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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण षष्ठम स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 6 अध्याय 2

Spread the Glory of Sri SitaRam!

श्रीमद्भागवतपुराणम्
अध्यायः २

श्रीशुक उवाच –
एवं ते भगवद्दूता यमदूताभिभाषितम् ।
उपधार्याथ तान् राजन् प्रत्याहुर्नयकोविदाः ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! भगवान्के नीतिनिपुण एवं धर्मका मर्म जाननेवाले पार्षदोंने यमदूतोंका यह अभिभाषण सुनकर उनसे इस प्रकार कहा ।।१।।

श्रीविष्णुदूता ऊचुः –
अहो कष्टं धर्मदृशां अधर्मः स्पृशते सभाम् ।
यत्रादण्ड्येष्वपापेषु दण्डो यैर्ध्रियते वृथा ॥ २ ॥

भगवान्के पार्षदोंने कहा-यमदूतो! यह बड़े आश्चर्य और खेदकी बात है कि धर्मज्ञोंकी सभामें अधर्म प्रवेश कर रहा है, क्योंकि वहाँ निरपराध और अदण्डनीय व्यक्तियोंको व्यर्थ ही दण्ड दिया जाता है ।।२।।

प्रजानां पितरो ये च शास्तारः साधवः समाः ।
यदि स्यात्तेषु वैषम्यं कं यान्ति शरणं प्रजाः ॥ ३ ॥

जो प्रजाके रक्षक हैं, शासक हैं, समदर्शी और परोपकारी हैं यदि वे ही प्रजाके प्रति विषमताका व्यवहार करने लगें तो फिर प्रजा किसकी शरण लेगी? ||३||

यद् यद् आचरति श्रेयान् इतरः तत् तदीहते ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥ ४ ॥

सत्पुरुष जैसा आचरण करते हैं, साधारण लोग भी वैसा ही करते हैं। वे अपने आचरणके द्वारा जिस कर्मको धर्मानुकूल प्रमाणित कर देते हैं, लोग उसीका अनुकरण करने लगते हैं ||४||

यस्याङ्‌के शिर आधाय लोकः स्वपिति निर्वृतः ।
स्वयं धर्ममधर्मं वा न हि वेद यथा पशुः ॥ ५ ॥

साधारण लोग पशुओंके समान धर्म और अधर्मका स्वरूप न जानकर किसी सत्पुरुषपर विश्वास कर लेते हैं, उसकी गोदमें सिर रखकर निर्भय और निश्चिन्त सो जाते हैं ||५||

स कथं न्यर्पितात्मानं कृतमैत्रमचेतनम् ।
विस्रम्भणीयो भूतानां सघृणो द्रोग्धुमर्हति ॥ ६ ॥

वही दयालु सत्पुरुष, जो प्राणियोंका अत्यन्त विश्वासपात्र है और जिसे मित्रभावसेअपना हितैषी समझकर उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया है, उन अज्ञानी जीवोंके साथ कैसे विश्वासघात कर सकता है? ||६||

अयं हि कृतनिर्वेशो जन्मकोट्यंहसामपि ।
यद् व्याजहार विवशो नाम स्वस्त्ययनं हरेः ॥ ७ ॥

यमदूतो! इसने कोटि-कोटि जन्मोंकी पाप-राशिका पूरा-पूरा प्रायश्चित्त कर लिया है। क्योंकि इसने विवश होकर ही सही, भगवान्के परम कल्याणमय (मोक्षप्रद) नामका उच्चारण तो किया है ||७||

एतेनैव ह्यघोनोऽस्य कृतं स्यादघनिष्कृतम् ।
यदा नारायणायेति जगाद चतुरक्षरम् ॥ ८ ॥

जिस समय इसने ‘नारायण’ इन चार अक्षरोंका उच्चारण किया, उसी समय केवल उतनेसे ही इस पापीके समस्त पापोंका प्रायश्चित्त हो गया ||८||

स्तेनः सुरापो मित्रध्रुग् ब्रह्महा गुरुतल्पगः ।
स्त्रीराजपितृगोहन्ता ये च पातकिनोऽपरे ॥ ९ ॥

सर्वेषां अप्यघवतां इदमेव सुनिष्कृतम् ।
नामव्याहरणं विष्णोः यतस्तद् विषया मतिः ॥ १० ॥

