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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण षष्ठम स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 6 अध्याय 3

Spread the Glory of Sri SitaRam!

अध्यायः ३

श्रीराजोवाच।
निशम्य देवः स्वभटोपवर्णितं प्रत्याह किं तानपि धर्मराजः।
एवं हताज्ञो विहतान्मुरारेर्नैदेशिकैर्यस्य वशे जनोऽयम् १।

राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन्! देवाधिदेव धर्मराजके वशमें सारे जीव हैं और भगवान्के पार्षदोंने उन्हींकी आज्ञा भंग कर दी तथा उनके दूतोंको अपमानित कर दिया। जब उनके दूतोंने यमपुरीमें जाकर उनसे अजामिलका वृत्तान्त कह सुनाया, तब सब कुछ सुनकर उन्होंने अपने दूतोंसे क्या कहा? ||१||

यमस्य देवस्य न दण्डभङ्गः कुतश्चनर्षे श्रुतपूर्व आसीत्।
एतन्मुने वृश्चति लोकसंशयं न हि त्वदन्य इति मे विनिश्चितम् २।

ऋषिवर! मैंने पहले यह बात कभी नहीं सुनी कि किसीने किसी भी कारणसे धर्मराजके शासनका उल्लंघन किया हो। भगवन्! इस विषयमें लोग बहुत सन्देह करेंगे और उसका निवारण आपके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं कर सकता, ऐसा मेरा निश्चय है ।।२।।

श्रीशुक उवाच।
भगवत्पुरुषै राजन्याम्याः प्रतिहतोद्यमाः।
पतिं विज्ञापयामासुर्यमं संयमनीपतिम् ३।

श्रीशुकदेवजीने कहा-परीक्षित्! जब भगवानके पार्षदोंने यमदूतोंका प्रयत्न विफल कर दिया, तब उन लोगोंने संयमनीपुरीके स्वामी एवं अपने शासक यमराजके पास जाकर निवेदन किया ||३||

यमदूता ऊचुः।
कति सन्तीह शास्तारो जीवलोकस्य वै प्रभो।
त्रैविध्यं कुर्वतः कर्म फलाभिव्यक्तिहेतवः ४।

यमदूतोंने कहा-प्रभो! संसारके जीव तीन प्रकारके कर्म करते हैं-पाप, पुण्य अथवा दोनोंसे मिश्रित। इन जीवोंको उन कर्मोंका फल देनेवाले शासक संसारमें कितने हैं? ।।४।।

यदि स्युर्बहवो लोके शास्तारो दण्डधारिणः।
कस्य स्यातां न वा कस्य मृत्युश्चामृतमेव वा ५।

यदि संसारमें दण्ड देनेवाले बहुत-से शासक हों, तो किसे सुख मिले और किसे दुःख—इसकी व्यवस्था एक-सी न हो सकेगी ||५||

किन्तु शास्तृबहुत्वे स्याद्बहूनामिह कर्मिणाम्।
शास्तृत्वमुपचारो हि यथा मण्डलवर्तिनाम् ६।

संसारमें कर्म करनेवालोंके अनेक होनेके कारण यदि उनके शासक भी अनेक हों, तो उन शासकोंका शासकपना नाममात्रका ही होगा, जैसे एक सम्राट्के अधीन बहुत-से नाममात्रके सामन्त होते हैं ।।६।।

अतस्त्वमेको भूतानां सेश्वराणामधीश्वरः।
शास्ता दण्डधरो नॄणां शुभाशुभविवेचनः ७।

इसलिये हम तो ऐसा समझते हैं कि अकेले आप ही समस्त प्राणियों और उनके स्वामियोंके भी अधीश्वर हैं। आप ही मनुष्योंके पाप और पुण्यके निर्णायक, दण्डदाता और शासक हैं ||७||

तस्य ते विहितो दण्डो न लोके वर्ततेऽधुना।
चतुर्भिरद्भुतैः सिद्धैराज्ञा ते विप्रलम्भिता ८।

प्रभो! अबतक संसारमें कहीं भी आपके द्वारा नियत किये हुए दण्डकी अवहेलना नहीं हुई थी; किन्तु इस समय चार अद्भुत सिद्धोंने आपकी आज्ञाका उल्लंघन कर दिया है ।।८।।

नीयमानं तवादेशादस्माभिर्यातनागृहान्।
व्यामोचयन्पातकिनं छित्त्वा पाशान्प्रसह्य ते ९।

