श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 6 अध्याय 14
अध्यायः १४
श्रीमद्भागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः – चतुर्दशोऽध्यायः
वृत्रासुरस्य पूर्वजन्मवृत्तान्ते चित्रकेतु उपाख्यानम्,
अङ्गिरःप्रसादेन लब्धे स्वसुते विनष्टे,
चित्रकेतोरत्यन्त शोकः, कृतद्युतेर्विलापश्च –
श्रीपरीक्षिदुवाच –
रजस्तमःस्वभावस्य ब्रह्मन् वृत्रस्य पाप्मनः ।
नारायणे भगवति कथमासीद् दृढा मतिः ॥ १ ॥
राजा परीक्षित्ने कहा—भगवन्! वृत्रासुरका स्वभाव तो बड़ा रजोगुणी-तमोगुणी था। वह देवताओंको कष्ट पहुँचाकर पाप भी करता ही था। ऐसी स्थितिमें भगवान् नारायणके चरणोंमें उसकी सुदृढ़ भक्ति कैसे हुई? ||१||
देवानां शुद्धसत्त्वानांऋषीणां चामलात्मनाम् ।
भक्तिर्मुकुन्दचरणे न प्रायेणोपजायते ॥ २ ॥
हम देखते हैं कि प्रायः शुद्ध सत्त्वमय देवता और पवित्रहृदय ऋषि भी भगवान्की परम प्रेममयी अनन्य भक्तिसे वंचित ही रह जाते हैं। सचमुच भगवानकी भक्ति बड़ी दुर्लभ है ||२||
रजोभिः समसङ्ख्याताः पार्थिवैरिह जन्तवः ।
तेषां ये केचनेहन्ते श्रेयो वै मनुजादयः ॥ ३ ॥
भगवन! इस जगतके प्राणी पृथ्वीके धूलिकणोंके समान ही असंख्य हैं। उनमेंसे कुछ मनुष्य आदि श्रेष्ठ जीव ही अपने कल्याणकी चेष्टा करते हैं ||३||
प्रायो मुमुक्षवस्तेषां केचनैव द्विजोत्तम ।
मुमुक्षूणां सहस्रेषु कश्चिन् मुच्येत सिध्यति ॥ ४ ॥
ब्रह्मन्! उनमें भी संसारसे मुक्ति चाहनेवाले तो बिरले ही होते हैं और मोक्ष चाहनेवाले हजारों में मुक्ति या सिद्धि लाभ तो कोई-सा ही कर पाता है ।।४।।
मुक्तानामपि सिद्धानां नारायणपरायणः ।
सुदुर्लभः प्रशान्तात्मा कोटिष्वपि महामुने ॥ ५ ॥
महामुने! करोड़ों सिद्ध एवं मुक्त पुरुषों में भी वैसे शान्तचित्त महापुरुषका मिलना तो बहुत ही कठिन है, जो एकमात्र भगवान्के ही परायण हो ।।५।।
वृत्रस्तु स कथं पापः सर्वलोकोपतापनः ।
इत्थं दृढमतिः कृष्ण आसीत् संग्राम उल्बणे ॥ ६ ॥
ऐसी अवस्थामें वह वृत्रासुर, जो सब लोगोंको सताता था और बड़ा पापी था, उस भयंकर युद्धके अवसरपर भगवान् श्रीकृष्णमें अपनी वृत्तियोंको इस प्रकार दृढ़तासे लगा सका—इसका क्या कारण है? ||६।।
अत्र नः संशयो भूयान् श्रोतुं कौतूहलं प्रभो ।
यः पौरुषेण समरे सहस्राक्षमतोषयत् ॥ ७ ॥
प्रभो! इस विषयमें हमें बहुत अधिक सन्देह है और सुननेका बड़ा कौतूहल भी है। अहो, वृत्रासुरका बल-पौरुष कितना महान् था कि उसने रणभूमिमें देवराज इन्द्रको भी सन्तुष्ट कर दिया ।।७।।
श्रीसूत उवाच –
परीक्षितोऽथ संप्रश्नं भगवान् बादरायणिः ।
निशम्य श्रद्दधानस्य प्रतिनन्द्य वचोऽब्रवीत् ॥ ८ ॥
सूतजी कहते हैं-शौनकादि ऋषियो! भगवान् शुकदेवजीने परम श्रद्धालु राजर्षि परीक्षितका यह श्रेष्ठ प्रश्न सुनकर उनका अभिनन्दन करते हुए यह बात कही ।।८।।
