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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण षष्ठम स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 6 अध्याय 8

Spread the Glory of Sri SitaRam!

अध्यायः ८

श्रीराजोवाच।
यया गुप्तः सहस्राक्षः सवाहान्रिपुसैनिकान्।
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम् १।

भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम्।
यथाततायिनः शत्रून्येन गुप्तोऽजयन्मृधे २।

राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन्! देवराज इन्द्रने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओंकी चतुरंगिणी सेनाको खेल-खेलमें-अनायास ही जीतकर त्रिलोकीकी राजलक्ष्मीका उपभोग किया, आप उस नारायणकवचको मुझे सुनाइये और यह भी बतलाइये कि उन्होंने उससे सुरक्षित होकर रणभूमिमें किस प्रकार आक्रमणकारी शत्रुओंपर विजय प्राप्त की ।।१-२।।

श्रीबादरायणिरुवाच।
वृतः पुरोहितस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते।
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु ३।

श्रीशुकदेवजीने कहा-परीक्षित्! जब देवताओंने विश्वरूपको पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्रके प्रश्न करनेपर विश्वरूपने उन्हें नारायणकवचका उपदेश किया। तुम एकाग्रचित्तसे उसका श्रवण करो ।।३।।

श्रीविश्वरूप उवाच।
धौताङ्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ्मुखः।
कृतस्वाङ्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः ४।

नारायणपरं वर्म सन्नह्येद्भय आगते।
पादयोर्जानुनोरूर्वोरुदरे हृद्यथोरसि ५।

मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादॐकारादीनि विन्यसेत्।
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा ६।

विश्वरूपने कहा-देवराज इन्द्र! भयका अवसर उपस्थित होनेपर नारायणकवच धारण करके अपने शरीरकी रक्षा कर लेनी चाहिये। उसकी विधि यह है कि पहले हाथ-पैर धोकर आचमन करे, फिर हाथमें कुशकी पवित्री धारण करके उत्तर मुँह बैठ जाय। इसके बाद कवचधारणपर्यन्त और कुछ न बोलनेका निश्चय करके पवित्रतासे ‘ॐ नमो नारायणाय’ और ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’-इन मन्त्रों के द्वारा हृदयादि अंगन्यास तथा अंगुष्ठादि करन्यास करे। पहले ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्रके ॐ आदि आठ अक्षरोंका क्रमशः पैरों, घुटनों, जाँघों, पेट, हृदय, वक्षःस्थल, मुख और सिरमें न्यास करे। अथवा पूर्वोक्त मन्त्रके मकारसे लेकर ॐकारपर्यन्त आठ अक्षरोंका सिरसे आरम्भ करके उन्हीं आठ अंगोंमें विपरीत क्रमसे न्यास करे ।।४-६।।

करन्यासं ततः कुर्याद्द्वादशाक्षरविद्यया।
प्रणवादियकारान्तमङ्गुल्यङ्गुष्ठपर्वसु ७।

तदनन्तर ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’—इस द्वादशाक्षर मन्त्रके ॐ आदि बारह अक्षरोंका दायीं तर्जनीसे बायीं तर्जनीतक दोनों हाथकी आठ अंगुलियों और दोनों अँगूठोंकी दो-दो गाँठोंमें न्यास करे ||७||

न्यसेद्धृदय ॐकारं विकारमनु मूर्धनि।
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया न्यसेत् ८।

वेकारं नेत्रयोर्युञ्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु।
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद्बुधः ९।

सविसर्गं फडन्तं तत्सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत्।
ॐ विष्णवे नम इति १०।

फिर ‘ॐ विष्णवे नमः’ इस मन्त्रके पहले अक्षर ‘ॐ’ का हृदयमें ‘वि’ का ब्रह्मरन्ध्रमें, ‘ष’ का भौंहोंके बीचमें, ‘ण’ का चोटीमें, ‘वे’ का दोनों नेत्रोंमें और ‘न’ का शरीरकी सब गाँठोंमें न्यास करे। तदनन्तर ‘ॐ मः अस्त्राय फट्’ कहकर दिग्बन्ध करे। इस प्रकार न्यास करनेसे इस विधिको जाननेवाला पुरुष मन्त्रस्वरूप हो जाता है ||८-१०||

आत्मानं परमं ध्यायेद्ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम्।
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत् ११।

