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श्रीमद् भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 5 अध्याय 26

Spread the Glory of Sri SitaRam!

26 chapter
अध्यायः २६

श्रीमद्‌भागवत महापुराण
नरकानुवर्णनम् –

राजोवाच

महर्ष एतद्वैचित्र्यं लोकस्य कथमिति ॥ १ ॥

राजा परीक्षित्ने पूछा–महर्षे! लोगोंको जो ये ऊँची-नीची गतियाँ प्राप्त होती हैं, उनमें इतनी विभिन्नता क्यों है? ||१||

ऋषिरुवाच

त्रिगुणत्वात्कर्तुः श्रद्धया कर्मगतयः पृथग्विधाः

सर्वा एव सर्वस्य तारतम्येन भवन्ति ॥ २ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा-राजन्! कर्म करनेवाले पुरुष सात्त्विक, राजस और तामसतीन प्रकारके होते हैं तथा उनकी श्रद्धाओंमें भी भेद रहता है। इस प्रकार स्वभाव और श्रद्धाके भेदसे उनके कर्मोंकी गतियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं और न्यूनाधिकरूपमें ये सभी गतियाँ सभी कर्ताओंको प्राप्त होती हैं ।।२।।

अथेदानीं प्रतिषिद्धलक्षणस्याधर्मस्य तथैव

कर्तुः श्रद्धाया वैसादृश्यात्कर्मफलं विसदृशं भवति

या ह्यनाद्यविद्यया कृतकामानां तत्परिणामलक्षणाः

सृतयः सहस्रशः प्रवृत्तास्तासां प्राचुर्येणानुवर्णयिष्यामः ॥ ३ ॥

इसी प्रकार निषिद्ध कर्मरूप पाप करनेवालोंको भी उनकी श्रद्धाकी असमानताके कारण समान फल नहीं मिलता। अतः अनादि अविद्याके वशीभूत होकर कामनापूर्वक किये हुए उन निषिद्ध कर्मोंके परिणाममें जो हजारों तरहकी नारकी गतियाँ होती हैं, उनका विस्तारसे वर्णन करेंगे ।।३।।

राजोवाच

नरका नाम भगवन् किं देशविशेषा अथवा

बहिस्त्रिलोक्या आहोस्विदन्तरालइति ॥ ४ ॥

राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन्! आप जिनका वर्णन करना चाहते हैं, वे नरक इसी पृथ्वीके कोई देशविशेष हैं अथवा त्रिलोकीसे बाहर या इसीके भीतर किसी जगह हैं? ||४||

ऋषिरुवाच

अन्तराल एव त्रिजगत्यास्तु दिशि

दक्षिणस्यामधस्ताद्धमेरुपरिष्टाच्च जलाद्यस्याम्

अग्निष्वात्तादयः पितृगणा दिशि स्वानां गोत्राणां

परमेण समाधिना सत्या एवाशिष आशासाना निवसन्ति ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा-राजन्! वे त्रिलोकीके भीतर ही हैं तथा दक्षिणकी ओर पृथ्वीसे नीचे जलके ऊपर स्थित हैं। इसी दिशामें अग्निष्वात्त आदि पितृगण रहते हैं, वे अत्यन्त एकाग्रतापूर्वक अपने वंशधरोंके लिये मंगलकामना किया करते हैं ।।५।।

यत्र ह वाव भगवान् पितृराजो वैवस्वतः

स्वविषयं प्रापितेषु स्वपुरुषैर्जन्तुषु सम्परेतेषु

यथाकर्मावद्यं दोषमेवानुल्लङ्घितभगवच्छासनः

सगणो दमं धारयति ॥ ६ ॥

उस नरकलोकमें सूर्यके पुत्र पितृराज भगवान् यम अपने सेवकोंके सहित रहते हैं तथा भगवान्की आज्ञाका उल्लंघन न करते हुए, अपने दूतोंद्वारा वहाँ लाये हुए मृत प्राणियोंको उनके दुष्कर्मों के अनुसार पापका फल दण्ड देते हैं ।।६।।

