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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 8 अध्याय 11

Spread the Glory of Sri SitaRam!

अध्यायः ११

श्रीशुक उवाच
अथो सुराः प्रत्युपलब्धचेतसः परस्य पुंसः परयानुकम्पया
जघ्नुर्भृशं शक्रसमीरणादयस्तांस्तान्रणे यैरभिसंहताः पुरा १

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! परम पुरुष भगवान्की अहैतुकी कृपासे देवताओंकी घबराहट जाती रही, उनमें नवीन उत्साहका संचार हो गया। पहले इन्द्र, वायु आदि देवगण रणभमिमें जिन-जिन दैत्योंसे आहत हए थे, उन्हींके ऊपर अब वे पूरी शक्तिसे प्रहार करने लगे ||१||

वैरोचनाय संरब्धो भगवान्पाकशासनः
उदयच्छद्यदा वज्रं प्रजा हा हेति चुक्रुशुः २

परम ऐश्वर्यशाली इन्द्रने बलिसे लड़ते-लड़ते जब उनपर क्रोध करके वज्र उठाया तब सारी प्रजामें हाहाकार मच गया ।।२।।

वज्रपाणिस्तमाहेदं तिरस्कृत्य पुरःस्थितम्
मनस्विनं सुसम्पन्नं विचरन्तं महामृधे ३

बलि अस्त्र-शस्त्रसे सुसज्जित होकर बड़े उत्साहसे युद्धभूमिमें बड़ी निर्भयतासे डटकर विचर रहे थे। उनको अपने सामने ही देखकर हाथमें वज्र लिये हुए इन्द्रने उनका तिरस्कार करके कहा- ||३||

नटवन्मूढ मायाभिर्मायेशान्नो जिगीषसि
जित्वा बालान्निबद्धाक्षान्नटो हरति तद्धनम् ४

‘मूर्ख! जैसे नट बच्चोंकी आँखें बाँधकर अपने जादूसे उनका धन ऐंठ लेता है वैसे ही तू मायाकी चालोंसे हमपर विजय प्राप्त करना चाहता है। तुझे पता नहीं कि हमलोग मायाके स्वामी हैं, वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती ।।४।।

आरुरुक्षन्ति मायाभिरुत्सिसृप्सन्ति ये दिवम्
तान्दस्यून्विधुनोम्यज्ञान्पूर्वस्माच्च पदादधः ५

जो मूर्ख मायाके द्वारा स्वर्गपर अधिकार करना चाहते हैं और उसको लाँघकर ऊपरके लोकोंमें भी धाक जमाना चाहते हैं उन लुटेरे मूोंको मैं उनके पहले स्थानसे भी नीचे पटक देता हूँ ||५||

सोऽहं दुर्मायिनस्तेऽद्य वज्रेण शतपर्वणा
शिरो हरिष्ये मन्दात्मन्घटस्व ज्ञातिभिः सह ६

नासमझ! तूने मायाकी बड़ीबड़ी चालें चली है। देख, आज मैं अपने सौ धारवाले वज्रसे तेरा सिर धड़से अलग किये देता हूँ। तू अपने भाई-बन्धुओंके साथ जो कुछ कर सकता हो, करके देख ले’ ||६||

श्रीबलिरुवाच
सङ्ग्रामे वर्तमानानां कालचोदितकर्मणाम्
कीर्तिर्जयोऽजयो मृत्युः सर्वेषां स्युरनुक्रमात् ७

बलिने कहा-इन्द्र! जो लोग कालशक्तिकी प्रेरणासे अपने कर्मके अनुसार युद्ध करते हैं -उन्हें जीत या हार, यश या अपयश अथवा मृत्यु मिलती ही है ||७||

तदिदं कालरशनं जगत्पश्यन्ति सूरयः
न हृष्यन्ति न शोचन्ति तत्र यूयमपण्डिताः ८

इसीसे ज्ञानीजन इस जगत्को कालके अधीन समझकर न तो विजय होनेपर हर्षसे फूल उठते हैं और न तो अपकीर्ति, हार अथवा मृत्युसे शोकके ही वशीभूत होते हैं। तुमलोग इस तत्त्वसे अनभिज्ञ हो ।।८।।