श्रीशुक उवाच –
श्रृणुषु अवहितो राजन् इतिहासं इमं यथा ।
श्रुतं द्वैपायनमुखात् नारदाद् देवलादपि ॥ ९ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा-परीक्षित्! तुम सावधान होकर यह इतिहास सुनो। मैंने इसे अपने पिता व्यासजी, देवर्षि नारद और महर्षि देवलके मुँहसे भी विधिपूर्वक सुना है ।।९।।।
आसीद् राजा सार्वभौमः शूरसेनेषु वै नृप ।
चित्रकेतुरिति ख्यातो यस्यासीत् कामधुङ्मही ॥ १० ॥
प्राचीन कालकी बात है, शूरसेन देशमें चक्रवर्ती सम्राट् महाराज चित्रकेतु राज्य करते थे। उनके राज्यमें पृथ्वी स्वयं ही प्रजाकी इच्छाके अनुसार अन्न-रस दे दिया करती
थी ।।१०।।
तस्य भार्यासहस्राणां सहस्राणि दशाभवन् ।
सान्तानिकश्चापि नृपो न लेभे तासु सन्ततिम् ॥ ११ ॥
उनके एक करोड रानियाँ थीं और ये स्वयं सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ भी थे। । परन्तु उन्हें उनमेंसे किसीके भी गर्भसे कोई सन्तान न हुई ।।११।।
रूपौदार्यवयोजन्म विद्यैश्वर्यश्रियादिभिः ।
सम्पन्नस्य गुणैः सर्वैः चिन्ता वन्ध्यापतेरभूत् ॥ १२ ॥
यों महाराज चित्रकेतुको किसी बातकी कमी न थी। सुन्दरता, उदारता, युवावस्था, कुलीनता, विद्या, ऐश्वर्य और सम्पत्ति आदि सभी गुणोंसे वे सम्पन्न थे। फिर भी उनकी पत्नियाँ बाँझ थीं, इसलिये उन्हें बड़ी चिन्ता रहती थी ।।१२।।
न तस्य सम्पदः सर्वा महिष्यो वामलोचनाः ।
सार्वभौमस्य भूश्चेयं अभवन् प्रीतिहेतवः ॥ १३ ॥
वे सारी पृथ्वीके एकछत्र सम्राट थे, बहुत-सी सुन्दरी रानियाँ थीं तथा सारी पृथ्वी उनके वशमें थी। सब प्रकारकी सम्पत्तियाँ उनकी सेवामें उपस्थित थीं, परन्तु वे सब वस्तुएँ उन्हें सुखी न कर सकीं ।।१३।।
तस्यैकदा तु भवनं अङ्गिरा भगवान् ऋषिः ।
लोकान् अनुचरन् एतान् उपागच्छद् यदृच्छया ॥ १४ ॥
एक दिन शाप और वरदान देनेमें समर्थ अंगिरा ऋषि स्वच्छन्दरूपसे विभिन्न लोकोंमें विचरते हुए राजा चित्रकेतुके महलमें पहँच गये ।।१४।।
तं पूजयित्वा विधिवत् प्रत्युत्थानार्हणादिभिः ।
कृतातिथ्यमुपासीदत् सुखासीनं समाहितः ॥ १५ ॥
राजाने प्रत्युत्थान और अर्घ्य आदिसे उनकी विधिपूर्वक पूजा की। आतिथ्य-सत्कार हो जानेके बाद जब अंगिरा ऋषि सुखपूर्वक आसनपर विराज गये, तब राजा चित्रकेत भी शान्तभावसे उनके पास ही बैठ गये ।।१५।।
महर्षिस्तमुपासीनं प्रश्रयावनतं क्षितौ ।
प्रतिपूज्य महाराज समाभाष्येदमब्रवीत् ॥ १६ ॥
महाराज! महर्षि अंगिराने देखा कि यह राजा बहुत विनयी है और मेरे पास पृथ्वीपर बैठकर मेरी भक्ति कर रहा है। तब उन्होंने चित्रकेतुको सम्बोधित करके उसे आदर देते हुए यह बात कही ।।१६।।
अङ्गिरा उवाच –
अपि तेऽनामयं स्वस्ति प्रकृतीनां तथाऽऽत्मनः ।
