श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 7 अध्याय 10
अध्यायः १०
श्रीनारद उवाच।
भक्तियोगस्य तत्सर्वमन्तरायतयार्भकः।
मन्यमानो हृषीकेशं स्मयमान उवाच ह १।
नारदजी कहते हैं—प्रह्लादजीने बालक होनेपर भी यही समझा कि वरदान माँगना प्रेमभक्तिका विघ्न है; इसलिये कुछ मुसकराते हुए वे भगवान्से बोले ।।१।।
श्रीप्रह्राद उवाच।
मा मां प्रलोभयोत्पत्त्या सक्तंकामेषु तैर्वरैः।
तत्सङ्गभीतो निर्विण्णो मुमुक्षुस्त्वामुपाश्रितः २।
प्रह्लादजीने कहा-प्रभो! मैं जन्मसे ही विषय-भोगोंमें आसक्त हूँ, अब मुझे इन वरोंके द्वारा आप लुभाइये नहीं। मैं उन भोगोंके संगसे डरकर, उनके द्वारा होनेवाली तीव्र वेदनाका अनुभव कर उनसे छूटनेकी अभिलाषासे ही आपकी शरणमें आया हूँ ||२||
भृत्यलक्षणजिज्ञासुर्भक्तं कामेष्वचोदयत्।
भवान्संसारबीजेषु हृदयग्रन्थिषु प्रभो ३।
भगवन्! मुझमें भक्तके लक्षण हैं या नहीं यह जाननेके लिये आपने अपने भक्तको वरदान माँगनेकी ओर प्रेरित किया है। ये विषय- भोग हृदयकी गाँठको और भी मजबूत करनेवाले तथा बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें डालनेवाले हैं ||३||
नान्यथा तेऽखिलगुरो घटेत करुणात्मनः।
यस्त आशिष आशास्ते न स भृत्यः स वै वणिक् ४।
जगदगुरो! परीक्षाके सिवा ऐसा कहनेका और कोई कारण नहीं दीखता; क्योंकि आप परम दयालु हैं। (अपने भक्तको भोगोंमें फँसानेवाला वर कैसे दे सकते हैं?) आपसे जो सेवक अपनी कामनाएँ पूर्ण करना चाहता है? वह सेवक नहीं; वह तो लेन-देन करनेवाला निरा बनिया है ।।४ ।।
आशासानो न वै भृत्यः स्वामिन्याशिष आत्मनः।
न स्वामी भृत्यतः स्वाम्यमिच्छन्यो राति चाशिषः ५।
जो स्वामीसे अपनी कामनाओंकी पूर्ति चाहता है, वह सेवक नहीं; और जो सेवकसे सेवा करानेके लिये, उसका स्वामी बननेके लिये उसकी कामनाएँ पूर्ण करता है, वह स्वामी नहीं ।।५।।
अहं त्वकामस्त्वद्भक्तस्त्वं च स्वाम्यनपाश्रयः।
नान्यथेहावयोरर्थो राजसेवकयोरिव ६।
मैं आपका निष्काम सेवक हूँ और आप मेरे निरपेक्ष स्वामी हैं। जैसे राजा और उसके सेवकोंका प्रयोजनवश स्वामी-सेवकका सम्बन्ध रहता है, वैसा तो मेरा और आपका सम्बन्ध है नहीं ||६||
यदि दास्यसि मे कामान्वरांस्त्वं वरदर्षभ।
कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम् ७।
मेरे वरदानिशिरोमणि स्वामी! यदि आप मुझे मुँहमाँगा वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दीजिये कि मेरे हृदयमें कभी किसी कामनाका बीज अंकुरित ही न हो ।।७।।
इन्द्रि याणि मनः प्राण आत्मा धर्मो धृतिर्मतिः।
ह्रीः श्रीस्तेजः स्मृतिः सत्यं यस्य नश्यन्ति जन्मना ८।
हृदयमें किसी भी कामनाके उदय होते ही इन्द्रिय, मन, प्राण, देह, धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा , श्री, तेज, स्मृति और सत्य–ये सब-के-सब नष्ट हो जाते हैं ।।८।।
विमुञ्चति यदा कामान्मानवो मनसि स्थितान्।
तर्ह्येव पुण्डरीकाक्ष भगवत्त्वाय कल्पते ९।
