श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 8 अध्याय 16
अध्यायः १६
श्रीमद्भागवत महापुराण
अष्टमः स्कन्धः – षोडशोऽध्यायः
कश्यपस्य देवमात्रेऽदित्यै पयोव्रतोपदेशः –
श्रीशुक उवाच –
(अनुष्टुप्)
एवं पुत्रेषु नष्टेषु देवमातादितिस्तदा ।
हृते त्रिविष्टपे दैत्यैः पर्यतप्यद् अनाथवत् ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब देवता इस प्रकार भागकर छिप गये और दैत्योंने स्वर्गपर अधिकार कर लिया; तब देवमाता अदितिको बड़ा दुःख हुआ। वे अनाथ-सी हो गयीं ।।१।।
एकदा कश्यपस्तस्या आश्रमं भगवान् अगात् ।
निरुत्सवं निरानन्दं समाधेर्विरतश्चिरात् ॥ २ ॥
एक बार बहुत दिनोंके बाद जब परमप्रभावशाली कश्यप मुनिकी समाधि टूटी, तब वे अदितिके आश्रमपर आये। उन्होंने देखा कि न तो वहाँ सुख-शान्ति है और न किसी प्रकारका उत्साह या सजावट ही ।।२।।
स पत्नीं दीनवदनां कृतासनपरिग्रहः ।
सभाजितो यथान्यायं इदमाह कुरूद्वह ॥ ३ ॥
परीक्षित! जब वे वहाँ जाकर आसनपर बैठ गये और अदितिने विधिपर्वक उनका सत्कार कर लिया, तब वे अपनी पत्नी अदितिसे—जिसके चेहरेपर बड़ी उदासी छायी हुई थी, बोले- ||३||
अप्यभद्रं न विप्राणां भद्रे लोकेऽधुनाऽऽगतम् ।
न धर्मस्य न लोकस्य मृत्योश्छन्दानुवर्तिनः ॥ ४ ॥
‘कल्याणी! इस समय संसारमें ब्राह्मणोंपर कोई विपत्ति तो नहीं आयी है? धर्मका पालन तो ठीक-ठीक होता है? कालके कराल गालमें पड़े हुए लोगोंका कुछ अमंगल तो नहीं हो रहा है? ||४||
अपि वाकुशलं किञ्चिद्गृहेषु गृहमेधिनि ।
धर्मस्यार्थस्य कामस्य यत्र योगो ह्ययोगिनाम् ॥ ५ ॥
प्रिये! गृहस्थाश्रम तो, जो लोग योग नहीं कर सकते, उन्हें भी योगका फल देनेवाला है। इस गृहस्थाश्रममें रहकर धर्म, अर्थ और कामके सेवनमें किसी प्रकारका विघ्न तो नहीं हो रहा है? ||५||
अपि वा अतिथयोऽभ्येत्य कुटुंबासक्तया त्वया ।
गृहादपूजिता याताः प्रत्युत्थानेन वा क्वचित् ॥ ६ ॥
यह भी सम्भव है कि तुम कुटुम्बके भरण-पोषणमें व्यग्र रही हो, अतिथि आये हों और तुमसे बिना सम्मान पाये ही लौट गये हों; तुम खड़ी होकर उनका सत्कार करने में भी असमर्थ रही हो। इसीसे तो तुम उदास नहीं हो रही हो? ||६||
गृहेषु येष्वतिथयो नार्चिताः सलिलैरपि ।
यदि निर्यान्ति ते नूनं फेरुराजगृहोपमाः ॥ ७ ॥
जिन घरोंमें आये हए अतिथिका जलसे भी सत्कार नहीं किया जाता और वे ऐसे ही लौट जाते हैं, वे घर अवश्य ही गीदड़ोंके घरके समान हैं ।।७।।
अप्यग्नयस्तु वेलायां न हुता हविषा सति ।
त्वयोद्विग्नधिया भद्रे प्रोषिते मयि कर्हिचित् ॥ ८ ॥
प्रिये! सम्भव है, मेरे बाहर चले जानेपर कभी तुम्हारा चित्त उद्विग्न रहा हो
और समयपर तुमने हविष्यसे अग्नियोंमें हवन न किया हो ||८||
यत्पूजया कामदुघान् याति लोकान् गृहान्वितः ।
