श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 7 अध्याय 4
अध्यायः ४
श्रीमद्भागवत महापुराण
सप्तमः स्कंधः – चतुर्थोऽध्यायः
हिरण्यकशिपोः शासनम्, प्रह्रादस्य जन्म, तद्गुणानां च वर्णनम् –
नारद उवाच –
(अनुष्टुप्)
एवं वृतः शतधृतिः हिरण्यकशिपोरथ ।
प्रादात् तत् तपसा प्रीतो वरान् तस्य सुदुर्लभान् ॥ १ ॥
नारदजी कहते हैं-युधिष्ठिर! जब हिरण्यकशिपुने ब्रह्माजीसे इस प्रकारके अत्यन्त दुर्लभ वर माँगे, तब उन्होंने उसकी तपस्यासे प्रसन्न होनेके कारण उसे वे वर दे दिये ।।१।।
ब्रह्मोवाच –
तातेमे दुर्लभाः पुंसां यान् वृणीषे वरान् मम ।
तथापि वितराम्यङ्ग वरान् यदपि दुर्लभान् ॥ २ ॥
ब्रह्माजीने कहा-बेटा! तुम जो वर मुझसे माँग रहे हो, वे जीवोंके लिये बहुत ही दुर्लभ हैं; परन्तु दुर्लभ होनेपर भी मैं तुम्हें वे सब वर दिये देता हूँ ।।२।।
ततो जगाम भगवान् अमोघानुग्रहो विभुः ।
पूजितोऽसुरवर्येण स्तूयमानः प्रजेश्वरैः ॥ ३ ॥
नारदजी कहते हैं-] ब्रह्माजीके वरदान कभी झूठे नहीं होते। वे समर्थ एवं भगवद्रूप ही हैं। वरदान मिल जानेके बाद हिरण्यकशिपुने उनकी पूजा की। तत्पश्चात् प्रजापतियोंसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे अपने लोकको चले गये ||३||
एवं लब्धवरो दैत्यो बिभ्रद् हेममयं वपुः ।
भगवत्यकरोद् द्वेषं भ्रातुर्वधमनुस्मरन् ॥ ४ ॥
ब्रह्माजीसे वर प्राप्त करनेपर हिरण्यकशिपुका शरीर सुवर्णके समान कान्तिमान् एवं हृष्ट-पुष्ट हो गया। वह अपने भाईकी मृत्युका स्मरण करके भगवान्से द्वेष करने लगा ।।४।।
स विजित्य दिशः सर्वा लोकांश्च त्रीन्महासुरः ।
देवासुरमनुष्येन्द्रान् गन्धर्वगरुडोरगान् ॥ ५ ॥
सिद्धचारणविद्याध्रान् ऋषीन् पितृपतीन् मनून् ।
यक्षरक्षःपिशाचेशान् प्रेतभूतपतीनथ ॥ ६ ॥
सर्वसत्त्वपतीन्जित्वा वशमानीय विश्वजित् ।
जहार लोकपालानां स्थानानि सह तेजसा ॥ ७ ॥
उस महादैत्यने समस्त दिशाओं, तीनों लोकों तथा देवता, असुर, नरपति, गन्धर्व, गरुड, सर्प, सिद्ध, चारण, विद्याधर, ऋषि, पितरोंके अधिपति, मनु, यक्ष, राक्षस, पिशाचराज, प्रेत, भूतपति एवं समस्त प्राणियोंके राजाओंको जीतकर अपने वशमें कर लिया। यहाँतक कि उस विश्व-विजयी दैत्यने लोकपालोंकी शक्ति और स्थान भी छीन लिये ||५-७||
देवोद्यानश्रिया जुष्टं अध्यास्ते स्म त्रिपिष्टपम् ।
महेन्द्रभवनं साक्षात् निर्मितं विश्वकर्मणा ।
त्रैलोक्यलक्ष्म्यायतनं अध्युवासाखिलर्द्धिमत् ॥ ८ ।
अब वह नन्दनवन आदि दिव्य उद्यानोंके सौन्दर्यसे युक्त स्वर्गमें ही रहने लगा था। स्वयं विश्वकर्माका बनाया हुआ इन्द्रका भवन ही उसका निवासस्थान था। उस भवनमें तीनों लोकोंका सौन्दर्य मूर्तिमान् होकर निवास करता था। वह सब प्रकारकी सम्पत्तियोंसे सम्पन्न था ।।८।।
