श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 4 अध्याय 27
श्रीमद्भागवतपुराणम्
चतुर्थ स्कन्ध अध्यायः २७
नारद उवाच –
(अनुष्टुप्)
इत्थं पुरञ्जनं सध्र्यग् वशमानीय विभ्रमैः ।
पुरञ्जनी महाराज रेमे रमयती पतिम् ॥ १ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं—महाराज! इस प्रकार वह सुन्दरी अनेकों नखरोंसे पुरंजनको पूरीतरह अपने वशमें कर उसे आनन्दित करती हई विहार करने लगी ।।१।।
स राजा महिषीं राजन् सुस्नातां रुचिराननाम् ।
कृतस्वस्त्ययनां तृप्तां अभ्यनन्ददुपागताम् ॥ २ ॥
उसने अच्छी तरह स्नान कर अनेक प्रकारके मांगलिक शंगार किये तथा भोजनादिसे तप्त होकर वह राजाके पास आयी। राजाने उस मनोहर मुखवाली राजमहिषीका सादर अभिनन्दन किया ।।२।।
तयोपगूढः परिरब्धकन्धरो
रहोऽनुमन्त्रैरपकृष्टचेतनः ।
न कालरंहो बुबुधे दुरत्ययं
दिवा निशेति प्रमदापरिग्रहः ॥ ३ ॥
पुरंजनीने राजाका आलिंगन किया और राजाने उसे गले लगाया। फिर एकान्तमें मनके अनुकूल रहस्यकी बातें करते हुए वह ऐसा मोहित हो गया कि उस कामिनीमें ही चित्त लगा रहनेके कारण उसे दिन-रातके भेदसे निरन्तर बीतते हुए कालकी दुस्तर गतिका भी कुछ पता न चला ||३||
शयान उन्नद्धमदो महामना
महार्हतल्पे महिषीभुजोपधिः ।
तामेव वीरो मनुते परं यतः
तमोऽभिभूतो न निजं परं च यत् ॥ ४ ॥
मदसे छका हुआ मनस्वी पुरंजन अपनी प्रियाकी भुजापर सिर रखे महामूल्य शय्यापर पड़ा रहता। उसे तो वह रमणी ही जीवनका परम फल जान पड़ती थी। अज्ञानसे आवृत्त हो जानेके कारण उसे आत्मा अथवा परमात्माका कोई ज्ञान न रहा ।।४।।
(अनुष्टुप्)
तयैवं रममाणस्य कामकश्मलचेतसः ।
क्षणार्धमिव राजेन्द्र व्यतिक्रान्तं नवं वयः ॥ ५ ॥
राजन्! इस प्रकार कामातुर चित्तसे उसके साथ विहार करते-करते राजा पुरंजनकी जवानी आधे क्षणके समान बीत गयी ।।५।।
तस्यां अजनयत् पुत्रान् पुरञ्जन्यां पुरञ्जनः ।
शतान्येकादश विराड् आयुषोऽर्धमथात्यगात् ॥ ॥ ६ ॥
दुहित्ईर्दशोत्तरशतं पितृमातृयशस्करीः ।
शीलौदार्यगुणोपेताः पौरञ्जन्यः प्रजापते ॥ ७ ॥
प्रजापते! उस पुरंजनीसे राजा पुरंजनके ग्यारह सौ पुत्र और एक सौ दस कन्याएँ हुईं, जो सभी माता-पिताका सुयश बढ़ानेवाली और सुशीलता, उदारता आदि गुणोंसे सम्पन्न थीं। ये पौरंजनी नामसे विख्यात हुईं। इतने में ही उस सम्राट्की लंबी आयुका आधा भाग निकल गया ||६-७||
स पञ्चालपतिः पुत्रान् पितृवंशविवर्धनान् ।
दारैः संयोजयामास दुहितॄ सदृशैर्वरैः ॥ ८ ॥
फिर पांचालराज पुरंजनने पितृवंशकी वृद्धि करनेवाले पुत्रोंका वधुओंके साथ और कन्याओंका उनके योग्य वरोंके साथ विवाह कर दिया ||८||
पुत्राणां चाभवन् पुत्रा एकैकस्य शतं शतम् ।
यैर्वै पौरञ्जनो वंशः पञ्चालेषु समेधितः ॥ ९ ॥
पुत्रोंमेंसे प्रत्येकके सौ-सौ पुत्र हुए। उनसे वृद्धिको प्राप्त होकर पुरंजनका वंश सारे पांचाल देशमें फैल गया ||९||
तेषु तद् रिक्थहारेषु गृहकोशानुजीविषु ।
निरूढेन ममत्वेन विषयेष्वन्वबध्यत ॥ १० ॥
इन पुत्र, पौत्र, गृह, कोश, सेवक और मन्त्री आदिमें दृढ़ ममता हो जानेसे वह इन विषयोंमें ही बँध गया ।।१०।।