ब्राह्मणोऽग्निश्च वै विष्णोः सर्वदेवात्मनो मुखम् ॥ ९ ॥
सर्वदेवमय भगवान्के मुख हैं— ब्राह्मण और अग्नि। गृहस्थ पुरुष यदि इन दोनोंकी पूजा करता है तो उसे उन लोकोंकी प्राप्ति होती है, जो समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं ।।९।।
अपि सर्वे कुशलिनः तव पुत्रा मनस्विनि ।
लक्षयेऽस्वस्थमात्मानं भवत्या लक्षणैरहम् ॥ १० ॥
प्रिये! तुम तो सर्वदा प्रसन्न रहती हो; परन्तु तुम्हारे बहुत-से लक्षणोंसे मैं देख रहा हूँ कि इस समय तुम्हारा चित्त अस्वस्थ है। तुम्हारे सब लड़के तो कुशल-मंगलसे हैं न?’ ||१०||
अदितिरुवाच –
भद्रं द्विजगवां ब्रह्मन् धर्मस्यास्य जनस्य च ।
त्रिवर्गस्य परं क्षेत्रं गृहमेधिन् गृहा इमे ॥ ११ ॥
अदितिने कहा-भगवन! ब्राह्मण, गौ, धर्म और आपकी यह दासी—सब सकुशल हैं। मेरे स्वामी! यह गृहस्थ-आश्रम ही अर्थ, धर्म और कामकी साधनामें परम सहायक है ।।११।।
अग्नयोऽतिथयो भृत्या भिक्षवो ये च लिप्सवः ।
सर्वं भगवतो ब्रह्मन् अनुध्यानान्न रिष्यति ॥ १२ ॥
प्रभो! आपके निरन्तर स्मरण और कल्याण-कामनासे अग्नि, अतिथि, सेवक, भिक्षुक और दूसरे याचकोंका भी मैंने तिरस्कार नहीं किया है ।।१२।।
को नु मे भगवन् कामो न सम्पद्येत मानसः ।
यस्या भवान् प्रजाध्यक्ष एवं धर्मान् प्रभाषते ॥ १३ ॥
भगवन्! जब आप-जैसे प्रजापति मुझे इस प्रकार धर्मपालनका उपदेश करते है; तब भला मेरे मनकी ऐसी कौन-सी कामना है जो पूरी न हो जाय? ||१३||
तवैव मारीच मनःशरीरजाः
प्रजा इमाः सत्त्वरजस्तमोजुषः ।
समो भवान् तास्वसुरादिषु प्रभो
तथापि भक्तं भजते महेश्वरः ॥ १४ ॥
आर्यपुत्र! समस्त प्रजा-वह चाहे सत्त्वगुणी, रजोगुणी या तमोगुणी हो-आपकी ही सन्तान है। कुछ आपके संकल्पसे उत्पन्न हुए हैं और कुछ शरीरसे। भगवन्! इसमें सन्देह नहीं कि आप सब सन्तानोंके प्रति—चाहे असुर हों या देवता-एक-सा भाव रखते हैं, सम हैं। तथापि स्वयं परमेश्वर भी अपने भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण किया करते हैं ।।१४।।
(अनुष्टुप्)
तस्मादीश भजन्त्या मे श्रेयश्चिन्तय सुव्रत ।
हृतश्रियो हृतस्थानान् सपत्नैः पाहि नः प्रभो ॥ १५ ॥
मेरे स्वामी! मैं आपकी दासी हूँ। आप मेरी भलाईके सम्बन्धमें विचार कीजिये। मर्यादापालक प्रभो! शत्रुओंने हमारी सम्पत्ति और रहनेका स्थानतक छीन लिया है। आप हमारी रक्षा कीजिये ।।१५।।
परैर्विवासिता साहं मग्ना व्यसनसागरे ।
ऐश्वर्यं श्रीर्यशः स्थानं हृतानि प्रबलैर्मम ॥ १६ ॥
बलवान् दैत्योंने मेरे ऐश्वर्य, धन, यश और पद छीन लिये हैं तथा हमें घरसे बाहर निकाल दिया है। इस प्रकार मैं दुःखके समुद्रमें डूब रही हूँ ||१६||
यथा तानि पुनः साधो प्रपद्येरन् ममात्मजाः ।
तथा विधेहि कल्याणं धिया कल्याणकृत्तम ॥ १७ ॥
