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श्रीमद् भागवत महापुराण षष्ठम स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 6 अध्याय 19

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अध्यायः १९

श्रीमद्‌भागवत महापुराण

षष्ठः स्कन्धः – एकोनविंशोऽध्यायः

पुंसवनव्रतविधिः –

श्रीराजोवाच –

व्रतं पुंसवनं ब्रह्मन् भवता यदुदीरितम् ।

तस्य वेदितुमिच्छामि येन विष्णुः प्रसीदति ॥ १ ॥

राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन्! आपने अभी-अभी पुंसवन-व्रतका वर्णन किया है और कहा है कि उससे भगवान् विष्णु प्रसन्न हो जाते हैं। सो अब मैं उसकी विधि जानना चाहता हूँ ।।१।।

श्रीशुक उवाच –

शुक्ले मार्गशिरे पक्षे योषिद्‍भर्तुरनुज्ञया ।

आरभेत व्रतमिदं सार्वकामिकमादितः ॥ २ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा-परीक्षित्! यह पुंसवनव्रत समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है। स्त्रीको चाहिये कि वह अपने पतिदेवकी आज्ञा लेकर मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदासे इसका आरम्भ करे ||२||

निशम्य मरुतां जन्म ब्राह्मणान् अनुमन्त्र्य च ।

स्नात्वा शुक्लदती शुक्ले वसीतालङ्‌कृताम्बरे ।

पूजयेत् प्रातराशात् प्राग् भगवन्तं श्रिया सह ॥ ३ ॥

पहले मरुद्गणके जन्मकी कथा सुनकर ब्राह्मणोंसे आज्ञा ले। फिर प्रतिदिन सबेरे दाँतुन आदिसे दाँत साफ करके स्नान करे, दो श्वेत वस्त्र धारण करे और आभूषण भी पहन ले। प्रातःकाल कुछ भी खानेसे पहले ही भगवान् लक्ष्मी-नारायणकी पूजा करे ।।३।।

अलं ते निरपेक्षाय पूर्णकाम नमोऽस्तु ते ।

महाविभूतिपतये नमः सकलसिद्धये ॥ ४ ॥

(इस प्रकार प्रार्थना करे-) ‘प्रभो! आप पूर्णकाम हैं। अतएव आपको किसीसे भी कुछ लेना-देना नहीं है। आप समस्त विभूतियोंके स्वामी और सकल-सिद्धिस्वरूप हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करती हूँ ।।४।।

यथा त्वं कृपया भूत्या तेजसा महिमौजसा ।

जुष्ट ईश गुणैः सर्वैः ततोऽसि भगवान् प्रभुः ॥ ५ ॥

मेरे आराध्यदेव! आप कृपा, विभूति, तेज, महिमा और वीर्य आदि समस्त गुणोंसे नित्ययुक्त हैं। इन्हीं भगों-ऐश्वर्योंसे नित्ययुक्त रहने कारण आपको भगवान् कहते हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं ||५||

विष्णुपत्‍नि महामाये महापुरुषलक्षणे ।

प्रीयेथा मे महाभागे लोकमातर्नमोऽस्तु ते ॥ ६ ॥

माता लक्ष्मीजी! आप भगवान्की अर्धांगिनी और महामाया-स्वरूपिणी हैं। भगवान्के सारे गुण आपमें निवास करते हैं। महाभाग्यवती जगन्माता! आप मुझपर प्रसन्न हों। मैं आपको नमस्कार करती हूँ’ ||६||

ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महानुभावाय

महाविभूतिपतये सह महाविभूतिभिः

बलिमुपहरामीति । अनेनाहरहर्मन्त्रेण

विष्णोरावाहनार्घ्यपाद्योपस्पर्शनस्नान

वास‌उपवीतविभूषण गन्धपुष्पधूपदीपोपहारादि

उपचारान् सुसमाहित उपाहरेत् ॥ ७ ॥

परीक्षित्! इस प्रकार स्तुति करके एकाग्रचित्तसे ‘ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महानुभावाय महाविभूतिपतये सह महाविभूतिभिर्बलिमुपहराणि ।’ ‘ओंकारस्वरूप, महानुभाव, समस्त महाविभूतियोंके स्वामी भगवान् पुरुषोत्तमको और उनकी महाविभूतियोंको मैं नमस्कार करती हूँ और उन्हें पूजोपहारकी सामग्री समर्पण करती हूँ’इस मन्त्रके द्वारा प्रतिदिन स्थिर चित्तसे विष्णुभगवान्का आवाहन, अर्घ्य, पाद्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि निवेदन करके पूजन करे ।।७।।

