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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 3 अध्याय 5

Spread the Glory of Sri SitaRam!

5th chapter
श्रीमद्भागवतपुराणम्
अध्यायः ५

श्रीशुक उवाच –
द्वारि द्युनद्या ऋषभः कुरूणां मैत्रेयमासीनमगाधबोधम् ।
क्षत्तोपसृत्याच्युतभावसिद्धः पप्रच्छ सौशील्यगुणाभितृप्तः ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परमज्ञानी मैत्रेय मुनि (हरिद्वारक्षेत्रमें) विराजमान थे। भगवद्भक्तिसे शुद्ध हुए हृदयवाले विदुरजी उनके पास जा पहुंचे और उनके साधुस्वभावसे आप्यायित होकर उन्होंने पूछा ।।१।।।

विदुर उवाच –
सुखाय कर्माणि करोति लोको न तैः सुखं वान्यदुपारमं वा ।
विन्देत भूयस्तत एव दुःखं यदत्र युक्तं भगवान् वदेन्नः ॥ २ ॥
विदुरजीने कहा-भगवन्! संसारमें सब लोग सुखके लिये कर्म करते हैं; परन्तु उनसे न तो उन्हें सुख ही मिलता है और न उनका दुःख ही दूर होता है, बल्कि उससे भी उनके दुःखकी वृद्धि ही होती है। अतः इस विषयमें क्या करना उचित है, यह आप मुझे कृपा करके बतलाइये ।।२।।

जनस्य कृष्णाद् विमुखस्य दैवाद् अधर्मशीलस्य सुदुःखितस्य ।
अनुग्रहायेह चरन्ति नूनं भूतानि भव्यानि जनार्दनस्य ॥ ३ ॥
जो लोग दुर्भाग्यवश भगवान् श्रीकृष्णसे विमुख, अधर्मपरायण और अत्यन्त दःखी हैं, उनपर कृपा करनेके लिये ही आप-जैसे भाग्यशाली भगवद्भक्त संसारमें विचरा करते हैं ||३||

तत्साधुवर्यादिश वर्त्म शं नः संराधितो भगवान् येन पुंसाम् ।
हृदि स्थितो यच्छति भक्तिपूते ज्ञानं सतत्त्वाधिगमं पुराणम् ॥ ४ ॥
साधुशिरोमणे! आप मुझे उस शान्तिप्रद साधनका उपदेश दीजिये, जिसके अनुसार आराधना करनेसे भगवान् अपने भक्तोंके भक्तिपूत हृदयमें आकर विराजमान हो जाते हैं और अपने स्वरूपका अपरोक्ष अनुभव करानेवाला सनातन ज्ञान प्रदान करते हैं ।।४।।

करोति कर्माणि कृतावतारो यान्यात्मतंत्रो भगवान् त्र्यधीशः ।
यथा ससर्जाग्र इदं निरीहः संस्थाप्य वृत्तिं जगतो विधत्ते ॥ ५ ॥
यथा पुनः स्वे ख इदं निवेश्य शेते गुहायां स निवृत्तवृत्तिः ।
योगेश्वराधीश्वर एक एतद् अनुप्रविष्टो बहुधा यथाऽऽसीत् ॥ ६ ॥
त्रिलोकीके नियन्ता और परम स्वतन्त्र श्रीहरि अवतार लेकर जो-जो लीलाएँ करते हैं; जिस प्रकार अकर्ता होकर भी उन्होंने कल्पके आरम्भमें इस सृष्टिकी रचना की, जिस प्रकार इसे स्थापित कर वे जगत्के जीवोंकी जीविकाका विधान करते हैं, फिर जिस प्रकार इसे अपने हृदयाकाशमें लीनकर वृत्तिशून्य हो योगमायाका आश्रय लेकर शयन करते हैं और जिस प्रकार वे योगेश्वरेश्वर प्रभु एक होनेपर भी इस ब्रह्माण्डमें अन्तर्यामीरूपसे अनुप्रविष्ट होकर अनेकों रूपोंमें प्रकट होते हैं वह सब रहस्य आप हमें समझाइये ।।५-६।।