यत्र विद्रुमसोपाना महामारकता भुवः ।
यत्र स्फाटिककुड्यानि वैदूर्यस्तम्भपङ्क्तयः ॥ ९ ॥
यत्र चित्रवितानानि पद्मरागासनानि च ।
पयःफेननिभाः शय्या मुक्तादामपरिच्छदाः ॥ १० ॥
उस महलमें मूंगेकी सीढ़ियाँ, पन्नेकी गचें, स्फटिकमणिकी दीवारें, वैदूर्यमणिके खंभे और माणिककी कुर्सियाँ थीं। रंगबिरंगे चँदोवे तथा दूधके फेनके समान शय्याएँ, जिनपर मोतियोंकी झालरें लगी हुई थीं, शोभायमान हो रही थीं ।।९-१०।।
कूजद्भिर्नूपुरैर्देव्यः शब्दयन्त्य इतस्ततः ।
रत्नस्थलीषु पश्यन्ति सुदतीः सुन्दरं मुखम् ॥ ११ ॥
सर्वांगसुन्दरी अप्सराएँ अपने नूपुरोंसे रुन-झुन ध्वनि करती हुई रत्नमय भूमिपर इधरउधर टहला करती थीं और कहीं-कहीं उसमें अपना सुन्दर मुख देखने लगती थीं ।।११।।
तस्मिन्महेन्द्रभवने महाबलो
महामना निर्जितलोक एकराट् ।
रेमेऽभिवन्द्याङ्घ्रियुगः सुरादिभिः
प्रतापितैरूर्जितचण्डशासनः ॥ १२ ॥
उस महेन्द्रके महलमें महाबली और महामनस्वी हिरण्यकशिप सब लोकोंको जीतकर, सबका एकच्छत्र सम्राट बनकर बड़ी स्वतन्त्रतासे विहार करने लगा। उसका शासन इतना कठोर था कि उससे भयभीत होकर देव-दानव उसके चरणोंकी वन्दना करते रहते थे ।।१२।।
तमङ्ग मत्तं मधुनोरुगन्धिना
विवृत्तताम्राक्षमशेषधिष्ण्यपाः ।
उपासतोपायनपाणिभिर्विना
त्रिभिस्तपोयोगबलौजसां पदम् ॥ १३ ॥
युधिष्ठिर! वह उत्कट गन्धवाली मदिरा पीकर मतवाला रहा करता था। उसकी आँखें लाल-लाल और चढ़ी हुई रहतीं। उस समय तपस्या, योग, शारीरिक और मानसिक बलका वह भंडार था। ब्रह्मा, विष्णु और महादेवके सिवा और सभी देवता अपने हाथोंमें भेंट ले-लेकर उसकी सेवामें लगे रहते ।।१३।।
जगुर्महेन्द्रासनमोजसा स्थितं
विश्वावसुस्तुम्बुरुरस्मदादयः ।
गन्धर्वसिद्धा ऋषयोऽस्तुवन्मुहुः
विद्याधरा अप्सरसश्च पाण्डव ॥ १४ ॥
जब वह अपने पुरुषार्थसे इन्द्रासनपर बैठ गया, तब युधिष्ठिर! विश्वावसु, तुम्बुरु तथा हम सभी लोग उसके सामने गान करते थे। गन्धर्व, सिद्ध, ऋषिगण, विद्याधर और अप्सराएँ बार-बार उसकी स्तुति करती थीं ।।१४।।
स एव वर्णाश्रमिभिः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।
इज्यमानो हविर्भागान् अग्रहीत् स्वेन तेजसा ॥ १५ ॥
युधिष्ठिर! वह इतना तेजस्वी था कि वर्णाश्रमधर्मका पालन करनेवाले पुरुष जो बड़ीबडी दक्षिणावाले यज्ञ करते, उनके यज्ञोंकी आहुति वह स्वयं छीन लेता ||१५||
अकृष्टपच्या तस्यासीत् सप्तद्वीपवती मही ।
तथा कामदुघा गावो नानाश्चर्यपदं नभः ॥ १६ ॥
पृथ्वीके सातों द्वीपोंमें उसका अखण्ड राज्य था। सभी जगह बिना ही जोते-बोये धरतीसे अन्न पैदा होता था। वह जो कुछ चाहता, अन्तरिक्षसे उसे मिल जाता तथा आकाश उसे भाँति-भाँतिकी आश्चर्यजनक वस्तुएँ दिखा-दिखाकर उसका मनोरंजन करता था ।।१६।।