कमलनयन! जिस समय मनुष्य अपने मनमें रहनेवाली कामनाओंका परित्याग कर देता है, उसी समय वह भगवत्स्वरूपको प्राप्त कर लेता है ||९||
ॐ नमो भगवते तुभ्यं पुरुषाय महात्मने।
हरयेऽद्भुतसिंहाय ब्रह्मणे परमात्मने १०।
भगवन्! आपको नमस्कार है। आप सबके हृदयमें विराजमान, उदारशिरोमणि स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं। अद्भुत नृसिंहरूपधारी श्रीहरिके चरणोंमें मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ ।।१०।।
श्रीभगवानुवाच।
नैकान्तिनो मे मयि जात्विहाशिष आशासतेऽमुत्र च ये भवद्विधाः।
तथापि मन्वन्तरमेतदत्र दैत्येश्वराणामनुभुङ्क्ष्व भोगान् ११।
श्रीनृसिंहभगवान्ने कहा—प्रह्लाद! तुम्हारे-जैसे मेरे एकान्तप्रेमी इस लोक अथवा परलोककी किसी भी वस्तुके लिये कभी कोई कामना नहीं करते। फिर भी अधिक नहीं, केवल एक मन्वन्तरतक मेरी प्रसन्नताके लिये तुम इस लोकमें दैत्याधिपतियोंके समस्त भोग स्वीकार कर लो ।।११।।
कथा मदीया जुषमाणः प्रियास्त्वमावेश्य मामात्मनि सन्तमेकम्।
सर्वेषु भूतेष्वधियज्ञमीशं यजस्व योगेन च कर्म हिन्वन् १२।
समस्त प्राणियोंके हृदयमें यज्ञोंके भोक्ता ईश्वरके रूपमें मैं ही विराजमान हूँ। तुम अपने हृदयमें मुझे देखते रहना और मेरी लीला-कथाएँ, जो तुम्हें अत्यन्त प्रिय हैं, सुनते रहना। समस्त कर्मोंके द्वारा मेरी ही आराधना करना और इस प्रकार अपने प्रारब्ध-कर्मका क्षय कर देना ।।१२।।
भोगेन पुण्यं कुशलेन पापं कलेवरं कालजवेन हित्वा।
कीर्तिं विशुद्धां सुरलोकगीतां विताय मामेष्यसि मुक्तबन्धः १३।
भोगके द्वारा पुण्यकर्मोंके फल और निष्काम पुण्यकर्मोंके द्वारा पापका नाश करते हुए समयपर शरीरका त्याग करके समस्त बन्धनोंसे मक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे। देवलोकमें भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्तिका गान करेंगे ।।१३।।
य एतत्कीर्तयेन्मह्यं त्वया गीतमिदं नरः।
त्वां च मां च स्मरन्काले कर्मबन्धात्प्रमुच्यते १४।
तुम्हारे द्वारा की हुई मेरी इस स्तुतिका जो मनुष्य कीर्तन करेगा और साथ ही मेरा और तुम्हारा स्मरण भी करेगा, वह समयपर कर्मोंके बन्धनसे मुक्त हो जायगा ।।१४।।
श्रीप्रह्राद उवाच।
वरं वरय एतत्ते वरदेशान्महेश्वर।
यदनिन्दत्पिता मे त्वामविद्वांस्तेज ऐश्वरम् १५।
विद्धामर्षाशयः साक्षात्सर्वलोकगुरुं प्रभुम्।
भ्रातृहेति मृषादृष्टिस्त्वद्भक्ते मयि चाघवान् १६।
प्रह्लादजीने कहा-महेश्वर! आप वर देनेवालोंके स्वामी हैं। आपसे मैं एक वर और माँगता हूँ। मेरे पिताने आपके ईश्वरीय तेजको और सर्वशक्तिमान चराचरगुरु स्वयं आपको न जानकर आपकी बड़ी निन्दा की है। ‘इस विष्णुने मेरे भाईको मार डाला है’ ऐसी मिथ्यादृष्टि रखनेके कारण पिताजी क्रोधके वेगको सहन करनेमें असमर्थ हो गये थे। इसीसे उन्होंने आपका भक्त होनेके कारण मुझसे भी द्रोहो किया ।।१५-१६।।
तस्मात्पिता मे पूयेत दुरन्ताद्दुस्तरादघात्।
पूतस्तेऽपाङ्गसंदृष्टस्तदा कृपणवत्सल १७।