आपसे बढ़कर हमारी भलाई करनेवाला और कोई नहीं है। इसलिये मेरे हितैषी स्वामी! आप सोचविचारकर अपने संकल्पसे ही मेरे कल्याणका कोई ऐसा उपाय कीजिये जिससे कि मेरे पुत्रोंको वे वस्तुएँ फिरसे प्राप्त हो जायँ ।।१७।।
श्रीशुक उवाच –
एवं अभ्यर्थितोऽदित्या कस्तामाह स्मयन्निव ।
अहो मायाबलं विष्णोः स्नेहबद्धं इदं जगत् ॥ १८ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं इस प्रकार अदितिने जब कश्यपजीसे प्रार्थना की, तब वे कछ विस्मित-से होकर बोले—’बड़े आश्चर्यकी बात है। भगवान्की माया भी कैसी प्रबल है! यह सारा जगत् स्नेहकी रज्जुसे बँधा हुआ है ।।१८।।
क्व देहो भौतिकोऽनात्मा क्व चात्मा प्रकृतेः परः ।
कस्य के पतिपुत्राद्या मोह एव हि कारणम् ॥ १९ ॥
कहाँ यह पंचभूतोंसे बना हुआ अनात्मा शरीर और कहाँ प्रकृतिसे परे आत्मा? न किसीका कोई पति है, न पुत्र है और न तो सम्बन्धी ही है। मोह ही मनुष्यको नचा रहा है ।।१९।।
उपतिष्ठस्व पुरुषं भगवन्तं जनार्दनम् ।
सर्वभूतगुहावासं वासुदेवं जगद्गुरुम् ॥ २० ॥
प्रिये! तुम सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें विराजमान, अपने भक्तोंके दुःख मिटानेवाले जगद्गुरु भगवान् वासुदेवकी आराधना करो ।।२०।।
स विधास्यति ते कामान् हरिर्दीनानुकंपनः ।
अमोघा भगवद्भक्तिः न इतरेति मतिर्मम ॥ २१ ॥
वे बड़े दीनदयालु हैं। अवश्य ही श्रीहरि तुम्हारी कामनाएँ पूर्ण करेंगे। मेरा यह दढ निश्चय है कि भगवान्की भक्ति कभी व्यर्थ नहीं होती। इसके सिवा कोई दूसरा उपाय नहीं है’ ||२१||
अदितिरुवाच –
केनाहं विधिना ब्रह्मन् उपस्थास्ये जगत्पतिम् ।
यथा मे सत्यसंकल्पो विदध्यात् स मनोरथम् ॥ २२ ॥
अदितिने पूछा-भगवन्! मैं जगदीश्वरभगवानकी आराधना किस प्रकार करूँ, जिससे वे सत्यसंकल्प प्रभु मेरा मनोरथ पूर्ण करें ||२२||
पतिदेव! मैं अपने पुत्रोंके साथ बहुत ही दुःख भोग रही हूँ। जिससे वे शीघ्र ही मुझपर प्रसन्न हो जायँ, उनकी आराधनाकी वही विधि मुझे बतलाइये ।।२३।।
आदिश त्वं द्विजश्रेष्ठ विधिं तदुपधावनम् ।
आशु तुष्यति मे देवः सीदन्त्याः सह पुत्रकैः ।
कश्यप उवाच –
एतन्मे भगवान् पृष्टः प्रजाकामस्य पद्मजः ।
यदाह ते प्रवक्ष्यामि व्रतं केशवतोषणम् ॥ २४ ॥
कश्यपजीने कहा-देवि! जब मुझे सन्तानकी कामना हुई थी, तब मैंने भगवान् ब्रह्माजीसे यही बात पूछी थी। उन्होंने मुझे भगवानको प्रसन्न करनेवाले जिस व्रतका उपदेश किया था, वही मैं तुम्हें बतलाता हूँ ।।२४।।
फाल्गुनस्यामले पक्षे द्वादशाहं पयोव्रतम् ।
अर्चयेत् अरविन्दाक्षं भक्त्या परमयान्वितः ॥ २५ ॥
फाल्गुनके शुक्लपक्षमें बारह दिनतक केवल दूध पीकर रहे और परम भक्तिसे भगवान् कमलनयनकी पूजा करे ।।२५।।
सिनीवाल्यां मृदालिप्य स्नायात् क्रोडविदीर्णया ।
यदि लभ्येत वै स्रोतसि एतं मंत्रं उदीरयेत् ॥ २६ ॥