प्रभो! आपकी आज्ञासे हमलोग एक पापीको यातनागहकी ओर ले जा रहे थे, परन्त उन्होंने बलपूर्वक आपके फंदे काटकर उसे छुड़ा दिया ।।९।।

तांस्ते वेदितुमिच्छामो यदि नो मन्यसे क्षमम्।
नारायणेत्यभिहिते मा भैरित्याययुर्द्रुतम् १०।

हम आपसे उनका रहस्य जानना चाहते हैं। यदि आप हमें सुननेका अधिकारी समझें तो कहें। प्रभो! बड़े ही आश्चर्यकी बात हुई कि इधर तो अजामिलके मुँहसे ‘नारायण!’ यह शब्द निकला और उधर वे ‘डरो मत, डरो मत!’ कहते हुए झटपट वहाँ आ पहुँचे ।।१०।।

श्रीबादरायणिरुवाच।
इति देवः स आपृष्टः प्रजासंयमनो यमः।
प्रीतः स्वदूतान्प्रत्याह स्मरन्पादाम्बुजं हरेः ११।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-जब दूतोंने इस प्रकार प्रश्न किया, तब देवशिरोमणि प्रजाके शासक भगवान् यमराजने प्रसन्न होकर श्रीहरिके चरणकमलोंका स्मरण करते हुए उनसे कहा ।।११।।

यम उवाच।
परो मदन्यो जगतस्तस्थुषश्च ओतं प्रोतं पटवद्यत्र विश्वम्।
यदंशतोऽस्य स्थितिजन्मनाशा नस्योतवद्यस्य वशे च लोकः १२।

यमराजने कहा-दूतो! मेरे अतिरिक्त एक और ही चराचर जगत्के स्वामी हैं। उन्हींमें यह सम्पूर्ण जगत् सूतमें वस्त्रके समान ओत-प्रोत है। उन्हींके अंश ब्रह्मा, विष्णु और शंकर इस जगत्की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय करते हैं। उन्हींने इस सारे जगत्को नथे हुए बैलके समान अपने अधीन कर रखा है ।।१२।।

यो नामभिर्वाचि जनं निजायां बध्नाति तन्त्र्यामिव दामभिर्गाः।
यस्मै बलिं त इमे नामकर्म निबन्धबद्धाश्चकिता वहन्ति १३।

मेरे प्यारे दूतो! जैसे किसान अपने बैलोंको पहले छोटी-छोटी रस्सियोंमें बाँधकर फिर उन रस्सियोंको एक बड़ी आड़ी रस्सीमें बाँध देते है, वैसेही जगदीश्वर भगवान्ने भी ब्राह्मणादि वर्ण और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमरूप छोटी-छोटी नामकी रस्सियोंमें बाँधकर फिर सब नामोंको वेदवाणीरूप बड़ी रस्सीमें बाँध रखा है। इस प्रकार सारे जीव नाम एवं कर्मरूप बन्धनमें बँधे हुए भयभीत होकर उन्हें ही अपना सर्वस्व भेंट कर रहे हैं ।।१३।।

अहं महेन्द्रो निरृतिः प्रचेताः सोमोऽग्निरीशः पवनो विरिञ्चिः।
आदित्यविश्वे वसवोऽथ साध्या मरुद्गणा रुद्रगणाः ससिद्धाः १४।
अन्ये च ये विश्वसृजोऽमरेशा भृग्वादयोऽस्पृष्टरजस्तमस्काः।
यस्येहितं न विदुः स्पृष्टमायाः सत्त्वप्रधाना अपि किं ततोऽन्ये १५।

दूतो! मैं, इन्द्र, निर्ऋति, वरुण, चन्द्रमा, अग्नि, शंकर, वायु, सूर्य, ब्रह्मा, बारहों आदित्य, विश्वेदेवता, आठों वसु, साध्य, उनचास मरुत्, सिद्ध, ग्यारहों रुद्र, रजोगुण एवं तमोगुणसे रहित भग आदि प्रजापति और बड़े-बड़े देवता-सब-के-सब सत्त्वप्रधान होनेपर भी उनकी मायाके अधीन हैं तथा भगवान् कब क्या किस रूपमें करना चाहते हैंइस बातको नहीं जानते। तब दूसरोंकी तो बात ही क्या है ।।१४-१५।।

यं वै न गोभिर्मनसासुभिर्वा हृदा गिरा वासुभृतो विचक्षते।
आत्मानमन्तर्हृदि सन्तमात्मनां चक्षुर्यथैवाकृतयस्ततः परम् १६।