चोर, शराबी, मित्रद्रोही, ब्रह्मघाती, गुरुपत्नीगामी, ऐसे लोगोंका संसर्गी; स्त्री, राजा, पिता और गायको मारनेवाला, चाहे जैसा और चाहे जितना बड़ा पापी हो, सभीके लिये यही—इतना ही सबसे बड़ा प्रायश्चित्त है कि भगवान्के नामोंका उच्चारण किया जाय; क्योंकि भगवन्नामोंके उच्चारणसे मनुष्यकी बुद्धि भगवान्के गुण, लीला और स्वरूपमें रम जाती है और स्वयं भगवान्की उसके प्रति आत्मीय बुद्धि हो जाती है ।।९-१०।।

न निष्कृतैरुदितैर्ब्रह्मवादिभिः
तथा विशुद्ध्यत्यघवान् व्रतादिभिः ।
यथा हरेर्नामपदैरुदाहृतैः
तदुत्तमश्लोक गुणोपलम्भकम् ॥ ११ ॥

बड़े-बड़े ब्रह्मवादी ऋषियोंने पापोंके बहुत-से प्रायश्चित्त-कृच्छ्र, चान्द्रायण आदि व्रत बतलाये हैं; परन्तु उन प्रायश्चितोंसे पापीकी वैसी जड़से शुद्धि नहीं होती, जैसी भगवान्के नामोंका, उनसे गुम्फित पदोंका। उच्चारण करनेसे होती है। क्योंकि वे नाम पवित्रकीर्ति भगवान्के गुणोंका ज्ञान करानेवाले हैं ।।११।।

नैकान्तिकं तद्धि कृतेऽपि निष्कृते
मनः पुनर्धावति चेदसत्पथे ।
तत्कर्मनिर्हारमभीप्सतां हरेः
गुणानुवादः खलु सत्त्वभावनः ॥ १२ ॥

यदि प्रायश्चित्त करनेके बाद भी मन फिरसे कुमार्गमें-पापकी ओर दौड़े, तो वह चरम सीमाका-पूरा-पूरा प्रायश्चित्त नहीं है। इसलिये जो लोग ऐसा प्रायश्चित्त करना चाहें कि जिससे पापकर्मों और वासनाओंकी जड़ ही उखड़ जाय, उन्हें भगवान्के गुणोंका ही गान करना चाहिये; क्योंकि उससे चित्त सर्वथा शुद्ध हो जाता है ।।१२।।

अथैनं मापनयत कृताशेषाघनिष्कृतम् ।
यदसौ भगवन्नाम म्रियमाणः समग्रहीत् ॥ १३ ॥

इसलिये यमदूतो! तुमलोग अजामिलको मत ले जाओ। इसने सारे पापोंका प्रायश्चित्त कर लिया है, क्योंकि इसने मरते समय भगवान्के नामका उच्चारण किया है ।।१३।।

साङ्‌केत्यं पारिहास्यं वा स्तोभं हेलनमेव वा ।
वैकुण्ठनामग्रहणं अशेषाघहरं विदुः ॥ १४ ॥

बड़े-बड़े महात्मा पुरुष यह बात जानते हैं कि संकेतमें (किसी दूसरे अभिप्रायसे), परिहासमें, तान अलापनेमें अथवा किसीकी अवहेलना करनेमें भी यदि कोई भगवान्के नामोंका उच्चारण करता है तो, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ।।१४।।

पतितः स्खलितो भग्नः सन्दष्टस्तप्त आहतः ।
हरिरित्यवशेनाह पुमान्नार्हति यातनाम् ॥ १५ ॥

जो मनुष्य गिरते
समय, पैर फिसलते समय, अंग-भंग होते समय और साँपके डॅसते, आगमें जलते तथा चोट लगते समय भी विवशतासे ‘हरि-हरि’ कहकर भगवान्के नामका उच्चारण कर लेता है, वह यमयातनाका पात्र नहीं रह जाता ||१५||
गुरूणां च लघूनां च गुरूणि च लघूनि च ।
प्रायश्चित्तानि पापानां ज्ञात्वोक्तानि महर्षिभिः ॥ १६ ॥

महर्षियोंने जान-बूझकर बड़े पापोंके लिये बड़े और छोटे पापोंके लिये छोटे प्रायश्चित्त बतलाये हैं ।।१६।।

तैस्तान्यघानि पूयन्ते तपोदानजपादिभिः ।
नाधर्मजं तद् हृदयं तदपीशाङ्‌घ्रिसेवया ॥ १७ ॥

