श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 3 अध्याय 9
9th chapter
श्रीमद्भागवतपुराणम्
अध्यायः ९
ब्रह्मोवाच –
(अनुष्टुप्)
ज्ञातोऽसि मेऽद्य सुचिरान्ननु देहभाजां न ज्ञायते भगवतो गतिरित्यवद्यम् ।
नान्यत्त्वदस्ति भगवन्नपि तन्न शुद्धं मायागुणव्यतिकराद् यदुरुर्विभासि ॥ १ ॥
ब्रह्माजीने कहा—प्रभो! आज बहुत समयके बाद मैं आपको जान सका हूँ। अहो! कैसे दुर्भाग्यकी बात है कि देहधारी जीव आपके स्वरूपको नहीं जान पाते। भगवन्! आपके सिवा और कोई वस्त नहीं है। जो वस्त प्रतीत होती है, वह भी स्वरूपतः सत्य नहीं है, क्योंकि मायाके गुणोंके क्षुभित होनेके कारण केवल आप ही अनेकों रूपोंमें प्रतीत हो रहे हैं ||१||
रूपं यदेतदवबोधरसोदयेन शश्वन्निवृत्ततमसः सदनुग्रहाय ।
आदौ गृहीतमवतारशतैकबीजं यन्नाभिपद्मभवनाद् अहमाविरासम् ॥ २ ॥
देव! आपकी चित् शक्तिके प्रकाशित रहनेके कारण अज्ञान आपसे सदा ही दूर रहता है। आपका यह रूप, जिसके नाभिकमलसे मैं प्रकट हुआ हूँ, सैकड़ों अवतारोंका मूल कारण है। इसे आपने सत्पुरुषोंपर कृपा करनेके लिये ही पहले-पहल प्रकट किया है ।।२।।
नातः परं परम यद्भवतः स्वरूपम् ।
आनन्दमात्रमविकल्पमविद्धवर्चः ।
पश्यामि विश्वसृजमेकमविश्वमात्मन् ।
भूतेन्द्रियात्मकमदस्त उपाश्रितोऽस्मि ॥ ३ ॥
परमात्मन्! आपका जो आनन्दमात्र, भेदरहित, अखण्ड तेजोमय स्वरूप है, उसे मैं इससे भिन्न नहीं समझता। इसलिये मैंने विश्वकी रचना करनेवाले होनेपर भी विश्वातीत आपके इस अद्वितीय रूपकी ही शरण ली है। यही सम्पूर्ण भत और इन्द्रियोंका भी अधिष्ठान है ||३||
तद्वा इदं भुवनमङ्गल मङ्गलाय ।
ध्याने स्म नो दर्शितं त उपासकानाम् ।
तस्मै नमो भगवतेऽनुविधेम तुभ्यं ।
योऽनादृतो नरकभाग्भिरसत्प्रसङ्गैः ॥ ४ ॥
हे विश्वकल्याणमय! मैं आपका उपासक हूँ, आपने मेरे हितके लिये ही मुझे ध्यानमें अपना यह रूप दिखलाया है। जो पापात्मा विषयासक्त जीव हैं, वे ही इसका अनादर करते हैं। मैं तो आपको इसी रूपमें बार-बार नमस्कार करता हूँ ।।४।।
ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोशगन्धं ।
जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् ।
भक्त्या गृहीतचरणः परया च तेषां ।
नापैषि नाथ हृदयाम्बुरुहात्स्वपुंसाम् ॥ ५ ॥
मेरे स्वामी! जो लोग वेदरूप वायुसे लायी हुई आपके चरणरूप कमलकोशकी गन्धको अपने कर्णपुटोंसे ग्रहण करते हैं, उन अपने भक्तजनोंके हृदय-कमलसे आप कभी दूर नहीं होते; क्योंकि वे पराभक्तिरूप डोरीसे आपके पादपद्मोंको बाँध लेते हैं ।।५।।
तावद्भयं द्रविणगेहसुहृन्निमित्तं ।
शोकः स्पृहा परिभवो विपुलश्च लोभः ।
तावन्ममेत्यसदवग्रह आर्तिमूलं ।