क्रीडन् विधत्ते द्विजगोसुराणां क्षेमाय कर्माण्यवतारभेदैः ।
मनो न तृप्यत्यपि शृण्वतां नः सुश्लोकमौलेश्चरितामृतानि ॥ ७ ॥
ब्राह्मण, गौ और देवताओंके कल्याणके लिये जो अनेकों अवतार धारण करके लीलासे ही नाना प्रकारके दिव्य कर्म करते हैं, वे भी हमें सुनाइये। यशस्वियोंके मुकुटमणि श्रीहरिके लीलामृतका पान करते-करते हमारा मन तृप्त नहीं होता ।।७।।।

यैस्तत्त्वभेदैः अधिलोकनाथो लोकानलोकान् सह लोकपालान् ।
अचीकॢपद्यत्र हि सर्वसत्त्व निकायभेदोऽधिकृतः प्रतीतः ॥ ८ ॥
हमें यह भी सुनाइये कि उन समस्त लोकपतियोंके स्वामी श्रीहरिने इन लोकों, लोकपालों और लोका-लोक-पर्वतसे बाहरके भागोंको, जिनमें ये सब प्रकारके प्राणियोंके अधिकारानुसार भिन्न-भिन्न भेद प्रतीत हो रहे हैं, किन तत्त्वोंसे रचा है ।।८।।

येन प्रजानामुत आत्मकर्म रूपाभिधानां च भिदां व्यधत्त ।
नारायणो विश्वसृगात्मयोनिः एतच्च नो वर्णय विप्रवर्य ॥ ९ ॥
परावरेषां भगवन् व्रतानि श्रुतानि मे व्यासमुखादभीक्ष्णम् ।
अतृप्नुम क्षुल्लसुखावहानां तेषामृते कृष्णकथामृतौघात् ॥ १० ॥
द्विजवर! उन विश्वकर्ता स्वयम्भू श्रीनारायणने अपनी प्रजाके स्वभाव, कर्म, रूप और नामोंके भेदकी किस प्रकार रचना की है? भगवन्! मैंने श्रीव्यासजीके मुखसे ऊँच-नीच वर्गों के धर्म तो कई बार सुने हैं। किन्तु अब श्रीकृष्णकथामृतके प्रवाहको छोड़कर अन्य स्वल्प-सुखदायक धर्मोंसे मेरा चित्त ऊब गया है ।।९-१०।।

कस्तृप्नुयात्तीर्थपदोऽभिधानात् सत्रेषु वः सूरिभिरीड्यमानात् ।
यः कर्णनाडीं पुरुषस्य यातो भवप्रदां गेहरतिं छिनत्ति ॥ ११ ॥
उन तीर्थपाद श्रीहरिके गुणानुवादसे तृप्त हो भी कौन सकता है। उनका तो नारदादि महात्मागण भी आप-जैसे साधुओंके समाजमें कीर्तन करते हैं तथा जब ये मनुष्योंके कर्णरन्ध्रों में प्रवेश करते हैं, तब उनकी संसारचक्रमें डालनेवाली घर-गृहस्थीकी आसक्तिको काट डालते हैं ।।११।।

मुनिर्विवक्षुर्भगवद्‍गुणानां सखापि ते भारतमाह कृष्णः ।
यस्मिन् नृणां ग्राम्यसुखानुवादैः मतिर्गृहीता नु हरेः कथायाम् ॥ १२ ॥
भगवन्! आपके सखा मुनिवर कृष्णद्वैपायनने भीभगवान्के गुणोंका वर्णन करनेकी इच्छासे ही महाभारत रचा है। उसमें भी विषयसुखोंका उल्लेख करते हुए मनुष्योंकी बुद्धिको भगवान्की कथाओंकी ओर लगानेका ही प्रयत्न किया गया है ।।१२।।

सा श्रद्दधानस्य विवर्धमाना विरक्तिमन्यत्र करोति पुंसः ।
हरेः पदानुस्मृतिनिर्वृतस्य समस्तदुःखाप्ययमाशु धत्ते ॥ १३ ॥
यह भगवत्कथाकी रुचि श्रद्धालु पुरुषके हृदयमें जब बढ़ने लगती है, तब अन्य विषयोंसे उसे विरक्त कर देती है। वह भगवच्चरणोंके निरन्तर चिन्तनसे आनन्दमग्न हो जाता है और उस पुरुषके सभी दुःखोंका तत्काल अन्त हो जाता है ||१३||