इसमें सन्देह नहीं कि उन तपस्या, दान, जप आदि प्रायश्चित्तोंके द्वारा वे पाप नष्ट हो जाते हैं। परन्तु उन पापोंसे मलिन हुआ उसका हृदय शुद्ध नहीं होता। भगवान्के चरणोंकी सेवासे वह भी शुद्ध हो जाता है ।।१७।।
अज्ञानादथवा ज्ञानात् उत्तमश्लोकनाम यत् ।
सङ्‌कीर्तितमघं पुंसो दहेदेधो यथानलः ॥ १८ ॥

यमदूतो! जैसे जान या अनजानमें ईंधनसे अग्निका स्पर्श हो जाय तो वह भस्म हो ही जाता है, वैसे ही जान-बूझकर या अनजानमें भगवान्के नामोंका संकीर्तन करनेसे मनुष्यके सारे पाप भस्म हो जाते हैं ।।१८।।

यथागदं वीर्यतमं उपयुक्तं यदृच्छया ।
अजानतोऽप्यात्मगुणं कुर्यान् मंत्रोऽप्युदाहृतः ॥ १९ ॥

जैसे कोई परम शक्तिशाली अमतको उसका गुण न जानकर अनजानमें पी ले तो भी वह अवश्य ही पीनेवालेको अमर बना देता है, वैसे ही अनजानमें उच्चारण करनेपर भी भगवान्का नाम* अपना फल देकर ही रहता है (वस्तुशक्ति श्रद्धाकी अपेक्षा नहीं करती) ||१९||

श्रीशुक उवाच –
ते एवं सुविनिर्णीय धर्मं भागवतं नृप ।
तं याम्यपाशान्निर्मुच्य विप्रं मृत्योरमूमुचन् ॥ २० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं राजन्! इस प्रकार भगवान्के पार्षदोंने भागवत-धर्मका पूरापूरा निर्णय सुना दिया और अजामिलको यमदूतोंके पाशसे छुड़ाकर मृत्युके मुखसे बचा लिया ।।२०।।

इति प्रत्युदिता याम्या दूता यात्वा यमान्तिके ।
यमराज्ञे यथा सर्वं आचचक्षुररिन्दम ॥ २१ ॥

प्रिय परीक्षित्! पार्षदोंकी यह बात सुनकर यमदूत यमराजके पास गये और उन्हें यह सारा वृत्तान्त ज्यों-का-त्यों सुना दिया ||२१||

द्विजः पाशाद्विनिर्मुक्तो गतभीः प्रकृतिं गतः ।
ववन्दे शिरसा विष्णोः किङ्‌करान् दर्शनोत्सवः ॥ २२ ॥

अजामिल यमदूतोंके फंदेसे छूटकर निर्भय और स्वस्थ हो गया। उसने भगवान्के पार्षदोंके दर्शनजनित आनन्दमें मग्न होकर उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया ।।२२।।

तं विवक्षुमभिप्रेत्य महापुरुषकिङ्‌कराः ।
सहसा पश्यतस्तस्य तत्रान्तर्दधिरेऽनघ ॥ २३ ॥

निष्पाप परीक्षित्! भगवान्के पार्षदोंने देखा कि अजामिल कुछ कहना चाहता है, तब वे सहसा उसके सामने ही वहीं अन्तर्धान हो गये ।।२३।।

अजामिलोऽप्यथाकर्ण्य दूतानां यमकृष्णयोः ।
धर्मं भागवतं शुद्धं त्रैवेद्यं च गुणाश्रयम् ॥ २४ ॥

इस अवसरपर अजामिलने भगवान्के पार्षदोंसे विशुद्ध भागवत-धर्म और यमदूतोंके मुखसे वेदोक्त सगुण (प्रवृत्तिविषयक) धर्मका श्रवण किया था ||२४||

भक्तिमान्भगवत्याशु माहात्म्यश्रवणाद्धरेः ।
अनुतापो महानासीत्स्मरतोऽशुभमात्मनः ॥ २५ ॥

सर्वपापापहारी भगवानकी महिमा सुननेसे अजामिलके हृदयमें शीघ्र
ही भक्तिका उदय हो गया। अब उसे अपने पापोंको याद करके बडा पश्चात्ताप होने लगा ।।२५।।