यथा प्रकृतिभिर्गुप्तः पुमान् राजा च सप्तभिः ॥ १७ ॥
अंगिरा ऋषिने कहा-राजन्! तुम अपनी प्रकृतियों-गुरु, मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, सेना और मित्रके साथ सकुशल तो हो न? जैसे जीव महत्तत्त्वादि सात आवरणोंसे घिरा रहता है, वैसे ही राजा भी इन सात प्रकृतियोंसे घिरा रहता है। उनके कुशलसे ही राजाकी कुशल है ||१७||
आत्मानं प्रकृतिष्वद्धा निधाय श्रेय आप्नुयात् ।
राज्ञा तथा प्रकृतयो नरदेवाहिताधयः ॥ १८ ॥
नरेन्द्र! जिस प्रकार राजा अपनी उपर्युक्त प्रकृतियोंके अनुकूल रहनेपर ही राज्यसुख भोग सकता है, वैसे ही प्रकृतियाँ भी अपनी रक्षाका भार राजापर छोड़कर सुख और समृद्धि लाभ कर सकती हैं ।।१८।।
अपि दाराः प्रजामात्या भृत्याः श्रेण्योऽथ मन्त्रिणः ।
पौरा जानपदा भूपा आत्मजा वशवर्तिनः ॥ १९ ॥
राजन्! तुम्हारी रानियाँ, प्रजा, मन्त्री (सलाहकार), सेवक, व्यापारी, अमात्य (दीवान), नागरिक, देशवासी, मण्डलेश्वर राजा और पुत्र तुम्हारे वशमें तो हैं न? ||१९||
यस्यात्मानुवशश्चेत्स्यात् सर्वे तद्वशगा इमे ।
लोकाः सपाला यच्छन्ति सर्वे बलिमतन्द्रिताः ॥ २० ॥
सच्ची बात तो यह है कि जिसका मन अपने वशमें है, उसके ये सभी वशमें होते हैं। इतना ही नहीं, सभी लोक और लोकपाल भी बड़ी सावधानीसे उसे भेंट देकर उसकी प्रसन्नता चाहते हैं ||२०||
आत्मनः प्रीयते नात्मा परतः स्वत एव वा ।
लक्षयेऽलब्धकामं त्वां चिन्तया शबलं मुखम् ॥ २१ ॥
परन्तु मैं देख रहा हूँ कि तुम स्वयं सन्तुष्ट नहीं हो। तुम्हारी कोई कामना अपूर्ण है। तुम्हारे मुँहपर किसी आन्तरिक चिन्ताके चिह्न झलक रहे हैं। तुम्हारे इस असन्तोषका कारण कोई और है या स्वयं तुम्हीं हो? ।।२१।।
एवं विकल्पितो राजन्विदुषा मुनिनापि सः ।
प्रश्रयावनतोऽभ्याह प्रजाकामस्ततो मुनिम् ॥ २२ ॥
परीक्षित्! महर्षि अंगिरा यह जानते थे कि राजाके मनमें किस बातकी चिन्ता है। फिर भी उन्होंने उनसे चिन्ताके सम्बन्धमें अनेकों प्रश्न पूछे। चित्रकेतुको सन्तानकी कामना थी। अतः महर्षिके पूछनेपर उन्होंने विनयसे झुककर निवेदन किया ।।२२।।
चित्रकेतुरुवाच –
भगवन् किं न विदितं तपोज्ञानसमाधिभिः ।
योगिनां ध्वस्तपापानां बहिरन्तः शरीरिषु ॥ २३ ॥
सम्राट चित्रकेतुने कहा-भगवन्! जिन योगियोंके तपस्या, ज्ञान, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा सारे पाप नष्ट हो चुके हैं उनके लिये प्राणियोंके बाहर या भीतरकी ऐसी कौन-सी बात है, जिसे वे न जानते हों ||२३||
तथापि पृच्छतो ब्रूयां ब्रह्मन् आत्मनि चिन्तितम् ।
भवतो विदुषश्चापि चोदितस्त्वदनुज्ञया ॥ २४ ॥
ऐसा होनेपर भी जब आप सब कुछ जानबूझकर मुझसे मेरे मनकी चिन्ता पूछ रहे हैं, तब मैं आपकी आज्ञा और प्रेरणासे अपनी चिन्ता आपके चरणोंमें निवेदन करता हूँ ||२४||