इसके बाद समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी ज्ञान और वैराग्यसे परिपूर्ण इष्टदेव भगवान्का ध्यान करे और अपनेको भी तद्रूप ही चिन्तन करे। तत्पश्चात् विद्या, तेज और तपःस्वरूप इस कवचका पाठ करे– ||११।।

ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्र पृष्ठे।
दरारिचर्मासिगदेषुचाप पाशान्दधानोऽष्टगुणोऽष्टबाहुः १२।

‘भगवान श्रीहरि गरुडजीकी पीठपर अपने चरणकमल रखे हए हैं। अणिमादि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं। आठ हाथोंमें शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष और पाश (फंदा) धारण किये हुए हैं। वे ही ॐकारस्वरूप प्रभु सब प्रकारसे, सब ओरसे मेरी रक्षा करें ||१२||

जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्तिर्यादोगणेभ्यो वरुणस्य पाशात्।
स्थलेषु मायावटुवामनोऽव्यात्त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः १३।

मत्स्यमूर्ति भगवान् जलके भीतर जलजन्तुओंसे और वरुणके पाशसे मेरी रक्षा करें। मायासे ब्रह्मचारीका रूप धारण करनेवाले वामनभगवान् स्थलपर और विश्वरूप श्रीत्रिविक्रमभगवान् आकाशमें मेरी रक्षा करें ।।१३।।

दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायान्नृसिंहोऽसुरयूथपारिः।
विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः १४।

जिनके घोर अट्टहाससे सब दिशाएँ गूंज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्नियोंके गर्भ गिर गये थे, वे दैत्य-यूथपतियोंके शत्रु भगवान् नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि आदि विकट स्थानोंमेंमेरी रक्षा करें ।।१४।।

रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोऽव्याद्भरताग्रजोऽस्मान् १५।

अपनी दाढ़ोंपर पृथ्वीको धारण करनेवाले यज्ञमूर्ति वराहभगवान् मार्गमें, परशुरामजी पर्वतोंके शिखरोंपर और लक्ष्मणजीके सहित भरतके बड़े भाई भगवान् रामचन्द्र प्रवासके समय मेरी रक्षा करें ||१५||

मामुग्रधर्मादखिलात्प्रमादान्नारायणः पातु नरश्च हासात्।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद्गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् १६।

भगवान् नारायण मारण-मोहन आदि भयंकर अभिचारों और सब प्रकारके प्रमादोंसे मेरी रक्षा करें। ऋषिश्रेष्ठ नर गर्वसे, योगेश्वर भगवान् दत्तात्रेय योगके विघ्नोंसे और त्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्मबन्धनोंसे मेरी रक्षा करें ।।१६।।

सनत्कुमारोऽवतु कामदेवाद्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्।
देवर्षिवर्यः पुरुषार्चनान्तरात्कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् १७।

परमर्षि सनत्कुमार कामदेवसे, हयग्रीवभगवान् मार्गमें चलते समय देवमूर्तियोंको नमस्कार आदि न करनेके अपराधसे, देवर्षि नारद सेवापराधोंसे और भगवान् कच्छप सब प्रकारके नरकोंसे मेरी रक्षा करें ।।१७।।

धन्वन्तरिर्भगवान्पात्वपथ्याद्द्वन्द्वाद्भयादृषभो निर्जितात्मा।
यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद्बलो गणात्क्रोधवशादहीन्द्रः १८।

भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्यसे, जितेन्द्रिय भगवान् ऋषभदेव सुख-दुःख आदि भयदायक द्वन्द्वोंसे, यज्ञभगवान् लोकापवादसे, बलरामजी मनुष्यकृत कष्टोंसे और श्रीशेषजी क्रोधवश नामक सोंके गणसे मेरी रक्षा करें ।।१८।।

द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद्बुद्धस्तु पाषण्डगणप्रमादात्।
कल्किः कलेः कालमलात्प्रपातु धर्मावनायोरुकृतावतारः १९।

भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी अज्ञानसे तथा बुद्धदेव पाखण्डियोंसे और प्रमादसे मेरी रक्षा करें। धर्मरक्षाके लिये महान् अवतार धारण करनेवाले भगवान् कल्कि पापबहुल कलिकालके दोषोंसे मेरी रक्षा करें ।।१९।।