तान् शोच्यशोच्यान् अविदोऽनुशोचे हरेः कथायां विमुखानघेन ।
क्षिणोति देवोऽनिमिषस्तु येषां आयुर्वृथावादगतिस्मृतीनाम् ॥ १४ ॥
मुझे तो उन शोचनीयोंके भी शोचनीय अज्ञानी पुरुषोंके लिये निरन्तर खेद रहता है, जो अपने पिछले पापोंके कारण श्रीहरिकी कथाओंसे विमुख रहते हैं। हाय! कालभगवान् उनके अमूल्य जीवनको काट रहे हैं और वे वाणी, देह और मनसे व्यर्थ वाद-विवाद, व्यर्थ चेष्टा और व्यर्थ चिन्तनमें लगे रहते हैं ||१४||

तदस्य कौषारव शर्मदातुः हरेः कथामेव कथासु सारम् ।
उद्धृत्य पुष्पेभ्य इवार्तबन्धो शिवाय नः कीर्तय तीर्थकीर्तेः ॥ १५ ॥
मैत्रेयजी! आप दीनोंपर कृपा करनेवाले हैं; अतः भौंरा जैसे फूलोंमेंसे रस निकाल लेता है, उसी प्रकार इन लौकिक कथाओंमेंसे इनकी सारभूता परम कल्याणकारी पवित्र-कीर्ति श्रीहरिकी कथाएँ छाँटकर हमारे कल्याणके लिये सुनाइये ।।१५।।

स विश्वजन्मस्थितिसंयमार्थे कृतावतारः प्रगृहीतशक्तिः ।
चकार कर्माण्यतिपूरुषाणि यानीश्वरः कीर्तय तानि मह्यम् ॥ १६ ॥
उन सर्वेश्वरने संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेके लिये अपनी मायाशक्तिको स्वीकार कर राम-कृष्णादि अवतारोंके द्वारा जो अनेकों अलौकिक लीलाएँ की हैं, वे सब मुझे सुनाइये ||१६||

श्रीशुक उवाच –
(अनुष्टुप्)
स एवं भगवान् पृष्टः क्षत्त्रा कौषारविर्मुनिः ।
पुंसां निःश्रेयसार्थेन तमाह बहु मानयन् ॥ १७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-जब विदुरजीने जीवोंके कल्याणके लिये इस प्रकार प्रश्न किया, तब तो मुनिश्रेष्ठ भगवान् मैत्रेयजीने उनकी बहुत बड़ाई करते हुए यों कहा ।।१७।।

मैत्रेय उवाच –
साधु पृष्टं त्वया साधो लोकान् साधु अनुगृह्णता ।
कीर्तिं वितन्वता लोके आत्मनोऽधोक्षजात्मनः ॥ १८ ॥
श्रीमैत्रेयजी बोले-साधुस्वभाव विदुरजी! आपने सब जीवोंपर अत्यन्त अनुग्रह करके यह बड़ी अच्छी बात पूछी है। आपका चित्त तो सर्वदा श्रीभगवान्में ही लगा रहता है, तथापि इससे संसारमें भी आपका बहत सुयश फैलेगा ||१८||

नैतच्चित्रं त्वयि क्षत्तः बादरायणवीर्यजे ।
गृहीतोऽनन्यभावेन यत्त्वया हरिरीश्वरः ॥ १९ ॥
आप श्रीव्यासजीके औरस पुत्र हैं; इसलिये आपके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि आप अनन्यभावसे सर्वेश्वर श्रीहरिके ही आश्रित हो गये हैं ।।१९।।

माण्डव्यशापाद् भगवान् प्रजासंयमनो यमः ।
भ्रातुः क्षेत्रे भुजिष्यायां जातः सत्यवतीसुतात् ॥ २० ॥
आप प्रजाको दण्ड देनेवाले भगवान् यम ही हैं। माण्डव्य ऋषिका शाप होनेके कारण ही आपने श्रीव्यासजीके वीर्यसे उनके भाई विचित्रवीर्यकी भोगपत्नी दासीके गर्भसे जन्म लिया है ।।२०।।