अमावस्याके दिन यदि मिल सके तो सूअरकी खोदी हुई मिट्टीसे अपना शरीर मलकर नदीमें स्नान करे। उस समय यह मन्त्र पढ़ना चाहिये ।।२६।।
त्वं देव्यादिवराहेण रसायाः स्थानमिच्छता ।
उद्धृतासि नमस्तुभ्यं पाप्मानं मे प्रणाशय ॥ २७ ॥
हे देवि! प्राणियोंको स्थान देनेकी इच्छासे वराहभगवान्ने रसातलसे तुम्हारा उद्धार किया था। तुम्हें मेरा नमस्कार है। तुम मेरे पापोंको नष्ट कर दो ।।२७।।
निर्वर्तितात्मनियमो देवं अर्चेत् समाहितः ।
अर्चायां स्थण्डिले सूर्ये जले वह्नौ गुरौ अपि ॥ २८ ॥
इसके बाद अपने नित्य और नैमित्तिक नियमोंको पूरा करके एकाग्रचित्तसे मूर्ति, वेदी, सूर्य, जल, अग्नि और गुरुदेवके रूपमें भगवान्की पूजा करे ||२८||
नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महीयसे ।
सर्वभूतनिवासाय वासुदेवाय साक्षिणे ॥ २९ ॥
(और इस प्रकार स्तुति करे-) ‘प्रभो! आप सर्वशक्तिमान् हैं। अन्तर्यामी और आराधनीय हैं। समस्त प्राणी आपमें और आप समस्त प्राणियोंमें निवास करते हैं। इसीसे आपको ‘वासुदेव’ कहते हैं। आप समस्त चराचर जगत् और उसके कारणके भी साक्षी हैं। भगवन! मेरा आपको नमस्कार है ||२९||
नमोऽव्यक्ताय सूक्ष्माय प्रधानपुरुषाय च ।
चतुर्विंशद्गुणज्ञाय गुणसंख्यानहेतवे ॥ ३० ॥
आप अव्यक्त और सूक्ष्म हैं। प्रकृति और पुरुषके रूपमें भी आप ही स्थित हैं। आप चौबीस गुणोंके जाननेवाले और गुणोंकी संख्या करनेवाले सांख्यशास्त्रके प्रवर्तक हैं। आपको मेरा नमस्कार है ||३०||
नमो द्विशीर्ष्णे त्रिपदे चतुःश्रृंगाय तन्तवे ।
सप्तहस्ताय यज्ञाय त्रयीविद्यात्मने नमः ॥ ३१ ॥
आप वह यज्ञ हैं, जिसके प्रायणीय और उदयनीय-ये दो कर्म सिर हैं। प्रातः. मध्याह्न और सायं-ये तीन सवन ही तीन पाद हैं। चारों वेद चार सींग हैं। गायत्री आदि सात छन्द ही सात हाथ हैं। यह धर्ममय वृषभरूप यज्ञ वेदोंके द्वारा प्रतिपादित है और इसकी आत्मा हैं स्वयं आप! आपको मेरा नमस्कार है ।।३१।।
नमः शिवाय रुद्राय नमः शक्तिधराय च ।
सर्वविद्याधिपतये भूतानां पतये नमः ॥ ३२ ॥
आप ही लोककल्याणकारी शिव और आप ही प्रलयकारी रुद्र हैं। समस्त शक्तियोंको धारण करनेवाले भी आप ही हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार है। आप समस्त विद्याओंके अधिपति एवं भूतोंके स्वामी हैं। आपको मेरा नमस्कार ||३२।।
नमो हिरण्यगर्भाय प्राणाय जगदात्मने ।
योगैश्वर्यशरीराय नमस्ते योगहेतवे ॥ ३३ ॥
आप ही सबके प्राण और आप ही इस जगत्के स्वरूप भी हैं। आप योगके कारण तो हैं ही स्वयं योग और उससे मिलनेवाला ऐश्वर्य भी आप ही हैं। हे हिरण्यगर्भ! आपके लिये मेरे नमस्कार ||३३||
नमस्ते आदिदेवाय साक्षिभूताय ते नमः ।
नारायणाय ऋषये नराय हरये नमः ॥ ३४ ॥
आप ही आदिदेव हैं। सबके साक्षी हैं। आप ही नरनारायण ऋषिके रूपमें प्रकट स्वयं भगवान् हैं। आपको मेरा नमस्कार ||३४।।
