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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 5 अध्याय 6

Spread the Glory of Sri SitaRam!

श्रीमद्भागवतपुराणम्
अध्यायः ६

अथ षष्ठोऽध्यायः
राजोवाच
न नूनं भगव आत्मारामाणां योगसमीरितज्ञानावभर्जितकर्मबीजानामैश्वर्याणि पुनः
क्लेशदानि भवितुमर्हन्ति यदृच्छयोपगतानि १

राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन्! योगरूप वायुसे प्रज्वलित हई ज्ञानाग्निसे जिनके रागादि कर्मबीज दग्ध हो गये हैं-उन आत्माराम मुनियोंको दैववश यदि स्वयं ही अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त हो जायँ, तो वे उनके राग-द्वेषादि क्लेशोंका कारण तो किसी प्रकार हो नहीं सकतीं। फिर भगवान् ऋषभने उन्हें स्वीकार क्यों नहीं किया? ||१||

ऋषिरुवाच
सत्यमुक्तं किन्त्विह वा एके न मनसोऽद्धा विश्रम्भमनवस्थानस्य शठकिरात इव सङ्गच्छन्ते २
श्रीशुकदेवजीने कहा-तुम्हारा कहना ठीक है; किन्तु संसारमें जैसे चालाक व्याध अपने पकड़े हुए मृगका विश्वास नहीं करते, उसी प्रकार बुद्धिमान् लोग इस चंचल चित्तका भरोसा नहीं करते ।।२।।

तथा चोक्तम्
न कुर्यात्कर्हिचित्सख्यं मनसि ह्यनवस्थिते
यद्विश्रम्भाच्चिराच्चीर्णं चस्कन्द तप ऐश्वरम् ३

ऐसा ही कहा भी है—’इस चंचल चित्तसे कभी मैत्री नहीं करनी चाहिये। इसमें विश्वास करनेसे ही मोहिनीरूपमें फँसकर महादेवजीका चिरकालका संचित तप क्षीणहो गया था ||३||

नित्यं ददाति कामस्य च्छिद्रं तमनु येऽरयः
योगिनः कृतमैत्रस्य पत्युर्जायेव पुंश्चली ४

जैसे व्यभिचारिणी स्त्री जार पुरुषोंको अवकाश देकर उनके द्वारा अपनेमें विश्वास रखनेवाले पतिका वध करा देती है उसी प्रकार जो योगी मनपर विश्वास करते हैं, उनका मन काम और उसके साथी क्रोधादि शत्रुओंको आक्रमण करनेका अवसर देकर उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर देता है ||४||

कामो मन्युर्मदो लोभः शोकमोहभयादयः
कर्मबन्धश्च यन्मूलः स्वीकुर्यात्को नु तद्बुधः ५

काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और भय आदि शत्रुओंका तथा कर्मबन्धनका मूल तो यह मन ही है; इसपर कोई भी बुद्धिमान् कैसे विश्वास कर सकता है? ||५||

अथैवमखिललोकपालललामोऽपि विलक्षणैर्जडवदवधूतवेषभाषा-चरितैरविलक्षित भगवत्प्रभावो योगिनां साम्परायविधिमनुशिक्षयन्स्वकलेवरं जिहासुरात्मन्यात्मानमसंव्यवहितमनर्थान्तरभावेनान्वीक्षमाण उपरतानुवृत्तिरुपरराम ६

इसीसे भगवान् ऋषभदेव यद्यपि इन्द्रादि सभी लोकपालोंके भी भूषणस्वरूप थे, तो भी वे जड पुरुषोंकी भाँति अवधूतोंके-से विविध वेष, भाषा और आचरणसे अपने ईश्वरीय प्रभावको छिपाये रहते थे। अन्तमें उन्होंने योगियोंको देहत्यागकी विधि सिखानेके लिये अपना शरीर छोड़ना चाहा। वे अपने अन्तःकरणमें अभेदरूपसे स्थित परमात्माको अभिन्नरूपसे देखते हुए वासनाओंकी अनुवृत्तिसे छूटकर लिंगदेहके अभिमानसे भी मुक्त होकर उपराम हो गये ।।६।।

तस्य ह वा एवं मुक्तलिङ्गस्य भगवत ऋषभस्य योगमायावासनया देह इमां जगतीमभिमानाभासेन सङ्क्रममाणः कोङ्कवेङ्ककुटकान्दक्षिणकर्णाटकान्देशान्यदृच्छयोपगतः कुटकाचलोपवन आस्य कृताश्मकवल उन्माद इव मुक्तमूर्धजोऽसंवीत एव विचचार ७

