श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 8 अध्याय 17
अध्यायः १७
श्रीमद्भागवत महापुराण
अष्टमः स्कन्धः – सप्तदशोऽध्यायः
व्रतसंतुष्टस्य भगवतो अदित्यै वरदानम्,
अदिति-गर्भस्थस्य भगवत् तेजसो ब्रह्मकर्तृकं स्तवनं च –
श्रीशुक उवाच –
(अनुष्टुप्)
इत्युक्ता सादिती राजन् स्वभर्त्रा कश्यपेन वै ।
अन्वतिष्ठद् व्रतमिदं द्वादशाहं अतन्द्रिता ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! अपने पतिदेव महर्षि कश्यपजीका उपदेश प्राप्त करके अदितिने बड़ी सावधानीसे बारह दिनतक इस व्रतका अनुष्ठान किया ।।१।।
चिन्तयन्ति एकया बुद्ध्या महापुरुषमीश्वरम् ।
प्रगृह्येन्द्रियदुष्टाश्वान् मनसा बुद्धिसारथिः ॥ २ ॥
बुद्धिको सारथि बनाकर मनकी लगामसे उसने इन्द्रियरूप दुष्ट घोड़ोंको अपने वशमें कर लिया और एकनिष्ठ बुद्धिसे वह पुरुषोत्तम भगवान्का चिन्तन करती रही ||२||
मनश्चैकाग्रया बुद्ध्या भगवति अखिलात्मनि ।
वासुदेवे समाधाय चचार ह पयोव्रतम् ॥ ३ ॥
उसने एकाग्र बुद्धिसे अपने मनको सर्वात्मा भगवान् वासुदेवमें पूर्णरूपसे लगाकर पयोव्रतका अनुष्ठान किया ।।३।।
तस्याः प्रादुरभूत् तात भगवान् आदिपुरुषः ।
पीतवासाश्चतुर्बाहुः शंखचक्रगदाधरः ॥ ४ ॥
तब पुरुषोत्तमभगवान् उसके सामने प्रकट हुए। परीक्षित्! वे पीताम्बर धारण किये हुए थे, चार भुजाएँ थीं और शंख, चक्र, गदा लिये हुए थे ।।४।।
तं नेत्रगोचरं वीक्ष्य सहसोत्थाय सादरम् ।
ननाम भुवि कायेन दण्डवत् प्रीतिविह्वला ॥ ५ ॥
अपने नेत्रोंके सामने भगवान्को सहसा प्रकट हुए देख अदिति सादर उठ खड़ी हुई और फिर प्रेमसे विह्वल होकर उसने पृथ्वीपर लोटकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया ||५||
सोत्थाय बद्धाञ्जलिरीडितुं स्थिता
नोत्सेह आनन्दजलाकुलेक्षणा ।
बभूव तूष्णीं पुलकाकुलाकृतिः
तद् दर्शनात्युत्सवगात्रवेपथुः ॥ ६ ॥
फिर उठकर, हाथ जोड़, भगवानकी स्तुति करनेकी चेष्टा की; परन्तु नेत्रोंमें आनन्दके आँसू उमड़ आये, उससे बोला न गया। सारा शरीर पुलकित हो रहा था, दर्शनके आनन्दोल्लाससे उसके अंगोंमें कम्प होने लगा था, वह चुपचाप खड़ी रही ।।६।।
प्रीत्या शनैर्गद्गदया गिरा हरिं
तुष्टाव सा देव्यदितिः कुरूद्वह ।
उद्वीक्षती सा पिबतीव चक्षुषा
रमापतिं यज्ञपतिं जगत्पतिम् ॥ ७ ॥
परीक्षित्! देवी अदिति अपने प्रेमपूर्ण नेत्रोंसे लक्ष्मीपति, विश्वपति, यज्ञेश्वर-भगवान्को इस प्रकार देख रही थी, मानो वह उन्हें पी जायगी। फिर बड़े प्रेमसे, गद्गद वाणीसे, धीरे-धीरे उसने भगवान्की स्तुति की ।।७।।
अदितिरुवाच –
यज्ञेश यज्ञपुरुषाच्युत तीर्थपाद
तीर्थश्रवः श्रवणमंगलनामधेय ।
आपन्नलोकवृजिनोपशमोदयाद्य
शं नः कृधीश भगवन् असि दीननाथः ॥ ८ ॥
अदितिने कहा-आप यज्ञके स्वामी हैं और स्वयं यज्ञ भी आप ही हैं। अच्यत! आपके चरण-कमलोंका आश्रय लेकर लोग भवसागरसे तर जाते हैं। आपके यशकीर्तनका श्रवण भी संसारसे तारनेवाला है। आपके नामोंके श्रवणमात्रसे ही कल्याण हो जाता है। आदिपुरुष! जो आपकी शरणमें आ जाता है, उसकी सारी विपत्तियोंका आप नाश कर देते हैं। भगवन्! आप दीनोंके स्वामी हैं। आप हमारा कल्याण कीजिये ||८||