मां केशवो गदया प्रातरव्याद्गोविन्द आसङ्गवमात्तवेणुः।
नारायणः प्राह्ण उदात्तशक्तिर्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्र पाणिः २०।

प्रातःकाल । भगवान् केशव अपनी गदा लेकर, कुछ दिन चढ़ आनेपर भगवान् गोविन्द अपनी बाँसरी
लेकर, दोपहरके पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर और दोपहरको भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें ||२०||

देवोऽपराह्णे मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम्।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोऽवतु पद्मनाभः २१।

तीसरे पहरमें भगवान् मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें। सायंकालमें ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्तके बाद हषीकेश, अर्धरात्रिके पूर्व तथा अर्धरात्रिके समय अकेले भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें ।।२१।।

श्रीवत्सधामापररात्र ईशः प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान्कालमूर्तिः २२।

रात्रिके पिछले प्रहरमें श्रीवत्सलांछन श्रीहरि, उषाकालमें खड्गधारी भगवान् जनार्दन, सूर्योदयसे पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओंमें कालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें ||२२||

चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत्समन्ताद्भगवत्प्रयुक्तम्।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमाशु कक्षं यथा वातसखो हुताशः २३।

‘सुदर्शन! आपका आकार चक्र (रथके पहिये)-की तरह है। आपके किनारेका भाग प्रलयकालीन अग्निके समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान्की प्रेरणासे सब ओर घूमते रहते हैं। जैसे आग वायुकी सहायतासे सूखे घास-फूसको जला डालती है, वैसे ही आप हमारी शत्रु-सेनाको शीघ्र-से-शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये ||२३||

गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि।
कुष्माण्डवैनायकयक्षरक्षो भूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन् २४।

कौमोदकी गदा! आपसे छूटनेवाली चिनगारियोंका स्पर्श वज्रके समान असह्य है। आप भगवान् अजितकी प्रिया हैं और मैं उनका सेवक हूँ। इसलिये आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहोंको अभी कुचल डालिये, कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओंको चूर-चूर कर दीजिये ।।२४।।

त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृ पिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन्।
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन् २५।

शंखश्रेष्ठ! आप भगवान् श्रीकृष्णके फूंकनेसे भयंकर शब्द करके मेरे शत्रुओंका दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयावने प्राणियोंको यहाँसे झटपट भगा दीजिये ||२५||

त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्यमीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि।
चक्षूंषि चर्मन्छतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् २६।

भगवान्की प्यारी तलवार! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है। आप भगवान्की प्रेरणासे मेरे शत्रुओंको छिन्न-भिन्न कर दीजिये। भगवान्की प्यारी ढाल! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं। आप पाप-दष्टि पापात्मा शत्रुओंकी आँखें बंद कर दीजिये और उन्हें सदाके लिये अंधा बना दीजिये ||२६||

यन्नो भयं ग्रहेभ्योऽभूत्केतुभ्यो नृभ्य एव च।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य एव च २७ ।

सर्वाण्येतानि भगवन्नामरूपानुकीर्तनात्।
प्रयान्तु सङ्क्षयं सद्यो ये नः श्रेयःप्रतीपकाः २८।

सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छलतारे) आदि केतु, दुष्ट मनुष्य, सर्पादि रेंगनेवाले जन्तु, दाढ़ोंवाले हिंसक पशु, भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियोंसे हमें जो-जो भय हों और जो-जो हमारे मंगलके विरोधी हों वे सभी भगवान्के नाम, रूप तथा आयुधोंका कीर्तन करनेसे तत्काल नष्ट हो जाये ||२७-२८।।

गरुडो भगवान्स्तोत्र स्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः २९।

बृहद, रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रोंसे जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान् गरुड और विष्वक्सेनजी अपने नामोच्चारणके प्रभावसे हमें सब प्रकरकी विपत्तियोंसे बचायें ||२९||

सर्वापद्भ्यो हरेर्नाम रूपयानायुधानि नः।
बुद्धीन्द्रि यमनःप्राणान्पान्तु पार्षदभूषणाः ३०।

श्रीहरिके नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राणोंको सब प्रकारकी आपत्तियों से बचायें ।।३०।।

यथा हि भगवानेव वस्तुतः सदसच्च यत्।
सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपद्रवाः ३१।