नमो मरकतश्याम वपुषेऽधिगतश्रिये ।
केशवाय नमस्तुभ्यं नमस्ते पीतवाससे ॥ ३५ ॥
आपका शरीर मरकतमणिके समान साँवला है। समस्त सम्पत्ति और सौन्दर्यकी देवी लक्ष्मी आपकी सेविका हैं। पीताम्बरधारी केशव! आपको मेरा बार-बार नमस्कार ||३५||
त्वं सर्ववरदः पुंसां वरेण्य वरदर्षभ ।
अतस्ते श्रेयसे धीराः पादरेणुं उपासते ॥ ३६ ॥
आप सब प्रकारके वर देनेवाले हैं। वर देनेवालोंमें श्रेष्ठ हैं। तथा जीवोंके एकमात्र वरणीय हैं। यही कारण है कि धीर विवेकी पुरुष अपने कल्याणके लिये आपके चरणोंकी रजकी उपासना करते हैं ||३६||
अन्ववर्तन्त यं देवाः श्रीश्च तत्पादपद्मयोः ।
स्पृहयन्त इवामोदं भगवान् मे प्रसीदताम् ॥ ३७ ॥
जिनके चरणकमलोंकी सुगन्ध प्राप्त करनेकी लालसासे समस्त देवता और स्वयं लक्ष्मीजी भी सेवामें लगी रहती हैं, वे भगवान् मुझपर प्रसन्न हों’ ||३७।।
एतैः मंत्रैः हृर्हृषीकेशं आवाहनपुरस्कृतम् ।
अर्चयेत् श्रद्धया युक्तः पाद्योपस्पर्शनादिभिः ॥ ३८ ॥
प्रिये! भगवान् हृषीकेशका आवाहन पहले ही कर ले। फिर इन मन्त्रोंके द्वारा पाद्य, आचमन आदिके साथ श्रद्धापूर्वक मन लगाकर पूजा करे ||३८||
अर्चित्वा गन्धमाल्याद्यैः पयसा स्नपयेद् विभुम् ।
वस्त्रोपवीताभरण पाद्योपस्पर्शनैस्ततः ।
गन्धधूपादिभिश्चार्चेद् द्वादशाक्षरविद्यया ॥ ३९ ॥
गन्ध, माला आदिसे पूजा करके भगवान्को दूधसे स्नान करावे। उसके बाद वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, पाद्य, आचमन, गन्ध, धूप आदिके द्वारा द्वादशाक्षर मन्त्रसे भगवान्की पूजा करे ||३९||
श्रृतं पयसि नैवेद्यं शाल्यन्नं विभवे सति ।
ससर्पिः सगुडं दत्त्वा जुहुयान् मूलविद्यया ॥ ४० ॥
यदि सामर्थ्य हो तो दूधमें पकाये हुए तथा घी और गुड़ मिले हुए शालिके चावलका नैवेद्य लगावे और उसीका द्वादशाक्षर मन्त्रसे हवन करे ।।४०।।
निवेदितं तद्भक्ताय दद्याद्भुञ्जीत वा स्वयम् ।
दत्त्वाऽऽचमनमर्चित्वा तांबूलं च निवेदयेत् ॥ ४१ ॥
उस नैवेद्यको भगवान्के भक्तोंमें बाँट दे या स्वयं पा ले। आचमन और पूजाके बाद ताम्बूल निवेदन करे ||४१||
जपेत् अष्टोत्तरशतं स्तुवीत स्तुतिभिः प्रभुम् ।
कृत्वा प्रदक्षिणं भूमौ प्रणमेद् दण्डवन्मुदा ॥ ४२ ॥
एक सौ आठ बार द्वादशाक्षर मन्त्रका जप करे और स्तुतियोंके द्वारा भगवान्का स्तवन करे। प्रदक्षिणा करके बड़े प्रेम और आनन्दसे भूमिपर लोटकर दण्डवत्-प्रणाम करे ||४२।।
कृत्वा शिरसि तच्छेषां देवं उद्वासयेत् ततः ।
द्व्यवरान् भोजयेद् विप्रान् पायसेन यथोचितम् ॥ ४३ ॥
निर्माल्यको सिरसे लगाकर देवताका विसर्जन करे। कम-से-कम दो ब्राह्मणोंको यथोचित रीतिसे खीरका भोजन करावे ।।४३||
भुञ्जीत तैरनुज्ञातः सेष्टः शेषं सभाजितैः ।
ब्रह्मचार्यथ तद् रात्र्यां श्वो भूते प्रथमेऽहनि ॥ ४४ ॥
