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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण षष्ठम स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 6 अध्याय 7

Spread the Glory of Sri SitaRam!

अध्यायः ७

श्रीराजोवाच।
कस्य हेतोः परित्यक्ता आचार्येणात्मनः सुराः।
एतदाचक्ष्व भगवञ्छिष्याणामक्रमं गुरौ १।

राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन्! देवाचार्य बृहस्पतिजीने अपने प्रिय शिष्य देवताओंको किस कारण त्याग दिया था? देवताओंने अपने गुरुदेवका ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया था, आप कृपा करके मुझे बतलाइये ।।१।।।

श्रीबादरायणिरुवाच।
इन्द्र स्त्रिभुवनैश्वर्य मदोल्लङ्घितसत्पथः।
मरुद्भिर्वसुभी रुद्रैरादित्यैरृभुभिर्नृप २।

विश्वेदेवैश्च साध्यैश्च नासत्याभ्यां परिश्रितः।
सिद्धचारणगन्धर्वैर्मुनिभिर्ब्रह्मवादिभिः ३।

विद्याधराप्सरोभिश्च किन्नरैः पतगोरगैः।
निषेव्यमाणो मघवान्स्तूयमानश्च भारत ४।

उपगीयमानो ललितमास्थानाध्यासनाश्रितः।
पाण्डुरेणातपत्रेण चन्द्रमण्डलचारुणा ५।

युक्तश्चान्यैः पारमेष्ठ्यैश्चामरव्यजनादिभिः।
विराजमानः पौलोम्या सहार्धासनया भृशम् ६।

श्रीशुकदेवजीने कहा-राजन्! इन्द्रको त्रिलोकीका ऐश्वर्य पाकर घमण्ड हो गया था। इस घमण्डके कारण वे धर्ममर्यादाका, सदाचारका उल्लंघन करने लगे थे। एक दिनकी बात है, वे भरी सभामें अपनी पत्नी शचीके साथ ऊँचे सिंहासनपर बैठे हुए थे, उनचास मरुद्गण, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, आदित्य, ऋभुगण, विश्वेदेव, साध्यगण और दोनों अश्विनीकुमार उनकी सेवामें उपस्थित थे। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, ब्रह्मवादी मुनिगण, विद्याधर, अप्सराएँ, किन्नर, पक्षी और नाग उनकी सेवा और स्तुति कर रहे थे। सब ओर ललित स्वरसे देवराज इन्द्रकी कीर्तिका गान हो रहा था। ऊपरकी ओर चन्द्रमण्डलके समान सुन्दर श्वेत छत्र शोभायमान था। चँवर, पंखे आदि महाराजोचित सामग्रियाँ यथास्थान सुसज्जित थीं। इस दिव्य समाजमें देवराज बड़े ही सुशोभित हो रहे थे ।।२-

६।।

स यदा परमाचार्यं देवानामात्मनश्च ह।
नाभ्यनन्दत सम्प्राप्तं प्रत्युत्थानासनादिभिः ७।

वाचस्पतिं मुनिवरं सुरासुरनमस्कृतम्।
नोच्चचालासनादिन्द्रः पश्यन्नपि सभागतम् ८।

इसी समय देवराज इन्द्र और समस्त देवताओंके परम आचार्य बृहस्पतिजी वहाँ आये। उन्हें सुर-असुर सभी नमस्कार करते हैं। इन्द्रने देख लिया कि वे सभामें आये हैं, परन्तु वे न तो खड़े हए और न आसन आदि देकर गुरुका सत्कार ही किया। यहाँतक कि वे अपने आसनसे हिले-डुलेतक नहीं ।।७-८।।

ततो निर्गत्य सहसा कविराङ्गिरसः प्रभुः।
आययौ स्वगृहं तूष्णीं विद्वान्श्रीमदविक्रियाम् ९।

त्रिकालदर्शी समर्थ बृहस्पतिजीने देखा कि यह ऐश्वर्यमदका दोष है! बस, वे झटपट वहाँसे निकलकर चुपचाप अपने घर चले आये ।।९।।

तर्ह्येव प्रतिबुध्येन्द्रो गुरुहेलनमात्मनः।
गर्हयामास सदसि स्वयमात्मानमात्मना १०।