इस प्रकार लिंगदेहके अभिमानसे मुक्त भगवान् ऋषभदेवजीका शरीर योगमायाकी वासनासे केवल अभिमानाभासके आश्रय ही इस पृथ्वीतलपर विचरता रहा। वह दैववश कोंक, वेंक और दक्षिण आदि कटक कर्णाटकके देशोंमें गया और मुँहमें पत्थरका टुकड़ाडाले तथा बाल बिखेरे उन्मत्तके समान दिगम्बररूपसे कुटकाचलके वनमें घूमने लगा ।।७।।

अथ समीरवेगविधूतवेणुविकर्षणजातोग्रदावानलस्तद्वनमालेलिहानः सह तेन ददाह ८

इसी समय झंझावातसे झकझोरे हुए बाँसोंके घर्षणसे प्रबल दावाग्नि धधक उठी और उसने सारे वनको अपनी लाल-लाल लपटोंमें लेकर ऋषभदेवजीके सहित भस्म कर दिया ।।८।।

यस्य किलानुचरितमुपाकर्ण्य कोङ्कवेङ्ककुटकानां राजार्हन्नामोपशिक्ष्य कलावधर्म उत्कृष्यमाणे भवितव्येन विमोहितः स्वधर्मपथमकुतोभयमपहाय कुपथपाखण्डमसमञ्जसं निजमनीषया मन्दः सम्प्रवर्तयिष्यते ९

राजन्! जिस समय कलियुगमें अधर्मकी वृद्धि होगी, उस समय कोंक, वेंक और कटक देशका मन्दमति राजा अर्हत् वहाँके लोगोंसे ऋषभदेवजीके आश्रमातीत आचरणका वृत्तान्त सुनकर तथा स्वयं उसे ग्रहणकर लोगोंके पूर्वसंचित पापफलरूप होनहारके वशीभूत हो भयरहित स्वधर्म-पथका परित्याग करके अपनी बुद्धिसे अनुचित और पाखण्डपूर्ण कुमार्गका प्रचार करेगा ||९||

येन ह वाव कलौ मनुजापसदा देवमायामोहिताः स्वविधिनियोगशौचचारित्रविहीना देवहेलनान्यपव्रतानि निजनिजेच्छया गृह्णाना अस्नानानाचमनाशौचकेशोल्लुञ्चनादीनि कलिनाधर्मबहुलेनोपहतधियो ब्रह्मब्राह्मणयज्ञपुरुषलोकविदूषकाः प्रायेण भविष्यन्ति १०

उससे कलियुगमें देवमायासे मोहित अनेकों अधम मनुष्य अपने शास्त्रविहित शौच और आचारको छोड़ बैठेंगे। अधर्मबहुल कलियुगके प्रभावसे बुद्धिहीन हो जानेके कारण वे स्नान न करना, आचमन न करना, अशुद्ध रहना, केश नुचवाना आदि ईश्वरका तिरस्कार करनेवाले पाखण्डधर्मोंको मनमाने ढंगसे स्वीकार करेंगे और प्रायः वेद, ब्राह्मण एवं भगवान् यज्ञपुरुषकी निन्दा करने लगेंगे ।।१०।।

ते च ह्यर्वाक्तनया निजलोकयात्रयान्धपरम्परयाश्वस्तास्तमस्यन्धे स्वयमेव प्रपतिष्यन्ति ११

वे अपनी इस नवीन अवैदिक स्वेच्छाकृत प्रवृत्तिमें अन्धपरम्परासे विश्वास करके मतवाले रहनेके कारण स्वयं ही घोर नरकमें गिरेंगे ।।११।।

अयमवतारो रजसोपप्लुतकैवल्योपशिक्षणार्थः १२

भगवान्का यह अवतार रजोगुणसे भरे हुए लोगोंको मोक्षमार्गकी शिक्षा देनेके लिये ही हुआ था ।।१२।।

तस्यानुगुणान्श्लोकान्गायन्ति
अहो भुवः सप्तसमुद्रवत्या द्वीपेषु वर्षेष्वधिपुण्यमेतत्
गायन्ति यत्रत्यजना मुरारेः कर्माणि भद्राण्यवतारवन्ति १३

इसके गुणोंका वर्णन करते हुए लोग इन वाक्योंको कहा करते हैं—’अहो! सात समुद्रोंवाली पृथ्वीके समस्त द्वीप और वर्षों में यह भारतवर्ष बड़ी ही पुण्यभूमि है, क्योंकि यहाँके लोग श्रीहरिके मंगलमय अवतार-चरित्रोंका गान करते हैं ।।१३।।

अहो नु वंशो यशसावदातः प्रैयव्रतो यत्र पुमान्पुराणः
कृतावतारः पुरुषः स आद्यश्चचार धर्मं यदकर्महेतुम् १४