यावन्न तेऽङ्घ्रिमभयं प्रवृणीत लोकः ॥ ६ ॥
जबतक पुरुष आपके अभयप्रद चरणारविन्दोंका आश्रय नहीं लेता, तभीतक उसे धन, घर और बन्धुजनोंके कारण प्राप्त होनेवाले भय, शोक, लालसा, दीनता और अत्यन्त लोभ आदि सताते हैं और तभीतक उसे मैं-मेरेपनका दुराग्रह रहता है, जो दुःखका एकमात्र कारण है ।।६।।
दैवेन ते हतधियो भवतः प्रसङ्गात् ।
सर्वाशुभोपशमनाद् विमुखेन्द्रिया ये ।
कुर्वन्ति कामसुखलेशलवाय दीना ।
लोभाभिभूतमनसोऽकुशलानि शश्वत् ॥ ७ ॥
जो लोग सब प्रकारके अमंगलोंको नष्ट करनेवाले आपके श्रवण-कीर्तनादि प्रसंगोंसे इन्द्रियोंको हटाकर लेशमात्र विषय-सुखके लिये दीन और मन-ही-मन लालायित होकर निरन्तर दुष्कर्मोंमें लगे रहते हैं, उन बेचारोंकी बुद्धि दैवने हर ली है ||७||
क्षुत्तृट्त्रधातुभिरिमा मुहुरर्द्यमानाः ।
शीतोष्णवातवर्षैरितरेतराच्च ।
कामाग्निनाच्युत रुषा च सुदुर्भरेण ।
सम्पश्यतो मन उरुक्रम सीदते मे ॥ ८ ॥
अच्युत! उरुक्रम! इस प्रजाको भूख-प्यास, वात, पित्त, कफ, सर्दी, गरमी, हवा और वर्षासे, परस्पर एक-दूसरेसे तथा कामाग्नि और दुःसह क्रोधसे बार-बार कष्ट उठाते देखकर मेरा मन बड़ा खिन्न होता है ||८||
यावत् पृथक्त्वमिदमात्मन इन्द्रियार्थ ।
मायाबलं भगवतो जन ईश पश्येत् ।
तावन्न संसृतिरसौ प्रतिसङ्क्रमेत ।
व्यर्थापि दुःखनिवहं वहती क्रियार्था ॥ ९ ॥
स्वामिन! जबतक मनुष्य इन्द्रिय और विषयरूपी मायाके प्रभावसे आपसे अपनेको भिन्न देखता है, तबतक उसके लिये इस संसारचक्रकी निवृत्ति नहीं होती। यद्यपि यह मिथ्या है, तथापि कर्मफल भोगका क्षेत्र होनेके कारण उसे नाना प्रकारके दुःखोंमें डालता रहता है ||९||
अह्न्यापृतार्तकरणा निशि निःशयाना ।
नानामनोरथधिया क्षणभग्ननिद्राः ।
दैवाहतार्थरचना ऋषयोऽपि देव ।
युष्मत् प्रसङ्गविमुखा इह संसरन्ति ॥ १० ॥
देव! औरोंकी तो बात ही क्या-जो साक्षात् मुनि हैं, वे भी यदि आपके कथाप्रसंगसे विमुख रहते हैं तो उन्हें संसारमें फँसना पड़ता है। वे दिनमें अनेक प्रकारके व्यापारों के कारण विक्षिप्तचित्त रहते हैं, रात्रिमें निद्रामें अचेत पड़े रहते हैं; उस समय भी तरह-तरहके मनोरथोंके कारण क्षण-क्षणमें उनकी नींद टूटती रहती है तथा दैववश उनकी अर्थसिद्धिके सब उद्योग भी विफल होते रहते हैं ।।१०।।
त्वं भक्तियोगपरिभावितहृत्सरोज ।
आस्से श्रुतेक्षितपथो ननु नाथ पुंसाम् ।
यद् यद् धिया ते उरुगाय विभावयन्ति ।
तत्तद् वपुः प्रणयसे सदनुग्रहाय ॥ ११ ॥
नाथ! आपका मार्ग केवल गुणश्रवणसे ही जाना जाता है। आप निश्चय ही मनुष्योंके भक्तियोगके द्वारा परिशुद्ध हुए हृदयकमलमें निवास करते हैं। पुण्यश्लोक प्रभो! आपके भक्तजन जिस-जिस भावनासे आपका चिन्तन करते हैं, उन साधु पुरुषोंपर अनुग्रह करनेके लिये आप वही-वही रूप धारण कर लेते हैं ।।११।।