रत्नाकराश्च रत्नौघान् तत्पत्न्यश्चोहुरूर्मिभिः ।
क्षारसीधुघृतक्षौद्र दधिक्षीरामृतोदकाः ॥ १७ ॥
इसी प्रकार खारे पानी, सुरा, घृत, इक्षुरस, दधि, दुग्ध और मीठे पानीके समुद्र भी अपनी पत्नी नदियोंके साथ तरंगोंके द्वारा उसके पास रत्नराशि पहुँचाया करते थे ।।१७।।
शैला द्रोणीभिराक्रीडं सर्वर्तुषु गुणान् द्रुमाः ।
दधार लोकपालानां एक एव पृथग्गुणान् ॥ १८ ॥
पर्वत अपनी घाटियोंके रूपमें उसके लिये खेलनेका स्थान जुटाते और वृक्ष सब ऋतुओंमें फूलते-फलते। वह अकेला ही सब लोकपालोंके विभिन्न गुणोंको धारण करता ।।१८।।
स इत्थं निर्जितककुब् एकराड् वियान् प्रियान् ।
यथोपजोषं भुञ्जानो नातृप्यद् अजितेन्द्रियः ॥ १९ ॥
इस प्रकार दिग्विजयी और एकच्छत्र सम्राट होकर वह अपनेको प्रिय लगनेवाले । विषयोंका स्वच्छन्द उपभोग करने लगा। परन्तु इतने विषयोंसे भी उसकी तृप्ति न हो सकी। क्योंकि अन्ततः वह इन्द्रियोंका दास ही तो था ।।१९।।
एवं ऐश्वर्यमत्तस्य दृप्तस्योच्छास्त्रवर्तिनः ।
कालो महान् व्यतीयाय ब्रह्मशापं उपेयुषः ॥ २० ॥
युधिष्ठिर! इस रूपमें भी वह भगवान्का वही पार्षद है, जिसे सनकादिकोंने शाप दिया था। वह ऐश्वर्यके मदसे मतवाला हो रहा था तथा घमंडमें चूर होकर शास्त्रोंकी मर्यादाका उल्लंघन कर रहा था। देखते-ही-देखते उसके जीवनका बहुत-सा समय बीत गया ।।२०।।
तस्योग्रदण्डसंविग्नाः सर्वे लोकाः सपालकाः ।
अन्यत्रालब्धशरणाः शरणं ययुरच्युतम् ॥ २१ ॥
उसके कठोर शासनसे सब लोक और लोकपाल घबरा गये। जब उन्हें और कहीं किसीका आश्रय न मिला, तब उन्होंने भगवान्की शरण ली ।।२१।।
तस्यै नमोऽस्तु काष्ठायै यत्रात्मा हरिरीश्वरः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते शान्ताः संन्यासिनोऽमलाः ॥ २२ ॥
(उन्होंने मन-ही-मन कहा-) ‘जहाँ सर्वात्मा जगदीश्वर श्रीहरि निवास करते हैं और जिसे प्राप्त करके शान्त एवं निर्मल संन्यासी महात्मा फिर लौटते नहीं, भगवानके उस परम धामको हम नमस्कार करते हैं’ ||२२||
इति ते संयतात्मानः समाहितधियोऽमलाः ।
उपतस्थुर्हृषीकेशं विनिद्रा वायुभोजनाः ॥ २३ ॥
इस भावसे अपनी इन्द्रियोंका संयम और मनको समाहित करके उन लोगोंने खाना-पीना और सोना छोड़ दिया तथा निर्मल हृदयसे भगवानकी आराधना की ||२३||
तेषां आविरभूद्वाणी अरूपा मेघनिःस्वना ।
सन्नादयन्ती ककुभः साधूनां अभयङ्करी ॥ २४ ॥
एक दिन उन्हें मेघके समान गम्भीर आकाशवाणी सुनायी पड़ी। उसकी ध्वनिसे दिशाएँ गूंज उठीं। साधुओंको अभय देनेवाली वह वाणी यों थी- ||२४||
मा भैष्ट विबुधश्रेष्ठाः सर्वेषां भद्रमस्तु वः ।
मद्दर्शनं हि भूतानां सर्वश्रेयोपपत्तये ॥ २५ ॥