हविःशेषं च जुहुयादनले द्वादशाहुतीः ।

ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महाविभूतिपतये स्वाहेति ॥ ८ ॥

जो नैवेद्य बच रहे, उससे ‘ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महाविभूतिपतये स्वाहा ।’ ‘महान् ऐश्वर्योंके अधिपति भगवान् पुरुषोत्तमको नमस्कार है। मैं उन्हीं के लिये इस हविष्यका हवन कर रही हूँ।’—यह मन्त्र बोलकर अग्निमें बारह आहुतियाँ दे ।।८।।

श्रियं विष्णुं च वरदावाशिषां प्रभवावुभौ ।

भक्त्या सम्पूजयेन्नित्यं यदीच्छेत्सर्वसम्पदः ॥ ९ ॥

परीक्षित! जो सब प्रकारकी सम्पत्तियोंको प्राप्त करना चाहता हो, उसे चाहिये कि प्रतिदिन भक्तिभावसे भगवान् लक्ष्मीनारायणकी पूजा करे; क्योंकि वे ही दोनों समस्त अभिलाषाओंके पूर्ण करनेवाले एवं श्रेष्ठ वरदानी हैं ।।९।।

प्रणमेद् दण्डवद्‍भूमौ भक्तिप्रह्वेण चेतसा ।

दशवारं जपेन्मन्त्रं ततः स्तोत्रमुदीरयेत् ॥ १० ॥

इसके बाद भक्तिभावसे भरकर बड़ी नम्रतासे भगवान्को साष्टांग दण्डवत् करे। दस बार पूर्वोक्त मन्त्रका जप करे और फिर इस स्तोत्रका पाठ करे- ||१०||

युवां तु विश्वस्य विभू जगतः कारणं परम् ।

इयं हि प्रकृतिः सूक्ष्मा मायाशक्तिर्दुरत्यया ॥ ११ ॥

‘हे लक्ष्मीनारायण! आप दोनों सर्वव्यापक और सम्पूर्ण चराचर जगत्के अन्तिम कारण हैं—आपका और कोई कारण नहीं है। भगवन! माता लक्ष्मीजी आपकी मायाशक्ति हैं। ये ही स्वयं अव्यक्त प्रकृति भी हैं। इनका पार पाना अत्यन्त कठिन है ।।११।।

तस्या अधीश्वरः साक्षात् त्वमेव पुरुषः परः ।

त्वं सर्वयज्ञ इज्येयं क्रियेयं फलभुग्भवान् ॥ १२ ॥

प्रभो! आप ही इन महामायाके अधीश्वर हैं और आप ही स्वयं परमपुरुष हैं। आप समस्त यज्ञ हैं और ये हैं यज्ञ-क्रिया। आप फलके भोक्ता हैं और ये हैं उसको उत्पन्न करनेवाली क्रिया ।।१२।।

गुणव्यक्तिरियं देवी व्यञ्जको गुणभुग्भवान् ।

त्वं हि सर्वशरीर्यात्मा श्रीः शरीरेन्द्रियाशयाः ।

नामरूपे भगवती प्रत्ययस्त्वं अपाश्रयः ॥ १३ ॥

माता लक्ष्मीजी तीनों गुणोंकी अभिव्यक्ति हैं और आप उन्हें व्यक्त करनेवाले और उनके भोक्ता हैं। आप समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं और लक्ष्मीजी शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण हैं। माता लक्ष्मीजी नाम एवं रूप हैं और आप नाम-रूप दोनोंके प्रकाशक तथा आधार हैं ।।१३।।

यथा युवां त्रिलोकस्य वरदौ परमेष्ठिनौ ।

तथा म उत्तमश्लोक सन्तु सत्या महाशिषः ॥ १४ ॥

प्रभो! आपकी कीर्ति पवित्र है। आप दोनों ही त्रिलोकीके वरदानी परमेश्वर हैं। अतः मेरी बड़ी-बड़ी आशा-अभिलाषाएँ आपकी कृपासे पूर्ण हों’ ।।१४।।

