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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 3 अध्याय 8

Spread the Glory of Sri SitaRam!

8rd chapter
श्रीमद्भागवतपुराणम्
अध्यायः ८

मैत्रेय उवाच –
सत्सेवनीयो बत पूरुवंशो यल्लोकपालो भगवत्प्रधानः ।
बभूविथेहाजितकीर्तिमालां पदे पदे नूतनयस्यभीक्ष्णम् ॥ १ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा–विदुरजी! आप भगवद्भक्तोंमें प्रधान लोकपाल यमराज ही हैं; आपके पूरुवंशमें जन्म लेनेके कारण वह वंश साधु-पुरुषोंके लिये भी सेव्य हो गया है। धन्य हैं! आप निरन्तर पद-पदपर श्रीहरिकी कीर्तिमयी मालाको नित्य नतन बना रहे हैं ||१||

सोऽहं नृणां क्षुल्लसुखाय दुःखं महद्‍गतानां विरमाय तस्य ।
प्रवर्तये भागवतं पुराणं यदाह साक्षात् भगवान् ऋषिभ्यः ॥ २ ॥
अब मैं, क्षुद्र विषय-सुखककी कामनासे महान् दुःखको मोल लेनेवाले पुरुषोंकी दुःखनिवृत्तिके लिये, श्रीमद्भागवतपुराण प्रारम्भ करता हूँ-जिसे स्वयं श्रीसंकर्षणभगवान्ने सनकादि ऋषियोंको सुनाया था ।।२।।

आसीनमुर्व्यां भगवन्तमाद्यं सङ्कर्षणं देवमकुण्ठसत्त्वम् ।
विवित्सवस्तत्त्वमतः परस्य कुमारमुख्या मुनयोऽन्वपृच्छन् ॥ ३ ॥
अखण्ड ज्ञानसम्पन्न आदिदेव भगवान् संकर्षण पाताललोकमें विराजमान थे। सनत्कुमार आदि ऋषियोंने परम पुरुषोत्तम ब्रह्मका तत्त्व जाननेके लिये उनसे प्रश्न किया ।।३।।

स्वमेव धिष्ण्यं बहु मानयन्तं यद् वासुदेवाभिधमामनन्ति ।
प्रत्यग्धृताक्षाम्बुजकोशमीषद् उन्मीलयन्तं विबुधोदयाय ॥ ४ ॥
उस समय शेषजी अपने आश्रय-स्वरूप उन परमात्माकी मानसिक पूजा कर रहे थे, जिनका वेद वासुदेवके नामसे निरूपण करते हैं। उनके कमलकोशसरीखे नेत्र बंद थे। प्रश्न करनेपर सनत्कुमारादि ज्ञानीजनोंके आनन्दके लिये उन्होंने अधखुले नेत्रोंसे देखा ।।४।।

स्वर्धुन्युदार्द्रैः स्वजटाकलापैः उपस्पृशन्तश्चरणोपधानम् ।
पद्मं यदर्चन्त्यहिराजकन्याः सप्रेम नानाबलिभिर्वरार्थाः ॥ ५ ॥
सनत्कुमार आदि ऋषियोंने मन्दाकिनीके जलसे भीगे अपने जटासमहसे उनके चरणोंकी चौकीके रूपमें स्थित कमलका स्पर्श किया, जिसकी नागराजकुमारियाँ अभिलषित वरकी प्राप्तिके लिये प्रेमपूर्वक अनेकों उपहार-सामग्रियोंसे पूजा करती हैं ।।५।।
मुहुर्गृणन्तो वचसानुराग स्खलत्पदेनास्य कृतानि तज्ज्ञाः ।
किरीटसाहस्रमणिप्रवेक प्रद्योतितोद्दामफणासहस्रम् ॥ ६ ॥
सनत्कुमारादि उनकी लीलाके मर्मज्ञ हैं। उन्होंने बार-बार प्रेम-गद्गद वाणीसे उनकीलीलाका गान किया। उस समय शेषभगवान्के उठे हुए सहस्रों फण किरीटोंकी सहस्र-सहस्र श्रेष्ठ मणियोंकी छिटकती हुई रश्मियोंसे जगमगा रहे थे ।।६।।
प्रोक्तं किलैतद्‍भगवत्तमेन निवृत्तिधर्माभिरताय तेन ।
सनत्कुमाराय स चाह पृष्टः साङ्ख्यायनायाङ्ग धृतव्रताय ॥ ७ ॥
भगवान् संकर्षणने निवृत्तिपरायण सनत्कुमारजीको यह भागवत सुनाया था—ऐसा प्रसिद्ध है। सनत्कुमारजीने फिर इसे परम व्रतशील सांख्यायन मुनिको, उनके प्रश्न करनेपर सुनाया ।।७।।