लोकपालैरपि प्रार्थ्याः साम्राज्यैश्वर्यसम्पदः ।
न नन्दयन्त्यप्रजं मां क्षुत्तृट्कामं इवापरे ॥ २५ ॥
मुझे पृथ्वीका साम्राज्य, ऐश्वर्य और सम्पत्तियाँ, जिनके लिये लोकपाल भी लालायित रहते हैं, प्राप्त हैं। परन्तु सन्तान न होनेके कारण मुझे इन सुखभोगोंसे उसी प्रकार तनिक भी शान्ति नहीं मिल रही है, जैसे भूखे-प्यासे प्राणीको अन्न-जलके सिवा दूसरे भोगोंसे ||२५||
ततः पाहि महाभाग पूर्वैः सह गतं तमः ।
यथा तरेम दुष्पारं प्रजया तद्विधेहि नः ॥ २६ ॥
महाभाग्यवान् महर्षे! मैं तो दुःखी हूँ ही, पिण्डदान न मिलनेकी आशंकासे मेरे पितर भी दुःखी हो रहे हैं। अब आप हमें सन्तान-दान करके परलोकमें प्राप्त होनेवाले घोर नरकसे उबारिये और ऐसी व्यवस्था कीजिये कि मैं लोकपरलोकके सब दुःखोंसे छुटकारा पा लूँ ।।२६।।
श्रीशुक उवाच –
इत्यर्थितः स भगवान्कृपालुर्ब्रह्मणः सुतः ।
श्रपयित्वा चरुं त्वाष्ट्रं त्वष्टारमयजद् विभुः ॥ २७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब राजा चित्रकेतुने इस प्रकार प्रार्थना की, तब सर्वसमर्थ एवं परम कृपालु ब्रह्मपुत्र भगवान् अंगिराने त्वष्टा देवताके योग्य चरु निर्माण करके उससे उनका यजन किया ।।२७।।
ज्येष्ठा श्रेष्ठा च या राज्ञो महिषीणां च भारत ।
नाम्ना कृतद्युतिस्तस्यै यज्ञोच्छिष्टमदाद् द्विजः ॥ २८ ॥
परीक्षित्! राजा चित्रकेतुकी रानियोंमें सबसे बड़ी और सदगुणवती महारानी कतद्यति थीं। महर्षि अंगिराने उन्हींको यज्ञका अवशेष प्रसाद दिया ।।२८।।
अथाह नृपतिं राजन् भवितैकस्तवात्मजः ।
हर्षशोकप्रदस्तुभ्यं इति ब्रह्मसुतो ययौ ॥ २९ ॥
और राजा चित्रकेतुसे कहा-‘राजन्! तुम्हारी पत्नीके गर्भसे एक पुत्र होगा, जो तुम्हें हर्ष और शोक दोनों ही देगा।’ यों कहकर अंगिरा ऋषि चले गये ।।२९।।
सापि तत्प्राशनादेव चित्रकेतोरधारयत् ।
गर्भं कृतद्युतिर्देवी कृत्तिकाग्नेरिवात्मजम् ॥ ३० ॥
उस यज्ञावशेष प्रसादके खानेसे ही महारानी कृतद्युतिने महाराज चित्रकेतुके द्वारा गर्भ धारण किया, जैसे कत्तिकाने अपने गर्भमें अग्निकुमारको धारण किया था ।।३०।।
तस्या अनुदिनं गर्भः शुक्लपक्ष इवोडुपः ।
ववृधे शूरसेनेश तेजसा शनकैर्नृप ॥ ३१ ॥
राजन्! शूरसेन देशके राजा चित्रकेतुके तेजसे कृतद्युतिका गर्भ शुक्लपक्षके चन्द्रमाके समान दिनोंदिन क्रमशः बढ़ने लगा ||३१||
अथ काल उपावृत्ते कुमारः समजायत ।
जनयन् शूरसेनानां श्रृण्वतां परमां मुदम् ॥ ३२ ॥
तदनन्तर समय आनेपर महारानी कृतद्युतिके गर्भसे एक सुन्दर पुत्रका जन्म हुआ। उसके जन्मका समाचार पाकर शूरसेन देशकी प्रजा बहुत ही आनन्दित हुई ।।३२।।
हृष्टो राजा कुमारस्य स्नातः शुचिरलङ्कृतः ।
वाचयित्वाशिषो विप्रैः कारयामास जातकम् ॥ ३३ ॥