न वयं मन्यमानानामात्मानं तत्र साधनम्
गिरो वः साधुशोच्यानां गृह्णीमो मर्मताडनाः ९

तम लोग अपनेको जय-पराजय आदिका कारण कर्ता मानते हो, इसलिये महात्माओंकी दृष्टिसे तुम शोचनीय हो। हम तुम्हारे मर्मस्पर्शी वचनको स्वीकार ही नहीं करते, फिर हमें दुःख क्यों होने लगा? ।।९।।

श्रीशुक उवाच
इत्याक्षिप्य विभुं वीरो नाराचैर्वीरमर्दनः
आकर्णपूर्णैरहनदाक्षेपैराह तं पुनः १०

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—वीर बलिने इन्द्रको इस प्रकार फटकारा। बलिकी फटकारसे इन्द्र कुछ झेंप गये। तबतक वीरोंका मान मर्दन करनेवाले बलिने अपने धनुषको कानतक खींच-खींचकर बहुत-से बाण मारे ||१०||

एवं निराकृतो देवो वैरिणा तथ्यवादिना
नामृष्यत्तदधिक्षेपं तोत्राहत इव द्विपः ११

सत्यवादी देवशत्रु बलिने इस प्रकार इन्द्रका अत्यन्त तिरस्कार किया। अब तो इन्द्र अंकुशसे मारे हुए हाथीकी तरह और भी चिढ़ गये। बलिका आक्षेप वे सहन न कर सके ।।११।।

प्राहरत्कुलिशं तस्मा अमोघं परमर्दनः
सयानो न्यपतद्भूमौ छिन्नपक्ष इवाचलः १२

शत्रुघाती इन्द्रने बलिपर अपने अमोघ वज्रका प्रहार किया। उसकी चोटसे बलि पंख कटे हुए पर्वतके समान अपने विमानके साथ पृथ्वीपर गिर पड़े ।।१२।।

सखायं पतितं दृष्ट्वा जम्भो बलिसखः सुहृत्
अभ्ययात्सौहृदं सख्युर्हतस्यापि समाचरन् १३

बलिका एक बड़ा हितैषी और घनिष्ठ मित्र जम्भासुर था। अपने मित्रके गिर जानेपर भी उनको मारनेका बदला लेनेके लिये वह इन्द्रके सामने आ खड़ा हुआ ।।१३।।

स सिंहवाह आसाद्य गदामुद्यम्य रंहसा
जत्रावताडयच्छक्रं गजं च सुमहाबलः १४

सिंहपर चढ़कर वह इन्द्रके पास पहुंच गया और बड़े वेगसे अपनी गदा उठाकर उनके जत्रुस्थान (हँसली)-पर प्रहार किया। साथ ही उस महाबलीने ऐरावतपर भी एक गदा जमायी ।।१४।।

गदाप्रहारव्यथितो भृशं विह्वलितो गजः
जानुभ्यां धरणीं स्पृष्ट्वा कश्मलं परमं ययौ १५

गदाकी चोटसे ऐरावतको बड़ी पीड़ा हुई, उसने व्याकुलतासे घुटने टेक दिये और फिर मूर्छित हो गया! ।।१५।।

ततो रथो मातलिना हरिभिर्दशशतैर्वृतः
आनीतो द्विपमुत्सृज्य रथमारुरुहे विभुः १६

मातलि उपरि टिप्पणी
उसी समय इन्द्रका सारथि मातलि हजार घोड़ोंसे जुता हुआ रथ ले आया और शक्तिशाली इन्द्र ऐरावतको छोड़कर तुरंत रथपर सवार हो गये ||१६||