साङ्ख्यायनः पारमहंस्यमुख्यो विवक्षमाणो भगवद्विभूतीः ।
जगाद सोऽस्मद्‍गुरवेऽन्विताय पराशरायाथ बृहस्पतेश्च ॥ ८ ॥
परमहंसोंमें प्रधान श्रीसांख्यायनजीको जब भगवानकी विभूतियोंका वर्णन करनेकी इच्छा हई, तब उन्होंने इसे अपने अनुगत शिष्य, हमारे गुरु श्रीपराशरजीको और बृहस्पतिजीको सुनाया ।।८।।

प्रोवाच मह्यं स दयालुरुक्तो मुनिः पुलस्त्येन पुराणमाद्यम् ।
सोऽहं तवैतत्कथयामि वत्स श्रद्धालवे नित्यमनुव्रताय ॥ ९ ॥
इसके पश्चात् परम दयालु पराशरजीने पुलस्त्य मुनिके कहनेसे वह आदिपुराण मुझसे कहा। वत्स! श्रद्धालु और सदा अनुगत देखकर अब वही पुराण मैं तुम्हें सुनाता हूँ ||९||

उदाप्लुतं विश्वमिदं तदासीत् यन्निद्रयामीलितदृङ् न्यमीलयत् ।
अहीन्द्रतल्पेऽधिशयान एकः कृतक्षणः स्वात्मरतौ निरीहः ॥ १० ॥
सृष्टिके पूर्व यह सम्पूर्ण विश्व जलमें डूबा हुआ था। उस समय एकमात्र श्रीनारायणदेव शेषशय्यापर पौढ़े हए थे। वे अपनी ज्ञानशक्तिको अक्षुण्ण रखते हुए ही, योगनिद्राका आश्रय ले, अपने नेत्र मूंदे हुए थे। सृष्टिकर्मसे अवकाश लेकर आत्मानन्दमें मग्न थे। उनमें किसी भी क्रियाका उन्मेष नहीं था ।।१०।।

सोऽन्तः शरीरेऽर्पितभूतसूक्ष्मः कालात्मिकां शक्तिमुदीरयाणः ।
उवास तस्मिन् सलिले पदे स्वे यथानलो दारुणि रुद्धवीर्यः ॥ ११ ॥
जिस प्रकार अग्नि अपनी दाहिका आदि शक्तियोंको छिपाये हुए काष्ठमें व्याप्त रहता है, उसी प्रकार श्रीभगवान्ने सम्पूर्ण प्राणियोंके सूक्ष्म शरीरोंको अपने शरीरमें लीन करके अपने आधारभूत उस जलमें शयन किया, उन्हें सृष्टिकाल आनेपर पुनः जगानेके लिये केवल कालशक्तिको जाग्रत् रखा ।।११।।

चतुर्युगानां च सहस्रमप्सु स्वपन् स्वयोदीरितया स्वशक्त्या ।
कालाख्ययाऽऽसादितकर्मतन्त्रो लोकानपीतान्ददृशे स्वदेहे ॥ १२ ॥
इस प्रकार अपनी स्वरूपभूता चिच्छक्तिके साथ एक सहस्र चतुर्युगपर्यन्त जलमें शयन करनेके अनन्तर जब उन्हींके द्वारा नियुक्त उनकी कालशक्तिने उन्हें जीवोंके कर्मोंकी प्रवृत्तिके लिये प्रेरित किया, तब उन्होंने अपने शरीरमें लीन हुए अनन्त लोक देखे ।।१२।।

तस्यार्थसूक्ष्माभिनिविष्टदृष्टेः अन्तर्गतोऽर्थो रजसा तनीयान् ।
गुणेन कालानुगतेन विद्धः सूष्यंस्तदाभिद्यत नाभिदेशात् ॥ १३ ॥
जिस समय भगवान्की दृष्टि अपनेमें निहित लिंगशरीरादि सूक्ष्मतत्त्वपर पड़ी, तब वह कालाश्रित रजोगुणसे क्षुभित होकर सृष्टिरचनाके निमित्त उनके नाभिदेशसे बाहर निकला ||१३।।