तत्र हैके नरकानेकविंशतिं गणयन्ति अथ

तांस्ते राजन्नामरूपलक्षणतोऽनुक्रमिष्याम-

स्तामिस्रोऽन्धतामिस्रो रौरवो महारौरवः कुम्भीपाकः

कालसूत्रमसिपत्रवनं सूकरमुखयधकूपः कृमि-

भोजनः सन्दंशस्तप्तसूर्मिर्वज्रकण्टकशाल्मली

वैतरणी पूयोदः प्राणरोधो विशसनं लालाभक्षः

सारमेयादनमवीचिरयःपानमिति । किञ्च क्षारकर्दमो

रक्षोगणभोजनः शूलप्रोतो दन्दशूकोऽवटनिरोधनः

पर्यावर्तनः सूचीमुखमित्यष्टाविंशतिर्नरका

विविधयातनाभूमयः ॥ ७ ॥

परीक्षित्! कोई-कोई लोग नरकोंकी संख्या इक्कीस बताते हैं। अब हम नाम, रूप और लक्षणोंके अनुसार उनका क्रमशः वर्णन करते हैं। उनके नाम ये हैं तामिस्र, अन्धतामिस्र, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, सूकरमुख, अन्धकूप, कृमिभोजन, सन्दंश, तप्तसूर्मि, वज्रकण्टकशाल्मली, वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि और अयःपान। इनके सिवा क्षारकर्दम, रक्षोगणभोजन, शूलप्रोत, दन्दशूक, अवटनिरोधन, पर्यावर्तन और सूचीमुख–ये सात और मिलाकर कुल अट्ठाईस नरक तरह-तरहकी यातनाओंको भोगनेके स्थान हैं ।।७।।

तत्र यस्तु परवित्तापत्यकलत्राण्यपहरति स हि

कालपाशबद्धो यमपुरुषैरतिभयानकैस्तामिस्रे नरके

बलान्निपात्यते अनशनानुदपानदण्डताडन-

संतर्जनादिभिर्यातनाभिर्यात्यमानो जन्तुर्यत्र

कश्मलमासादित एकदैव मूर्च्छामुपयाति

तामिस्रप्राये ॥ ८ ॥

जो पुरुष दूसरोंके धन, सन्तान अथवा स्त्रियोंका हरण करता है, उसे अत्यन्त भयानक यमदूत कालपाशमें बाँधकर बलात् तामिस्र नरकमें गिरा देते हैं। उस अन्धकारमय नरकमें उसे अन्न-जल न देना, डंडे लगाना और भय दिखलाना आदि अनेक प्रकारके उपायोंसे पीड़ित किया जाता है। इससे अत्यन्त दुःखी होकर वह एकाएक मूर्च्छित हो जाता है ||८||

एवमेवमन्धतामिस्रे यस्तु वञ्चयित्वा पुरुषं

दारादीनुपयुङ्क्ते यत्र शरीरी निपात्यमानो

यातनास्थो वेदनया नष्टमतिर्नष्टदृष्टिश्च भवति

यथा वनस्पतिर्वृश्च्यमानमूलस्तस्मादन्धतामिस्रं

तमुपदिशन्ति ॥ ९ ॥

इसी प्रकार जो पुरुष किसी दूसरेको धोखा देकर उसकी स्त्री आदिको भोगता है, वह अन्धतामिस्र नरकमें पड़ता है। वहाँकी यातनाओंमें पड़कर वह जड़से कटे हुए वृक्षके समान, वेदनाके मारे सारी सुध-बुध खो बैठता है और उसे कुछ भी नहीं सूझ पड़ता। इसीसे इस नरकको अन्धतामिस्र कहते हैं ।।९।।
यस्त्विह वा एतदहमिति ममेदमिति भूतद्रोहेण

केवलं स्वकुटुम्बमेवानुदिनं प्रपुष्णाति स तदिह

विहाय स्वयमेव तदशुभेन रौरवे निपतति ॥ १० ॥

जो पुरुष इस लोकमें ‘यह शरीर ही मैं हूँ और ये स्त्री-धनादि मेरे हैं’ ऐसी बुद्धिसे दूसरे प्राणियोंसे द्रोह करके निरन्तर अपने कुटुम्बके ही पालन-पोषणमें लगा रहता है, वह अपना शरीर छोड़नेपर अपने पापके कारण स्वयं ही रौरव नरकमें गिरता है ||१०||

ये त्विह यथैवामुना विहिंसिता जन्तवः परत्र

यमयातनामुपगतं त एव रुरवो भूत्वा तथा तमेव

विहिंसन्ति तस्माद्रौरवमित्याहू रुरुरिति

सर्पादतिक्रूरसत्त्वस्यापदेशः ॥ ११ ॥

इस लोकमें उसने जिन जीवोंको जिस प्रकार कष्ट पहुँचाया होता है परलोकमें यमयातनाका समय आनेपर वे जीव ‘रुरु’ होकर उसे उसी प्रकार कष्ट पहुँचाते हैं। इसीलिये इस नरकका नाम ‘रौरव’ है। ‘रुरु’ सर्पसे भी अधिक क्रूर स्वभाववाले एक जीवका नाम है ।।११।।

एवमेव महारौरवो यत्र निपतितं पुरुषं क्रव्यादा नाम

रुरवस्तं क्रव्येण घातयन्ति यः केवलं देहम्भरः ॥ १२ ॥

ऐसा ही महारौरव नरक है। इसमें वह व्यक्ति जाता है, जो और किसीकी परवा न कर केवल अपने ही शरीरका पालन-पोषण करता है। वहाँ कच्चा मांस खानेवाले रुरु इसे मांसके लोभसे काटते हैं ।।१२।।