‘जितना भी कार्य अथवा कारणरूप जगत् है, वह वास्तवमें भगवान् ही हैं’–इस सत्यके प्रभावसे हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जायँ ||३१||

यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम्।
भूषणायुधलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ३२।

तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान्हरिः।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ३३।

जो लोग ब्रह्म और आत्माकी एकताका अनुभव कर चुके हैं, उनकी दृष्टिमें भगवान्का स्वरूप समस्त विकल्पों-भेदोंसेरहित है; फिर भी वे अपनी माया-शक्तिके द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियोंको धारण करते हैं, यह बात निश्चितरूपसे सत्य है। इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान् श्रीहरि सदा-सर्वत्र सब स्वरूपोंसे हमारी रक्षा करें ।।३२-३३।।

विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्तादन्तर्बहिर्भगवान्नारसिंहः।
प्रहापय लोकभयं स्वनेन स्वतेजसा ग्रस्तसमस्ततेजाः ३४।

जो अपने भयंकर अट्टाहाससे सब लोगेंके भयको भगा देते हैं और अपने तेजसे सबका तेज ग्रस लेते हैं, वे भगवान् नृसिंह दिशा-विदिशामें, नीचे-ऊपर, बाहर-भीतर-सब ओर हमारी रक्षा करें’ ||३४||

मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारायणात्मकम्।
विजेष्यसेऽञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् ३५।

देवराज इन्द्र! मैंने तुम्हें यह नारायणकवच सुना दिया। इस कवचसे तुम अपनेको सुरक्षित कर लो। बस, फिर तुम अनायास ही सब दैत्य-यूथपतियोंको जीत लोगे ||३५||

एतद्धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा।
पदा वा संस्पृशेत्सद्यः साध्वसात्स विमुच्यते ३६।

इसनारायणकवचको धारण करनेवाला पुरुष जिसको भी अपने नेत्रोंसे देख लेता अथवा पैरसे छु देता है, वह तत्काल समस्त भयोंसे मुक्त हो जाता है ।।३६||

न कुतश्चिद्भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत्।
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याध्यादिभ्यश्च कर्हिचित् ३७।

जो इस वैष्णवी विद्याको धारण कर लेता है, उसे राजा, डाकू, प्रेत-पिशाचादि और बाघ आदि हिंसक जीवोंसे कभी किसी प्रकारका भय नहीं होता ।।३७।।

इमां विद्यां पुरा कश्चित्कौशिको धारयन्द्विजः।
योगधारणया स्वाङ्गं जहौ स मरुधन्वनि ३८।

देवराज! प्राचीन कालकी बात है, एक कौशिकगोत्री ब्राह्मणने इस विद्याको धारण करके योगधारणासे अपना शरीर मरुभूमिमें त्याग दिया ।।३८||

तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा।
ययौ चित्ररथः स्त्रीभिर्वृतो यत्र द्विजक्षयः ३९।

जहाँ उस ब्राह्मणका शरीर पड़ा था, उसके ऊपरसे एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियोंके साथ विमानपर बैठकर निकले ।।३९।।

गगनान्न्यपतत्सद्यः सविमानो ह्यवाक्शिराः।
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः ।
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् ४०।

वहाँ आते ही वे नीचेकी ओर सिर किये विमानसहित आकाशसे पृथ्वीपर गिर पड़े। इस घटनासे उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। जब उन्हें वालखिल्य मुनियोंने बतलाया कि यह नारायणकवच धारण करनेका प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देवताकी हड्डियोंको ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदीमें प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोकको गये ।।४०||

श्रीशुक उवाच।
य इदं शृणुयात्काले यो धारयति चादृतः।
तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ४१।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जो पुरुष इस नारायणकवचको समयपर सुनता है और जो आदरपूर्वक इसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी आदरसे झुक जाते हैं और वह सब प्रकारके भयोंसे मुक्त हो जाता है ।।४१||

एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः।
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्य मृधेऽसुरान् ४२।

परीक्षित्! शतक्रतु इन्द्रने आचार्य विश्वरूपजीसे यह वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमिमें असुरोंको जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मीका उपभोग करने लगे ।।४२||

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे नारायणवर्मकथनं नामाष्टमोऽध्यायः।


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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