नातिप्रसीदति तथोपचितोपचारैः ।
आराधितः सुरगणैर्हृदि बद्धकामैः ।
यत्सर्वभूतदययासदलभ्ययैको ।
नानाजनेष्ववहितः सुहृदन्तरात्मा ॥ १२ ॥
भगवन्! आप एक है तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके अन्तःकरणामें स्थित उनके परम हितकारी अन्तरात्मा हैं। इसलिये यदि देवतालोग भी हृदयमें तरह-तरहकी कामनाएँ रखकर भाँतिभाँतिकी विपुल सामग्रियोंसे आपका पूजन करते हैं, तो उससे आप उतने प्रसन्न नहीं होते जितने सब प्राणियोंपर दया करनेसे होते हैं। किन्तु वह सर्वभूतदया असत् पुरुषोंको अत्यन्त दुर्लभ है ।।१२।।
पुंसामतो विविधकर्मभिरध्वराद्यैः ।
दानेन चोग्रतपसा परिचर्यया च ।
आराधनं भगवतस्तव सत्क्रियार्थो ।
धर्मोऽर्पितः कर्हिचिद् ध्रियते न यत्र ॥ १३ ॥
जो कर्म आपको अर्पण कर दिया जाता है, उसका कभी नाश नहीं होतावह अक्षय हो जाता है। अतः नाना प्रकारके कर्म-यज्ञ, दान, कठिन तपस्या और व्रतादिके द्वारा आपकी प्रसन्नता प्राप्त करना ही मनुष्यका सबसे बड़ा कर्मफल है, क्योंकि आपकी प्रसन्नता होनेपर ऐसा कौन फल है जो सुलभ नहीं हो जाता ||१३||
शश्वत्स्वरूपमहसैव निपीतभेद ।
मोहाय बोधधिषणाय नमः परस्मै ।
विश्वोद्भवस्थितिलयेषु निमित्तलीला ।
रासाय ते नम इदं चकृमेश्वराय ॥ १४ ॥
आप सर्वदा अपने स्वरूपके प्रकाशसे ही प्राणियोंके भेद-भ्रमरूप अन्धकारका नाश करते रहते हैं तथा ज्ञानके अधिष्ठान साक्षात् परमपुरुष हैं; मैं आपको नमस्कार करता हूँ। संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारके निमित्तसे जो मायाकी लीला होती है, वह आपका ही खेल है; अतः आप परमेश्वरको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ।।१४।।
यस्यावतार गुणकर्मविडम्बनानि ।
नामानि येऽसुविगमे विवशा गृणन्ति ।
तेऽनैकजन्मशमलं सहसैव हित्वा ।
संयान्त्यपावृतामृतं तमजं प्रपद्ये ॥ १५ ॥
जो लोग प्राणत्याग करते समय आपके अवतार, गुण
और कर्मोंको सूचित करनेवाले देवकीनन्दन, जनार्दन, कंसनिकन्दन आदि नामोंका विवश होकर भी उच्चारण करते हैं, वे अनेकों जन्मोंके पापोंसे तत्काल छूटकर मायादि आवरणोंसे रहित ब्रह्मपद प्राप्त करते हैं। आप नित्य अजन्मा हैं, मैं आपकी शरण लेता हूँ ||१५||
यो वा अहं च गिरिशश्च विभुः स्वयं च ।
स्थित्युद्भवप्रलयहेतव आत्ममूलम् ।
भित्त्वा त्रिपाद्ववृध एक उरुप्ररोहः ।
तस्मै नमो भगवते भुवनद्रुमाय ॥ १६ ॥
भगवन्! इस विश्ववक्षके रूपमें आप ही विराजमान हैं। आप ही अपनी मूलप्रकृतिको स्वीकार करके जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके लिये मेरे, अपने और महादेवजीके रूपमें तीन प्रधान शाखाओंमें विभक्त हुए हैं और फिर प्रजापति एवं मनु आदि शाखा-प्रशाखाओंके रूपमें फैलकर बहुत विस्तृत हो गये हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।१६।।
लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तः ।
कर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे ।
यस्तावदस्य बलवान् इह जीविताशां ।
सद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोऽस्तु तस्मै ॥ १७ ॥
भगवन्! आपने अपनी आराधनाको ही लोकोंके लिये कल्याणकारी स्वधर्म बताया है, किन्तु वे इस ओरसे उदासीन रहकर सर्वदा विपरीत (निषिद्ध) कर्मोंमें लगे रहते हैं। ऐसी प्रमादकी अवस्थामें पड़े हुए इन जीवोंकी जीवन-आशाको जो सदा सावधान रहकर बड़ी शीघ्रतासे काटता रहता है, वह बलवान् काल भी आपका ही रूप है; मैं उसे नमस्कार करता हूँ ।।१७।।
यस्माद्बिभेम्यहमपि द्विपरार्धधिष्ण्यं ।
अध्यासितः सकललोकनमस्कृतं यत् ।
तेपे तपो बहुसवोऽवरुरुत्समानः ।
तस्मै नमो भगवतेऽधिमखाय तुभ्यम् ॥ १८ ॥
यद्यपि मैं सत्यलोकका अधिष्ठाता हूँ, जो दो परार्द्धपर्यन्त रहनेवाला और समस्त लोकोंका वन्दनीय है, तो भी आपके उस कालरूपसे डरता रहता हूँ। उससे बचने और आपको प्राप्त करनेके लिये ही मैंने बहुत समयतक तपस्या की है। आप ही अधियज्ञरूपसे मेरी इस तपस्याके साक्षी हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ ||१८||
तिर्यङ्मनुष्यविबुधादिषु जीवयोनि ।
ष्वात्मेच्छयात्मकृतसेतुपरीप्सया यः ।
रेमे निरस्तविषयोऽप्यवरुद्धदेहः ।
तस्मै नमो भगवते पुरुषोत्तमाय ॥ १९ ॥
आप पूर्णकाम हैं, आपको किसी विषयसुखकी इच्छा नहीं है, तो भी आपने अपनी बनायी हुई धर्ममर्यादाकी रक्षाके लिये पशुपक्षी, मनुष्य और देवता आदि जीवयोनियोंमें अपनी ही इच्छासे शरीर धारण कर अनेकों लीलाएँ की हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तमभगवान्को मेरा नमस्कार है ।।१९।।
योऽविद्ययानुपहतोऽपि दशार्धवृत्त्या ।
निद्रामुवाह जठरीकृतलोकयात्रः ।
अन्तर्जलेऽहिकशिपुस्पर्शानुकूलां ।
भीमोर्मिमालिनि जनस्य सुखं विवृण्वन् ॥ २० ॥
प्रभो! आप अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश-पाँचोंमेंसे किसीके भी अधीन नहीं हैं; तथापि इस समय जो सारे संसारको अपने उदरमें लीनकर भयंकर तरंगमालाओंसे विक्षुब्ध प्रलयकालीन जलमें अनन्तविग्रहकी कोमल शय्यापर शयन कर रहे हैं, वह पूर्वकल्पकी कर्मपरम्परासे श्रमित हुए जीवोंको विश्राम देनेके लिये ही है ||२०||
यन्नाभिपद्मभवनाद् अहमासमीड्य ।
लोकत्रयोपकरणो यदनुग्रहेण ।
तस्मै नमस्त उदरस्थभवाय योग ।
निद्रावसानविकसन् नलिनेक्षणाय ॥ २१ ॥