यस्त्विह वा उग्रः पशून् पक्षिणो वा प्राणत

उपरन्धयति तमपकरुणं पुरुषादैरपि विगर्हितममुत्र

यमानुचराः कुम्भीपाकेतप्ततैले उपरन्धयन्ति ॥ १३ ॥

जो क्रूर मनुष्य इस लोकमें अपना पेट पालनेके लिये जीवित पशु या पक्षियोंको राँधता है, उस हृदयहीन, राक्षसोंसे भी गये-बीते पुरुषको यमदूत कुम्भीपाक नरकमें ले जाकर खौलते हुए तैलमें राँधते हैं ।।१३।।

यस्त्विह पितृविप्रब्रह्मध्रुक् स कालसूत्रसंज्ञके

नरके अयुतयोजनपरिमण्डले ताम्रमये तप्तखले

उपर्यधस्तादग्न्यर्काभ्यामतितप्यमानेऽभिनिवेशितः

क्षुत्पिपासाभ्यां च दह्यमानान्तर्बहिः शरीर आस्ते

शेते चेष्टते ऽवतिष्ठति परि धावति च यावन्ति

पशुरोमाणि तावद्वर्षसहस्राणि ॥ १४ ॥

जो मनुष्य इस लोकमें माता-पिता, ब्राह्मण और वेदसे विरोध करता है, उसे यमदूत कालसूत्र नरकमें ले जाते हैं। इसका घेरा दस हजार योजन है। इसकी भूमि ताँबेकी है। इसमें जो तपा हआ मैदान है, वह ऊपरसे सूर्य और नीचेसे अग्निके दाहसे जलता रहता है। वहाँ पहुँचाया हुआ पापी जीव भूख-प्याससे व्याकुल हो जाता है और उसका शरीर बाहर-भीतरसे जलने लगता है। उसकी बेचैनी यहाँतक बढ़ती है कि वह कभी बैठता है, कभी लेटता है, कभी छटपटाने लगता है, कभी खड़ा होता है और कभी इधर-उधर दौड़ने लगता है। इस प्रकार उस नर-पशुके शरीरमें जितने रोम होते हैं, उतने ही हजार वर्षतक उसकी यह दुर्गति होती रहती है ।।१४।।

यस्त्विह वै निजवेदपथादनापद्यपगतः

पाखण्डं चोपगतस्तमसिपत्रवनं प्रवेश्य कशया

प्रहरन्ति तत्र हासावितस्ततो धावमान उभयतोधारै-

स्तालवनासिपत्रैश्छिद्यमानसर्वाङ्गो हा हतोऽस्मीति

परमया वेदनया मूर्च्छितः पदे पदे निपतति स्वधर्महा

पाखण्डानुगतं फलं भुङ्क्ते ॥ १५ ॥

जो पुरुष किसी प्रकारकी आपत्ति न आनेपर भी अपने वैदिक मार्गको छोड़कर अन्य पाखण्डपूर्ण धर्मोंका आश्रय लेता है, उसे यमदूत असिपत्रवन नरकमें ले जाकर कोड़ोंसे पीटते हैं। जब मारसे बचनेके लिये वह इधर-उधर दौड़ने लगता है, तब उसके सारे अंग तालवनके तलवारके समान पैने पत्तोंसे, जिनमें दोनों ओर धारें होती हैं, टूक-टूक होने लगते हैं। तब वह अत्यन्त वेदनासे ‘हाय, मैं मरा!’ इस प्रकार चिल्लाता हुआ पद-पदपर मूर्च्छित होकर गिरने लगता है। अपने धर्मको छोड़कर पाखण्डमार्गमें चलनेसे उसे इस प्रकार अपने कुकर्मका फल भोगना पड़ता है ।।१५।।

यस्त्विह वै राजा राजपुरुषोवा अदण्ड्ये दण्डं

प्रणयति ब्राह्मणे वाशरीरदण्डं स पापीयान्नरकेऽमुत्र

सूकरमुखे निपतति तत्रातिबलैर्विनिष्पिष्यमाणा –

वयवो यथै वे हे क्षुखण्ड आर्तस्वरेण स्वनयन्

क्वचिन्मूर्च्छितः कश्मलमुपगतो यथैवेहादृष्टदोषा

उपरुद्धाः ॥ १६ ॥

इस लोकमें जो पुरुष राजा या राजकर्मचारी होकर किसी निरपराध मनुष्यको दण्ड देताहै अथवा ब्राह्मणको शरीरदण्ड देता है, वह महापापी मरकर सूकरमुख नरकमें गिरता है। वहाँ जब महाबली यमदूत उसके अंगोंको कुचलते हैं, तब वह कोल्हूमें पेरे जाते हुए गन्नोंके समान पीडित होकर, जिस प्रकार इस लोकमें उसके द्वारा सताये हए निरपराध प्राणी रोते-चिल्लाते थे, उसी प्रकार कभी आर्त स्वरसे चिल्लाता और कभी मूर्च्छित हो जाता है ।।१६।।