दीनबन्धो! यद्यपि आपकी दृष्टि पड़ते ही वे पवित्र हो चुके, फिर भी मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि उस जल्दी नाश न होनेवाले दुस्तर दोषसे मेरे पिता शुद्ध हो जायँ ।।१७।।
श्रीभगवानुवाच।
त्रिःसप्तभिः पिता पूतः पितृभिः सह तेऽनघ।
यत्साधोऽस्य कुले जातो भवान्वै कुलपावनः १८।
श्रीनृसिंहभगवान्ने कहा-निष्पाप प्रह्लाद! तुम्हारे पिता स्वयं पवित्र होकर तर गये, इसकी तो बात ही क्या है, यदि उनकी इक्कीस पीढियोंके पितर होते तो उन सबके साथ भी वे तर जाते; क्योंकि तुम्हारे-जैसा कुलको पवित्र करनेवाला पुत्र उनको प्राप्त हुआ ।।१८।।
यत्र यत्र च मद्भक्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः।
साधवः समुदाचारास्ते पूयन्तेऽपि कीकटाः १९।
मेरे शान्त, समदर्शी और सुखसे सदाचार पालन करनेवाले प्रेमी भक्तजन जहाँ-जहाँ निवास करते हैं, वे स्थान चाहे कीकट ही क्यों न हों, पवित्र हो जाते हैं ।।१९।।
सर्वात्मना न हिंसन्ति भूतग्रामेषु किञ्चन।
उच्चावचेषु दैत्येन्द्र मद्भावविगतस्पृहाः २०।
दैत्यराज! मेरे भक्तिभावसे जिनकी कामनाएँ नष्ट हो गयी हैं, वे सर्वत्र आत्मभाव हो जानेके कारण छोटे-बड़े किसी भी प्राणीको किसी भी प्रकारसे कष्ट नहीं पहँचाते ||२०||
भवन्ति पुरुषा लोके मद्भक्तास्त्वामनुव्रताः।
भवान्मे खलु भक्तानां सर्वेषां प्रतिरूपधृक् २१।
संसारमें जो लोग तुम्हारे अनुयायी होंगे, वे भी मेरे भक्त हो जायँगे। बेटा! तुम मेरे सभी भक्तोंके आदर्श हो ।।२१।।
कुरु त्वं प्रेतकृत्यानि पितुः पूतस्य सर्वशः।
मदङ्गस्पर्शनेनाङ्ग लोकान्यास्यति सुप्रजाः २२।
यद्यपि मेरे अंगोंका स्पर्श होनेसे तुम्हारे पिता पूर्णरूपसे पवित्र हो गये हैं, तथापि तुम उनकी अन्त्येष्टि-क्रिया करो। तुम्हारे-जैसी सन्तानके कारण उन्हें उत्तम लोकोंकी प्राप्ति होगी ।।२२।।
पित्र्यं च स्थानमातिष्ठ यथोक्तं ब्रह्मवादिभिः।
मय्यावेश्य मनस्तात कुरु कर्माणि मत्परः २३।
वत्स! तुम अपने पिताके पदपर स्थित हो जाओ और वेदवादी मुनियोंकी आज्ञाके अनुसार मुझमें अपना मन लगाकर और मेरी शरणमें रहकर मेरी सेवाके लिये ही अपने सारे कार्य करो ।।२३।।
श्रीनारद उवाच।
प्रह्रादोऽपि तथा चक्रे पितुर्यत्साम्परायिकम्।
यथाह भगवान्राजन्नभिषिक्तो द्विजातिभिः २४।
नारदजी कहते हैं-युधिष्ठिर! भगवान्की आज्ञाके अनुसार प्रह्लादजीने अपने पिताकी अन्त्येष्टि-क्रिया की, इसके बाद श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने उनका राज्याबिषेक किया ।।२४।।
प्रसादसुमुखं दृष्ट्वा ब्रह्मा नरहरिं हरिम्।
स्तुत्वा वाग्भिः पवित्राभिः प्राह देवादिभिर्वृतः २५।
इसी समय देवता, ऋषि आदिके साथ ब्रह्माजीने नृसिंहभगवान्को प्रसन्नवदन देखकर पवित्र वचनोंके द्वारा उनकी स्तुति की और उनसे यह बात कही ।।२५।।
श्रीब्रह्मोवाच।
देवदेवाखिलाध्यक्ष भूतभावन पूर्वज।
दिष्ट्या ते निहतः पापो लोकसन्तापनोऽसुरः २६।