आपके नाभिकमलरूप भवनसे मेरा जन्म हुआ है। यह सम्पूर्ण विश्व आपके उदरमें समाया हुआ है। आपकी कृपासे ही मैं त्रिलोकीकी रचनारूप उपकारमें प्रवृत्त हुआ हूँ। इस समय योगनिद्राका अन्त हो जानेके कारण आपके नेत्रकमल विकसित हो रहे हैं, आपको मेरा नमस्कार है ||२१||
सोऽयं समस्तजगतां सुहृदेक आत्मा ।
सत्त्वेन यन्मृडयते भगवान् भगेन ।
तेनैव मे दृशमनुस्पृशताद्यथाहं ।
स्रक्ष्यामि पूर्ववदिदं प्रणतप्रियोऽसौ ॥ २२ ॥
आप सम्पूर्ण जगत्के एकमात्र सुहृद् और आत्मा हैं तथा शरणागतोंपर कृपा करनेवाले हैं। अतः अपने जिस ज्ञान और ऐश्वर्यसे आप विश्वको आनन्दित करते हैं, उसीसे मेरी बुद्धिको भी युक्त करें -जिससे मैं पूर्वकल्पके समान इस समय भी जगत्की रचना कर सकूँ ।।२२।।
एष प्रपन्नवरदो रमयात्मशक्त्या ।
यद्यत् करिष्यति गृहीतगुणावतारः ।
तस्मिन्स्वविक्रममिदं सृजतोऽपि चेतो ।
युञ्जीत कर्मशमलं च यथा विजह्याम् ॥ २३ ॥
आप भक्तवांछाकल्पतरु हैं। अपनी शक्ति लक्ष्मीजीके सहित अनेकों गुणावतार लेकर आप जो-जो अद्भुत कर्म करेंगे, मेरा यह जगत्की रचना करनेका उद्यम भी उन्हींमेंसे एक है। अतः इसे रचते समय आप मेरे चित्तको प्रेरित करें-शक्ति प्रदान करें, जिससे मैं सृष्टिरचनाविषयक अभिमानरूप मलसे दूर रह सकूँ ।।२३।।
नाभिह्रदादिह सतोऽम्भसि यस्य पुंसो ।
विज्ञानशक्तिरहमासमनन्तशक्तेः ।
रूपं विचित्रमिदमस्य विवृण्वतो मे ।
मा रीरिषीष्ट निगमस्य गिरां विसर्गः ॥ २४ ॥
प्रभो! इस प्रलयकालीन जलमें शयन करते हुए आप अनन्तशक्ति परमपुरुषके नाभिकमलसे मेरा प्रादुर्भाव हुआ है और मैं हँ भी आपकी ही विज्ञानशक्ति; अतः इस जगत्के विचित्र रूपका विस्तार करते समय आपकी कपासे मेरी वेदरूप वाणीका उच्चारण लुप्त न हो ।।२४।।
सोऽसौ अदभ्रकरुणो भगवान् विवृद्ध ।
प्रेमस्मितेन नयनाम्बुरुहं विजृम्भन् ।
उत्थाय विश्वविजयाय च नो विषादं ।
माध्व्या गिरापनयतात्पुरुषः पुराणः ॥ २५ ॥
आप अपार करुणामय पुराणपुरुष हैं। आप परम प्रेममयी मुसकानके सहित अपने नेत्रकमल खोलिये और शेषशय्यासे उठकर विश्वके उद्भवके लिये अपनी सुमधुर वाणीसे मेरा विषाद दूर कीजिये ।।२५।।
मैत्रेय उवाच –
(अनुष्टुप्)
स्वसम्भवं निशाम्यैवं तपोविद्यासमाधिभिः ।
यावन्मनोवचः स्तुत्वा विरराम स खिन्नवत् ॥ २६ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदरजी! इस प्रकार तप, विद्या और समाधिके द्वारा अपने उत्पत्तिस्थान श्रीभगवानको देखकर तथा अपने मन और वाणीकी शक्तिके अनुसार उनकी स्तुति कर ब्रह्माजी थके-से होकर मौन हो गये ||२६||
अथाभिप्रेतमन्वीक्ष्य ब्रह्मणो मधुसूदनः ।
विषण्णचेतसं तेन कल्पव्यतिकराम्भसा ॥ २७ ॥
लोकसंस्थानविज्ञान आत्मनः परिखिद्यतः ।
तमाहागाधया वाचा कश्मलं शमयन्निव ॥ २८ ॥