यस्त्विह वै भूतानामीश्वरोपकल्पितवृत्तीना –

मविविक्तपरव्यथानां स्वयं पुरुषोपकल्पितवृत्ति-

र्विविक्तपरव्यथो व्यथामाचरति स परत्रान्धकूपे

तदभिद्रोहेणनिपतति हासौ तैर्जन्तुभिःपशुमृग-

पक्षिसरीसृपैर्मशकयूकामत्कुणमक्षिकादिभिर्ये के

चाभिद्रुग्धास्तैः सर्वतोऽभिद्रुह्यमाणस्तमसि

विहतनिद्रानिर्वृतिरब्धावस्थानः परिक्रामति

यथा कुशरीरे जीवः ॥ १७ ॥

जो पुरुष इस लोकमें खटमल आदि जीवोंकी हिंसा करता है, वह उनसे द्रोह करनेके कारण अन्धकूप नरकमें गिरता है। क्योंकि स्वयं भगवान्ने ही रक्तपानादि उनकी वृत्ति बना दी है और उन्हें उसके कारण दूसरोंको कष्ट पहुँचनेका ज्ञान भी नहीं है; किन्तु मनुष्यकी वृत्ति भगवान्ने विधि-निषेधपूर्वक बनायी है और उसे दूसरोंके कष्टका ज्ञान भी है। वहाँ वे पशु, मग, पक्षी, साँप आदि रेंगनेवाले जन्तु, मच्छर, , खटमल और मक्खी आदि जीव-जिनसे उसने द्रोह किया था उसे सब ओरसे काटते हैं। इससे उसकी निद्रा और शान्ति भंग हो जाती है और स्थान न मिलनेपर भी वह बेचैनीके कारण उस घोर अन्धकारमें इस प्रकार भटकता रहता है जैसे रोगग्रस्त शरीरमें जीव छटपटाया करता है ।।१७।।

यस्त्विह वा असंविभज्याश्नाति यत्किञ्चनो-

पनतमनिर्मितपश्चयज्ञो वायससंस्तुतः स परत्र

कृमिभोजने नरकाधमे निपतति तत्र शतसहस्रयोजने

कृमिकुण्डे कृमिभूतः स्वयं कृमिभिरेव भक्ष्यमाणः

कृमिभोजनो यावत्तदप्रत्ताप्रहुतादोऽनिर्वेशमात्मानं यातयते ॥ १८ ॥

जो मनुष्य इस लोकमें बिना पंचमहायज्ञ किये तथा जो कुछ मिले, उसे बिना किसी दसरेको दिये स्वयं ही खा लेता है, उसे कौएके समान कहा गया है। वह परलोकमें कृमिभोजन नामक निकृष्ट नरकमें गिरता है। वहाँ एक लाख योजन लंबा-चौड़ा एक कीड़ोंका कुण्ड है। उसीमें उसे भी कीड़ा बनकर रहना पड़ता है और जबतक अपने पापोंका प्रायश्चित्त न करनेवाले उस पापीके बिना दिये और बिना हवन किये खानेके-दोषका अच्छी तरह शोधन नहीं हो जाता, तबतक वह उसीमें पड़ा-पड़ा कष्ट भोगता रहता है। वहाँ कीड़े उसे नोचते हैं और वह कीड़ोंको खाता है ।।१८।।

यस्त्विह वै स्तेयेन बलाद्वा हिरण्यरत्‍नादीनि

ब्राह्मणस्य वापहरत्यन्यस्य वानापदि पुरुषस्तममुत्र

राजन् यमपुरुषा अयस्मयैरग्निपिण्डैः सन्दंशैस्त्वचि

निष्कृषन्ति ॥ १९ ॥

राजन्! इस लोकमें जो व्यक्ति चोरी या बरजोरीसे ब्राह्मणके अथवा आपत्तिका समय न होनेपर भी किसी दूसरे पुरुषके सुवर्ण और रत्नादिका हरण करता है, उसे मरनेपर यमदूत सन्दंश नामक नरकमें ले जाकर तपाये हुए लोहेके गोलोंसे दागते हैं और सँड़सीसे उसकी खाल नोचते हैं ||१९||

यस्त्विह वा अगम्यां स्त्रियमगम्यं वा पुरुषं

योषिदभिगच्छति तावमुत्र कशया ताडयन्त-

स्तिग्मया सूर्म्या लोहमय्या पुरुषमालिङ्गयन्ति स्त्रियं

च पुरुषरूपया सूर्म्या ॥ २० ॥

इस लोकमें यदि कोई पुरुष अगम्या स्त्रीके साथ सम्भोग करता है अथवा कोई स्त्री अगम्य पुरुषसे व्यभिचार करती है, तो यमदूत उसे तप्तसूर्मि नामक नरकमें ले जाकर कोड़ोंसे पीटते हैं तथा पुरुषको तपाये हुए लोहेकी स्त्री-मूर्तिसे और स्त्रीको तपायी हई पुरुष-प्रतिमासे आलिंगन कराते हैं ।।२०।।