भवान् भगवतो नित्यं सम्मतः सानुगस्य ह ।
यस्य ज्ञानोपदेशाय माऽऽदिशद्‍भगवान् व्रजन् ॥ २१ ॥
आप सर्वदा ही श्रीभगवान् और उनके भक्तोंको अत्यन्त प्रिय हैं; इसीलिये भगवान् निजधाम पधारते समय मुझे आपको ज्ञानोपदेश करनेकी आज्ञा दे गये हैं ।।२१।।

अथ ते भगवल्लीला योगमायोरुबृंहिताः ।
विश्वस्थिति उद्‌भवान्तार्था वर्णयामि अनुपूर्वशः ॥ २२ ॥
इसलिये अब मैं जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और लयके लिये योगमायाके द्वारा विस्तारित हुई भगवान्की विभिन्न लीलाओंका क्रमशः वर्णन करता हूँ ।।२२।।

भगवान् एक आसेदं अग्र आत्माऽऽत्मनां विभुः ।
आत्मेच्छानुगतावात्मा नानामत्युपलक्षणः ॥ २३ ॥
सृष्टिरचनाके पूर्व समस्त आत्माओंके आत्मा एक पूर्ण परमात्मा ही थे—न द्रष्टा था न दृश्य! सृष्टिकालमें अनेक वृत्तियोंके भेदसे जो अनेकता दिखायी पड़ती है, वह भी वही थे; क्योंकि उनकी इच्छा अकेले रहनेकी थी ||२३||

स वा एष तदा द्रष्टा नापश्यद् दृश्यमेकराट् ।
मेनेऽसन्तमिवात्मानं सुप्तशक्तिः असुप्तदृक् ॥ २४ ॥
वे ही द्रष्टा होकर देखने लगे, परन्त उन्हें दृश्य दिखायी नहीं पड़ा; क्योंकि उस समय वे ही अद्वितीय रूपसे प्रकाशित हो रहे थे। ऐसी अवस्थामें वे अपनेको असत्के समान समझने लगे। वस्तुतः वे असत् नहीं थे, क्योंकि उनकी शक्तियाँ ही सोयी थीं। उनके ज्ञानका लोप नहीं हुआ था ।।२४।।

सा वा एतस्य संद्रष्टुः शक्तिः सद् असदात्मिका ।
माया नाम महाभाग ययेदं निर्ममे विभुः ॥ २५ ॥
यह द्रष्टा और दृश्यका अनुसन्धान करनेवाली शक्ति ही–कार्यकारणरूपा माया है। महाभाग विदुरजी! इस भावाभावरूप अनिर्वचनीय मायाके द्वारा ही भगवान्ने इस विश्वका निर्माण किया है ||२५||

कालवृत्त्या तु मायायां गुणमय्यामधोक्षजः ।
पुरुषेणात्मभूतेन वीर्यमाधत्त वीर्यवान् ॥ २६ ॥
कालशक्तिसे जब यह त्रिगुणमयी माया क्षोभको प्राप्त हुई, तब उन इन्द्रियातीत चिन्मय परमात्माने अपने अंश पुरुषरूपसे उसमें चिदाभासरूप बीज स्थापित किया ।।२६।।

ततोऽभवन् महत्तत्त्वं अव्यक्तात् कालचोदितात् ।
विज्ञानात्माऽऽत्मदेहस्थं विश्वं व्यञ्जन् तमोनुदः ॥ २७ ॥
तब कालकी प्रेरणासे उस अव्यक्त मायासे महत्तत्त्व प्रकट हुआ। वह मिथ्याअज्ञानका नाशक होनेके कारण विज्ञानस्वरूप और अपनेमें सूक्ष्मरूपसे स्थित प्रपंचकी अभिव्यक्ति करनेवाला था ।।२७।।

सोऽप्यंशगुणकालात्मा भगवद् दृष्टिगोचरः ।
आत्मानं व्यकरोद् आत्मा विश्वस्यास्य सिसृक्षया ॥ २८ ॥
फिर चिदाभास, गुण और कालके अधीन उस महत्तत्त्वने भगवानकी दष्टि पडनेपर इस विश्वकी रचनाके लिये अपना रूपान्तर किया ||२८||

महत्तत्त्वाद् विकुर्वाणाद् अहंतत्त्वं व्यजायत ।
कार्यकारणकर्त्रात्मा भूतेन्द्रियमनोमयः ॥ २९ ॥
महत्तत्त्वके विकृत होनेपर अहंकारकी उत्पत्ति हुई—जो कार्य (अधिभूत), कारण (अध्यात्म) और कर्ता (अधिदैव) रूप होनेके कारण भूत, इन्द्रिय और मनका कारण है ||२९||

वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिधा ।
अहंतत्त्वाद् विकुर्वाणात् मनो वैकारिकात् अभूत् ।
वैकारिकाश्च ये देवा अर्थाभिव्यञ्जनं यतः ॥ ३० ॥
वह अहंकार वैकारिक (सात्त्विक), तैजस (राजस) और तामस-भेदसे तीन प्रकारका है; अतः अहंतत्त्वमें विकार होनेपर वैकारिक अहंकारसे मन और जिनसे विषयोंका ज्ञान होता है वे इन्द्रियोंके अधिष्ठाता देवता हुए ।।३०।।

तैजसानि इन्द्रियाण्येव ज्ञानकर्ममयानि च ।
तामसो भूतसूक्ष्मादिः यतः खं लिङ्गमात्मनः ॥ ३१ ॥
तैजस अहंकारसे ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ हईं तथा तामस अहंकारसे सूक्ष्म भूतोंका कारण शब्द-तन्मात्र हुआ और उससे दृष्टान्तरूपसे आत्माका बोध करानेवाला आकाश उत्पन्न हआ ||३१||

कालमायांशयोगेन भगवद् वीक्षितं नभः ।
नभसोऽनुसृतं स्पर्शं विकुर्वन् निर्ममेऽनिलम् ॥ ३२ ॥
भगवानकी दृष्टि जब आकाशपर पड़ी, तब उससे फिर काल, माया और चिदाभासके योगसे स्पर्शतन्मात्र हुआ और उसके विकृत होनेपर उससे वायुकी उत्पत्ति हुई ||३२||

अनिलोऽपि विकुर्वाणो नभसोरुबलान्वितः ।
ससर्ज रूपतन्मात्रं ज्योतिर्लोकस्य लोचनम् ॥ ३३ ॥
अत्यन्त बलवान् वायुने आकाशके सहित विकृत होकर रूपतन्मात्रकी रचना की और उससे संसारका प्रकाशक तेज उत्पन्न हुआ ||३३||

अनिलेन अन्वितं ज्योतिः विकुर्वत् परवीक्षितम् ।
आधत्ताम्भो रसमयं कालमायांशयोगतः ॥ ३४ ॥
फिर परमात्माकी दृष्टि पड़नेपर वायुयुक्त तेजने काल, माया और चिदंशके योगसे विकृत होकर रसतन्मात्रके कार्य जलको उत्पन्न किया ||३४||

ज्योतिषाम्भोऽनुसंसृष्टं विकुर्वद् ब्रह्मवीक्षितम् ।
महीं गन्धगुणां आधात् कालमायांशयोगतः ॥ ३५ ॥
तदनन्तर तेजसे युक्त जलने ब्रह्मका दृष्टिपात होनेपर काल, माया और चिदंशके योगसे गन्धगुणमयी पृथ्वीको उत्पन्न किया ।।३५।।

भूतानां नभआदीनां यद् यद् यद् भव्यावरावरम् ।
तेषां परानुसंसर्गाद् यथा सङ्ख्यं गुणान् विदुः ॥ ३६ ॥
विदुरजी! इन आकाशादि भूतोंमेंसे जो-जो भूत पीछे-पीछे उत्पन्न हुए हैं, उनमें क्रमशः अपने पूर्व-पूर्व भूतोंके गुण भी अनुगत समझने चाहिये ।।३६।।

एते देवाः कला विष्णोः कालमायांशलिङ्‌गिनः ।
नानात्वात् स्वक्रियानीशाः प्रोचुः प्राञ्जलयो विभुम् ॥ ३७ ॥
ये महत्तत्त्वादिके अभिमानी विकार, विक्षेप और चेतनांशविशिष्ट देवगण श्रीभगवान्के ही अंश हैं किन्तु पृथक्-पृथक् रहनेके कारण जब वे विश्वरचनारूप अपने कार्यमें सफल नहीं हुए, तब हाथ जोड़कर भगवान्से कहने लगे ||३७।।