सम्राट चित्रकेतुके आनन्दका तो कहना ही क्या था। वे स्नान करके पवित्र हुए। फिर उन्होंने वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित हो, ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराकर और आशीर्वाद लेकर पुत्रका जातकर्म-संस्कार करवाया ||३३।।
तेभ्यो हिरण्यं रजतं वासांस्याभरणानि च ।
ग्रामान् हयान् गजान् प्रादाद् धेनूनां अर्बुदानि षट् ॥ ३४ ॥
उन्होंने उन ब्राह्मणोंको सोना, चाँदी, वस्त्र, आभूषण, गाँव, घोड़े, हाथी और छः अर्बुद गौएँ दान की ।।३४।।
ववर्ष कामानन्येषां पर्जन्य इव देहिनाम् ।
धन्यं यशस्यमायुष्यं कुमारस्य महामनाः ॥ ३५ ॥
उदारशिरोमणि राजा चित्रकेतुने पुत्रके धन, यश और आयुकी वृद्धिके लिये दूसरे लोगोंको भी मुंहमांगी वस्तुएँ दीं-ठीक उसी प्रकार जैसे मेघ सभी जीवोंका मनोरथ पूर्ण करता है ||३५||
कृच्छ्रलब्धेऽथ राजर्षेः तनयेऽनुदिनं पितुः ।
यथा निःस्वस्य कृच्छ्राप्ते धने स्नेहोऽन्ववर्धत ॥ ३६ ॥
परीक्षित्! जैसे यदि किसी कंगालको बड़ी कठिनाईसे कुछ धन मिल जाता है तो उसमें उसकी आसक्ति हो जाती है, वैसे ही बहुत कठिनाईसे प्राप्त हुए उस पुत्रमें राजर्षि चित्रकेतुका स्नेहबन्धन दिनोंदिन दृढ़ होने लगा ||३६||
मातुस्त्वतितरां पुत्रे स्नेहो मोहसमुद्भवः ।
कृतद्युतेः सपत्नीनां प्रजाकामज्वरोऽभवत् ॥ ३७ ॥
माता कृतद्युतिको भी अपने पुत्रपर मोहके कारण बहुत ही स्नेह था। परन्तु उनकी सौत रानियोंके मनमें पुत्रकी कामनासे और भी जलन होने लगी ।।३७।।
चित्रकेतोः अतिप्रीतिः यथा दारे प्रजावति ।
न तथान्येषु सञ्जज्ञे बालं लालयतोऽन्वहम् ॥ ३८ ॥
प्रतिदिन बालकका लाड़-प्यार करते रहनेके कारण सम्राट चित्रकेतुका जितना प्रेम बच्चेकी माँ कतद्यतिमें था, उतना दूसरी रानियोंमें न रहा ।।३८।।
ताः पर्यतप्यन् आत्मानं गर्हयन्त्योऽभ्यसूयया ।
आनपत्येन दुःखेन राज्ञोऽनादरणेन च ॥ ३९ ॥
इस प्रकार एक तो वे रानियाँ सन्तान न होनेके कारण ही दुःखी थीं, दूसरे राजा चित्रकेतुने उनकी उपेक्षा कर दी। अतः वे डाहसे अपनेको धिक्कारने और मन-ही-मन जलने लगीं ।।३९||
धिगप्रजां स्त्रियं पापां पत्युश्चागृहसम्मताम् ।
सुप्रजाभिः सपत्नीभिः दासीमिव तिरस्कृताम् ॥ ४० ॥
वे आपसमें कहने लगीं—’अरी बहिनो! पुत्रहीन स्त्री बहुत ही अभागिनी होती है। पुत्रवाली सौतें तो दासीके समान उसका तिरस्कार करती हैं। और तो और, स्वयं पतिदेव ही उसे पत्नी करके नहीं मानते। सचमुच पुत्रहीन स्त्री धिक्कारके योग्य है ।।४०।।
दासीनां को नु सन्तापः स्वामिनः परिचर्यया ।
अभीक्ष्णं लब्धमानानां दास्या दासीव दुर्भगाः ॥ ४१ ॥
भला, दासियोंको क्या दःख है? वे तो अपने स्वामीकी सेवा करके निरन्तर सम्मान पाती रहती हैं। परन्तु हम अभागिनी तो इस समय उनसे भी गयी-बीती हो रही हैं और दासियोंकी दासीके समान बार-बार तिरस्कार पा रही हैं ।।४१||