यस्त्विह वै सर्वाभिगमस्तममुत्र निरये वर्तमानं

वज्रकण्टकशाल्मलीमारोप्य निष्कर्षन्ति ॥ २१ ॥

जो पुरुष इस लोकमें पशु आदि सभीके साथ व्यभिचार करता है, उसे मृत्युके बाद यमदूत वज्रकण्टकशाल्मली नरकमें गिराते हैं और वज्रके समान कठोर काँटोंवाले सेमरके वृक्षपर चढ़ाकर फिर नीचेकी ओर खींचते हैं ।।२१।।

ये त्विह वै राजन्या राजपुरुषा वा अपाखण्डा

धर्मसेतून् भिन्दन्ति ते सम्परेत्य वैतरण्यां निपतन्ति

भिन्नमर्यादास्तस्यां निरयपरिखाभूतायां नद्यां

यादोगणैरितस्ततो भक्ष्यमाणा आत्मना न

वियुज्यमानाश्चासुभिरुह्यमानाः स्वाघेन

कर्मपाकमनुस्मरन्तो विण्मूत्रपूयशोणितकेश-

नखास्थिमेदोमांसवसावाहिन्यामुपतप्यन्ते ॥ २२ ॥

जो राजा या राजपुरुष इस लोकमें श्रेष्ठ कुलमें जन्म पाकर भी धर्मकी मर्यादाका उच्छेद करते हैं, वे उस मर्यादातिक्रमणके कारण मरनेपर वैतरणी नदीमें पटके जाते हैं। यह नदी नरकोंकी खाईके समान है; उसमें मल, मूत्र, पीब, रुक्त, केश, नख, हड्डी, चर्बी, मांस और मज्जा आदि गंदी चीजें भरी हुई हैं। वहाँ गिरनेपर उन्हें इधर-उधरसे जलके जीव नोचते हैं। किन्तु इससे उनका शरीर नहीं छूटता, पापके कारण प्राण उसे वहन किये रहते हैं और वे उस दुर्गतिको अपनी करनीका फल समझकर मन-ही-मन सन्तप्त होते रहते हैं ||२२||

ये त्विह वै वृषलीपतयो नष्टशौचाचारनियमा-

स्त्यक्तलज्जाः पशुचर्यां चरन्ति ते चापि प्रेत्य

पूयविण्मूत्रश्लेष्ममलापूर्णार्णवे निपतन्तित देवाति-

बीभत्सितमश्नन्ति ॥ २३ ॥

जो लोग शौच और आचारके नियमोंका परित्याग कर तथा लज्जाको तिलांजलि देकर इस लोकमें शूद्राओंके साथ सम्बन्ध गाँठकर पशुओंके समान आचरण करते हैं, वे भी मरनेके बाद पीब, विष्ठा, मूत्र, कफ और मलसे भरे हुए पूयोद नामक समुद्रमें गिरकर उन अत्यन्त घृणित वस्तुओंको ही खाते हैं ।।२३।।

ये त्विह वै श्वगर्दभपतयो ब्राह्मणादयो मृगया-

विहारा अतीर्थे च मृगान्निघ्नन्ति तानपि सम्परेताँ-

ल्लक्ष्यभूतान् यमपुरुषा इषुभिर्विध्यन्ति ॥ २४ ॥

इस लोकमें जो ब्राह्मणादि उच्च वर्णके लोग कुत्ते या गधे पालते और शिकार आदिमें लगे रहते हैं तथा शास्त्रके विपरीत पशुओंका वध करते हैं, मरनेके पश्चात् वे प्राणरोध नरकमें डाले जाते हैं और वहाँ यमदूत उन्हें लक्ष्य बनाकर बाणोंसे बींधते हैं ।।२४।।

ये त्विह वै दाम्भिका दम्भयज्ञेषु पशून्

विशसन्ति तानमुष्मिँल्लोके वैशसे नरके

पतितान्निरयपतयो यातयित्वा विशसन्ति ॥ २५ ॥

जो पाखण्डीलोग पाखण्डपूर्ण यज्ञोंमें पशुओंका वध करते हैं, उन्हें परलोकमें वैशस (विशसन) नरकमें डालकर वहाँके अधिकारी बहुत पीड़ा देकर काटते हैं ।।२५।।

य स्त्विह वै सवर्णां भार्यां द्विजो रेतः पाययति

काममोहितस्तं पापकृतममुत्र रेतःकुल्यायां

पातयित्वा रेतः सम्पाययन्ति ॥ २६ ॥

जो द्विज कामातुर होकर अपनी सवर्णा भार्याको वीर्यपान कराता है, उस पापीको मरनेके बाद यमदूत वीर्यकी नदी (लालभक्ष नामक – नरक)-में डालकर वीर्य पिलाते हैं ||२६||

