॥ २५ ॥
इसके कुछ ही महीने बाद भावीवश वृष्णि, भोज और अन्धकवंशी यादव बड़े हर्षसे रथोंपर चढ़कर प्रभासक्षेत्रको गये ||२५||

तत्र स्नात्वा पितॄन् देवान् ऋषींश्चैव तदम्भसा ।
तर्पयित्वाथ विप्रेभ्यो गावो बहुगुणा ददुः ॥ २६ ॥
वहाँ स्नान करके उन्होंने उस तीर्थके जलसे पितर, देवता और ऋषियोंका तर्पण किया तथा ब्राह्मणोंको श्रेष्ठ गौएँ दी ||२६||

हिरण्यं रजतं शय्यां वासांस्यजिनकम्बलान् ।
यानं रथानिभान् कन्या धरां वृत्तिकरीमपि ॥ २७ ॥
अन्नं चोरुरसं तेभ्यो दत्त्वा भगवदर्पणम् ।
गोविप्रार्थासवः शूराः प्रणेमुर्भुवि मूर्धभिः ॥ २८ ॥
उन्होंने सोना, चाँदी, शय्या, वस्त्र, मृगचर्म, कम्बल, पालकी, रथ, हाथी, कन्याएँ और ऐसी भूमि जिससे जीविका चल सके तथा नाना प्रकारके सरस अन्न भी भगवदर्पण करके ब्राह्मणोंको दिये। इसके पश्चात् गौ और ब्राह्मणोंके लिये ही प्राण धारण करनेवाले उन वीरोंने पृथ्वीपर सिर टेककर उन्हें प्रणाम किया ।।२७-२८।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे तृतीयोऽध्यायः ।।३।।


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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