अहो! महाराज प्रियव्रतका वंश बड़ा ही उज्ज्वल एवं सुयशपूर्ण है, जिसमें पुराणपुरुष श्रीआदिनारायणने ऋषभावतार लेकर मोक्षकी प्राप्ति करानेवाले पारमहंस्य धर्मका आचरण किया ।।१४।।

को न्वस्य काष्ठामपरोऽनुगच्छेन्मनोरथेनाप्यभवस्य योगी
यो योगमायाः स्पृहयत्युदस्ता ह्यसत्तया येन कृतप्रयत्नाः १५

अहो! इन जन्मरहित भगवान् ऋषभदेवके मार्गपर कोई दूसरा योगी मनसे भी कैसे चल सकता है। क्योंकि योगीलोग जिन योगसिद्धियोंके लिये लालायित होकर निरन्तर प्रयत्न करते रहते हैं, उन्हें इन्होंने अपने-आप प्राप्त होनेपर भी असत् समझकर त्याग दिया था ।।१५।।

इति ह स्म सकलवेदलोकदेवब्राह्मणगवां परमगुरोर्भगवत ऋषभाख्यस्य विशुद्धाचरितमीरितं पुंसां समस्तदुश्चरिताभिहरणं परममहामङ्गलायनमिदमनुश्रद्धयोपचितयानुशृणोत्याश्रावयति वा-वहितो भगवति तस्मिन्वासुदेव एकान्ततो भक्तिरनयोरपि समनुवर्तते १६

राजन्! इस प्रकार सम्पूर्ण वेद, लोक, देवता, ब्राह्मण और गौओंके परमगुरु भगवान् ऋषभदेवका यह विशुद्ध चरित्र मैंने तुम्हें सुनाया। यह मनुष्योंके समस्त पापोंको हरनेवाला है। जो मनुष्य इस परम मंगलमय पवित्र चरित्रको एकाग्रचित्तसे श्रद्धापूर्वक निरन्तर सुनते या सुनाते हैं, उन दोनोंकी ही भगवान् वासुदेवमें अनन्यभक्ति हो जाती है ।।१६।।

यस्यामेव कवय आत्मानमविरतं विविधवृजिनसंसारपरितापोपतप्यमानमनुसवनं स्नापयन्तस्तयैव परया निर्वृत्या ह्यपवर्गमात्यन्तिकं परमपुरुषार्थमपि स्वयमासादितं नो एवाद्रियन्ते भगवदीयत्वेनैव परिसमाप्तसर्वार्थाः १७

तरह-तरहके पापोंसे पूर्ण, सांसारिक तापोंसे अत्यन्त तपे हुए अपने अन्तःकरणको पण्डितजन इस भक्तिसरितामें ही नित्य-निरन्तर नहलाते रहते हैं। इससे उन्हें जो परम शान्ति मिलती है, वह इतनी आनन्दमयी होती है कि फिर वे लोग उसके सामने, अपने-ही-आप प्राप्त हुए मोक्षरूप परम पुरुषार्थका भी आदर नहीं करते। भगवान्के निजजन हो जानेसे ही उनके समस्त पुरुषार्थ सिद्ध हो जाते हैं ।।१७।।

राजन्पतिर्गुरुरलं भवतां यदूनां
दैवं प्रियः कुलपतिः क्व च किङ्करो वः
अस्त्वेवमङ्ग भगवान्भजतां मुकुन्दो
मुक्तिं ददाति कर्हिचित्स्म न भक्तियोगम् १८

राजन्! भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं पाण्डवलोगोंके और यदुवंशियोंके रक्षक, गुरु, इष्टदेव, सुहृद् और कुलपति थे; यहाँतक कि वे कभी-कभी आज्ञाकारी सेवक भी बन जाते थे। इसी प्रकार भगवान् दूसरे भक्तोंके भी अनेकों कार्य कर सकते हैं और उन्हें मक्ति भी दे देते हैं, परन्तु मुक्तिसे भी बढ़कर जो भक्तियोग है, उसे सहजमें नहीं देते ।।१८।।

नित्यानुभूतनिजलाभनिवृत्ततृष्णः
श्रेयस्यतद्रचनया चिरसुप्तबुद्धेः
लोकस्य यः करुणयाभयमात्मलोकम्
आख्यान्नमो भगवते ऋषभाय तस्मै १९

निरन्तर विषय-भोगोंकी अभिलाषा करनेके कारण अपने वास्तविक श्रेयसे चिरकालतक बेसुध हुए लोगोंको जिन्होंने करुणावश निर्भय आत्मलोकका उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होनेवाले आत्मस्वरूपकी प्राप्तिसे सब प्रकारकी तृष्णाओंसे मुक्त थे, उन भगवान् ऋषभदेवको नमस्कार है ।।१९।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे ऋषभदेवानुचरिते षष्ठोऽध्यायः


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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