अहो मे परमं कष्टं अभूद् अविजितात्मनः ।
येन विप्लावितं ब्रह्म वृषल्यां जायतात्मना ॥ २६ ॥

(अजामिल मन-ही-मन सोचने लगा-) ‘अरे, मैं कैसा इन्द्रियोंका दास हूँ! मैंने
एक दासीके गर्भसे पत्र उत्पन्न करके अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर दिया। यह बडे दःखकी बात है ||२६||

धिङ्‌मां विगर्हितं सद्‌भिः दुष्कृतं कुलकज्जलम् ।
हित्वा बालां सतीं योऽहं सुरापीमसतीमगाम् ॥ २७ ॥

धिक्कार है! मुझे बार-बार धिक्कार है! मैं संतोंके द्वारा निन्दित हूँ, पापात्मा हूँ! मैंने अपने कुलमें कलंकका टीका लगा दिया! हाय-हाय, मैंने अपनी सती एवं अबोध पत्नीकापरित्याग कर दिया और शराब पीनेवाली कुलटाका संसर्ग किया ।।२७।।

वृद्धावनाथौ पितरौ नान्यबन्धू तपस्विनौ ।
अहो मयाधुना त्यक्तौ अकृतज्ञेन नीचवत् ॥ २८ ॥

मैं कितना नीच हूँ! मेरे माँ-बाप बढे और तपस्वी थे। वे सर्वथा असहाय थे, उनकी सेवा-शुश्रुषा करनेवाला और कोई नहीं था। मैंने उनका भी परित्याग कर दिया। ओह! मैं कितना कृतघ्न हूँ ||२८||

सोऽहं व्यक्तं पतिष्यामि नरके भृशदारुणे ।
धर्मघ्नाः कामिनो यत्र विन्दन्ति यमयातनाः ॥ २९ ॥

मैं अब अवश्य ही अत्यन्त भयावने नरकमें गिरूँगा, जिसमें गिरकर धर्मघाती पापात्मा कामी पुरुष अनेकों प्रकारकी यमयातना भोगते हैं ।।२९।।

किमिदं स्वप्न आहो स्वित् साक्षाद् दृष्टमिहाद्‍भुतम् ।
क्व याता अद्य ते ये मां व्यकर्षन् पाशपाणयः ॥ ३० ॥

‘मैंने अभी जो अदभुत दृश्य देखा, क्या यह स्वप्न है? अथवा जाग्रत् अवस्थाका ही प्रत्यक्ष अनुभव है? अभी-अभी जो हाथोंमें फंदा लेकर मुझे खींच रहे थे, वे कहाँ चले गये? ||३०||

अथ ते क्व गताः सिद्धाः चत्वारश्चारुदर्शनाः ।
व्यामोचयन् नीयमानं बद्ध्वा पाशैरधो भुवः ॥ ३१ ॥

अभी-अभी वे मुझे अपने फंदोंमें फँसाकर पृथ्वीके नीचे ले जा रहे थे, परन्तु चार अत्यन्त सुन्दर सिद्धोंने आकर मुझे छुड़ा लिया! वे अब कहाँ चले गये ।।३१।।

अथापि मे दुर्भगस्य विबुधोत्तमदर्शने ।
भवितव्यं मङ्‌गलेन येनात्मा मे प्रसीदति ॥ ३२ ॥

यद्यपि मैं इस जन्मका महापापी हूँ, फिर भी मैंने पूर्वजन्मोंमें अवश्य ही शुभकर्म किये होंगे; तभी तो मुझे इन श्रेष्ठ देवताओंके दर्शन हुए। उनकी स्मृतिसे मेरा हृदय अब भी आनन्दसे भर रहा है ||३२||

अन्यथा म्रियमाणस्य नाशुचेर्वृषलीपतेः ।
वैकुण्ठनामग्रहणं जिह्वा वक्तुमिहार्हति ॥ ३३ ॥

मैं कुलटागामी और अत्यन्त अपवित्र हूँ। यदि पूर्वजन्ममें मैंने पुण्य न किये होते, तो मरनेके समय मेरी जीभ भगवान्के मनोमोहक नामका उच्चारण कैसे कर पाती? ||३३।।

क्व चाहं कितवः पापो ब्रह्मघ्नो निरपत्रपः ।
क्व च नारायणेत्येतद् भगवन्नाम मङ्‌गलम् ॥ ३४ ॥