एवं सन्दह्यमानानां सपत्न्याः पुत्रसम्पदा ।
राज्ञोऽसम्मतवृत्तीनां विद्वेषो बलवानभूत् ॥ ४२ ॥
परीक्षित्! इस प्रकार वे रानियाँ अपनी सौतकी गोद भरी देखकर जलती रहती थीं और राजा भी उनकी ओरसे उदासीन हो गये थे। फलतः उनके मनमें कृतद्युतिके प्रति बहुत अधिक द्वेष हो गया ।।४२।।
विद्वेषनष्टमतयः स्त्रियो दारुणचेतसः ।
गरं ददुः कुमाराय दुर्मर्षा नृपतिं प्रति ॥ ४३ ॥
द्वेषके कारण रानियोंकी बुद्धि मारी गयी। उनके चित्तमें क्रूरता छा गयी। उन्हें अपने पति चित्रकेतुका पुत्र-स्नेह सहन न हुआ। इसलिये उन्होंने चिढ़कर नन्हेसे राजकुमारको विष दे दिया ।।४३।।
कृतद्युतिरजानन्ती सपत्नीनामघं महत् ।
सुप्त एवेति सञ्चिन्त्य निरीक्ष्य व्यचरद्गृहे ॥ ४४ ॥
महारानी कृतद्युतिको सौतोंकी इस घोर पापमयी करतूतका कुछ भी पता न था। उन्होंने दूरसे देखकर समझ लिया कि बच्चा सो रहा है। इसलिये वे महलमें इधर-उधर डोलती रहीं ||४४।।
शयानं सुचिरं बालं उपधार्य मनीषिणी ।
पुत्रमानय मे भद्रे इति धात्रीमचोदयत् ॥ ४५ ॥
बुद्धिमती रानीने यह देखकर कि बच्चा बहुत देरसे सो रहा है, धायसे कहा-‘कल्याणि! मेरे लालको ले आ’ ||४५||
सा शयानमुपव्रज्य दृष्ट्वा चोत्तारलोचनम् ।
प्राणेन्द्रियात्मभिस्त्यक्तं हतास्मीत्यपतद्भुवि ॥ ४६ ॥
धायने सोते हुए बालकके पास जाकर देखा कि उसके नेत्रोंकी पुतलियाँ उलट गयी हैं। प्राण, इन्द्रिय और जीवात्माने भी उसके शरीरसे विदा ले ली है। यह देखते ही ‘हाय रे! मैं मारी गयी!’ इस प्रकार कहकर वह धरतीपर गिर पड़ी ।।४६||
तस्यास्तदाऽऽकर्ण्य भृशातुरं स्वरं
घ्नन्त्याः कराभ्यामुर उच्चकैरपि ।
प्रविश्य राज्ञी त्वरयाऽऽत्मजान्तिकं
ददर्श बालं सहसा मृतं सुतम् ॥ ४७ ॥
धाय अपने दोनों हाथोंसे छाती पीट-पीटकर बड़े आर्तस्वरमें जोर-जोरसे रोने लगी। उसका रोना सुनकर महारानी कृतद्युति जल्दी-जल्दी अपने पुत्रके शयनगृहमें पहुंची और उन्होंने देखा कि मेरा छोटा-सा बच्चा अकस्मात मर गया है ||४७।।
पपात भूमौ परिवृद्धया शुचा
मुमोह विभ्रष्टशिरोरुहाम्बरा ॥ ४८ ॥
तब वे अत्यन्त शोकके कारण मूर्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ीं। उनके सिरके बाल बिखर गये और शरीरपरके वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये ।।४८।।
ततो नृपान्तःपुरवर्तिनो जना
नराश्च नार्यश्च निशम्य रोदनम् ।
आगत्य तुल्यव्यसनाः सुदुःखिताः
ताश्च व्यलीकं रुरुदुः कृतागसः ॥ ४९ ॥
तदनन्तर महारानीका रुदन सुनकर रनिवासके सभी स्त्री-पुरुष वहाँ दौड़ आये और सहानुभूतिवश अत्यन्त दुःखी होकर रोने लगे। वे हत्यारी रानियाँ भी वहाँ आकर झूठमूठ रोनेका ढोंग करने लगीं ।।४९।।