ये त्विह वै दस्यवोऽग्निदा गरदा ग्रामान् सार्थान्

वा विलुम्पन्ति राजानो राजभटा वा तांश्चापि हि

परेत्य यमदूता वज्रदंष्ट्राः श्वानः सप्तशतानि

विंशतिश्च सरभसं खादन्ति ॥ २७ ॥

जो कोई चोर अथवा राजा या राजपुरुष इस लोकमें किसीके घरमें आग लगा देते हैं, किसीको विष दे देते हैं अथवा गाँवों या व्यापारियोंकी टोलियोंको लूट लेते हैं, उन्हें मरनेके पश्चात् सारमेयादन नामक नरकमें वज्रकी-सी दाढ़ोंवाले सात सौ बीस यमदूत कुत्ते बनकर बड़े वेगसे काटने लगते हैं ||२७||

यस्त्विह वाअनृतं वदति साक्ष्ये द्रव्यविनिमये

दाने वा कथञ्चित्स वै प्रेत्य नरकेऽवीचिमत्यधःशिरा

निरवकाशे योजनशतोच्छ्रायाद् गिरिमूर्ध्रः

सम्पात्यते यत्र जलमिव स्थलमश्मपृष्ठमवभासते

तदवीचिमत्तिलशो विशीर्यमाणशरीरो न

म्रियमाणः पुनरारोपितो निपतति ॥ २८ ॥

इस लोकमें जो पुरुष किसीकी गवाही देनेमें, व्यापारमें अथवा दानके समय किसी भी तरह झूठ बोलता है, वह मरनेपर आधारशून्य अवीचिमान् नरकमें पड़ता है। वहाँ उसे सौ योजन ऊँचे पहाड़के शिखरसे नीचेको सिर करके गिराया जाता है। उस नरककी पत्थरकी भूमि जलके समान जान पड़ती है। इसीलिये इसका नाम अवीचिमान् है। वहाँ गिराये जानेसे उसके शरीरके टुकड़े-टुकड़े हो जानेपर भी प्राण नहीं निकलते, इसलिये इसे बार-बार ऊपर ले जाकर पटका जाता है ।।२८।।

यस्त्विह वै विप्रो राजन्यो वैश्यो वा सोमपीथ-

स्तत्कलत्र वा सुरां व्रतस्थोऽपि वा पिबति प्रमाद-

तस्तेषां निरयं नीतानामुरसि पदाऽऽक्रम्यास्ये वह्निना

द्रवमाणं कार्ष्णायसं निषिश्चन्ति ॥ २९ ॥

जो ब्राह्मण या ब्राह्मणी अथवा व्रतमें स्थित और कोई भी प्रमादवश मद्यपान करता है तथा जो क्षत्रिय या वैश्य सोमपान करता है, उन्हें यमदूत अयःपान नामके नरकमें ले जाते हैं और उनकी छातीपर पैर रखकर उनके मुँहमें आगसे गलाया हुआ लोहा डालते हैं ।।२९।।

अथ च यस्त्विह वा आत्मसम्भावनेन

स्वयमधमो जन्मतपोविद्याचारवर्णाश्रमवतो

वरीयसो न बहु मन्येत स मृतक एव मृत्वा क्षारकर्दमे

निरयेऽवाक् शिरा निपातितो दुरन्ता यातना

ह्यश्रुते ॥ ३० ॥

जो पुरुष इस लोकमें निम्न श्रेणीका होकर भी अपनेको बड़ा माननेके कारण जन्म, तप, विद्या, आचार, वर्ण या आश्रममें अपनेसे बड़ोंका विशेष सत्कार नहीं करता, वह जीता हुआ भी मरेके ही समान है। उसे मरनेपर क्षारकर्दम नामके नरकमें नीचेको सिर करके गिराया जाता है और वहाँ उसे अनन्त पीड़ाएँ भोगनी पड़ती हैं ।।३०।।

ये त्विह वै पुरुषाः पुरुषमेधेन यजन्ते याश्च

स्त्रियो नृपशन् खादन्ति तांश्च ते पशव इव निहता

यमसदने यातयन्तो रक्षोगणाः सौनिका इव

स्वधितिनाऽवदायासृक् पिबन्ति नृत्यन्ति च

गायन्ति च हृष्यमाणा यथेह पुरुषादाः ॥ ३१ ॥

जो पुरुष इस लोकमें नरमेधादिके द्वारा भैरव, यक्ष, राक्षस आदिका यजन करते हैं और जो स्त्रियाँ पशुओंके समान पुरुषोंको खा जाती हैं, उन्हें वे पशुओंकी तरह मारे हुए पुरुष यमलोकमें राक्षस होकर तरह-तरहकी यातनाएँ देते हैं और रक्षोगण भोजन नामक नरकमें कसाइयोंके समान कुल्हाड़ीसे काट-काटकर उसका लोहू पीते हैं। तथा जिस प्रकार वे मांसभोजी पुरुष इस लोकमें उनका मांस भक्षण करके आनन्दित होते थे, उसी प्रकार वे भी उनका रक्तपान करते और आनन्दित होकर नाचते-गाते हैं ||३१||