परीक्षित्! उसी समय देवराज इन्द्रको चेत हुआ। वे समझ गये कि मैंने अपने गुरुदेवकी अवहेलना की है। वे भरी सभामें स्वयं ही अपनी निन्दा करने लगे ।।१०।।

अहो बत मयासाधु कृतं वै दभ्रबुद्धिना।
यन्मयैश्वर्यमत्तेन गुरुः सदसि कात्कृतः ११।

‘हाय-हाय! बड़े खेदकी बात है कि भरी सभामें मूर्खतावश मैंने ऐश्वर्यके नशे में चूर होकर अपने गुरुदेवका तिरस्कार कर दिया। सचमुच मेरा यह कर्म अत्यन्त निन्दनीय है ।।११।।

को गृध्येत्पण्डितो लक्ष्मीं त्रिपिष्टपपतेरपि।
ययाहमासुरं भावं नीतोऽद्य विबुधेश्वरः १२।

भला, कौन विवेकी पुरुष इस स्वर्गकी राजलक्ष्मीको पानेकी इच्छा करेगा? देखो तो सही, आज इसीने मुझ देवराजको भी असुरोंके-से रजोगणी भावसे भर दिया ||१२||

यः पारमेष्ठ्यं धिषणमधितिष्ठन्न कञ्चन।
प्रत्युत्तिष्ठेदिति ब्रूयुर्धर्मं ते न परं विदुः १३।

जो लोग यह कहते हैं कि सार्वभौम राजसिंहासनपर बैठा हआ सम्राट किसीके आनेपर राजसिंहासनसे न उठे, वे धर्मका वास्तविक स्वरूप नहीं जानते ।।१३।।

तेषां कुपथदेष्टॄणां पततां तमसि ह्यधः।
ये श्रद्दध्युर्वचस्ते वै मज्जन्त्यश्मप्लवा इव १४।

ऐसा उपदेश करनेवाले कुमार्गकी ओर ले जानेवाले हैं। वे स्वयं घोर नरकमें गिरते हैं। उनकी बातपर जो लोग विश्वास करते हैं, वे पत्थरकी नावकी तरह डूब जाते हैं ||१४||

अथाहममराचार्यमगाधधिषणं द्विजम्।
प्रसादयिष्ये निशठः शीर्ष्णा तच्चरणं स्पृशन् १५।

मेरे गुरुदेव बृहस्पतिजी ज्ञानके अथाह समुद्र हैं। मैंने बड़ी शठता की। अब मैं उनके चरणोंमें अपना माथा टेककर उन्हें मनाऊँगा’ ||१५||

एवं चिन्तयतस्तस्य मघोनो भगवान्गृहात्।
बृहस्पतिर्गतोऽदृष्टां गतिमध्यात्ममायया १६।

परीक्षित्! देवराज इन्द्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान् बृहस्पतिजी अपने घरसे निकलकर योगबलसे अन्तर्धान हो गये ।।१६।।

गुरोर्नाधिगतः संज्ञां परीक्षन्भगवान्स्वराट्।
ध्यायन्धिया सुरैर्युक्तः शर्म नालभतात्मनः १७।

देवराज इन्द्रने अपने गुरुदेवको बहुत ढूँढ़ाढुढ़वाया; परन्तु उनका कहीं पता न चला। तब वे गुरुके बिना अपनेको सुरक्षित न समझकर देवताओंके साथ अपनी बुद्धिके अनुसार स्वर्गकी रक्षाका उपाय सोचने लगे, परन्तु वे कुछ भी सोच न सके! उनका चित्त अशान्त ही बना रहा ||१७||

तच्छ्रुत्वैवासुराः सर्व आश्रित्यौशनसं मतम्।
देवान्प्रत्युद्यमं चक्रुर्दुर्मदा आततायिनः १८।

परीक्षित्! दैत्योंको भी देवगुरु बृहस्पति और देवराज इन्द्रकी अनबनका पता लग गया। तब उन मदोन्मत्त और आततायी असुरोंने अपने गुरु शुक्राचार्यके आदेशानुसार देवताओंपर विजय पानेके लिये धावा बोलदिया ।।१८।।