तस्य तत्पूजयन्कर्म यन्तुर्दानवसत्तमः
शूलेन ज्वलता तं तु स्मयमानोऽहनन्मृधे १७

दानवश्रेष्ठ जम्भने रणभूमिमें मातलिके इस कामकी बड़ी प्रशंसा की और मुसकराकर चमकता हुआ त्रिशल उसके ऊपर चलाया ।।१७।।

सेहे रुजं सुदुर्मर्षां सत्त्वमालम्ब्य मातलिः
इन्द्रो जम्भस्य सङ्क्रुद्धो वज्रेणापाहरच्छिरः १८

मातलिने धैर्य के साथ इस असह्य पीडाको सह लिया। तब इन्द्रने क्रोधित होकर अपने वज्रसे जम्भका सिर काट डाला ।।१८।।

जम्भं श्रुत्वा हतं तस्य ज्ञातयो नारदादृषेः
नमुचिश्च बलः पाकस्तत्रापेतुस्त्वरान्विताः १९

देवर्षि नारदसे जम्भासुरकी मृत्युका समाचार जानकर उसके भाई-बन्धु नमुचि, बल और पाक झटपट रणभूमिमें आ पहँचे ||१९||

वचोभिः परुषैरिन्द्र मर्दयन्तोऽस्य मर्मसु
शरैरवाकिरन्मेघा धाराभिरिव पर्वतम् २०

अपने कठोर और मर्मस्पर्शी वाणीसे उन्होंने इन्द्रको बहुत कुछ बुरा-भला कहा और जैसे बादल पहाड़पर मूसलधार पानी बरसाते हैं, वैसे ही उनके ऊपर बाणोंकी झड़ी लगा दी ||२०||

हरीन्दशशतान्याजौ हर्यश्वस्य बलः शरैः
तावद्भिरर्दयामास युगपल्लघुहस्तवान् २१

बलने बड़े हस्तलाघवसे एक साथ ही एक हजार बाण चलाकर इन्द्रके एक हजार घोड़ोंके घायल कर दिया ।।२१।।

शताभ्यां मातलिं पाको रथं सावयवं पृथक्
सकृत्सन्धानमोक्षेण तदद्भुतमभूद्रणे २२

पाकने सौ बाणोंसे मातलिको और सौ बाणोंसे रथके एक-एक अंगको छेद डाला। युद्धभूमिमें यह बड़ी अद्भुत घटना हुई कि एक ही बार इतने बाण उसने चढ़ाये और चलाये ||२२||

नमुचिः पञ्चदशभिः स्वर्णपुङ्खैर्महेषुभिः
आहत्य व्यनदत्सङ्ख्ये सतोय इव तोयदः २३

नमुचिने बड़े-बड़े पंद्रह बाणोंसे, जिनमें सोनेके पंख लगे हुए थे, इन्द्रको मारा और युद्धभूमिमें वह जलसे भरे बादलके समान गरजने लगा ।।२३।।

सर्वतः शरकूटेन शक्रं सरथसारथिम्
छादयामासुरसुराः प्रावृट्सूर्यमिवाम्बुदाः २४

जैसे वर्षाकालके बादल सूर्यको ढक लेते हैं, वैसे ही असुरोंने बाणोंकी वर्षासे इन्द्र और उनके रथ तथा सारथिको भी चारों ओरसे ढक दिया ।।२४।।

अलक्षयन्तस्तमतीव विह्वला विचुक्रुशुर्देवगणाः सहानुगाः
अनायकाः शत्रुबलेन निर्जिता वणिक्पथा भिन्ननवो यथार्णवे २५

इन्द्रको न देखकर देवता और उनके अनुचर अत्यन्त विह्वल होकर रोने-चिल्लाने लगे। एक तो शत्रुओंने उन्हें हरा दिया था और दूसरे अब उनका कोई सेनापति भी न रह गया था। उस समय देवताओंकी ठीक वैसी ही अवस्था हो रही थी, जैसे बीच समुद्र में नाव टूट जानेपर व्यापारियोंकी होती है ।।२५।।