ब्रह्माजीने कहा-देवताओंके आराध्यदेव! आप सर्वान्तर्यामी, जीवोंके जीवनदाता और मेरे भी पिता हैं। यह पापी दैत्य लोगोंको बहुत ही सता रहा था। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आपने इसे मार डाला ||२६||
योऽसौ लब्धवरो मत्तो न वध्यो मम सृष्टिभिः।
तपोयोगबलोन्नद्धः समस्तनिगमानहन् २७।
मैंने इसे वर दे दिया था कि मेरी सृष्टिका कोई भी प्राणी तुम्हारा वध न कर सकेगा। इससे यह मतवाला हो गया था। तपस्या, योग और बलके कारण उच्छृङ्खल होकर इसने वेदविधियोंका उच्छेद कर दिया था ||२७||
दिष्ट्या तत्तनयः साधुर्महाभागवतोऽर्भकः।
त्वया विमोचितो मृत्योर्दिष्ट्या त्वां समितोऽधुना २८।
यह भी बड़े सौभाग्यकी बात है कि इसके पुत्र परमभागवत शुद्धहृदय नन्हे-से शिशु प्रह्लादको आपने मृत्युके मुखसे छुड़ा दिया; तथा यह भी बड़े आनन्द और मंगलकी बात है कि वह अब आपकी शरणमें है ||२८||
एतद्वपुस्ते भगवन्ध्यायतः परमात्मनः।
सर्वतो गोप्तृ सन्त्रासान्मृत्योरपि जिघांसतः २९।
भगवन! आपके इस नृसिंहरूपका ध्यान जो कोई एकाग्र मनसे करेगा, उसे यह सब प्रकारके भयोंसे बचा लेगा। यहाँतक कि मारनेकी इच्छासे आयी हुई मृत्यु भी उसका कुछ न बिगाड़ सकेगी ।।२९।।
श्रीभगवानुवाच।
मैवं विभोऽसुराणां ते प्रदेयः पद्मसम्भव।
वरः क्रूरनिसर्गाणामहीनाममृतं यथा ३०।
श्रीनसिंहभगवान् बोले ब्रह्माजी! आप दैत्योंको ऐसा वर न दिया करें। जो स्वभावसे ही क्रूर हैं, उनको दिया हुआ वर तो वैसा ही है जैसा साँपोंको दूध पिलाना ।।३०।।
श्रीनारद उवाच।
इत्युक्त्वा भगवान्राजंस्ततश्चान्तर्दधे हरिः।
अदृश्यः सर्वभूतानां पूजितः परमेष्ठिना ३१।
नारदजी कहते हैं-युधिष्ठिर! नृसिंहभगवान् इतना कहकर और ब्रह्माजीके द्वारा की हुई पूजाको स्वीकार करके वहीं अन्तर्धान–समस्त प्राणियोंके लिये अदृश्य हो गये ।।३१।।
ततः सम्पूज्य शिरसा ववन्दे परमेष्ठिनम्।
भवं प्रजापतीन्देवान्प्रह्रादो भगवत्कलाः ३२।
इसके बाद प्रह्लादजीने भगवत्स्वरूप ब्रह्मा-शंकरकी तथा प्रजापति और देवताओंकी पूजा करके उन्हें माथा टेककर प्रणाम किया ।।३२।।
ततः काव्यादिभिः सार्धं मुनिभिः कमलासनः।
दैत्यानां दानवानां च प्रह्रादमकरोत्पतिम् ३३।
तब शुक्राचार्य आदि मुनियोंके साथ ब्रह्माजीने प्रह्लादजीको समस्त दानव और दैत्योंका अधिपति बना दिया ।।३३।।
प्रतिनन्द्य ततो देवाः प्रयुज्य परमाशिषः।
स्वधामानि ययू राजन्ब्रह्माद्याः प्रतिपूजिताः ३४।
फिर ब्रह्मादि देवताओंने प्रह्लादका अभिनन्दन किया और उन्हें शुभाशीर्वाद दिये। प्रह्लादजीने भी यथायोग्य सबका सत्कार किया और वे लोग अपने-अपने लोकोंको चले गये ।।३४।।
एवं च पार्षदौ विष्णोः पुत्रत्वं प्रापितौ दितेः।
हृदि स्थितेन हरिणा वैरभावेन तौ हतौ ३५।
युधिष्ठिर! इस प्रकार भगवान्के वे दोनों पार्षद जय और विजय दितिके पुत्र दैत्य हो गये थे। वे भगवान्से वैरभाव रखते थे। उनके हृदयमें रहनेवाले भगवान्ने उनका उद्धार करनेके लिये उन्हें मार डाला ||३५||
पुनश्च विप्रशापेन राक्षसौ तौ बभूवतुः।
कुम्भकर्णदशग्रीवौ हतौ तौ रामविक्रमैः ३६।