दतो! जिस प्रकार घट, पट आदि रूपवान् पदार्थ अपने प्रकाशक नेत्रको नहीं देख सकते-वैसे ही अन्तःकरणमें अपने साक्षीरूपसे स्थित परमात्माको कोई भी प्राणी इन्द्रिय, मन, प्राण, हृदय या वाणी आदि किसी भी साधनके द्वारा नहीं जान सकता ।।१६।।

तस्यात्मतन्त्रस्य हरेरधीशितुः परस्य मायाधिपतेर्महात्मनः।
प्रायेण दूता इह वै मनोहराश्चरन्ति तद्रूपगुणस्वभावाः १७।

वे प्रभु सबके स्वामी और स्वयं परम स्वतन्त्र हैं। उन्हीं मायापति पुरुषोत्तमके दूत उन्हींके समान परम मनोहर रूप, गुण और स्वभावसे सम्पन्न होकर इस लोकमें प्रायः विचरण किया करते हैं ।।१७।।

भूतानि विष्णोः सुरपूजितानि दुर्दर्शलिङ्गानि महाद्भुतानि।
रक्षन्ति तद्भक्तिमतः परेभ्यो मत्तश्च मर्त्यानथ सर्वतश्च १८।

विष्णुभगवान्के सुरपूजित एवं परम अलौकिक पार्षदोंका दर्शन बड़ा दुर्लभ है। वे भगवान्के भक्तजनोंको उनके शत्रुओंसे, मुझसे और अग्नि आदि सब विपत्तियोंसे सर्वथा सुरक्षित रखते हैं ।।१८।।

धर्मं तु साक्षाद्भगवत्प्रणीतं न वै विदुरृषयो नापि देवाः।
न सिद्धमुख्या असुरा मनुष्याः कुतो नु विद्याधरचारणादयः १९।

स्वयं भगवानने ही धर्मकी मर्यादाका निर्माण किया है। उसे न तो ऋषि जानते हैं और न देवता या सिद्धगण ही। ऐसी स्थितिमें मनुष्य, विद्याधर, चारण और असुर आदि तो जान ही कैसे सकते हैं ।।१९।।

स्वयम्भूर्नारदः शम्भुः कुमारः कपिलो मनुः।
प्रह्लादो जनको भीष्मो बलिर्वैयासकिर्वयम् २०।

द्वादशैते विजानीमो धर्मं भागवतं भटाः।
गुह्यं विशुद्धं दुर्बोधं यं ज्ञात्वामृतमश्नुते २१।

भगवान्के द्वारा निर्मित भागवतधर्म परम शुद्ध और अत्यन्त गोपनीय है। उसे जानना बहत ही कठिन है। जो उसे जान लेता है, वह भगवत्स्वरूपको प्राप्त हो जाता है। दूतो! भागवतधर्मका रहस्य हम बारह व्यक्ति ही जानते हैं ब्रह्माजी, देवर्षि नारद, भगवान् शंकर, सनत्कुमार, कपिलदेव, स्वायम्भुव मनु, प्रह्लाद, जनक, भीष्मपितामह, बलि, शुकदेवजी और मैं (धर्मराज) ।।२०-२१।।

एतावानेव लोकेऽस्मिन्पुंसां धर्मः परः स्मृतः।
भक्तियोगो भगवति तन्नामग्रहणादिभिः २२।

इस जगत्में जीवोंके लिये बस, यही सबसे बड़ा कर्तव्य-परम धर्म है कि वे नाम-कीर्तन आदि उपायोंसे भगवान्के चरणोंमें भक्तिभाव प्राप्त कर लें ।।२२।।

नामोच्चारणमाहात्म्यं हरेः पश्यत पुत्रकाः।
अजामिलोऽपि येनैव मृत्युपाशादमुच्यत २३।

प्रिय दूतो! भगवान्के नामोच्चारणकी महिमा तो देखो, अजामिल-जैसा पापी भी एक बार नामोच्चारण करनेमात्रसे मृत्युपाशसे छुटकारा पा गया ।।२३।।

एतावतालमघनिर्हरणाय पुंसां।
सङ्कीर्तनं भगवतो गुणकर्मनाम्नाम् ।
विक्रुश्य पुत्रमघवान्यदजामिलोऽपि।
नारायणेति म्रियमाण इयाय मुक्तिम् २४।