स्नातः शुचिर्यथोक्तेन विधिना सुसमाहितः ।
पयसा स्नापयित्वार्चेद् यावद् व्रतसमापनम् ॥ ४५ ॥
दक्षिणा आदिसे उनका सत्कार करे। इसके बाद उनसे आज्ञा लेकर अपने इष्ट-मित्रोंके साथ बचे हुए अन्नको स्वयं ग्रहण करे। उस दिन ब्रह्मचर्यसे रहे और दूसरे दिन प्रातःकाल ही स्नान आदि करके पवित्रतापूर्वक पूर्वोक्त विधिसे एकाग्र होकर भगवान्की पूजा करे। इस प्रकार जबतक व्रत समाप्त न हो, तबतक दूधसे स्नान कराकर प्रतिदिन भगवान्की पूजा करे ।।४४-४५।।
पयोभक्षो व्रतमिदं चरेत् विष्णु अर्चनादृतः ।
पूर्ववत् जुहुयादग्निं ब्राह्मणांश्चापि भोजयेत् ॥ ४६ ॥
भगवान्की पूजामें आदर-बुद्धि रखते हुए केवल पयोव्रती रहकर यह व्रत करना चाहिये। पूर्ववत् प्रतिदिन हवन और ब्राह्मण भोजन भी कराना चाहिये ।।४६।।
एवं तु अहः अहः कुर्याद् द्वादशाहं पयोव्रतम् ।
हरेः आराधनं होमं अर्हणं द्विजतर्पणम् ॥ ४७ ॥
इस प्रकार पयोव्रती रहकर बारह दिनतक प्रतिदिन भगवान्की आराधना, होम और पूजा करे तथा ब्राह्मण-भोजन कराता रहे ।।४७।।
प्रतिपत्-दिनं आरभ्य यावत् शुक्लत्रयोदशीम् ।
ब्रह्मचर्यमधःस्वप्नं स्नानं त्रिषवणं चरेत् ॥ ४८ ॥
फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदासे लेकर त्रयोदशीपर्यन्त ब्रह्मचर्यसे रहे, पृथ्वीपर शयन करे और तीनों समय स्नान करे ।।४८।।
वर्जयेत् असद् आलापं भोगान् उच्चावचान् तथा ।
अहिंस्रः सर्वभूतानां वासुदेवपरायणः ॥ ४९ ॥
झूठ न बोले। पापियोंसे बात न करे। पापकी बात न करे। छोटे-बड़े सब प्रकारके भोगोंका त्याग कर दे। किसी भी प्राणीको किसी प्रकारसे कष्ट न पहुँचावे। भगवान्की आराधना में लगा ही रहे ।।४९।।
त्रयोदश्यां अथो विष्णोः स्नपनं पञ्चकैर्विभोः ।
कारयेत् शास्त्रदृष्टेन विधिना विधिकोविदैः ॥ ५० ॥
त्रयोदशीके दिन विधि जाननेवाले ब्राह्मणोंके द्वारा शास्त्रोक्त विधिसे भगवान् विष्णुको पंचामृतस्नान करावे ।।५०।।
पूजां च महतीं कुर्यात् वित्त शाठ्य विवर्जितः ।
चरुं निरूप्य पयसि शिपिविष्टाय विष्णवे ॥ ५१ ॥
उस दिन धनका संकोच छोड़कर भगवान्की बहुत बड़ी पूजा करनी चाहिये और दूधमें चरु (खीर) पकाकर विष्णुभगवान्को अर्पित करना चाहिये ।।५१।।
श्रृतेन तेन पुरुषं यजेत सुसमाहितः ।
नैवेद्यं चातिगुणवद् दद्यात् पुरुषतुष्टिदम् ॥ ५२ ॥
अत्यन्त एकाग्रचित्तसे उसी पकाये हुए चरुके द्वारा भगवान्का यजन करना चाहिये और उनको प्रसन्न करनेवाला गुणयुक्त तथा स्वादिष्ट नैवेद्य अर्पण करना चाहिये ।।५२।।
आचार्यं ज्ञानसम्पन्नं वस्त्राभरणधेनुभिः ।
तोषयेत् ऋत्विजश्चैव तद् विद्धि आराधनं हरेः ॥ ५३ ॥
इसके बाद ज्ञानसम्पन्न आचार्य और ऋत्विजोंको वस्त्र, आभूषण और गौ आदि देकर सन्तुष्ट करना चाहिये। प्रिये! इसे भी भगवान्की ही आराधना समझो ।।५३।।
भोजयेत् तान्गुणवता सदन्नेन शुचिस्मिते ।