श्रीमधुसूदनभगवान्ने देखा कि ब्रह्माजी इस प्रलयजलराशिसे बहुत घबराये हुए हैं तथा लोकरचनाके विषयमें कोई निश्चित विचार न होनेके कारण उनका चित्त बहुत खिन्न है। तब उनके अभिप्रायको जानकर वे अपनी गम्भीर वाणीसे उनका खेद शान्त करते हुए कहने लगे ।।२७-२८।।
श्रीभगवानुवाच –
मा वेदगर्भ गास्तन्द्रीं सर्ग उद्यममावह ।
तन्मयाऽऽपादितं ह्यग्रे यन्मां प्रार्थयते भवान् ॥ २९ ॥
श्रीभगवानने कहा-वेदगर्भ! तुम विषादके वशीभूत हो आलस्य न करो, सष्टिरचनाके उद्यममें तत्पर हो जाओ। तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, उसे तो मैं पहले ही कर चुका हूँ ।।२९।।
भूयस्त्वं तप आतिष्ठ विद्यां चैव मदाश्रयाम् ।
ताभ्यां अन्तर्हृदि ब्रह्मन् लोकान् द्रक्ष्यसि अपावृतान् ॥ ३० ॥
तुम एक बार फिर तप करो और भागवत-ज्ञानका अनुष्ठान करो। उनके द्वारा तुम सब लोकोंको स्पष्टतया अपने अन्तःकरणमें देखोगे ||३०||
तत आत्मनि लोके च भक्तियुक्तः समाहितः ।
द्रष्टासि मां ततं ब्रह्मन् मयि लोकान् त्वमात्मनः ॥ ३१ ॥
फिर भक्तियुक्त और समाहितचित्त होकर तुम सम्पूर्ण लोक और अपने में मुझको व्याप्त देखोगे तथा मुझमें सम्पूर्ण लोक और अपने-आपको देखोगे ||३१||
यदा तु सर्वभूतेषु दारुष्वग्निमिव स्थितम् ।
प्रतिचक्षीत मां लोको जह्यात्तर्ह्येव कश्मलम् ॥ ३२ ॥
जिस समय जीव काष्ठमें व्याप्त अग्निके समान समस्त भूतोंमें मुझे ही स्थित देखता है, उसी समय वह अपने अज्ञानरूप मलसे मुक्त हो जाता है ||३२||
यदा रहितमात्मानं भूतेन्द्रियगुणाशयैः ।
स्वरूपेण मयोपेतं पश्यन् स्वाराज्यमृच्छति ॥ ३३ ॥
जब वह अपनेको भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्तःकरणसे रहित तथा स्वरूपतः मुझसे अभिन्न देखता है, तब मोक्षपद प्राप्त कर लेता है ||३३।।
नानाकर्मवितानेन प्रजा बह्वीः सिसृक्षतः ।
नात्मावसीदत्यस्मिन् ते वर्षीयान् मदनुग्रहः ॥ ३४ ॥
ब्रह्माजी! नाना प्रकारके कर्मसंस्कारों के अनुसार अनेक प्रकारकी जीवसृष्टिको रचनेकी इच्छा होनेपर भी तुम्हारा चित्त मोहित नहीं होता, यह मेरी अतिशय कृपाका ही फल है ||३४||
ऋषिमाद्यं न बध्नाति पापीयान् त्वां रजोगुणः ।
यन्मनो मयि निर्बद्धं प्रजाः संसृजतोऽपि ते ॥ ३५ ॥
तुम सबसे पहले मन्त्रद्रष्टा हो। प्रजा उत्पन्न करते समय भी तुम्हारा मन मुझमें ही लगा रहता है, इसीसे पापमय रजोगुण तुमको बाँध नहीं पाता ||३५||
ज्ञातोऽहं भवता त्वद्य दुर्विज्ञेयोऽपि देहिनाम् ।
यन्मां त्वं मन्यसेऽयुक्तं भूतेन्द्रियगुणात्मभिः ॥ ३६ ॥
तुम मुझे भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्तःकरणसे रहित समझते हो; इससे जान पड़ता है कि यद्यपि देहधारी जीवोंको मेरा ज्ञान होना बहुत कठिन है, तथापि तुमने मुझे जान लिया है ||३६||