ईजे च क्रतुभिर्घोरैः दीक्षितः पशुमारकैः ।
देवान् पितॄन् भूतपतीन् नानाकामो यथा भवान् ॥ ११ ॥
फिर तुम्हारी तरह उसने भी अनेक प्रकारके भोगोंकी कामनासे यज्ञकी दीक्षा ले तरहतरहके पशुहिंसामय घोर यज्ञोंसे देवता, पितर और भूतपतियोंकी आराधना की ।।११।।
युक्तेष्वेवं प्रमत्तस्य कुटुम्बासक्तचेतसः ।
आससाद स वै कालो योऽप्रियः प्रिययोषिताम् ॥ १२ ॥
इस प्रकार वह जीवनभर आत्माका कल्याण करनेवाले कर्मोंकी ओरसे असावधान और कुटुम्बपालनमें व्यस्त रहा। अन्तमें वृद्धावस्थाका वह समय आ पहुँचा, जो स्त्रीलंपट पुरुषोंको बड़ा अप्रिय होता है ।।१२।।
चण्डवेग इति ख्यातो गन्धर्वाधिपतिर्नृप ।
गन्धर्वास्तस्य बलिनः षष्ट्युत्तरशतत्रयम् ॥ १३ ॥
राजन्! चण्डवेग नामका एक गन्धर्वराज है। उसके अधीन तीन सौ साठ महाबलवान् गन्धर्व रहते हैं ।।१३।।
गन्धर्व्यस्तादृशीरस्य मैथुन्यश्च सितासिताः ।
परिवृत्त्या विलुम्पन्ति सर्वकामविनिर्मिताम् ॥ १४ ॥
इनके साथ मिथुनभावसे स्थित कृष्ण और शुक्ल वर्णकी उतनी ही गन्धर्वियाँ भी हैं। ये बारी-बारीसे चक्कर लगाकर भोग-विलासकी सामग्रियोंसे भरी-पूरी नगरीको लूटती रहती हैं ।।१४।।
ते चण्डवेगानुचराः पुरञ्जनपुरं यदा ।
हर्तुमारेभिरे तत्र प्रत्यषेधत् प्रजागरः ॥ १५ ॥
गन्धर्वराज चण्डवेगके उन अनुचरोंने जब राजा पुरंजनका नगर लूटना आरम्भ किया, तब उन्हें पाँच फनके सर्प प्रजागरने रोका ||१५||
स सप्तभिः शतैरेको विंशत्या च शतं समाः ।
पुरञ्जनपुराध्यक्षो गन्धर्वैर्युयुधे बली ॥ १६ ॥
यह पुरंजनपुरीकी चौकसी करनेवाला महाबलवान् सर्प सौ वर्षतक अकेला ही उन सात सौ बीस गन्धर्वगन्धर्वियोंसे युद्ध करता रहा ||१६||
क्षीयमाणे स्वसंबन्धे एकस्मिन् बहुभिर्युधा ।
चिन्तां परां जगामार्तः सराष्ट्रपुरबान्धवः ॥ १७ ॥
बहत-से वीरोंके साथ अकेले ही युद्ध करनेके कारण अपने एकमात्र सम्बन्धी प्रजागरको बलहीन हुआ देख राजा पुरंजनको अपने राष्ट्र और नगरमें रहनेवाले अन्य बान्धवोंके सहित बड़ी चिन्ता हई ||१७||
स एव पुर्यां मधुभुक् पञ्चालेषु स्वपार्षदैः ।
उपनीतं बलिं गृह्णन् स्त्रीजितो नाविदद्भयम् ॥ १८ ॥
वह इतने दिनोंतक पांचाल देशके उस नगरमें अपने दूतोंद्वारा लाये हुए करको लेकर विषय-भोगोंमें मस्त रहता था। स्त्रीके वशीभूत रहनेके कारण इस अवश्यम्भावी भयका उसे पता ही न चला ।।१८।।
कालस्य दुहिता काचित्त्रिलोकीं वरमिच्छती ।
पर्यटन्ती न बर्हिष्मन् प्रत्यनन्दत कश्चन ॥ १९ ॥
बर्हिष्मन! इन्हीं दिनों कालकी एक कन्या वरकी खोजमें त्रिलोकीमें भटकती रही, फिर भी उसे किसीने स्वीकार नहीं किया ||१९||
दौर्भाग्येनात्मनो लोके विश्रुता दुर्भगेति सा ।
या तुष्टा राजर्षये तु वृतादात्पूरवे वरम् ॥ २० ॥
वह कालकन्या (जरा) बड़ी भाग्यहीना थी, इसलिये लोग उसे ‘दुर्भगा’ कहते थे। एक बार राजर्षि पूरुने पिताको अपना यौवन देनेके लिये अपनी ही इच्छासे उसे वर लिया था, इससे प्रसन्न होकर उसने उन्हें राज्यप्राप्तिका वर दिया था ।।२०।।
कदाचिद् अटमाना सा ब्रह्मलोकान् महीं गतम् ।