ऋषियोंके शापके कारण उनकी मुक्ति नहीं हुई, वे फिरसे कुम्भकर्ण और रावणके रूपमें राक्षस हुए। उस समय भगवान् श्रीरामके पराक्रमसे उनका अन्त हुआ ।।३६।।
शयानौ युधि निर्भिन्न हृदयौ रामशायकैः।
तच्चित्तौ जहतुर्देहं यथा प्राक्तनजन्मनि ३७।
युद्धमें भगवान् रामके बाणोंसे उनका कलेजा फट गया। वहीं पड़े-पड़े पूर्वजन्मकी भाँति भगवान्का स्मरण करते-करते उन्होंने अपने शरीर छोड़े ||३७।।
ताविहाथ पुनर्जातौ शिशुपालकरूषजौ।
हरौ वैरानुबन्धेन पश्यतस्ते समीयतुः ३८।
वे ही अब इस युगमें शिशुपाल और दन्तवक्त्रके रूपमें पैदा हुए थे। भगवान्के प्रति वैरभाव होनेके कारण तुम्हारे सामने ही वे उनमें समा गये ।।३८।।
एनः पूर्वकृतं यत्तद्राजानः कृष्णवैरिणः।
जहुस्तेऽन्ते तदात्मानः कीटः पेशस्कृतो यथा ३९।
युधिष्ठिर! श्रीकृष्णसे शत्रुता रखनेवाला सभी राजा अन्तसमयमें श्रीकृष्णके स्मरणसे तद्रूप होकर अपने पूर्वकृत पापोंसे सदाके लिये मुक्त हो गये। जैसे भुंगीके द्वारा पकड़ा हुआ कीड़ा भयसे ही उसका स्वरूप प्राप्त कर लेता है ||३९।।
यथा यथा भगवतो भक्त्या परमयाभिदा।
नृपाश्चैद्यादयः सात्म्यं हरेस्तच्चिन्तया ययुः ४०।
जिस प्रकार भगवान्के प्यारे भक्त अपनी भेद-भावरहित अनन्य भक्तिके द्वारा भगवत्स्वरूपको प्राप्त कर लेते हैं, वैसे ही शिशपाल आदि नरपति भी भगवानके वैरभावजनित अनन्य चिन्तनसे भगवान्के सारूप्यको प्राप्त हो गये ।।४०।।
आख्यातं सर्वमेतत्ते यन्मां त्वं परिपृष्टवान्।
दमघोषसुतादीनां हरेः सात्म्यमपि द्विषाम् ४१।
युधिष्ठिर! तुमने मुझसे पूछा था कि भगवान्से द्वेष करनेवाले शिशुपाल आदिको उनके सारूप्यकी प्राप्ति कैसे हुई। उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया ||४१।।
एषा ब्रह्मण्यदेवस्य कृष्णस्य च महात्मनः।
अवतारकथा पुण्या वधो यत्रादिदैत्ययोः ४२।
ब्रह्मण्यदेव परमात्मा श्रीकृष्णका यह परम पवित्र अवतार-चरित्र है। इसमें हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिप इन दोनों दैत्योंके वधका वर्णन है ।।४२।।
प्रह्रादस्यानुचरितं महाभागवतस्य च।
भक्तिर्ज्ञानं विरक्तिश्च याथार्थ्यं चास्य वै हरेः ४३।
सर्गस्थित्यप्ययेशस्य गुणकर्मानुवर्णनम्।
परावरेषां स्थानानां कालेन व्यत्ययो महान् ४४।
इस प्रसंगमें भगवान्के परम भक्त प्रह्लादका चरित्र, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य एवं संसारकी सृष्टि, स्थिति और प्रलयके स्वामी श्रीहरिके यथार्थ स्वरूप तथा उनके दिव्य गुण एवं लीलाओंका वर्णन है। इस आख्यानमें देवता और दैत्योंके पदोंमें कालक्रमसे जो महान् परिवर्तन होता है, उसका भी निरूपण किया गया है ।।४३-४४।।
धर्मो भागवतानां च भगवान्येन गम्यते।
आख्यानेऽस्मिन्समाम्नातमाध्यात्मिकमशेषतः ४५।
जिसके द्वारा भगवान्की प्राप्ति होती है, उस भागवत-धर्मका भी वर्णन है। अध्यात्मके सम्बन्धमें भी सभी जाननेयोग्य बातें इसमें हैं ।।४५||
य एतत्पुण्यमाख्यानं विष्णोर्वीर्योपबृंहितम्।