कहाँ तो मैं महाकपटी, पापी, निर्लज्ज और ब्रह्मतेजको नष्ट करनेवाला तथा कहाँ भगवान्का वह परम मंगलमय ‘नारायण’ नाम! (सचमुच मैं तो कृतार्थ हो गया) ||३४||

सोऽहं तथा यतिष्यामि यतचित्तेन्द्रियानिलः ।
यथा न भूय आत्मानं अन्धे तमसि मज्जये ॥ ३५ ॥

अब मैं अपने मन, इन्द्रिय और प्राणोंको वशमें करके ऐसा प्रयत्न करूँगा कि फिर अपनेको घोर अन्धकारमय नरकमें न डालूँ ||३५||

विमुच्य तमिमं बन्धं अविद्या कामकर्मजम् ।
सर्वभूतसुहृच्छान्तो मैत्रः करुण आत्मवान् ॥ ३६ ॥

अज्ञानवश मैंने अपनेको शरीर समझकर उसके लिये बड़ी-बड़ी कामनाएँ की और उनकी पूर्तिके लिये अनेकों कर्म किये। उन्हींका फल है यह बन्धन! अब मैं इसे काटकर समस्त प्राणियोंका हित करूँगा, वासनाओंको शान्त कर दूंगा, सबसे मित्रताका व्यवहार करूँगा, दुःखियोंपर दया करूँगा और पूरे संयमके साथ रहँगा ||३६।।

मोचये ग्रस्तमात्मानं योषिन्मय्याऽऽत्ममायया ।
विक्रीडितो ययैवाहं क्रीडामृग इवाधमः ॥ ३७ ॥

भगवान्की मायाने स्त्रीका रूप धारण करके मुझ अधमको फाँस लिया और क्रीडामगकी भाँति मुझे बहुत नाच नचाया। अब मैं अपने-आपको उस मायासे मुक्त करूँगा ।।३७।।

ममाहमिति देहादौ हित्वामिथ्यार्थधीर्मतिम् ।
धास्ये मनो भगवति शुद्धं तत्कीर्तनादिभिः ॥ ३८ ॥

मैंने सत्य वस्तु परमात्माको पहचान लिया है; अतः अब मैं शरीर आदिमें ‘मैं’ तथा ‘मेरे’ का भाव छोड़कर भगवन्नामके कीर्तन आदिसे अपने मनको शुद्ध करूँगा और उसे भगवान्में लगाऊँगा ।।३८।।

श्रीशुक उवाच –
इति जातसुनिर्वेदः क्षणसङ्‌गेन साधुषु ।
गङ्‌गाद्वारमुपेयाय मुक्तसर्वानुबन्धनः ॥ ३९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! उन भगवान्के पार्षद महात्माओंका केवल थोड़ी ही देरके लिये सत्संग हआ था। इतनेसे ही अजामिलके चित्तमें संसारके प्रति तीव्र वैराग्य हो गया। वे सबके सम्बन्ध और मोहको छोड़कर हरद्वार चले गये ||३९।।

स तस्मिन् देवसदन आसीनो योगमास्थितः ।
प्रत्याहृतेन्द्रियग्रामो युयोज मन आत्मनि ॥ ४० ॥

उस देवस्थानमें जाकर वे भगवान्के मन्दिरमें आसनसे बैठ गये और उन्होंने योगमार्गका आश्रय लेकर अपनी सारी इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाकर मनमें लीन कर लिया और मनको बुद्धिमें मिला दिया ।।४०।।

ततो गुणेभ्य आत्मानं वियुज्यात्मसमाधिना ।
युयुजे भगवद् धाम्नि ब्रह्मण्यनुभवात्मनि ॥ ४१ ॥

इसके बाद आत्मचिन्तनके द्वारा उन्होंने बुद्धिको विषयोंसे पृथक् कर लिया तथा भगवान्के धाम अनुभवस्वरूप परब्रह्ममें जोड़ दिया ।।४१।।

यर्ह्युपारतधीस्तस्मिन् अद्राक्षीत् पुरुषान्पुरः ।
उपलभ्योपलब्धान् प्राग् ववन्दे शिरसा द्विजः ॥ ४२ ॥

इस प्रकार जब अजामिलकी बुद्धि त्रिगुणमयी प्रकृतिसे ऊपर उठकर भगवान्के स्वरूपमें स्थित हो गयी, तब उन्होंने देखा कि उनके सामने वे ही चारों पार्षद, जिन्हें उन्होंने पहले देखा था, खड़े हैं। अजामिलने सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया ||४२।।