ततस्तुराषाडिषुबद्धञ्जराद्विनिर्गतः साश्वरथध्वजाग्रणीः
बभौ दिशः खं पृथिवीं च रोचयन्स्वतेजसा सूर्य इव क्षपात्यये २६

परन्तु थोड़ी ही देरमें शत्रुओंके बनाये हुए बाणोंके पिंजड़ेसे घोड़े, रथ, ध्वजा और सारथिके साथ इन्द्र निकल आये। जैसे प्रातःकाल सूर्य अपनी किरणोंसे दिशा, आकाश और पृथ्वीको चमका देते हैं, वैसे ही इन्द्रके तेजसे सब-के-सब जगमगा उठे ||२६||

निरीक्ष्य पृतनां देवः परैरभ्यर्दितां रणे
उदयच्छद्रि पुं हन्तुं वज्रं वज्रधरो रुषा २७

वज्रधारी इन्द्रने देखा कि शत्रओंने रणभमिमें हमारी सेनाको रौंद डाला है, तब उन्होंने बडे क्रोधसे शत्रको मार डालनेके लिये वज्रसे आक्रमण किया ।।२७।।

स तेनैवाष्टधारेण शिरसी बलपाकयोः
ज्ञातीनां पश्यतां राजन्जहार जनयन्भयम् २८

परीक्षित्! उस आठ धारवाले पैने वज्रसे उन दैत्योंके भाई-बन्धुओंको भी भयभीत करते हुए उन्होंने बल और पाकके सिर काट लिये ।।२८।।

नमुचिस्तद्वधं दृष्ट्वा शोकामर्षरुषान्वितः
जिघांसुरिन्द्रं नृपते चकार परमोद्यमम् २९

परीक्षित्! अपने भाइयोंको मरा हुआ देख नमुचिको बड़ा शोक हुआ। वह क्रोधके कारण आपेसे बाहर होकर इन्द्रको मार डालनेके लिये जी-जानसे प्रयास करने लगा ।।२९।।

अश्मसारमयं शूलं घण्टावद्धेमभूषणम्
प्रगृह्याभ्यद्र वत्क्रुद्धो हतोऽसीति वितर्जयन्
प्राहिणोद्देवराजाय निनदन्मृगराडिव ३०

‘इन्द्र! अब तुम बच नहीं सकते’-इस प्रकार ललकारते हुए एक त्रिशूल उठाकर वह इन्द्रपर टूट पड़ा। वह त्रिशूल फौलादका बना हुआ था, सोनेके आभूषणोंसे विभूषित था और उसमें घण्टे लगे हुए थे। नमुचिने क्रोधके मारे सिंहके समान गरजकर इन्द्रपर वह त्रिशूल चला दिया ||३०||

तदापतद्गगनतले महाजवं विचिच्छिदे हरिरिषुभिः सहस्रधा
तमाहनन्नृप कुलिशेन कन्धरे रुषान्वितस्त्रिदशपतिः शिरो हरन् ३१

परीक्षित्! इन्द्रने देखा कि त्रिशूल बड़े वेगसे मेरी ओर आ रहा है। उन्होंने अपने बाणोंसे आकाशमें ही उसके हजारों टुकड़े कर दिये और इसके बाद देवराज इन्द्रने बड़े क्रोधसे उसका सिर काट लेनेके लिये उसकी गर्दनपर वज्र मारा ।।३१।।

न तस्य हि त्वचमपि वज्र ऊर्जितो बिभेद यः सुरपतिनौजसेरितः
तदद्भुतं परमतिवीर्यवृत्रभित्तिरस्कृतो नमुचिशिरोधरत्वचा ३२

यद्यपि इन्द्रने बड़े वेगसे वह वज्र चलाया था, परन्तु उस यशस्वी वज्रसे उसके चमड़ेपर खरोंचतक नहीं आयी। यह बड़ी आश्चर्यजनक घटना हुई की जिस वज्रने महाबली वृत्रासुरका शरीर टुकड़े-टुकड़े कर डाला था, नमुचिके गलेकी त्वचाने उसका तिरस्कार कर दिया ।।३२।।