भगवान्के गुण, लीला और नामोंका भलीभाँति कीर्तन मनुष्योंके पापोंका सर्वथा विनाश कर दे, यह कोई उसका बहुत बड़ा फल नहीं है, क्योंकि अत्यन्त पापी अजामिलने मरनेके समय चंचल चित्तसे अपने पत्रका नाम ‘नारायण’ उच्चारण किया। इस नामाभासमात्रसे ही उसके सारे पाप तो क्षीण हो ही गये, मुक्तिकी प्राप्ति भी हो गयी ।।२४।।

प्रायेण वेद तदिदं न महाजनोऽयं।
देव्या विमोहितमतिर्बत माययालम्।
त्रय्यां जडीकृतमतिर्मधुपुष्पितायां।
वैतानिके महति कर्मणि युज्यमानः २५।

बड़े-बड़े विद्वानोंकी बुद्धि कभी भगवान्की मायासे मोहित हो जाती है। वे कर्मोंके मीठेमीठे फलोंका वर्णन करनेवाली अर्थवादरूपिणी वेदवाणीमें ही मोहित हो जाते हैं और यज्ञयागादि बड़े-बड़े कर्मों में ही संलग्न रहते हैं तथा इस सुगमातिसुगम भगवन्नामकी महिमाको नहीं जानते। यह कितने खेदकी बात है ।।२५।।

एवं विमृश्य सुधियो भगवत्यनन्ते।
सर्वात्मना विदधते खलु भावयोगम्।
ते मे न दण्डमर्हन्त्यथ यद्यमीषां।
स्यात्पातकं तदपि हन्त्युरुगायवादः २६।

प्रिय दूतो! बुद्धिमान् पुरुष ऐसा विचार कर भगवान् अनन्तमें ही सम्पूर्ण अन्तःकरणसे अपना भक्तिभाव स्थापित करते हैं। वे मेरे दण्डके पात्र नहीं हैं। पहली बात तो यह है कि वे पाप करते ही नहीं, परन्तु यदि कदाचित् संयोगवश कोई पाप बन भी जाय, तो उसे भगवान्का गुणगान तत्काल नष्ट कर देता है ।।२६।।

ते देवसिद्धपरिगीतपवित्रगाथा।
ये साधवः समदृशो भगवत्प्रपन्नाः।
तान्नोपसीदत हरेर्गदयाभिगुप्तान्।
नैषां वयं न च वयः प्रभवाम दण्डे २७।

जो समदर्शी साधु भगवान्को ही अपना साध्य और साधन दोनों समझकर उनपर निर्भर हैं, बड़े-बड़े देवता और सिद्ध उनके पवित्र चरित्रोंका प्रेमसे गान करते रहते हैं। मेरे दूतो! भगवान्की गदा उनकी सदा रक्षा करती रहती है। उनके पास तुमलोग कभी भूलकर भी मत फटकना। उन्हें दण्ड देनेकी सामर्थ्य न हममें है और न साक्षात् कालमें ही ।।२७।।

तानानयध्वमसतो विमुखान्मुकुन्द।
पादारविन्दमकरन्दरसादजस्रम्।
निष्किञ्चनैः परमहंसकुलैरसङ्गैर्।
जुष्टाद्गृहे निरयवर्त्मनि बद्धतृष्णान् २८।

बड़े-बड़े परमहंस दिव्य रसके लोभसे सम्पूर्ण जगत् और शरीर आदिसे भी अपनीअहंता-ममता हटाकर, अकिंचन होकर निरन्तर भगवान् मुकुन्दके पादारविन्दका मकरन्द-रस पान करते रहते हैं। जो दुष्ट उस दिव्य रससे विमुख हैं और नरकके दरवाजे घर-गृहस्थीकी तृष्णाका बोझा बाँधकर उसे ढो रहे हैं, उन्हींको मेरे पास बार-बार लाया करो ||२८||

जिह्वा न वक्ति भगवद्गुणनामधेयं।
चेतश्च न स्मरति तच्चरणारविन्दम्।
कृष्णाय नो नमति यच्छिर एकदापि।
तानानयध्वमसतोऽकृतविष्णुकृत्यान् २९।

जिनकी जीभ भगवान्के गुणों और नामोंका उच्चारण नहीं करती, जिनका चित्त उनके चरणारविन्दोंका चिन्तन नहीं करता और जिनका सिर एक बार भी भगवान् श्रीकृष्णके
चरणोंमें नहीं झुकता, उन भगवत्सेवाविमुख पापियोंको ही मेरे पास लाया करो ||२९||