हित्वा कलेवरं तीर्थे गङ्‌गायां दर्शनादनु ।
सद्यः स्वरूपं जगृहे भगवन् पार्श्ववर्तिनाम् ॥ ४३ ॥

उनका दर्शन पानेके बाद उन्होंने उस तीर्थस्थानमें गंगाके तटपर अपना शरीर त्याग दिया और तत्काल भगवानके पार्षदोंका स्वरूप प्राप्त कर लिया ।।४३।।

साकं विहायसा विप्रो महापुरुषकिङ्‌करैः ।
हैमं विमानमारुह्य ययौ यत्र श्रियः पतिः ॥ ४४ ॥

अजामिल भगवान्के पार्षदोंके साथ स्वर्णमय विमानपर आरूढ़ होकर आकाशमार्गसे भगवान् लक्ष्मीपतिके निवासस्थान वैकुण्ठको चले गये ।।४४।।

एवं स विप्लावितसर्वधर्मा
दास्याः पतिः पतितो गर्ह्यकर्मणा ।
निपात्यमानो निरये हतव्रतः
सद्यो विमुक्तो भगवन्नाम गृह्णन् ॥ ४५ ॥

परीक्षित! अजामिलने दासीका सहवास करके सारा धर्म-कर्म चौपट कर दिया था। वे अपने निन्दित कर्मके कारण पतित हो गये थे। नियमोंसे च्युत हो जानेके कारण उन्हें नरकमें गिराया जा रहा था। परन्तु भगवान्के एक नामका उच्चारण करनेमात्रसे वे उससे तत्काल मुक्त हो गये ||४५||

नातः परं कर्मनिबन्धकृन्तनं
मुमुक्षतां तीर्थपदानुकीर्तनात् ।
न यत्पुनः कर्मसु सज्जते मनो
रजस्तमोभ्यां कलिलं ततोऽन्यथा ॥ ४६ ॥

जो लोग इस ससांरबन्धनसे मुक्त होना चाहते हैं, उनके लिये अपने चरणोंके स्पर्शसे तीर्थों को भी तीर्थ बनानेवाले भगवानके नामसे बढ़कर और कोई साधन नहीं है; क्योंकि नामका आश्रय लेनेसे मनुष्यका मन फिर कर्मके पचड़ोंमें नहीं पड़ता।भगवन्नामके अतिरिक्त और किसी प्रायश्चित्तका आश्रय लेनेपर मन रजोगुण और तमोगुणसे ग्रस्त ही रहता है तथा पापोंका पूरा-पूरा नाश भी नहीं होता ।।४६।।

य एतं परमं गुह्यं इतिहासमघापहम् ।
श्रृणुयात् श्रद्धया युक्तो यश्च भक्त्यानुकीर्तयेत् ॥ ४७ ॥

न वै स नरकं याति नेक्षितो यमकिङ्‌करैः ।
यद्यप्यमङ्‌गलो मर्त्यो विष्णुलोके महीयते ॥ ४८ ॥

परीक्षित्! यह इतिहास अत्यन्त गोपनीय और समस्त पापोंका नाश करनेवाला है। जो पुरुष श्रद्धा और भक्तिके साथ इसका श्रवण-कीर्तन करता है, वह नरकमें कभी नहीं जाता। यमराजके दूत तो आँख उठाकर उसकी ओर देखतक नहीं सकते। उस पुरुषका जीवन चाहे पापमय ही क्यों न रहा हो, वैकुण्ठलोकमें उसकी पूजा होती है ।।४७-४८।।

म्रियमाणो हरेर्नाम गृणन् पुत्रोपचारितम् ।
अजामिलोऽप्यगात् धाम किमुत श्रद्धया गृणन् ॥ ४९ ॥

परीक्षित्! देखो -अजामिल-जैसे पापीने मृत्युके समय पुत्रके बहाने भगवान्के नामका उच्चारण किया! उसे भी वैकण्ठकी प्राप्ति हो गयी! फिर जो लोग श्रद्धाके साथ भगवन्नामका उच्चारण करते हैं, उनकी तो बात ही क्या है ।।४९||

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
षष्ठस्कन्धे अजामिलोपाख्याने द्वितीयोध्याऽयः ॥ २ ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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