देवा ऊचुः –
नमाम ते देव पदारविन्दं प्रपन्नतापोपशमातपत्रम् ।
यन्मूलकेता यतयोऽञ्जसोरु संसारदुःखं बहिरुत्क्षिपन्ति ॥ ३८ ॥
देवताओंने कहा-देव! हम आपके चरण-कमलोंकी वन्दना करते हैं। ये अपनी शरणमें आये हए जीवोंका ताप दूर करनेके लिये छत्रके समान हैं तथा इनका आश्रय लेनेसे यतिजन अनन्त संसारदुःखको सुगमतासे ही दूर फेंक देते हैं ||३८||

धातर्यदस्मिन् भव ईश जीवाः तापत्रयेणाभिहता न शर्म ।
आत्मन्लभन्ते भगवंस्तवाङ्‌घ्रि च्छायां सविद्यामत आश्रयेम ॥ ३९ ॥
जगत्कर्ता जगदीश्वर! इस संसारमें तापत्रयसे व्याकुल रहनेके कारण जीवोंको जरा भी शान्ति नहीं मिलती। इसलिये भगवन्! हम आपके चरणोंकी ज्ञानमयी छायाका आश्रय लेते हैं ||३९||

मार्गन्ति यत्ते मुखपद्मनीडै- श्छन्दःसुपर्णैः ऋषयो विविक्ते ।
यस्याघमर्षोदसरिद्वरायाः पदं पदं तीर्थपदः प्रपन्नाः ॥ ४० ॥
मुनिजन एकान्त स्थानमें रहकर आपके मुखकमलका आश्रय लेनेवाले वेदमन्त्ररूप पक्षियों के द्वारा जिनका अनुसन्धान करते रहते हैं तथा जो सम्पूर्ण पापनाशिनी नदियोंमें श्रेष्ठ श्रीगंगाजीके उद्गमस्थान हैं, आपके उन परम पावन पादपद्मोंका हम आश्रय लेते हैं ।।४०।।

यत् श्रद्धया श्रुतवत्या च भक्त्या सम्मृज्यमाने हृदयेऽवधाय ।
ज्ञानेन वैराग्यबलेन धीरा व्रजेम तत्तेऽङ्‌घ्रिसरोजपीठम् ॥ ४१ ॥
हम आपके चरणकमलोंकी उस चौकीका आश्रय ग्रहण करते हैं, जिसे भक्तजन श्रद्धा और श्रवणकीर्तनादिरूप भक्तिसे परिमार्जित अन्तःकरणमें धारण करके वैराग्यपुष्ट ज्ञानके द्वारा परम धीर हो जाते हैं ।।४१।।

विश्वस्य जन्मस्थितिसंयमार्थे कृतावतारस्य पदाम्बुजं ते ।
व्रजेम सर्वे शरणं यदीश स्मृतं प्रयच्छत्यभयं स्वपुंसाम् ॥ ४२ ॥
ईश! आप संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारके लिये ही अवतार लेते हैं; अतः हम सब आपके उन चरणकमलोंकी शरण लेते हैं, जो अपना स्मरण करनेवालेभक्तजनोंको अभय कर देते हैं ।।४२।।

यत्सानुबन्धेऽसति देहगेहे ममाहं इति ऊढ दुराग्रहाणाम् ।
पुंसां सुदूरं वसतोऽपि पुर्यां भजेम तत्ते भगवन् पदाब्जम् ॥ ४३ ॥
जिन पुरुषोंका देह, गेह तथा उनसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य तुच्छ पदार्थों में अहंता, ममताका दृढ़ दुराग्रह है, उनके शरीरमें (आपके अन्तर्यामीरूपसे) रहनेपर भी जो अत्यन्त दूर हैं; उन्हीं आपके चरणारविन्दोंको हम भजते हैं ।।४३।।

तान् वै ह्यसद्‌वृत्तिभिरक्षिभिर्ये पराहृतान्तर्मनसः परेश ।
अथो न पश्यन्ति उरुगाय नूनं ये ते पदन्यासविलासलक्ष्याः ॥ ४४ ॥
परम यशस्वी परमेश्वर! इन्द्रियोंके विषयाभिमुख रहनेके कारण जिनका मन सर्वदा बाहर ही भटका करता है, वे पामरलोग आपके विलासपूर्ण पादविन्यासकी शोभाके विशेषज्ञ भक्तजनोंका दर्शन नहीं कर पाते; इसीसे वे आपके चरणोंसे दूर रहते हैं ।।४४।।