ये त्विह वा अनागसोऽरण्ये ग्रामे वा

वैश्रम्भकैरुपसृतानुपविश्रम्भय्य जिजीविषून्

शूलसूत्रादिषूपप्रोतान् क्रीडनकतया यातयन्ति

तेऽपि च प्रेत्य यमयातनासु शूलादिषु प्रोतात्मानः

क्षुतृड्भ्यां चाभिहताः कङ्कवटादिभिश्चेतस्तत-

स्तिग्मतुण्डैराहन्यमाना आत्मशमलं स्मरन्ति ॥ ३२ ॥

इस लोकमें जो लोग वन या गाँवके निरपराध जीवोंको-जो सभी अपने प्राणोंको रखना चाहते हैं—तरह-तरहके उपायोंसे फुसलाकर अपने पास बुला लेते हैं और फिर उन्हें काँटेसे बेधकर या रस्सीसे बाँधकर खिलवाड़ करते हए तरह-तरहकी पीडाएँ देते हैं, उन्हें भी मरनेके पश्चात यमयातनाओंके समय शूलप्रोत नामक नरकमें शूलोंसे बेधा जाता है। उस समय जब उन्हें भूख-प्यास सताती है और कंक, बटेर आदि तीखी चोंचोंवाले नरकके भयानक पक्षी नोचने लगते हैं, तब अपने किये हुए सारे पाप याद आ जाते हैं ।।३२।।

ये त्विह वै भूतान्युद्वेजयन्ति नरा उल्बणस्वभावा

यथा दन्दशूकास्तेऽपि प्रेत्य नरके दन्दशूकाख्ये

निपतन्ति यत्र नृप दन्दशूकाः पञ्चमुखाः

सप्तमुखा उपसृत्य ग्रसन्ति यथा बिलेशयान् ॥ ३३ ॥

राजन्! इस लोकमें जो सर्पोके समान उग्रस्वभाव पुरुष दूसरे जीवोंको पीड़ा पहुँचाते हैं, वे मरनेपर दन्दशूक नामके नरकमें गिरते हैं। वहाँ पाँच-पाँच, सात-सात मुँहवाले सर्प उनके समीप आकर उन्हें चूहोंकी तरह निगल जाते हैं ।।३३।।

ये त्विह वा अन्धावटकुसूलगुहादिषु भूतानि

निरुन्धन्ति तथामुत्र तेष्वेवोपवेश्य सगरेण वह्निना

धूमेन निरुध्यधन्ति ॥ ३४ ॥

जो व्यक्ति यहाँ दूसरे प्राणियोंको अँधेरी खत्तियों, कोठों या गुफाओंमें डाल देते हैं, उन्हें परलोकमें यमदूत वैसे ही स्थानोंमें डालकर विषैली आगके धुएँमें घोंटते हैं। इसीलिये इस नरकको अवटनिरोधन कहते हैं ||३४।।

यस्त्विह वा अतिथीनभ्यागतान् वा

गृहपतिरसकृदुपगतमन्युर्दिधक्षुरिव पापेन चक्षुषा

निरीक्षते तस्य चापि निरये पापदृष्टेरक्षिणी वज्रतुण्डा

गृध्राः कङ्ककाकवटादयः प्रसह्योरुबलादुत्पाटयन्ति

॥ ३५ ॥

जो गृहस्थ अपने घर आये अतिथि-अभ्यागतोंकी ओर बार-बार क्रोधमें भरकर ऐसी कुटिल दृष्टिसे देखता है मानों उन्हें भस्म कर देगा, वह जब नरकमें जाता है, तब उस पापदृष्टिके नेत्रोंको गिद्ध, कंक, काक और बटेर आदि वज्रकी-सी कठोर चोंचोंवाले पक्षी बलात् निकाल लेते हैं। इस नरकको पर्यावर्तन कहते हैं ।।३५।।

यस्त्विह वा आढ्याभिमतिरहङ्कृतिस्तिर्यक्-

प्रेक्षणः सर्वतोऽभिविशङ्की अर्थव्ययनाशचिन्तया

परिशुष्यमाणहृदयवदनो निर्वृतिमनवगतो ग्रह

इवार्थमभिरक्षति स चापि प्रेत्य तदुत्पादनोत्कर्षण-

संरक्षणशमलग्रहः सूचीमुखे नरके निपतति यत्र ह

वित्तग्रहं पापपुरुषं धर्मराजपुरुषा वायका इव

सर्वतोऽङ्गेषु सूत्रैः परिवयन्ति ॥ ३६ ॥

इस लोकमें जो व्यक्ति अपनेको बड़ा धनवान् समझकर अभिमानवश सबको टेढ़ी नजरसे देखता है और सभीपर सन्देह रखता है, धनके व्यय और नाशकी चिन्तासे जिसके हृदय और मँह सखे रहते हैं, अतः तनिक भी चैन न मानकर जो यक्षके समान धनकी रक्षामें ही लगा रहता है तथा पैसा पैदा करने, बढ़ाने और बचाने में जो तरह-तरहके पाप करता रहता है, वह नराधम मरनेपर सूचीमुख नरकमें गिरता है। वहाँ उस अर्थपिशाच पापात्माके सारे अंगोंको यमराजके दूत दर्जियोंके समान सूई-धागेसे सीते हैं ।।३६।।।