श्रुत्वा मृतं पुत्रमलक्षितान्तकं
विनष्टदृष्टिः प्रपतम् स्खलन्पथि ।
स्नेहानुबन्धैधितया शुचा भृशं
विमूर्च्छितोऽनुप्रकृतिर्द्विजैर्वृतः ॥ ५० ॥
पपात बालस्य स पादमूले
मृतस्य विस्रस्तशिरोरुहाम्बरः ।
दीर्घं श्वसन् बाष्पकलोपरोधतो
निरुद्धकण्ठो न शशाक भाषितुम् ॥ ५१ ॥
जब राजा चित्रकेतुको पता लगा कि मेरे पुत्रकी अकारण ही मृत्यु हो गयी है, तब अत्यन्त स्नेहके कारण शोकके आवेगसे उनकी आँखोंके सामने अँधेरा छा गया। वे धीरे-धीरे अपने मन्त्रियों और ब्राह्मणोंके साथ मार्गमें गिरते-पड़ते मृत बालकके पास पहुंचे और मर्छित होकर उसके पैरोंके पास गिर पड़े। उनके केश और वस्त्र इधर-उधर बिखर गये। वे लंबी-लंबी साँस लेने लगे। आँसुओंकी अधिकतासे उनका गला रुंध गया और वे कुछ भी बोल न सके ।।५०-५१||
पतिं निरीक्ष्योरुशुचार्पितं तदा
मृतं च बालं सुतमेकसन्ततिम् ।
जनस्य राज्ञी प्रकृतेश्च हृद्रुजं
सती दधाना विललाप चित्रधा ॥ ५२ ॥
पतिप्राणा रानी कृतद्युति अपने पति चित्रकेतको अत्यन्त शोकाकल और इकलौते नन्हे-से बच्चेको मरा हुआ देख भाँति-भाँतिसे विलाप करने लगीं। उनका यह दुःख देखकर मन्त्री आदि सभी उपस्थित मनुष्य शोकग्रस्त हो गये ।।५२।।
स्तनद्वयं कुङ्कुमपङ्कमण्डितं
निषिञ्चती साञ्जनबाष्पबिन्दुभिः ।
विकीर्य केशान्विगलत्स्रजः सुतं
शुशोच चित्रं कुररीव सुस्वरम् ॥ ५३ ॥
महारानीके नेत्रोंसे इतने
आँसू बह रहे थे कि वे उनकी आँखोंका अंजन लेकर केसर और चन्दनसे चर्चित वक्षःस्थलको भिगोने लगे। उनके बाल बिखर रहे थे तथा उनमें गुंथे हुए फूल गिर रहे थे। इस प्रकार वे पत्रके लिये कररी पक्षीके समान उच्चस्वरमें विविध प्रकारसे विलाप कर रही थीं ।।५३||
अहो विधातस्त्वमतीव बालिशो
यस्त्वात्मसृष्ट्यप्रतिरूपमीहसे ।
परे नु जीवत्यपरस्य या मृतिः
विपर्ययश्चेत्त्वमसि ध्रुवः परः ॥ ५४ ॥
वे कहने लगीं-‘अरे विधाता! सचमुच तू बड़ा मूर्ख है, जो अपनी सृष्टिके प्रतिकूल चेष्टा करता है। बड़े आश्चर्यकी बात है कि बूढ़े-बूढ़े तो जीते रहें और बालक मर जायँ। यदि वास्तवमें तेरे स्वभावमें ऐसी ही विपरीतता है, तब तो तू जीवोंका अमर शत्रु है ।।५४।।
न हि क्रमश्चेदिह मृत्युजन्मनोः
शरीरिणामस्तु तदात्मकर्मभिः ।
यः स्नेहपाशो निजसर्गवृद्धये
स्वयं कृतस्ते तमिमं विवृश्चसि ॥ ५५ ॥
यदि संसारमें प्राणियोंके जीवन-मरणका कोई क्रम न रहे, तो वे अपने प्रारब्धके अनुसार जन्मते-मरते रहेंगे। फिर तेरी आवश्यकता ही क्या है। तूने सम्बन्धियोंमें स्नेह-बन्धन तो इसीलिये डाल रखा है कि वे तेरी सष्टिको बढ़ायें? परन्तु तु इस प्रकार बच्चोंको मारकर अपने किये-करायेपर अपने हाथों पानी फेर रहा है’ ||५५।।
त्वं तात नार्हसि च मां कृपणामनाथां
त्यक्तुं विचक्ष्व पितरं तव शोकतप्तम् ।