कीर्तयेच्छ्रद्धया श्रुत्वा कर्मपाशैर्विमुच्यते ४६।
भगवान्के पराक्रमसे पूर्ण इस पवित्र आख्यानको जो कोई पुरुष श्रद्धासे कीर्तन करता और सुनता है, वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है ।।४६||
एतद्य आदिपुरुषस्य मृगेन्द्र लीलां।
दैत्येन्द्र यूथपवधं प्रयतः पठेत ।
दैत्यात्मजस्य च सतां प्रवरस्य पुण्यं।
श्रुत्वानुभावमकुतोभयमेति लोकम् ४७।
जो मनुष्य परम पुरुष परमात्माकी यह श्रीनृसिंह-लीला, सेनापतियोंसहित हिरण्यकशिपुका वध और संतशिरोमणि प्रह्लादजीका पावन प्रभाव एकाग्र मनसे पढ़ता और सुनता है, वह भगवान्के अभयपद वैकुण्ठको प्राप्त होता है ।।४७।।
यूयं नृलोके बत भूरिभागा लोकं पुनाना मुनयोऽभियन्ति।
येषां गृहानावसतीति साक्षाद्गूढं परं ब्रह्म मनुष्यलिङ्गम् ४८।
युधिष्ठिर! इस मनुष्यलोकमें तुमलोगोंके भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, क्योंकि तम्हारे घरमें साक्षात् परब्रह्म परमात्मा मनुष्यका रूप धारण करके गुप्तरूपसे निवास करते हैं। इसीसे सारे संसारको पवित्र कर देनेवाले ऋषि-मुनि बार-बार उनका दर्शन करनेके लिये चारों ओरसे तुम्हारे पास आया करते हैं ।।४८||
स वा अयं ब्रह्म महद्विमृग्य कैवल्यनिर्वाणसुखानुभूतिः।
प्रियः सुहृद्वः खलु मातुलेय आत्मार्हणीयो विधिकृद्गुरुश्च ४९।
बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिनको ढूँढ़ते रहते हैं, जो मायाके लेशसे रहित परम शान्त परमानन्दानुभव-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा हैं—वे ही तम्हारे प्रिय, हितैषी, ममेरे भाई, पूज्य, आज्ञाकारी, गुरु और स्वयं आत्मा श्रीकृष्ण हैं ।।४९।।
न यस्य साक्षाद्भवपद्मजादिभी रूपं धिया वस्तुतयोपवर्णितम्।
मौनेन भक्त्योपशमेन पूजितः प्रसीदतामेष स सात्वतां पतिः ५०।
शंकर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर ‘वे यह हैं’-इस रूपमें उनका वर्णन नहीं कर सके, फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। हम तो मौन, भक्ति और संयमके द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं। कृपया हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान हमपर प्रसन्न हों ।।५०||
स एष भगवान्राजन्व्यतनोद्विहतं यशः।
पुरा रुद्र स्य देवस्य मयेनानन्तमायिना ५१।
युधिष्ठिर! यही एकमात्र आराध्यदेव हैं। प्राचीन कालमें बहुत बड़े मायावी मयासुरने जब रुद्रदेवकी कमनीय कीर्तिमें कलंक लगाना चाहा था, तब इन्हीं भगवान श्रीकृष्णने फिरसे उनके यशकी रक्षा और विस्तार किया था ।।५१।।
राजोवाच।
कस्मिन्कर्मणि देवस्य मयोऽहन्जगदीशितुः।
यथा चोपचिता कीर्तिः कृष्णेनानेन कथ्यताम् ५२।
राजा युधिष्ठिरने पूछा-नारदजी! मयदानव किस कार्यमें जगदीश्वर रुद्रदेवका यश नष्ट करना चाहता था और भगवान् श्रीकृष्णने किस प्रकार उनके यशकी रक्षा की? आप कृपा करके बतलाइये ।।५२।।
श्रीनारद उवाच।
निर्जिता असुरा देवैर्युध्यनेनोपबृंहितैः।
मायिनां परमाचार्यं मयं शरणमाययुः ५३।