एवंविधा नरका यमालये सन्ति शतशः

सहस्रशस्तेषु सर्वेषु च सर्व एवाधर्मवर्तिनो ये

केचिदिहोदिता अनुदिताश्चावनिपते पर्यायेण

विशन्ति तथैव धर्मानुवर्तिन इतरत्र इह तु पुनर्भवे

त उभयशेषाभ्यां निविशन्ति ॥ ३७ ॥

राजन! यमलोकमें इसी प्रकारके सैकड़ों-हजारों नरक हैं। उनमें जिनका यहाँ उल्लेख हुआ है और जिनके विषयमें कुछ नहीं कहा गया, उन सभीमें सब अधर्मपरायण जीव अपने कर्मों के अनुसार बारी-बारीसे जाते हैं। इसी प्रकार धर्मात्मा पुरुष स्वर्गादिमें जाते हैं। इस प्रकार नरक और स्वर्गके भोगसे जब इनके अधिकांश पाप और पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब बाकी बचे हुए पुण्य-पापरूप कर्मोंको लेकर ये फिर इसी लोकमें जन्म लेनेके लिये लौट आते हैं ||३७।।

निवृत्तिलक्षणमार्ग आदावेव व्याख्यातः ।

एतावानेवाण्डकोशो यश्चतुर्दशधा पुराणेषु

विकल्पित उपगीयते यत्तद्‌भगवतो नारायणस्य

साक्षान्महापुरुषस्य स्थविष्ठं रूपमात्ममाया-

गुणमयमनुवर्णितमादृतः पठति शृणोति श्रावयति

स उपगेयं भगवतः परमात्मनोऽग्राह्यमपि

श्रद्धाभक्तिविशुद्धबुद्धिर्वेद ॥ ३८ ॥

इन धर्म और अधर्म दोनोंसे विलक्षण जो निवृत्तिमार्ग है, उसका तो पहले (द्वितीय स्कन्धमें) ही वर्णन हो चुका है। पुराणोंमें जिसका चौदह भुवनके रूपमें वर्णन किया गया है, वह ब्रह्माण्डकोश इतना ही है। यह साक्षात् परम पुरुष श्रीनारायणका अपनी मायाके गणोंसे युक्त अत्यन्त स्थूल स्वरूप है। इसका वर्णन मैंने तुम्हें सुना दिया। परमात्मा भगवान्का उपनिषदोंमें वर्णित निर्गुणस्वरूप यद्यपि मन-बुद्धिकी पहुँचके बाहर है तो भी जो पुरुष इस स्थूलरूपका वर्णन आदरपूर्वक पढ़ता, सुनता या सुनाता है, उसकी बुद्धि श्रद्धा और भक्तिके कारण शुद्ध हो जाती है और वह उस सूक्ष्मरूपका भी अनुभव कर सकता है ।।३८।।

श्रुत्वा स्थूलं तथा सूक्ष्मं रूपं भगवतो यतिः ।

स्थूले निर्जितमात्मानं शनैःसूक्ष्मं धिया नयेदिति ॥ ३९

यतिको चाहिये कि भगवान्के स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकारके रूपोंका श्रवण करके पहले स्थूलरूपमें चित्तको स्थिर करे, फिर धीरे-धीरे वहाँसे हटाकर उसे सूक्ष्ममें लगा दे ।।३९।।

भूद्वीपवर्षसरिदद्रिनभःसमुद्र-

पातालदिङ्नरकभागणलोकसंस्था ।

गीता मया तव नृपाद्‌भुतमीश्वरस्य

स्थूलं वपुः सकलजीवनिकायधाम ॥ ४० ॥

परीक्षित्! मैंने तुमसे पृथ्वी, उसके अन्तर्गत द्वीप, वर्ष, नदी, पर्वत, आकाश, समुद्र, पाताल, दिशा, नरक, ज्योतिर्गण और लोकोंकी स्थितिका वर्णन किया। यही भगवान्का अति अद्भुत स्थूलरूप है, जो समस्त जीवसमुदायका आश्रय है ।।४०।।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

पञ्चमस्कन्धे नरकानुवर्णनं नाम षड्विशोऽध्यायः ॥ २६ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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