तैर्विसृष्टेषुभिस्तीक्ष्णैर्निर्भिन्नाङ्गोरुबाहवः।
ब्रह्माणं शरणं जग्मुः सहेन्द्रा नतकन्धराः १९।

उन्होंने देवताओंपर इतने तीखे-तीखे बाणोंकी वर्षा की कि उनके मस्तक, जंघा, बाह आदि अंग कट-कटकर गिरने लगे। तब इन्द्रके साथ सभी देवता सिर झुकाकर ब्रह्माजीकी शरणमें गये ।।१९।।

तांस्तथाभ्यर्दितान्वीक्ष्य भगवानात्मभूरजः।
कृपया परया देव उवाच परिसान्त्वयन् २०।

स्वयम्भू एवं समर्थ ब्रह्माजीने देखा कि देवताओंकी तो सचमुच बड़ी दुर्दशा हो रही है। अतः उनका हृदय अत्यन्त करुणासे भर गया। वे देवताओंको धीरज बँधाते कहने लगे ।।२०।।

श्रीब्रह्मोवाच।
अहो बत सुरश्रेष्ठा ह्यभद्रं वः कृतं महत्।
ब्रह्मिष्ठं ब्राह्मणं दान्तमैश्वर्यान्नाभ्यनन्दत २१।

ब्रह्माजीने कहा-देवताओ! यह बड़े खेदकी बात है। सचमुच तुमलोगोंने बहुत बुरा काम किया। हरे, हरे! तुमलोगोंने ऐश्वर्यके मदसे अंधे होकर ब्रह्मज्ञानी, वेदज्ञ एवं संयमी ब्राह्मणका सत्कार नहीं किया ||२१||

तस्यायमनयस्यासीत्परेभ्यो वः पराभवः।
प्रक्षीणेभ्यः स्ववैरिभ्यः समृद्धानां च यत्सुराः २२।

देवताओ! तुम्हारी उसी अनीतिका यह फल है कि आज समृद्धिशाली होनेपर भी तुम्हें अपने निर्बल शत्रुओंके सामने नीचा देखना पड़ा ।।२२।।

मघवन्द्विषतः पश्य प्रक्षीणान्गुर्वतिक्रमात्।
सम्प्रत्युपचितान्भूयः काव्यमाराध्य भक्तितः ।
आददीरन्निलयनं ममापि भृगुदेवताः २३।

देवराज! देखो, तुम्हारे शत्रु भी पहले अपने गुरुदेव शुक्राचार्यका तिरस्कार करनेके कारण अत्यन्त निर्बल हो गये थे, परन्तु अब भक्तिभावसे उनकी आराधना करके वे फिर धन-जनसे सम्पन्न हो गये हैं। देवताओ! मुझे तो ऐसा मालूम पड़ रहा है कि शुक्राचार्यको अपना आराध्यदेव माननेवाले ये दैत्यलोग कुछ दिनोंमें मेरा ब्रह्मलोक भी छीन लेंगे ||२३||

त्रिपिष्टपं किं गणयन्त्यभेद्य मन्त्रा भृगूणामनुशिक्षितार्थाः।
न विप्रगोविन्दगवीश्वराणां भवन्त्यभद्राणि नरेश्वराणाम् २४।

भृगुवंशियोंने इन्हें अर्थशास्त्रकी पूरी-पूरी शिक्षा दे रखी है। ये जो कुछ करना चाहते हैं, उसका भेद तुमलोगोंको नहीं मिल पाता। उनकी सलाह बहुत गुप्त होती है। ऐसी स्थितिमें वे स्वर्गको तो समझते ही क्या हैं, वे चाहे जिस लोकको जीत सकते हैं। सच है, जो श्रेष्ठ मनुष्य ब्राह्मण, गोविन्द और गौओंको अपना सर्वस्व मानते हैं और जिनपर उनकी कृपा रहती है, उनका कभी अमंगल नहीं होता ।।२४।।

तद्विश्वरूपं भजताशु विप्रं तपस्विनं त्वाष्ट्रमथात्मवन्तम्।
सभाजितोऽर्थान्स विधास्यते वो यदि क्षमिष्यध्वमुतास्य कर्म २५।