इत्यभिष्टूय वरदं श्रीनिवासं श्रिया सह ।

तन्निःसार्योपहरणं दत्त्वाऽऽचमनमर्चयेत् ॥ १५ ॥

परीक्षित्! इस प्रकार परम वरदानी भगवान लक्ष्मी-नारायणकी स्तुति करके वहाँसे नैवेद्य हटा दे और आचमन कराके पूजा करे ।।१५।।

ततः स्तुवीत स्तोत्रेण भक्तिप्रह्वेण चेतसा ।

यज्ञोच्छिष्टमवघ्राय पुनरभ्यर्चयेद् हरिम् ॥ १६ ॥

तदनन्तर भक्तिभावभरित हृदयसे भगवान्की स्तुति करे और यज्ञावशेषको सूंघकर फिर भगवान्की पूजा करे ||१६||

पतिं च परया भक्त्या महापुरुषचेतसा ।

प्रियैस्तैस्तैरुपनमेत् प्रेमशीलः स्वयं पतिः ।

बिभृयात् सर्वकर्माणि पत्‍न्या उच्चावचानि च ॥ १७ ॥

भगवान्की पूजाके बाद अपने पतिको साक्षात् भगवान् समझकर परम प्रेमसे उनकी प्रिय वस्तुएँ सेवामें उपस्थित करे। पतिका भी यह कर्तव्य है कि वह आन्तरिक प्रेमसे अपनी पत्नीके प्रिय पदार्थ ला-लाकर उसे दे और उसके छोटे-बड़े सब प्रकारके काम करता रहे ।।१७।।

कृतमेकतरेणापि दम्पत्योरुभयोरपि ।

पत्‍न्यां कुर्यादनर्हायां पतिरेतत् समाहितः ॥ १८ ॥

परीक्षित्! पति-पत्नीमेंसे एक भी कोई काम करता है, तो उसका फल दोनोंको होता है। इसलिये यदि पत्नी (रजोधर्म आदिके समय) यह व्रत करनेके अयोग्य हो जाय तो बड़ी एकाग्रता और सावधानीसे पतिको ही इसका अनुष्ठान करना चाहिये ।।१८।।

विष्णोर्व्रतमिदं बिभ्रन् न विहन्यात् कथञ्चन ।

विप्रान् स्त्रियो वीरवतीः स्रग्गन्धबलिमण्डनैः ।

अर्चेदहरहर्भक्त्या देवं नियममास्थितः ॥ १९ ॥

यह भगवान् विष्णुका व्रत है। इसका नियम लेकर बीचमें कभी नहीं छोड़ना चाहिये। जो भी यह नियम ग्रहण करे, वह प्रतिदिन माला, चन्दन, नैवेद्य और आभूषण आदिसे भक्तिपूर्वक ब्राह्मण और सुहागिनी स्त्रियोंका पूजन करे तथा भगवान् विष्णुकी भी पूजा करे ||१९||

उद्वास्य देवं स्वे धाम्नि तन्निवेदितमग्रतः ।

अद्यात् आत्मविशुद्ध्यर्थं सर्वकामर्द्धये तथा ॥ २० ॥

इसके बाद भगवानको उनके धाममें पधरा दे, विसर्जन कर दे। तदनन्तर आत्म-शुद्धि और समस्त अभिलाषाओंकी पूर्तिके लिये पहलेसे ही उन्हें निवेदित किया हुआ प्रसाद ग्रहण करे ||२०||

एतेन पूजाविधिना मासान् द्वादश हायनम् ।

नीत्वाथोपचरेत् साध्वी कार्तिके चरमेऽहनि ॥ २१ ॥

साध्वी स्त्री इस विधिसे बारह महीनोंतक—पूरे सालभर इस व्रतका आचरण करके मार्गशीर्षकी अमावास्याको उद्यापनसम्बन्धी उपवास और पूजन आदि करे ।।२१।।

श्वोभूतेऽप उपस्पृश्य कृष्णमभ्यर्च्य पूर्ववत् ।

पयःश्रृतेन जुहुयात् चरुणा सह सर्पिषा ।

पाकयज्ञविधानेन द्वादशैवाहुतीः पतिः ॥ २२ ॥

उस दिन प्रातःकाल ही स्नान करके पूर्ववत् विष्णुभगवान्का पूजन करे और उसका पति पाकयज्ञकी विधिसे घृतमिश्रित खीरकी अग्निमें बारह आहुति दे ।।२२।।