अञ्जस्तरेम भवताप्रजदुस्तरं यद्
ध्वान्तं न याह्यकरुणेन यमेन दूरम् ॥ ५६ ॥
फिर वे अपने मृत पुत्रकी ओर देखकर कहने लगीं—’बेटा! मैं तुम्हारे बिना अनाथ और दीन हो रही हूँ। मुझे छोडकर इस प्रकार चले जाना तुम्हारे लिये उचित नहीं है। तनिक आँख खोलकर देखो तो सही, तुम्हारे पिताजी तुम्हारे वियोगमें कितने शोक-सन्तप्त हो रहे हैं। बेटा! जिस घोर नरकको निःसन्तान पुरुष बड़ी कठिनाईसे पार कर पाते हैं, उसे हम तुम्हारे सहारे अनायास ही पार कर लेंगे। अरे बेटा! तुम इस यमराजके साथ दूर मत जाओ। यह तो बड़ा ही निर्दयी है ।।५६।।
उत्तिष्ठ तात त इमे शिशवो वयस्याः
त्वां आह्वयन्ति नृपनन्दन संविहर्तुम् ।
सुप्तश्चिरं ह्यशनया च भवान् परीतो
भुङ्क्ष्व स्तनं पिब शुचो हर नः स्वकानाम् ॥ ५७ ॥
मेरे प्यारे लल्ला! ओ राजकुमार! उठो! बेटा! देखो, तुम्हारे साथी बालक तुम्हें खेलनेके लिये बुला रहे हैं। तुम्हें सोते-सोते बहुत देर हो गयी, अब भूख लगी होगी। उठो, कुछ खा लो।
और कुछ नहीं तो मेरा दूध ही पी लो और अपने स्वजन-सम्बन्धी हमलोगोंका शोक दूर करो ||५७||
नाहं तनूज ददृशे हतमङ्गला ते
मुग्धस्मितं मुदितवीक्षणमाननाब्जम् ।
किं वा गतोऽस्यपुनरन्वयमन्यलोकं
नीतोऽघृणेन न श्रृणोमि कला गिरस्ते ॥ ५८ ॥
प्यारे लाल! आज मैं तुम्हारे मुखारविन्दपर वह भोली-भाली मुसकराहट और आनन्दभरी चितवन नहीं देख रही हूँ। मैं बड़ी अभागिनी हूँ। हाय-हाय! अब भी मुझे तुम्हारी सुमधुर तोतली बोली नहीं सुनायी दे रही है। क्या सचमुच निठुर यमराज तुम्हें उस परलोकमें ले गया, जहाँसे फिर कोई लौटकर नहीं आता? ||५८।।
श्रीशुक उवाच –
विलपन्त्या मृतं पुत्रं इति चित्रविलापनैः ।
चित्रकेतुर्भृशं तप्तो मुक्तकण्ठो रुरोद ह ॥ ५९ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब सम्राट चित्रकेतुने देखा कि मेरी रानी अपने मृत पत्रके लिये इस प्रकार भाँति-भाँतिसे विलाप कर रही है, तब वे शोकसे अत्यन्त सन्तप्त हो फूट-फूटकर रोने लगे ।।५९।।
तयोर्विलपतोः सर्वे दम्पत्योस्तदनुव्रताः ।
रुरुदुः स्म नरा नार्यः सर्वमासीदचेतनम् ॥ ६० ॥
राजा-रानीके इस प्रकार विलाप करनेपर उनके अनुगामी स्त्रीपुरुष भी दुःखित होकर रोने लगे। इस प्रकार सारा नगर ही शोकसे अचेत-सा हो गया ।।६०||
एवं कश्मलमापन्नं नष्टसंज्ञमनायकम् ।
ज्ञात्वाङ्गिरा नाम मुनिः आजगाम सनारदः ॥ ६१ ॥
राजन्! महर्षि अंगिरा और देवर्षि नारदने देखा कि राजा चित्रकेतु पुत्रशोकके कारण चेतनाहीन हो रहे हैं, यहाँतक कि उन्हें समझानेवाला भी कोई नहीं है। तब वे दोनों वहाँ आये ।।६१।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
षष्ठस्कन्धे चित्रकेतुविलापो नाम चतुर्शोऽध्यायः ॥ १४ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