तुभ्यं मद्विचिकित्सायां आत्मा मे दर्शितोऽबहिः ।
नालेन सलिले मूलं पुष्करस्य विचिन्वतः ॥ ३७ ॥
‘मेरा आश्रय कोई है या नहीं’ इस सन्देहसे तुम कमलनालके द्वारा जलमें उसका मूल खोज रहे थे, सो मैंने तुम्हें अपना यह स्वरूप अन्तःकरणमें ही दिखलाया है ।।३७।।
यच्चकर्थाङ्ग मत्स्तोत्रं मत्कथा अभ्युदयांकितम् ।
यद्वा तपसि ते निष्ठा स एष मदनुग्रहः ॥ ३८ ॥
प्यारे ब्रह्माजी! तुमने जो मेरी कथाओंके वैभवसे युक्त मेरी स्तुति की है और तपस्यामें जो तुम्हारी निष्ठा है, वह भी मेरी ही कृपाका फल है ।।३८ ।।
प्रीतोऽहमस्तु भद्रं ते लोकानां विजयेच्छया ।
यद् अस्तौषीर्गुणमयं निर्गुणं मानुवर्णयन् ॥ ३९ ॥
लोकरचनाकी इच्छासे तुमने सगुण प्रतीत होनेपर भी जो निर्गुणरूपसे मेरा वर्णन करते हुए स्तुति की है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ; तुम्हारा कल्याण हो ||३९।।
य एतेन पुमान्नित्यं स्तुत्वा स्तोत्रेण मां भजेत् ।
तस्याशु सम्प्रसीदेयं सर्वकामवरेश्वरः ॥ ४० ॥
मैं समस्त कामनाओं और मनोरथोंको पूर्ण करने में समर्थ हूँ। जो पुरुष नित्यप्रति इस स्तोत्रद्वारा स्तुति करके मेरा भजन करेगा, उसपर मैं शीघ्र ही प्रसन्न हो जाऊँगा ||४०||
पूर्तेन तपसा यज्ञैः दानैर्योगसमाधिना ।
राद्धं निःश्रेयसं पुंसां मत्प्रीतिः तत्त्वविन्मतम् ॥ ४१ ॥
तत्त्ववेत्ताओंका मत है कि पूर्त, तप, यज्ञ, दान, योग औरसमाधि आदि साधनोंसे प्राप्त होनेवाला जो परम कल्याणमय फल है, वह मेरी प्रसन्नता ही है ।।४१।।
अहमात्मात्मनां धातः प्रेष्ठः सन् प्रेयसामपि ।
अतो मयि रतिं कुर्याद् देहादिर्यत्कृते प्रियः ॥ ४२ ॥
विधाता! मैं आत्माओंका भी आत्मा और स्त्री-पुत्रादि प्रियोंका भी प्रिय हूँ। देहादि भी मेरे ही लिये प्रिय हैं। अतः मुझसे ही प्रेम करना चाहिये ।।४२||
सर्ववेदमयेनेदं आत्मनाऽऽत्माऽऽत्मयोनिना ।
प्रजाः सृज यथापूर्वं याश्च मय्यनुशेरते ॥ ४३ ॥
ब्रह्माजी! त्रिलोकीको तथा जो प्रजा इस समय मुझमें लीन है, उसे तुम पूर्वकल्पके समान मुझसे उत्पन्न हुए अपने सर्ववेदमय स्वरूपसे स्वयं ही रचो ।।४३।।
मैत्रेय उवाच –
तस्मा एवं जगत्स्रष्ट्रे प्रधानपुरुषेश्वरः ।
व्यज्येदं स्वेन रूपेण कञ्जनाभस्तिरोदधे ॥ ४४ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं-प्रकृति और पुरुषके स्वामी कमलनाभ भगवान् सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीको इस प्रकार जगत्की अभिव्यक्ति करवाकर अपने उस नारायणरूपसे अदृश्य हो गये ।।४४।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे नवमोऽध्यायः ।।९।।