तस्मादिन्द्रो ऽबिभेच्छत्रोर्वज्रः प्रतिहतो यतः
किमिदं दैवयोगेन भूतं लोकविमोहनम् ३३

जब वज्र नमुचिका कुछ न बिगाड़ सका, तब इन्द्र उससे डर गये। वे सोचने लगे कि ‘दैवयोगसे संसारभरको संशयमें डालनेवाली यह कैसी घटना हो गयी! ||३३।।

येन मे पूर्वमद्रीणां पक्षच्छेदः प्रजात्यये
कृतो निविशतां भारैः पतत्त्रैः पततां भुवि ३४

पहले युगमें जब ये पर्वत पाँखोंसे उड़ते थे और घूमते-फिरते भारके कारण पृथ्वीपर गिर पड़ते थे, तब प्रजाका विनाश होते देखकर इसी वज्रसे मैंने उन पहाड़ोंकी पाँखें काट डाली थीं ।।३४।।

तपःसारमयं त्वाष्ट्रं वृत्रो येन विपाटितः
अन्ये चापि बलोपेताः सर्वास्त्रैरक्षतत्वचः ३५

त्वष्टाकी तपस्याका सार ही वृत्रासुरके रूपमें प्रकट हुआ था! उसे भी मैंने इसी वज्रके द्वारा काट डाला था। और भी अनेकों दैत्य, जो बहत बलवान थे और किसी अस्त्र-शस्त्रसे जिनके चमड़ेको भी चोट नहीं पहुँचायी जा सकी थी, इसी वज्रसे मैंने मृत्युके घाट उतार दिये थे ।।३५||

सोऽयं प्रतिहतो वज्रो मया मुक्तोऽसुरेऽल्पके
नाहं तदाददे दण्डं ब्रह्मतेजोऽप्यकारणम् ३६

वही मेरा वज्र मेरे प्रहार करनेपर भी इस तुच्छ असुरको न मार सका, अतः अब मैं इसे अंगीकार नहीं कर सकता। यह ब्रह्मतेजसे बना है तो क्या हुआ, अब तो निकम्मा हो चुका है’ ||३६||

इति शक्रं विषीदन्तमाह वागशरीरिणी
नायं शुष्कैरथो नाद्रैर्वधमर्हति दानवः ३७

इस प्रकार इन्द्र विषाद करने लगे। उसी समय यह आकाशवाणी हुई–“यह दानव न तो सूखी वस्तुसे मर सकता है, न गीलीसे ।।३७।।

मयास्मै यद्वरो दत्तो मृत्युर्नैवार्द्र शुष्कयोः
अतोऽन्यश्चिन्तनीयस्ते उपायो मघवन्रिपोः ३८

इसे मैं वर दे चुका हूँ कि ‘सूखी या गीली वस्तुसे तुम्हारी मृत्यु न होगी।’ इसलिये इन्द्र! इस शत्रुको मारनेके लिये अब तुम कोई दूसरा उपाय सोचो!” ||३८।।

तां दैवीं गिरमाकर्ण्य मघवान्सुसमाहितः
ध्यायन्फेनमथापश्यदुपायमुभयात्मकम् ३९

उस आकाशवाणीको सुनकर देवराज इन्द्र बड़ी एकाग्रतासे विचार करने लगे। सोचतेसोचते उन्हें सूझ गया कि समुद्रका फेन तो सूखा भी है, गीला भी; ||३९।।

न शुष्केण न चाद्रेर्ण जहार नमुचेः शिरः
तं तुष्टुवुर्मुनिगणा माल्यैश्चावाकिरन्विभुम् ४०

इसलिये न उसे सूखा कह सकते हैं, न गीला। अतः इन्द्रने उस न सूखे और न गीले समुद्रफेनसे नमुचिका सिर काट डाला। उस समय बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान् इन्द्रपर पुष्पोंकी वर्षा और उनकी स्तुति करने लगे ।।४०।।