‘श्रेष्ठ देवताओ! डरो मत। तुम सब लोगोंका कल्याण हो। मेरे दर्शनसे प्राणियोंको परम कल्याणकी प्राप्ति हो जाती है ।।२५।।
ज्ञातमेतस्य दौरात्म्यं दैतेयापसदस्य यत् ।
तस्य शान्तिं करिष्यामि कालं तावत्प्रतीक्षत ॥ २६ ॥
इस नीच दैत्यकी दुष्टताका मुझे पहलेसे ही पता है। मैं इसको मिटा दूंगा। अभी कुछ दिनोंतक समयकी प्रतीक्षा करो ।।२६।।
यदा देवेषु वेदेषु गोषु विप्रेषु साधुषु ।
धर्मे मयि च विद्वेषः स वा आशु विनश्यति ॥ २७ ॥
कोई भी प्राणी जब देवता, वेद, गाय, ब्राह्मण, साधु, धर्म और मुझसे द्वेष करने लगता है, तब शीघ्र ही उसका विनाश हो जाता है ||२७||
निर्वैराय प्रशान्ताय स्वसुताय महात्मने ।
प्रह्रादाय यदा द्रुह्येद् हनिष्येऽपि वरोर्जितम् ॥ २८ ॥
जब यह अपने वैरहीन, शान्त और महात्मा पुत्र प्रह्लादसे द्रोह करेगा-उसका अनिष्ट करना चाहेगा, तब वरके कारण शक्तिसम्पन्न होनेपर भी इसे मैं अवश्य मार डालूँगा।’ ||२८||
नारद उवाच –
इत्युक्ता लोकगुरुणा तं प्रणम्य दिवौकसः ।
न्यवर्तन्त गतोद्वेगा मेनिरे चासुरं हतम् ॥ २९ ॥
नारदजी कहते हैं—सबके हृदयमें ज्ञानका संचार करनेवाले भगवान्ने जब देवताओंको यह आदेश दिया, तब वे उन्हें प्रणाम करके लौट आये। उनका सारा उद्वेग मिट गया और उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि हिरण्यकशिपु मर गया ।।२९।।।
तस्य दैत्यपतेः पुत्राश्चत्वारः परमाद्भुताः ।
प्रह्रादोऽभून् महांन् तेषां गुणैर्महदुपासकः ॥ ३० ॥
युधिष्ठिर! दैत्यराज हिरण्यकशिपुके बड़े ही विलक्षण चार पुत्र थे। उनमें प्रह्लाद यों तो सबसे छोटे थे, परन्तु गुणोंमें सबसे बड़े थे। वे बड़े संतसेवी थे ||३०||
ब्रह्मण्यः शीलसम्पन्नः सत्यसन्धो जितेन्द्रियः ।
आत्मवत्सर्वभूतानां एकः प्रियसुहृत्तमः ॥ ३१ ॥
ब्राह्मणभक्त, सौम्यस्वभाव, सत्यप्रतिज्ञ एवं जितेन्द्रिय थे तथा समस्त प्राणियोंके साथ अपने ही समान समताका बर्ताव करते और सबके एकमात्र प्रिय और सच्चे हितैषी थे ।।३१।।
दासवत्सन्नतार्याङ्घ्रिः पितृवद् दीनवत्सलः ।
भ्रातृवत्सदृशे स्निग्धो गुरुषु ईश्वरभावनः ॥ ३२ ॥
विद्यार्थरूपजन्माढ्यो मानस्तम्भविवर्जितः ॥ ३२३ ।
बड़े लोगोंके चरणोंमें सेवककी तरह झुककर रहते थे। गरीबोंपर पिताके समान स्नेह रखते थे। बराबरीवालोंसे भाईके समान प्रेम करते और गुरुजनोंमें भगवद्भाव रखते थे। विद्या, धन, सौन्दर्य और कुलीनतासे सम्पन्न होनेपर भी घमंड और हेकड़ी उन्हें छूतक नहीं गयी थी ||३२||
नोद्विग्नचित्तो व्यसनेषु निःस्पृहः
श्रुतेषु दृष्टेषु गुणेष्ववस्तुदृक् ।
दान्तेन्द्रियप्राणशरीरधीः सदा
प्रशान्तकामो रहितासुरोऽसुरः ॥ ३३ ॥