वव्रे बृहद्व्रतं मां तु जानती काममोहिता ॥ २१ ॥
एक दिन मैं ब्रह्मलोकसे पृथ्वीपर आया, तो वह घूमती-घूमती मुझे भी मिल गयी। तब मुझे नैष्ठिक ब्रह्मचारी जानकर भी कामातुरा होनेके कारण उसने वरना चाहा ।।२१।।
मयि संरभ्य विपुलं अदात् शापं सुदुःसहम् ।
स्थातुमर्हसि नैकत्र मद् याच्ञाविमुखो मुने ॥ २२ ॥
मैंने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। इसपर उसने अत्यन्त कुपित होकर मुझे यह दुःसह शाप दिया कि ‘तुमने मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की, अतः तुम एक स्थानपर अधिक देर न ठहर सकोगे’ ||२२||
ततो विहतसङ्कल्पा कन्यका यवनेश्वरम् ।
मयोपदिष्टमासाद्य वव्रे नाम्ना भयं पतिम् ॥ २३ ॥
तब मेरी ओरसे निराश होकर उस कन्याने मेरी सम्मतिसे यवनराज भयके पास जाकर उसका पतिरूपसे वरण किया ।।२३।।
ऋषभं यवनानां त्वां वृणे वीरेप्सितं पतिम् ।
सङ्कल्पस्त्वयि भूतानां कृतः किल न रिष्यति ॥ २४ ॥
और कहा, ‘वीरवर! आप यवनोंमें श्रेष्ठ हैं, मैं आपसे प्रेम करती हूँ और पति बनाना चाहती हूँ। आपके प्रति किया हआ जीवोंका संकल्प कभी विफल नहीं होता ।।२४।।
द्वौ इमौ अनुशोचन्ति बालौ असदवग्रहौ ।
यल्लोकशास्त्रोपनतं न राति न तदिच्छति ॥ २५ ॥
जो मनुष्य लोक अथवा शास्त्रकी दृष्टिसे देनेयोग्य वस्तुका दान नहीं करता और जो शास्त्रदष्टिसे अधिकारी होकर भी ऐसा दान नहीं लेता, वे दोनों ही दुराग्रही और मूढ़ हैं, अतएव शोचनीय हैं ।।२५||
अथो भजस्व मां भद्र भजन्तीं मे दयां कुरु ।
एतावान् पौरुषो धर्मो यदार्तान् अनुकम्पते ॥ २६ ॥
भद्र! इस समय मैं आपकी सेवामें उपस्थित हुई हूँ, आप मुझे स्वीकार करके अनुगृहीत कीजिये। पुरुषका सबसे बड़ा धर्म दीनोंपर दया करना ही है’ ||२६||
कालकन्योदितवचो निशम्य यवनेश्वरः ।
चिकीर्षुर्देवगुह्यं स सस्मितं तामभाषत ॥ २७ ॥
कालकन्याकी बात सुनकर यवनराजने विधाताका एक गुप्त कार्य करानेकी इच्छासे मुसकराते हुए उससे कहा ।।२७।।
मया निरूपितस्तुभ्यं पतिरात्मसमाधिना ।
नाभिनन्दति लोकोऽयं त्वां अभद्रां असम्मताम् ॥ २८ ॥
त्वं अव्यक्तगतिर्भुङ्क्ष्व लोकं कर्मविनिर्मितम् ।
या हि मे पृतनायुक्ता प्रजानाशं प्रणेष्यसि ॥ २९ ॥
‘मैंने योगदृष्टि से देखकर तेरे लिये एक पति निश्चय किया है। तू सबका अनिष्ट करनेवाली है, इसलिये किसीको भी अच्छी नहीं लगती और इसीसे लोग तुझे स्वीकार नहीं करते। अतः इस कर्मजनित लोकको तू अलक्षित होकर बलात् भोग। तू मेरी सेना लेकर जा; इसकी सहायतासे तू सारी प्रजाका नाश करने में समर्थ होगी, कोई भी तेरा सामना न कर सकेगा ।।२८-२९।।
प्रज्वारोऽयं मम भ्राता त्वं च मे भगिनी भव ।
चराम्युभाभ्यां लोकेऽस्मिन् अव्यक्तो भीमसैनिकः ॥ ३० ॥
यह प्रज्वार नामका मेरा भाई है और तू मेरी बहिन बन जा। तम दोनोंके साथ मैं अव्यक्त गतिसे भयंकर सेना लेकर सारे लोकोंमें विचरूँगा’ ||३०||
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे पुरंजनोपाख्याने सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
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