नारदजीने कहा-एक बार इन्हीं भगवान् श्रीकृष्णसे शक्ति प्राप्त करके देवताओंने युद्धमें असुरोंको जीत लिया था। उस समय सब-के-सब असुर मायावियोंके परमगुरु मयदानवकी शरणमें गये ।।५३।।
स निर्माय पुरस्तिस्रो हैमीरौप्यायसीर्विभुः।
दुर्लक्ष्यापायसंयोगा दुर्वितर्क्यपरिच्छदाः ५४।
शक्तिशाली मयासुरने सोने, चाँदी और लोहेके तीन विमान बना दिये। वे विमान क्या थे, तीन पुर ही थे। वे इतने विलक्षण थे कि उनका आना-जाना जान नहीं पड़ता था। उनमें अपरिमित सामग्रियाँ भरी हुई थीं ।।५४||
ताभिस्तेऽसुरसेनान्यो लोकांस्त्रीन्सेश्वरान्नृप।
स्मरन्तो नाशयां चक्रुः पूर्ववैरमलक्षिताः ५५।
युधिष्ठिर! दैत्यसेनापतियोंके मनमें तीनों लोक और लोकपतियोंके प्रति वैरभाव तो था ही, अब उसकी याद करके उन तीनों विमानोंके द्वारा वे उनमें छिपे रहकर सबका नाश करने लगे ।।५५।।
ततस्ते सेश्वरा लोका उपासाद्येश्वरं नताः।
त्राहि नस्तावकान्देव विनष्टांस्त्रिपुरालयैः ५६।
तब लोकपालोंके साथ सारी प्रजा भगवान् शंकरकी शरणमें गयी और उनसे प्रार्थना की कि ‘प्रभो! त्रिपुरमें रहनेवाले असुर हमारा नाश कर रहे हैं। हम आपके हैं; अतः देवाधिदेव! आप हमारी रक्षा कीजिये’ ||५६।।
अथानुगृह्य भगवान्मा भैष्टेति सुरान्विभुः।
शरं धनुषि सन्धाय पुरेष्वस्त्रं व्यमुञ्चत ५७।
उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान् शंकरने कृपापूर्ण शब्दोंमें कहा–’डरो मत।’ फिर उन्होंने अपने धनुषपर बाण चढ़ाकर तीनों पुरोंपर छोड़ दिया ।।५७।।
ततोऽग्निवर्णा इषव उत्पेतुः सूर्यमण्डलात्।
यथा मयूखसन्दोहा नादृश्यन्त पुरो यतः ५८।
उनके उस बाणसे सूर्यमण्डलसे निकलनेवाली किरणोंके समान अन्य बहुत-से बाण निकले। उनमेंसे मानो आगकी लपटें निकल रही थीं। उनके कारण उन पुरोंका दीखना बंद हो गया ।।५८||
तैः स्पृष्टा व्यसवः सर्वे निपेतुः स्म पुरौकसः।
तानानीय महायोगी मयः कूपरसेऽक्षिपत् ५९।
उनके स्पर्शसे सभी विमानवासी निष्प्राण होकर गिर पड़े। महामायावी मय बहुत-से उपाय जानता था, वह उन दैत्योंको उठा लाया और अपने बनाये हुए अमृतके कुएँमें डाल दिया ।।५९।।
सिद्धामृतरसस्पृष्टा वज्रसारा महौजसः।
उत्तस्थुर्मेघदलना वैद्युता इव वह्नयः ६०।
उस सिद्ध अमृत-रसका स्पर्श होते ही असुरोंका शरीर अत्यन्त तेजस्वी और वज्रके समान सुदृढ़ हो गया। वे बादलोंको विदीर्ण करनेवाली बिजलीकी आगकी तरह उठ खड़े हुए ।।६०||
विलोक्य भग्नसङ्कल्पं विमनस्कं वृषध्वजम्।
तदायं भगवान्विष्णुस्तत्रोपायमकल्पयत् ६१।
इन्हीं भगवान् श्रीकृष्णने जब देखा कि महादेवजी तो अपना संकल्प पूरा न होनेके कारण उदास हो गये हैं, तब उन असुरोंपर विजय प्राप्त करनेके लिये इन्होंने एक युक्ति की ।।६१||
वत्सश्चासीत्तदा ब्रह्मा स्वयं विष्णुरयं हि गौः।
प्रविश्य त्रिपुरं काले रसकूपामृतं पपौ ६२।
यही भगवान् विष्णु उस समय गौ बन गये और ब्रह्माजी बछड़ा बने। दोनों ही मध्याह्नके समय उन तीनों पुरोंमें गये और उस सिद्धरसके कुएँका सारा अमृत पी गये ।।६२।।