बड़े-बड़े दुःखोंमें भी वे तनिक भी घबराते न थे। लोक-परलोकके विषयोंको उन्होंने देखा-सुना तो बहुत था, परन्तु वे उन्हें निःसार और असत्य समझते थे। इसलिये उनके मनमें किसी भी वस्तुकी लालसा न थी। इन्द्रिय, प्राण, शरीर और मन उनके वशमें थे। उनके चित्तमें कभी किसी प्रकारकी कामना नहीं उठती थी। जन्मसे असर होनेपर भी उनमें आसुरी सम्पत्तिका लेश भी नहीं था ।।३३।।
यस्मिन्महद्गुणा राजन् गृह्यन्ते कविभिर्मुहुः ।
न तेऽधुना पिधीयन्ते यथा भगवतीश्वरे ॥ ३४ ॥
जैसे भगवान्के गुण अनन्त हैं, वैसे ही प्रह्लादके श्रेष्ठ गुणोंकी भी कोई सीमा नहीं है। महात्मालोग सदासे उनका वर्णन करते और उन्हें अपनाते आये हैं। तथापि वे आज भी ज्यों-के-त्यों बने हुए हैं ||३४।।
यं साधुगाथासदसि रिपवोऽपि सुरा नृप ।
प्रतिमानं प्रकुर्वन्ति किमुतान्ये भवादृशाः ॥ ३५ ॥
युधिष्ठिर! यों तो देवता उनके शत्रु हैं; परन्तु फिर भी भक्तोंका चरित्र सुननेके लिये जब उन लोगोंकी सभा होती है, तब वे दूसरे भक्तोंको प्रह्लादके समान कहकर उनका सम्मान करते हैं। फिर आप-जैसे अजातशत्रु भगवद्भक्त उनका आदर करेंगे, इसमें तो सन्देह ही क्या है ।।३५।।
गुणैरलमसंख्येयै माहात्म्यं तस्य सूच्यते ।
वासुदेवे भगवति यस्य नैसर्गिकी रतिः ॥ ३६ ॥
उनकी महिमाका वर्णन करनेके लिये अगणित गुणोंके कहने-सुननेकी आवश्यकता नहीं। केवल एक ही गुण-भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें स्वाभाविक, जन्मजात प्रेम उनकी महिमाको प्रकट करनेके लिये पर्याप्त है ।।३६।।
न्यस्तक्रीडनको बालो जडवत् तन्मनस्तया ।
कृष्णग्रहगृहीतात्मा न वेद जगदीदृशम् ॥ ३७ ॥
युधिष्ठिर! प्रह्लाद बचपनमें ही खेल-कूद छोड़कर भगवान्के ध्यानमें जडवत् तन्मय हो जाया करते। भगवान् श्रीकृष्णके अनुग्रहरूप ग्रहने उनके हृदयको इस प्रकार खींच लिया था कि उन्हें जगत्की कुछ सुध-बुध ही न रहती ।।३७।।
आसीनः पर्यटन् अश्नन् शयानः प्रपिबन् ब्रुवन् ।
नानुसन्धत्त एतानि गोविन्दपरिरम्भितः ॥ ३८ ॥
उन्हें ऐसा जान पड़ता कि भगवान् मुझे अपनी गोदमें लेकर आलिंगन कर रहे हैं। इसलिये उन्हें सोते-बैठते, खाते-पीते, चलते-फिरते और बातचीत करते समय भी इन बातोंका ध्यान बिलकुल न रहता ||३८।।
क्वचिद् रुदति वैकुण्ठ चिन्ताशबलचेतनः ।
क्वचिद् हसति तच्चिन्ता ह्लाद उद्गायति क्वचित् ॥ ३९ ॥
कभी-कभी भगवान् मुझे छोड़कर चले गये, इस भावनामें उनका हृदय इतना डूब जाता कि वे जोर-जोरसे रोने लगते। कभी मन-ही-मन उन्हें अपने सामने पाकर आनन्दोद्रेकसे ठठाकर हँसने लगते। कभी उनके ध्यानके मधुर आनन्दका अनुभव करके जोरसे गाने लगते ।।३९।।
नदति क्वचिद् उत्कण्ठो विलज्जो नृत्यति क्वचित् ।
क्वचित्तद्भावनायुक्तः तन्मयोऽनुचकार ह ॥ ४० ॥