स पद्मकोशः सहसोदतिष्ठत् कालेन कर्मप्रतिबोधनेन ।
स्वरोचिषा तत्सलिलं विशालं विद्योतयन्नर्क इवात्मयोनिः ॥ १४ ॥
कर्मशक्तिको जाग्रत् करनेवाले कालके द्वारा विष्णुभगवान्की नाभिसे प्रकट हुआ वह सूक्ष्मतत्त्व कमलकोशके रूपमें सहसा ऊपर उठा और उसने सूर्य के समान अपने तेजसे उस अपार जलराशिको देदीप्यमान कर दिया ||१४||

तल्लोकपद्मं स उ एव विष्णुः प्रावीविशत्सर्वगुणावभासम् ।
तस्मिन् स्वयं वेदमयो विधाता स्वयंभुवं यं स्म वदन्ति सोऽभूत् ॥ १५ ॥
सम्पूर्ण गुणोंको प्रकाशित करनेवाले उस सर्वलोकमय कमलमें वे विष्णुभगवान् ही अन्तर्यामीरूपसे प्रविष्ट हो गये। तब उसमेंसे बिना पढ़ाये ही स्वयं सम्पूर्ण वेदोंको जाननेवाले साक्षात् वेदमूर्ति श्रीब्रह्माजी प्रकट हुए, जिन्हें लोग स्वयम्भू कहते हैं ।।१५।।

तस्यां स चाम्भोरुहकर्णिकायां अवस्थितो लोकमपश्यमानः ।
परिक्रमन् व्योम्नि विवृत्तनेत्रः चत्वारि लेभेऽनुदिशं मुखानि ॥ १६ ॥
उस कमलकी कर्णिका (गद्दी)-में बैठे हुए ब्रह्माजीको जब कोई लोक दिखायी नहीं दिया, तब वे आँखें फाड़कर आकाशमें चारों ओर गर्दन घुमाकर देखने लगे, इससे उनके चारों दिशाओंमें चार मुख हो गये ||१६||

तस्माद्युगान्तश्वसनावघूर्ण जलोर्मिचक्रात् सलिलाद्विरूढम् ।
उपाश्रितः कञ्जमु लोकतत्त्वं नात्मानमद्धाविददादिदेवः ॥ १७ ॥
उस समय प्रलयकालीन पवनके थपेड़ोंसे उछलती हुई जलकी तरंगमालाओंके कारण उस जलराशिसे ऊपर उठे हुए कमलपर विराजमान आदिदेव ब्रह्माजीको अपना तथा उस लोकतत्त्वरूप कमलका कुछ भी रहस्य न जान पड़ा ।।१७।।

क एष योऽसौ अहमब्जपृष्ठ एतत्कुतो वाब्जमनन्यदप्सु ।
अस्ति ह्यधस्तादिह किञ्चनैतद् अधिष्ठितं यत्र सता नु भाव्यम् ॥ १८ ॥
वे सोचने लगे, ‘इस कमलकी कर्णिकापर बैठा हुआ मैं कौन हूँ? यह कमल भी बिना किसी अन्य आधारके जलमें कहाँसे उत्पन्न हो गया? इसके नीचे अवश्य कोई ऐसी वस्तु होनी चाहिये, जिसके आधारपर यह स्थित है’ ||१८||

स इत्थमुद्वीक्ष्य तदब्जनाल नाडीभिरन्तर्जलमाविवेश ।
नार्वाग्गतस्तत् खरनालनाल नाभिं विचिन्वन् तदविन्दताजः ॥ १९ ॥
ऐसा सोचकर वे उस कमलकी नालके सक्ष्म छिद्रोंमें होकर उस जलमें घुसे। किन्तु उस नालके आधारको खोजते-खोजते नाभि-देशके समीप पहुँच जानेपर भी वे उसे पा न सके ||१९||

तमस्यपारे विदुरात्मसर्गं विचिन्वतोऽभूत् सुमहांस्त्रिणेमिः ।
यो देहभाजां भयमीरयाणः परिक्षिणोत्यायुरजस्य हेतिः ॥ २० ॥
विदुरजी! उस अपार अन्धकारमें अपने उत्पत्ति-स्थानको खोजते-खोजते ब्रह्माजीको बहुत काल बीत गया। यह काल ही भगवान्का चक्र है, जो प्राणियोंको भयभीत (करता हुआउनकी आयुको क्षीण) करता रहता है ।।२०।।

ततो निवृत्तोऽप्रतिलब्धकामः स्वधिष्ण्यमासाद्य पुनः स देवः ।
शनैर्जितश्वासनिवृत्तचित्तो न्यषीददारूढसमाधियोगः ॥ २१ ॥
अन्तमें विफलमनोरथ हो वे वहाँसे लौट आये और पुनः अपने आधारभत कमलपर बैठकर धीरे-धीरे प्राणवायको जीतकर चित्तको निःसंकल्प किया और समाधिमें स्थित हो गये ||२१||