तेऽसुरा ह्यपि पश्यन्तो न न्यषेधन्विमोहिताः।
तद्विज्ञाय महायोगी रसपालानिदं जगौ ६३।
स्मयन्विशोकः शोकार्तान्स्मरन्दैवगतिं च ताम्।
देवोऽसुरो नरोऽन्यो वा नेश्वरोऽस्तीह कश्चन ६४।
आत्मनोऽन्यस्य वा दिष्टं दैवेनापोहितुं द्वयोः।
अथासौ शक्तिभिः स्वाभिः शम्भोः प्राधानिकं व्यधात् ६५।
यद्यपि उसके रक्षक दैत्य इन दोनोंको देख रहे थे, फिर भी भगवान्की मायासे वे इतने मोहित हो गये कि इन्हें रोक न सके। जब उपाय जाननेवालोंमें श्रेष्ठ मयासुरको यह बात मालूम हुई, तब भगवान्की इस लीलाका स्मरण करके उसे कोई शोक न हुआ। शोक करनेवाले अमृत-रक्षकोंसे उसने कहा-‘भाई! देवता, असुर, मनुष्य अथवा और कोई भी प्राणी अपने, पराये अथवा दोनोंके लिये जो प्रारब्धका विधान है, उसे मिटा नहीं सकता। जो होना था, हो गया। शोक करके क्या करना है?’ इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने अपनी शक्तियों के द्वारा भगवान् शंकरके युद्धकी सामग्री तैयार की ।।६३-६५।।
धर्मज्ञानविरक्त्यृद्धि तपोविद्याक्रियादिभिः।
रथं सूतं ध्वजं वाहान्धनुर्वर्मशरादि यत् ६६।
उन्होंने धर्मसे रथ, ज्ञानसे सारथि, वैराग्यसे ध्वजा, ऐश्वर्यसे घोड़े, तपस्यासे धनुष, विद्यासे कवच, क्रियासे बाण और अपनी अन्यान्य शक्तियोंसे अन्यान्य वस्तुओंका निर्माण किया ।।६६।।
सन्नद्धो रथमास्थाय शरं धनुरुपाददे।
शरं धनुषि सन्धाय मुहूर्तेऽभिजितीश्वरः ६७।
ददाह तेन दुर्भेद्या हरोऽथ त्रिपुरो नृप।
दिवि दुन्दुभयो नेदुर्विमानशतसङ्कुलाः ६८।
इन सामग्रियोंसे सज-धजकर भगवान् शंकर रथपर सवार हुए एवं धनुष-बाण धारण किया। भगवान् शंकरने अभिजित् मुहूर्तमें धनुषपर बाण चढ़ाया और उन तीनों दर्भेद्य विमानोंको भस्म कर दिया। युधिष्ठिर! उसी समय स्वर्गमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं। सैकड़ों विमानोंकी भीड़ लग गयी ।।६७-६८।।
देवर्षिपितृसिद्धेशा जयेति कुसुमोत्करैः।
अवाकिरन्जगुर्हृष्टा ननृतुश्चाप्सरोगणाः ६९।
देवता, ऋषि, पितर और सिद्धेश्वर आनन्दसे जयजयकार करते हुए पुष्पोंकी वर्षा करने लगे। अप्सराएँ नाचने और गाने लगीं ।।६९।।
एवं दग्ध्वा पुरस्तिस्रो भगवान्पुरहा नृप।
ब्रह्मादिभिः स्तूयमानः स्वं धाम प्रत्यपद्यत ७०।
युधिष्ठिर! इस प्रकार उन तीनों पुरोंको जलाकर भगवान् शंकरने ‘पुरारि’की पदवी प्राप्त की और ब्रह्मादिकोंकी स्तुति सुनते हुए अपने धामको चले गये ।।७०।।
एवं विधान्यस्य हरेः स्वमायया विडम्बमानस्य नृलोकमात्मनः।
वीर्याणि गीतान्यृषिभिर्जगद्गुरोर्लोकं पुनानान्यपरं वदामि किम् ७१।
आत्मस्वरूप जगदगुरु भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार अपनी मायासे जो मनुष्योंकी-सी लीलाएँ करते हैं, ऋषिलोग उन्हीं अनेकों लोकपावन लीलाओंका गान किया करते हैं। बताओ, अब मैं तुम्हें और क्या सुनाऊँ? ||७१।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे त्रिपुरविजये नाम दशमोऽध्यायः।
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