इसलिये अब तुमलोग शीघ्र ही त्वष्टाके पुत्र विश्वरूपके पास जाओ और उन्हींकी सेवा करो। वे सच्चे ब्राह्मण, तपस्वी और संयमी हैं। यदि तुमलोग उनके असुरोंके प्रति प्रेमको क्षमा कर सकोगे और उनका सम्मान करोगे, तो वे तुम्हारा काम बना देंगे ||२५||

श्रीशुक उवाच।
त एवमुदिता राजन्ब्रह्मणा विगतज्वराः।
ऋषिं त्वाष्ट्रमुपव्रज्य परिष्वज्येदमब्रुवन् २६।

श्रीशकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! जब ब्रह्माजीने देवताओंसे इस प्रकार कहा, तब उनकी चिन्ता दूर हो गयी। वे त्वष्टाके पुत्र विश्वरूप ऋषिके पास गये और उन्हें हृदयसे लगाकर यो कहने लगे ||२६||

श्रीदेवा ऊचुः।
वयं तेऽतिथयः प्राप्ता आश्रमं भद्रमस्तु ते।
कामः सम्पाद्यतां तात पितॄणां समयोचितः २७।

देवताओंने कहा—बेटा विश्वरूप! तुम्हारा कल्याण हो। हम तुम्हारे आश्रमपर अतिथिके रूपमें आये हैं। हम एक प्रकारसे तुम्हारे पितर हैं। इसलिये तुम हमलोगोंकी समयोचित अभिलाषा पूर्ण करो ||२७||

पुत्राणां हि परो धर्मः पितृशुश्रूषणं सताम्।
अपि पुत्रवतां ब्रह्मन्किमुत ब्रह्मचारिणाम् २८।

जिन्हें सन्तान हो गयी हो, उन सत्पुत्रोंका भी सबसे बड़ा धर्म यही है कि वे अपने पिता तथा अन्य गुरुजनोंकी सेवा करें। फिर जो ब्रह्मचारी हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या है ।।२८।।

आचार्यो ब्रह्मणो मूर्तिः पिता मूर्तिः प्रजापतेः।
भ्राता मरुत्पतेर्मूर्तिर्माता साक्षात्क्षितेस्तनुः २९।

वत्स! आचार्य वेदकी, पिता ब्रह्माजीकी, भाई इन्द्रकी और माता साक्षात् पृथ्वीकी मूर्ति होती है ।।२९।।

दयाया भगिनी मूर्तिर्धर्मस्यात्मातिथिः स्वयम्।
अग्नेरभ्यागतो मूर्तिः सर्वभूतानि चात्मनः ३०।

(इसी प्रकार) बहिन दयाकी, अतिथि धर्मकी, अभ्यागत अग्निकी और जगत्के सभी प्राणी अपने आत्माकी ही मूर्ति-आत्मस्वरूप होते हैं ||३०||

तस्मात्पितॄणामार्तानामार्तिं परपराभवम्।
तपसापनयंस्तात सन्देशं कर्तुमर्हसि ३१।

पुत्र! हम तुम्हारे पितर हैं। इस समय शत्रुओंने हमें जीत लिया है। हम बड़े दुःखी हो रहे हैं। तुम अपने तपोबलसे हमारा यह दुःख, दारिद्रय, पराजय टाल दो। पुत्र! तुम्हें हमलोगोंकी आज्ञाका पालन करना चाहिये ।।३१।।

वृणीमहे त्वोपाध्यायं ब्रह्मिष्ठं ब्राह्मणं गुरुम्।
यथाञ्जसा विजेष्यामः सपत्नांस्तव तेजसा ३२।

तुम ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण हो, अतः जन्मसे ही हमारे गुरु हो। हम तुम्हें आचार्यके रूपमें वरण करके तुम्हारी शक्तिसे अनायास ही शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर लेंगे ||३२||

न गर्हयन्ति ह्यर्थेषु यविष्ठाङ्घ्र्यभिवादनम्।
छन्दोभ्योऽन्यत्र न ब्रह्मन्वयो ज्यैष्ठ्यस्य कारणम् ३३।

पुत्र! आवश्यकता पड़नेपर अपनेसे छोटोंका पैर छूना भी निन्दनीय नहीं है। वेदज्ञानको छोड़कर केवल अवस्था बड़प्पनका कारण भी नहीं है ।।३३।।