गन्धर्वमुख्यौ जगतुर्विश्वावसुपरावसू
देवदुन्दुभयो नेदुर्नर्तक्यो ननृतुर्मुदा ४१

गन्धर्वशिरोमणि विश्वावसु तथा परावसु गान करने लगे, देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं और नर्तकियाँ आनन्दसे नाचने लगीं ।।४१।।

अन्येऽप्येवं प्रतिद्वन्द्वान्वाय्वग्निवरुणादयः
सूदयामासुरसुरान्मृगान्केसरिणो यथा ४२

इसी प्रकार वायु, अग्नि, वरुण आदि दूसरे देवताओंने भी अपने अस्त्र-शस्त्रोंसे विपक्षियोंको वैसे ही मार गिराया जैसे सिंह हरिनोंको मार डालते हैं ।।४२||

ब्रह्मणा प्रेषितो देवान्देवर्षिर्नारदो नृप
वारयामास विबुधान्दृष्ट्वा दानवसङ्क्षयम् ४३

परीक्षित्! इधर ब्रह्माजीने देखा कि दानवोंका तो सर्वथा नाश हुआ जा रहा है। तब उन्होंने देवर्षि नारदको देवताओंके पास भेजा और नारदजीने वहाँ जाकर देवताओंको लड़नेसे रोक दिया ।।४३।।

श्रीनारद उवाच
भवद्भिरमृतं प्राप्तं नारायणभुजाश्रयैः
श्रिया समेधिताः सर्व उपारमत विग्रहात् ४४

नारदजीने कहा-देवताओ! भगवानकी भुजाओंकी छत्रछायामें रहकर आपलोगोंने अमत प्राप्त कर लिया है और लक्ष्मीजीने भी अपनी कृपा-कोरसे आपकी अभिवृद्धि की है, इसलिये आपलोग अब लड़ाई बंद कर दें ।।४४।।

श्रीशुक उवाच
संयम्य मन्युसंरम्भं मानयन्तो मुनेर्वचः
उपगीयमानानुचरैर्ययुः सर्वे त्रिविष्टपम् ४५

श्रीशकदेवजी कहते हैं—देवताओंने देवर्षि नारदकी बात मानकर अपने क्रोधके वेगको शान्त कर लिया और फिर वे सब-के-सब अपने लोक स्वर्गको चले गये। उस समय देवताओंके अनुचर उनके यशका गान कर रहे थे ।।४५।।

येऽवशिष्टा रणे तस्मिन्नारदानुमतेन ते
बलिं विपन्नमादाय अस्तं गिरिमुपागमन् ४६

युद्ध में बचे हुए दैत्योंने देवर्षि नारदकी सम्मतिसे वज्रकी चोटसे मरे हुए बलिको लेकर अस्ताचलकी यात्रा की ।।४६।।

तत्राविनष्टावयवान्विद्यमानशिरोधरान्
उशना जीवयामास संजीवन्या स्वविद्यया ४७

वहाँ शुक्राचार्यने अपनी संजीवनी विद्यासे उन असुरोंको जीवित कर दिया, जिनके गरदन आदि अंग कटे नहीं थे, बच रहे थे ।।४७।।

बलिश्चोशनसा स्पृष्टः प्रत्यापन्नेन्द्रियस्मृतिः
पराजितोऽपि नाखिद्यल्लोकतत्त्वविचक्षणः ४८

शुक्राचार्यके स्पर्श करते ही बलिकी इन्द्रियोंमें चेतना और मनमें स्मरणशक्ति आ गयी। बलि यह बात समझते थे कि संसारमें जीवन-मृत्यु, जय-पराजय आदि उलट-फेर होते ही रहते हैं। इसलिये पराजित होनेपर भी उन्हें किसी प्रकारका खेद नहीं हुआ ।।४८।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे देवासुरसंग्रामे एकादशोऽध्यायः


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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