पानेन ते देव कथासुधायाः प्रवृद्धभक्त्या विशदाशया ये ।
वैराग्यसारं प्रतिलभ्य बोधं यथाञ्जसान् वीयुरकुण्ठधिष्ण्यम् ॥ ४५ ॥
देव! आपके कथामृतका पान करनेसे उमड़ी हुई भक्तिके कारण जिनका अन्तःकरण निर्मल हो गया है, वे लोग-वैराग्य ही जिसका सार है—ऐसा आत्मज्ञान प्राप्त करके अनायास ही आपके वैकुण्ठधामको चले जाते हैं ।।४५।।

तथापरे चात्मसमाधियोग बलेन जित्वा प्रकृतिं बलिष्ठाम् ।
त्वामेव धीराः पुरुषं विशन्ति तेषां श्रमः स्यान्न तु सेवया ते ॥ ४६ ॥
दूसरे धीर पुरुष चित्तनिरोधरूप समाधिके बलसे आपकी बलवती मायाको जीतकर आपमें ही लीन तो हो जाते हैं, पर उन्हें श्रम बहुत होता है; किन्तु आपकी सेवाके मार्गमें कुछ भी कष्ट नहीं है ।।४६||

तत्ते वयं लोकसिसृक्षयाद्य त्वयानुसृष्टास्त्रिभिरात्मभिः स्म ।
सर्वे वियुक्ताः स्वविहारतन्त्रं न शक्नुमस्तत् प्रतिहर्तवे ते ॥ ४७ ॥
आदिदेव! आपने सृष्टिरचनाकी इच्छासे हमें त्रिगणमय रचा है। इसलिये विभिन्न स्वभाववाले होनेके कारण हम आपसमें मिल नहीं पाते और इसीसे आपकी क्रीडाके साधनरूप ब्रह्माण्डकी रचना करके उसे आपको समर्पण करने में असमर्थ हो रहे हैं ।।४७।।

यावद्‍बलिं तेऽज हराम काले यथा वयं चान्नमदाम यत्र ।
यथोभयेषां त इमे हि लोका बलिं हरन्तोऽन्नमदन्त्यनूहाः ॥ ४८ ॥
अतः जन्मरहित भगवन्! जिससे हम ब्रह्माण्ड रचकर आपको सब प्रकारके भोग समयपर समर्पण कर सकें और जहाँ स्थित होकर हम भी अपनी योग्यताके अनुसार अन्न ग्रहण कर सकें तथा ये सब जीव भी सब प्रकारकी विघ्न-बाधाओंसे दूर रहकर हम और आप दोनोंको भोग समर्पण करते हुए अपना-अपना अन्न भक्षण कर सकें, ऐसा कोई उपाय कीजिये ।।४८||

त्वं नः सुराणामसि सान्वयानां कूटस्थ आद्यः पुरुषः पुराणः ।
त्वं देव शक्त्यां गुणकर्मयोनौ रेतस्त्वजायां कविमादधेऽजः ॥ ४९ ॥
आप निर्विकार पुराणपुरुष ही अन्य कार्यवर्गके सहित हम देवताओंके आदि कारण हैं। देव! पहले आप अजन्माहीने सत्त्वादि गुण और जन्मादि कर्मोंकी कारणरूपा मायाशक्तिमें चिदाभासरूप वीर्य स्थापित किया था ।।४९।।

ततो वयं मत्प्रमुखा यदर्थे बभूविमात्मन् करवाम किं ते ।
त्वं नः स्वचक्षुः परिदेहि शक्त्या देव क्रियार्थे यद् अनुग्रहाणाम् ॥ ५० ॥
परमात्मदेव! महत्तत्त्वादिरूप हम देवगण जिस कार्यके लिये उत्पन्न हुए हैं, उसके सम्बन्धमें हम क्या करें? देव! हमपर आप ही अनुग्रह करनेवाले हैं। इसलिये ब्रह्माण्डरचनाके लिये आप हमें क्रियाशक्तिके सहित अपनी ज्ञानशक्ति भी प्रदान कीजिये ।।५०।।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे पञ्चमोऽध्यायः ।।५।।


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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