श्रीऋषिरुवाच।
अभ्यर्थितः सुरगणैः पौरहित्ये महातपाः।
स विश्वरूपस्तानाह प्रसन्नः श्लक्ष्णया गिरा ३४।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब देवताओंने इस प्रकार विश्वरूपसे पुरोहिती करनेकी प्रार्थना की, तब परम तपस्वी विश्वरूपने प्रसन्न होकर उनसे अत्यन्त प्रिय और मधुर शब्दोंमें कहा ।।३४।।

श्रीविश्वरूप उवाच।
विगर्हितं धर्मशीलैर्ब्रह्मवर्चौपव्ययम्।
कथं नु मद्विधो नाथा लोकेशैरभियाचितम् ।
प्रत्याख्यास्यति तच्छिष्यः स एव स्वार्थ उच्यते ३५।

विश्वरूपने कहा-पुरोहितीका काम ब्रह्मतेजको क्षीण करनेवाला है। इसलिये धर्मशील महात्माओंने उसकी निन्दा की है। किन्तु आप मेरे स्वामी हैं और लोकेश्वर होकर भी मुझसे उसके लिये प्रार्थना कर रहे हैं। ऐसी स्थितिमें मेरे-जैसा व्यक्ति भला, आपलोगोंको कोरा जवाब कैसे दे सकता है? मैं तो आपलोगोंका सेवक हूँ। आपकी आज्ञाओंका पालन करना ही मेरा स्वार्थ है ||३५||

अकिञ्चनानां हि धनं शिलोञ्छनं तेनेह निर्वर्तितसाधुसत्क्रियः।
कथं विगर्ह्यं नु करोम्यधीश्वराः पौरोधसं हृष्यति येन दुर्मतिः ३६।

देवगण! हम अकिंचन हैं। खेती कट जानेपर अथवा अनाजकी हाट उठ जानेपर उसमेंसे गिरे हुए कुछ दाने चुन लाते हैं और उसीसे अपने देवकार्य तथा पितकार्य सम्पन्न कर लेते हैं। लोकपालो! इस प्रकार जब मेरी जीविका चल ही रही है, तब मैं पुरोहितीकी निन्दनीय वृत्ति क्यों करूँ? उससे तो केवल वे ही लोग प्रसन्न होते हैं, जिनकी बद्धि बिगड गयी है ||३६।।

तथापि न प्रतिब्रूयां गुरुभिः प्रार्थितं कियत्।
भवतां प्रार्थितं सर्वं प्राणैरर्थैश्च साधये ३७।

जो काम आपलोग मुझसे कराना चाहते हैं वह निन्दनीय है फिर भी मैं आपके कामसे मुँह नहीं मोड़ सकता; क्योंकि आपलोगोंकी माँग ही कितनी है। इसलिये आपलोगोंका मनोरथ मैं तन-मन-धनसे पूरा करूँगा ।।३७।।

श्रीबादरायणिरुवाच।
तेभ्य एवं प्रतिश्रुत्य विश्वरूपो महातपाः।
पौरोहित्यं वृतश्चक्रे परमेण समाधिना ३८।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! विश्वरूप बड़े तपस्वी थे। देवताओंसे ऐसी प्रतिज्ञा करके उनके वरण करनेपर वे बड़ी लगनके साथ उनकी पुरोहिती करने लगे ।।३८।।

सुरद्विषां श्रियं गुप्तामौशनस्यापि विद्यया।
आच्छिद्यादान्महेन्द्राय वैष्णव्या विद्यया विभुः ३९।

यद्यपि शुक्राचार्यने अपने नीतिबलसे असुरोंकी सम्पत्ति सुरक्षित कर दी थी, फिर भी समर्थविश्वरूपने वैष्णवी विद्याके प्रभावसे उनसे वह सम्पत्ति छीनकर देवराज इन्द्रको दिला दी ।।३९।।

यया गुप्तः सहस्राक्षो जिग्येऽसुरचमूर्विभुः।
तां प्राह स महेन्द्राय विश्वरूप उदारधीः ४०।

राजन्! जिस विद्यासे सुरक्षित होकर इन्द्रने असुरोंकी सेनापर विजय प्राप्त की थी, उसका उदारबुद्धि विश्वरूपने ही उन्हें उपदेश किया था ।।४०।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः।


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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