कालेन सोऽजः पुरुषायुषाभि प्रवृत्तयोगेन विरूढबोधः ।
स्वयं तदन्तर्हृदयेऽवभातं अपश्यतापश्यत यन्न पूर्वम् ॥ २२ ॥
इस प्रकार पुरुषकी पूर्ण आयुके बराबर कालतक (अर्थात् दिव्य सौ वर्षतक) अच्छी तरह योगाभ्यास करनेपर ब्रह्माजीको ज्ञान प्राप्त हुआ; तब उन्होंने अपने उस अधिष्ठानको, जिसे वे पहले खोजनेपर भी नहीं देख पाये थे, अपने ही अन्तःकरणमें प्रकाशित होते देखा ।।२२।।

मृणालगौरायतशेषभोग पर्यङ्क एकं पुरुषं शयानम् ।
फणातपत्रायुतमूर्धरत्‍न द्युभिर्हतध्वान्तयुगान्ततोये ॥ २३ ॥
उन्होंने देखा कि उस प्रलयकालीन जलमें शेषजीके कमलनालसदश गौर और विशाल विग्रहकी शय्यापर पुरुषोत्तमभगवान् अकेले ही लेटे हुए हैं। शेषजीके दस हजार फण छत्रके समान फैले हुए हैं। उनके मस्तकोंपर किरीट शोभायमान हैं, उनमें जो मणियाँ जड़ी हुई हैं, उनकी कान्तिसे चारों ओरका अन्धकार दूर हो गया है ।।२३।।

प्रेक्षां क्षिपन्तं हरितोपलाद्रेः सन्ध्याभ्रनीवेरु रुरुक्ममूर्ध्नः ।
रत्‍नोदधारौषधिसौमनस्य वनस्रजो वेणुभुजाङ्‌घ्रिपाङ्घ्रेः ॥ २४ ॥
वे अपने श्याम शरीरकी आभासे मरकतमणिके पर्वतकी शोभाको लज्जित कर रहे हैं। उनकी कमरका पीतपट पर्वतके प्रान्त देशमें छाये हुए सायंकालके पीलेपीले चमकीले मेघोंकी आभाको मलिन कर रहा है, सिरपर सुशोभित सुवर्णमुकुट सुवर्णमय शिखरोंका मान मर्दन कर रहा है। उनकी वनमाला पर्वतके रत्न, जलप्रपात, ओषधि और पुष्पोंकी शोभाको परास्त कर रही है तथा उनके भुजदण्ड वेणुदण्डका और चरण वृक्षोंका तिरस्कार करते हैं ।।२४।।

आयामतो विस्तरतः स्वमान देहेन लोकत्रयसङ्ग्रहेण ।
विचित्रदिव्याभरणांशुकानां कृतश्रियापाश्रितवेषदेहम् ॥ २५ ॥
उनका वह श्रीविग्रह अपने परिमाणसे लंबाई-चौड़ाईमें त्रिलोकीका संग्रह किये हुए है। वह अपनी शोभासे विचित्र एवं दिव्य वस्त्राभूषणोंकी शोभाको सुशोभित करनेवाला होनेपर भी पीताम्बर आदि अपनी वेशभूषासे सुसज्जित है ।।२५।।

पुंसां स्वकामाय विविक्तमार्गैः अभ्यर्चतां कामदुघाङ्‌घ्रिपद्मम् ।
प्रदर्शयन्तं कृपया नखेन्दु मयूखभिन्नाङ्गुलिचारुपत्रम् ॥ २६ ॥
अपनी-अपनी अभिलाषाकी पूर्तिके लिये भिन्न-भिन्न मार्गोंसे पूजा करनेवाले भक्तजनोंको कृपापूर्वक अपने भक्तवाञ्छाकल्पतरु चरणकमलोंका दर्शन दे रहे हैं, जिनके सुन्दर अंगलिदल नखचन्द्रकी चन्द्रिकासे अलग-अलग स्पष्ट चमकते रहते हैं ||२६||

मुखेन लोकार्तिहरस्मितेन परिस्फुरत् कुण्डलमण्डितेन ।
शोणायितेनाधरबिम्बभासा प्रत्यर्हयन्तं सुनसेन सुभ्र्वा ॥ २७ ॥
सुन्दर नासिका, अनुग्रहवर्षी भौंहें, कानोंमें झिलमिलाते हुए कुण्डलोंकी शोभा, बिम्बाफलके समान लाल-लाल अधरोंकी कान्ति एवं लोकार्तिहारी मुसकानसे युक्त मुखारविन्दके द्वारा वे अपने उपासकोंका सम्मान-अभिनन्दन कर रहे हैं ।।२७।।