अन्यांश्च ब्राह्मणान् शक्त्या ये च तत्र समागताः ॥ ५४ ॥
प्रिये! आचार्य और ऋत्विजोंको शुद्ध, सात्त्विक और गुणयुक्त भोजन कराना ही चाहिये; दूसरे ब्राह्मण और आये हुए अतिथियोंको भी अपनी शक्तिके अनुसार भोजन कराना चाहिये ।।५४।।
दक्षिणां गुरवे दद्याद् ऋत्विग्भ्यश्च यथार्हतः ।
अन्नाद्येन अश्वपाकांश्च प्रीणयेत् समुपागतान् ॥ ५५ ॥
भुक्तवत्सु च सर्वेषु दीनान्ध कृपणादिषु ।
विष्णोस्तत् प्रीणनं विद्वान् भुञ्जीत सह बन्धुभिः ॥ ५६ ॥
गुरु और ऋत्विजोंको यथायोग्य दक्षिणा देनी चाहिये। जो चाण्डाल आदि अपने-आप वहाँ आ गये हों, उन सभीको तथा दीन, अंधे और असमर्थ पुरुषोंको भी अन्न आदि देकर सन्तुष्ट करना चाहिये। जब सब लोग खा चुकें, तब उन सबके सत्कारको भगवान्की प्रसन्नताका साधन समझते हुए अपने भाई-बन्धुओंके साथ स्वयं भोजन करे ।।५५-५६।।
नृत्यवादित्रगीतैश्च स्तुतिभिः स्वस्तिवाचकैः ।
कारयेत् तत्कथाभिश्च पूजां भगवतोऽन्वहम् ॥ ५७ ॥
प्रतिपदासे लेकर त्रयोदशीतक प्रतिदिन नाच-गान, बाजे-गाजे, स्तुति, स्वस्तिवाचन और भगवत्कथाओंसे भगवान्की पूजा करे-करावे ।।५७।।
एतत् पयोव्रतं नाम पुरुषाराधनं परम् ।
पितामहेनाभिहितं मया ते समुदाहृतम् ॥ ५८ ॥
प्रिये! यह भगवान्की श्रेष्ठ आराधना है। इसका नाम है ‘पयोव्रत’ । ब्रह्माजीने मुझे जैसा बताया था, वैसा ही मैंने तुम्हें बता दिया ।।५८।।
त्वं चानेन महाभागे सम्यक् चीर्णेन केशवम् ।
आत्मना शुद्धभावेन नियतात्मा भजाव्ययम् ॥ ५९ ॥
देवि! तुम भाग्यवती हो। अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके शुद्ध भाव एवं श्रद्धापूर्ण चित्तसे इस व्रतका भलीभाँति अनुष्ठान करो और इसके द्वारा अविनाशी भगवान्की आराधना करो ।।५९।।
अयं वै सर्वयज्ञाख्यः सर्वव्रतमिति स्मृतम् ।
तपःसारं इदं भद्रे दानं च ईश्वरतर्पणम् ॥ ६० ॥
कल्याणी! यह व्रत भगवान्को सन्तुष्ट करनेवाला है, इसलिये इसका नाम है ‘सर्वयज्ञ’ और ‘सर्वव्रत’। यह समस्त तपस्याओंका सार और मुख्य दान है ।।६०।।
ते एव नियमाः साक्षात् ते एव च यमोत्तमाः ।
तपो दानं व्रतं यज्ञो येन तुष्यति अधोक्षजः ॥ ६१ ॥
जिनसे भगवान् प्रसन्न हों वे ही सच्चे नियम हैं, वे ही उत्तम यम हैं, वे ही वास्तवमें तपस्या, दान, व्रत और यज्ञ हैं ।।६१।।
तस्मात् एतद्व्रतं भद्रे प्रयता श्रद्धयाचर ।
भगवान् परितुष्टस्ते वरानाशु विधास्यति ॥ ६२ ॥
इसलिये देवि! संयम और श्रद्धासे तुम इस व्रतका अनुष्ठान करो। भगवान् शीघ्र ही तुमपर प्रसन्न होंगे और तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करेंगे ।।६२।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे अदिति पयोव्रतकथनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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