आशिषः शिरसाऽऽदाय द्विजैः प्रीतैः समीरिताः ।

प्रणम्य शिरसा भक्त्या भुञ्जीत तदनुज्ञया ॥ २३ ॥

इसके बाद जब ब्राह्मण प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दें, तो बड़े आदरसे सिर झुकाकर उन्हें स्वीकार करे। भक्तिभावसे माथा टेककर उनके चरणोंमें प्रणाम करे और उनकी आज्ञा लेकर भोजन करे ।।२३।।

आचार्यमग्रतः कृत्वा वाग्यतः सह बन्धुभिः ।

दद्यात्पत्‍न्यै चरोः शेषं सुप्रजास्त्वं सुसौभगम् ॥ २४ ॥

पहले आचार्यको भोजन कराये, फिर मौन होकर भाई-बन्धुओंके साथ स्वयं भोजन करे। इसके बाद हवनसे बची हुई घृतमिश्रित खीर अपनी पत्नीको दे। वह प्रसाद स्त्रीको सत्पुत्र और सौभाग्य दान करनेवाला होता है ।।२४।।

एतच्चरित्वा विधिवद्व्रतं विभोः

अभीप्सितार्थं लभते पुमानिह ।

स्त्री त्वेतदास्थाय लभेत सौभगं

श्रियं प्रजां जीवपतिं यशो गृहम् ॥ २५ ॥

परीक्षित्! भगवान्के इस पुंसवन-व्रतका जो मनुष्य विधिपूर्वक अनुष्ठान करता है, उसे यहीं उसकी मनचाही वस्तु मिल जाती है। स्त्री इस व्रतका पालन करके सौभाग्य, सम्पत्ति, सन्तान, यश और गृह प्राप्त करती है तथा उसका पति चिरायु हो जाता है ।।२५।।

कन्या च विन्देत समग्रलक्षणं

वरं त्ववीरा हतकिल्बिषां गतिम् ।

मृतप्रजा जीवसुता धनेश्वरी

सुदुर्भगा सुभगा रूपमग्र्यम् ॥ २६ ॥

विन्देद् विरूपा विरुजा विमुच्यते

य आमयावीन्द्रियकल्यदेहम् ।

एतत्पठन्नभ्युदये च कर्मणि

अनन्ततृप्तिः पितृदेवतानाम् ॥ २७ ॥

इस व्रतका अनुष्ठान करनेवाली कन्या समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त पति प्राप्त करती है और विधवा इस व्रतसे निष्पाप होकर वैकुण्ठमें जाती है। जिसके बच्चे मर जाते हों, वह स्त्री इसके प्रभावसे चिरायु पुत्र प्राप्त करती है। धनवती किन्तु अभागिनी स्त्रीको सौभाग्य प्राप्त होता है और कुरूपाको श्रेष्ठ रूप मिल जाता है। रोगी इस व्रतके प्रभावसे रोगमुक्त होकर बलिष्ठ शरीर और श्रेष्ठ इन्द्रियशक्ति प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य मांगलिक श्राद्धकर्मों में इसका पाठ करता है, उसके पितर और देवता अनन्त तृप्ति लाभ करते हैं ।।२६-२७।।

तुष्टाः प्रयच्छन्ति समस्तकामान्

होमावसाने हुतभुक् श्रीः हरिश्च ।

राजन् महन्मरुतां जन्म पुण्यं

दितेर्व्रतं चाभिहितं महत्ते ॥ २८ ॥

वे सन्तुष्ट होकर हवनके समाप्त होनेपर व्रतीकी समस्त इच्छाएँ पूर्ण कर देते हैं। ये सब तो सन्तुष्ट होते ही हैं, समस्त यज्ञोंके एकमात्र भोक्ता भगवान् लक्ष्मीनारायण भी सन्तुष्ट हो जाते हैं और व्रतीकी समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते हैं। परीक्षित्! मैंने तुम्हें मरुद्गणकी आदरणीय और पुण्यप्रद जन्मकथा सुनायी और साथ ही दितिके श्रेष्ठ पुंसवन-व्रतका वर्णन भी सुना दिया ।।२८।।
इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

षष्ठस्कन्धे पुंसवनव्रतकथनं नाम एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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