तत्क्षम्यतां स भगवान्पुरुषः पुराणो।
नारायणः स्वपुरुषैर्यदसत्कृतं नः।
स्वानामहो न विदुषां रचिताञ्जलीनां।
क्षान्तिर्गरीयसि नमः पुरुषाय भूम्ने ३०।

आज मेरे दूतोंने भगवान्के पार्षदोंका अपराध करके स्वयं भगवान्का ही तिरस्कार किया है। यह मेरा ही अपराध है। पुराणपुरुष भगवान् नारायण हमलोगोंका यह अपराध क्षमा करें। हम अज्ञानी होनेपर भी हैं उनके निजजन और उनकी आज्ञा पानेके लिये अंजलि बाँधकर सदा उत्सुक रहते हैं। अतः परम महिमान्वित भगवानके लिये यही योग्य है कि वे क्षमा कर दें। मैं उन सर्वान्तर्यामी एकरस अनन्त प्रभुको नमस्कार करता हूँ ||३०||

तस्मात्सङ्कीर्तनं विष्णोर्जगन्मङ्गलमंहसाम्।
महतामपि कौरव्य विद्ध्यैकान्तिकनिष्कृतम् ३१।

– [श्रीशुकदेवजी कहते हैं- ] परीक्षित्! इसलिये तुम ऐसा समझ लो कि बड़े-से-बड़े पापोंका सर्वोत्तम, अन्तिम और पाप-वासनाओंको भी निर्मूल कर डालनेवाला प्रायश्चित्त यहीहै कि केवल भगवान्के गुणों, लीलाओं और नामोंका कीर्तन किया जाय। इसीसे संसारका कल्याण हो सकता है ||३१||

शृण्वतां गृणतां वीर्याण्युद्दामानि हरेर्मुहुः।
यथा सुजातया भक्त्या शुद्ध्येन्नात्मा व्रतादिभिः ३२।

जो लोग बार-बार भगवानके उदार और कृपापूर्ण चरित्रोंका श्रवण-कीर्तन करते हैं, उनके हृदयमें प्रेममयी भक्तिका उदय हो जाता है। उस भक्तिसे जैसी आत्मशुद्धि होती है, वैसी कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि व्रतोंसे नहीं होती ।।३२।।

कृष्णाङ्घ्रिपद्ममधुलिण् न पुनर्विसृष्ट।
मायागुणेषु रमते वृजिनावहेषु ।
अन्यस्तु कामहत आत्मरजः प्रमार्ष्टुम्।
ईहेत कर्म यत एव रजः पुनः स्यात् ३३।

जो मनुष्य भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्द-मकरन्द-रसका लोभी भ्रमर है, वह स्वभावसे ही मायाके आपातरम्य, दुःखद और पहलेसे ही छोड़े हुए विषयोंमें फिर नहीं रमता। किन्तु जो
लोग उस दिव्य रससे विमुख हैं, कामनाओंने जिनकी विवेकबुद्धिपर पानी फेर दिया है, वे अपने पापोंका मार्जन करनेके लिये पुनः प्रायश्चित्तरूप कर्म ही करते हैं। इससे होता यह है कि उनके कर्मोंकी वासना मिटती नहीं और वे फिर वैसे ही दोष कर बैठते है ।।३३।।

इत्थं स्वभर्तृगदितं भगवन्महित्वं।
संस्मृत्य विस्मितधियो यमकिङ्करास्ते।
नैवाच्युताश्रयजनं प्रतिशङ्कमाना।
द्रष्टुं च बिभ्यति ततः प्रभृति स्म राजन् ३४।

परीक्षित्! जब यमदूतोंने अपने स्वामी धर्मराजके मुखसे इस प्रकार भगवान्की महिमा सुनी और उसका स्मरण किया, तब उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। तभीसे वे धर्मराजकी बातपर विश्वास करके अपने नाशकी आशंकासे भगवान्के आश्रित भक्तोंके पास नहीं जाते और तो क्या, वे उनकी ओर आँख उठाकर देखनेमें भी डरते हैं ।।३४।।

इतिहासमिमं गुह्यं भगवान्कुम्भसम्भवः।
कथयामास मलय आसीनो हरिमर्चयन् ३५।

प्रिय परीक्षित्! यह इतिहास परम गोपनीय-अत्यन्त रहस्यमय है। मलयपर्वतपर विराजमान भगवान् अगस्त्यजीने श्रीहरिकी पूजा करते समय मुझे यह सुनाया था ||३५||

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे यमपुरुषसंवादे तृतीयोऽध्यायः


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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