कदम्बकिञ्जल्कपिशङ्गवाससा स्वलङ्कृतं मेखलया नितम्बे ।
हारेण चानन्तधनेन वत्स श्रीवत्सवक्षःस्थलवल्लभेन ॥ २८ ॥
वत्स! उनके नितम्बदेशमें कदम्बकसमकी केसरके समान पीतवस्त्र और सवर्णमयी मेखला सशोभित है तथा वक्षःस्थलमें अमूल्य हार और सुनहरी रेखावाले श्रीवत्सचिह्नकी अपूर्व शोभा हो रही है ।।२८।।

परार्ध्यकेयूरमणिप्रवेक पर्यस्तदोर्दण्डसहस्रशाखम् ।
अव्यक्तमूलं भुवनाङ्‌घ्रिपेन्द्र महीन्द्रभोगैरधिवीतवल्शम् ॥ २९ ॥
वे अव्यक्तमूल चन्दनवृक्षके समान हैं। महामूल्य केयूर और उत्तम-उत्तम मणियोंसे सुशोभित उनके विशाल भुजदण्ड ही मानो उसकी सहस्रों शाखाएँ हैं और चन्दनके वृक्षोंमें जैसे बड़े-बड़े साँप लिपटे रहते हैं, उसी प्रकार उनके कंधोंको शेषजीके फणोंने लपेट रखा है ||२९||

चराचरौको भगवन् महीध्र महीन्द्रबन्धुं सलिलोपगूढम् ।
किरीटसाहस्रहिरण्यश्रृङ्गं आविर्भवत्कौस्तुभरत्‍नगर्भम् ॥ ३० ॥
वे नागराज अनन्तके बन्धु श्रीनारायण ऐसे जान पड़ते हैं, मानो कोई जलसे घिरे हुए पर्वतराज ही हों। पर्वतपर जैसे अनेकों जीव रहते हैं, उसी प्रकार वे सम्पूर्ण चराचरके आश्रय हैं; शेषजीके फणोंपर जो सहस्रों मुकुट हैं वे ही मानो उस पर्वतके सुवर्णमण्डित शिखर हैं तथा वक्षःस्थलमें विराजमान कौस्तुभमणि उसके गर्भसे प्रकट हुआ रत्न है ।।३०।।

निवीतमाम्नायमधुव्रतश्रिया स्वकीर्तिमय्या वनमालया हरिम् ।
सूर्येन्दुवाय्वग्न्यगमं त्रिधामभिः परिक्रमत् प्राधनिकैर्दुरासदम् ॥ ३१ ॥
प्रभुके गलेमें वेदरूप भौंरोंसे गुंजायमान अपनी कीर्तिमयी वनमाला विराज रही है; सूर्य, चन्द्र, वायु और अग्नि आदि देवताओंकी भी आपतक पहँच नहीं है तथा त्रिभुवनमें बेरोक-टोक विचरण करनेवाले सुदर्शनचक्रादि आयुध भी प्रभुके आस-पास ही घूमते रहते हैं, उनके लिये भी आप अत्यन्त दुर्लभ हैं ||३१||

तर्ह्येव तन्नाभिसरःसरोजं आत्मानमम्भः श्वसनं वियच्च ।
ददर्श देवो जगतो विधाता नातः परं लोकविसर्गदृष्टिः ॥ ३२ ॥
तब विश्वरचनाकी इच्छावाले लोकविधाता ब्रह्माजीने भगवान्के नाभिसरोवरसे प्रकट हुआ वह कमल, जल, आकाश, वायु और अपना शरीर-केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, इनके सिवा और कुछ उन्हें दिखायी न दिया ।।३२।।

स कर्मबीजं रजसोपरक्तः प्रजाः सिसृक्षन्नियदेव दृष्ट्वा ।
अस्तौद् विसर्गाभिमुखस्तमीड्यं अव्यक्तवर्त्मन्यभिवेशितात्मा ॥ ३३ ॥
रजोगुणसे व्याप्त ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करना चाहते थे। जब उन्होंने सृष्टिके कारणरूप केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, तब लोकरचनाके लिये उत्सुक होनेके कारण वे अचिन्त्यगति श्रीहरिमें चित्त लगाकर उन परमपूजनीय प्रभुकी स्तुति करने लगे ।।३३।।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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