वे कभी उत्सुक हो बेसुरा चिल्ला पड़ते। कभी-कभी लोक-लज्जाका त्याग करके प्रेममें छककर नाचने भी लगते थे। कभी-कभी उनकी लीलाके चिन्तनमें इतने तल्लीन हो जाते कि उन्हें अपनी याद ही न रहती, उन्हींका अनुकरण करने लगते ।।४०||
क्वचिदुत्पुलकस्तूष्णीं आस्ते संस्पर्शनिर्वृतः ।
अस्पन्दप्रणयानन्द सलिलामीलितेक्षणः ॥ ४१ ॥
कभी भीतर-ही-भीतर भगवान्का कोमल संस्पर्श अनुभव करके आनन्दमें मग्न हो जाते और चुपचाप शान्त होकर बैठ रहते। उस समय उनका रोम-रोम पुलकित हो उठता। अधखुले नेत्र अविचल प्रेम और आनन्दके आँसुओंसे भरे रहते ।।४१।।
स उत्तमश्लोकपदारविन्दयोः
निषेवयाकिञ्चनसङ्गलब्धया ।
तन्वन् परां निर्वृतिमात्मनो मुहुः
दुसङ्गदीनस्य मनः शमं व्यधात् ॥ ४२ ॥
भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी यह भक्ति अकिंचन भगवत्प्रेमी महात्माओंके संगसे ही प्राप्त होती है। इसके द्वारा वे स्वयं तो परमानन्दमें मग्न रहते ही थे; जिन बेचारोंका मन कुसंगके कारण अत्यन्त दीन-हीन हो रहा था, उन्हें भी बार-बार शान्ति प्रदान करते थे ।।४२।।
(अनुष्टुप्)
तस्मिन् महाभागवते महाभागे महात्मनि ।
हिरण्यकशिपू राजन् अकरोद् अघमात्मजे ॥ ४३ ॥
युधिष्ठिर! प्रह्लाद भगवान्के परम प्रेमी भक्त, परम भाग्यवान् और ऊँची कोटिके महात्मा थे। हिरण्यकशिपु ऐसे साधु पुत्रको भी अपराधी बतलाकर उनका अनिष्ट करनेकी चेष्टा करने लगा ।।४३।।
युधिष्ठिर उवाच –
देवर्ष एतदिच्छामो वेदितुं तव सुव्रत ।
यदात्मजाय शुद्धाय पितादात्साधवे ह्यघम् ॥ ४४ ॥
युधिष्ठिरने पूछा-नारदजी! आपका व्रत अखण्ड है। अब हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि हिरण्यकशिपुने पिता होकर भी ऐसे शुद्धहृदय महात्मा पुत्रसे द्रोह क्यों किया ।।४४।।
पुत्रान् विप्रतिकूलान् स्वान् पितरः पुत्रवत्सलाः ।
उपालभन्ते शिक्षार्थं नैवाघमपरो यथा ॥ ४५ ॥
पिता तो स्वभावसे ही अपने पत्रोंसे प्रेम करते हैं। यदि पत्र कोई उलटा काम करता है, तो वे उसे शिक्षा देनेके लिये ही डाँटते हैं, शत्रुकी तरह वैर-विरोध तो नहीं करते ।।४५||
किमुतानुवशान् साधून् तादृशान् गुरुदेवतान् ।
एतत्कौतूहलं ब्रह्मन् अस्माकं विधम प्रभो ।
पितुः पुत्राय यद्द्वेषो मरणाय प्रयोजितः ॥ ४६ ॥
फिर प्रह्लादजी-जैसे अनुकूल, शुद्धहृदय एवं गुरुजनोंमें भगवद्भाव करनेवाले पुत्रोंसे भला, कोई द्वेष कर ही कैसे सकता है। नारदजी! आप सब कुछ जानते हैं। हमें यह जानकर बड़ा कौतूहल हो रहा है कि पिताने द्वेषके कारण पुत्रको मार डालना चाहा। आप कृपा करके मेरा यह कुतूहल शान्त कीजिये ।।४६।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे प्रह्रादचरिते चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