विश्वाय विश्वभवनस्थितिसंयमाय
स्वैरं गृहीतपुरुशक्तिगुणाय भूम्ने ।
स्वस्थाय शश्वदुपबृंहितपूर्णबोध
व्यापादितात्मतमसे हरये नमस्ते ॥ ९ ॥
आप विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके कारण हैं और विश्वरूप भी आप ही हैं। अनन्त होनेपर भी स्वच्छन्दतासे आप अनेक शक्ति और गुणोंको स्वीकार कर लेते हैं। आप सदा अपने स्वरूपमें ही स्थित रहते हैं। नित्य-निरन्तर बढ़ते हुए पूर्ण बोधके द्वारा आप हृदयके अन्धकारको नष्ट करते रहते हैं। भगवन्! मैं आपको नमस्कार करती हूँ ।।९।।
आयुः परं वपुरभीष्टमतुल्यलक्ष्मीः
द्योभूरसाः सकलयोगगुणास्त्रिवर्गः ।
ज्ञानं च केवलमनन्त भवन्ति तुष्टात्
त्वत्तो नृणां किमु सपत्नजयादिराशीः ॥ १० ॥
प्रभो! अनन्त! जब आप प्रसन्न हो जाते हैं, तब मनुष्योंको ब्रह्माजीकी दीर्घ आयु, उनके ही समान दिव्य शरीर, प्रत्येक अभीष्ट वस्तु, अतुलित धन, स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल, योगकी समस्त सिद्धियाँ, अर्थ-धर्म-कामरूप त्रिवर्ग और केवल ज्ञानतक प्राप्त हो जाता है। फिर शत्रुओंपर विजय प्राप्त करना आदि जो छोटी-छोटी कामनाएँ हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ।।१०।।
श्रीशुक उवाच –
(अनुष्टुप्)
अदित्यैवं स्तुतो राजन् भगवान् पुष्करेक्षणः ।
क्षेत्रज्ञः सर्वभूतानां इति होवाच भारत ॥ ११ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब अदितिने इस प्रकार कमलनयनभगवान्की स्तुति की, तब समस्त प्राणियोंके हृदयमें रहकर उनकी गति-विधि जाननेवाले भगवान्ने यह बात कही ।।११।।
श्रीभगवानुवाच –
देवमातर्भवत्या मे विज्ञातं चिरकांक्षितम् ।
यत् सपत्नैः हृतश्रीणां च्यावितानां स्वधामतः ॥ १२ ॥
श्रीभगवानने कहा—देवताओंकी जननी अदिति! तुम्हारी चिरकालीन अभिलाषाको मैं जानता हूँ। शत्रुओंने तुम्हारे पुत्रोंकी सम्पत्ति छीन ली है, उन्हें उनके लोक (स्वर्ग)-से खदेड़ दिया है ।।१२।।
तान्विनिर्जित्य समरे दुर्मदान् असुरर्षभान् ।
प्रतिलब्धजयश्रीभिः पुत्रैः इच्छसि उपासितुम् ॥ १३ ॥
तुम चाहती हो कि युद्धमें तुम्हारे पुत्र उन मतवाले और बली असुरोंको जीतकर विजयलक्ष्मी प्राप्त करें, तब तुम उनके साथ भगवान्की उपासना करो ।।१३।।
इन्द्रज्येष्ठैः स्वतनयैः हतानां युधि विद्विषाम् ।
स्त्रियो रुदन्तीरासाद्य द्रष्टुमिच्छसि दुःखिताः ॥ १४ ॥
तुम्हारी इच्छा यह भी है कि तुम्हारे इन्द्रादि पुत्र जब शत्रुओंको मार डालें, तब तुम उनकी रोती हुई दुःखी स्त्रियोंको अपनी आँखों देख सको ।।१४।।
आत्मजान् सुसमृद्धान् त्व प्रत्याहृतयशःश्रियः ।
नाकपृष्ठं अधिष्ठाय क्रीडतो द्रष्टुमिच्छसि ॥ १५ ॥
अदिति! तुम चाहती हो कि तुम्हारे पुत्र धन और शक्तिसे समृद्ध हो जायँ, उनकी कीर्ति और ऐश्वर्य उन्हें फिरसे प्राप्त हो जायँ तथा वे स्वर्गपर अधिकार जमाकर पूर्ववत् विहार करें ||१५||
प्रायोऽधुना तेऽसुरयूथनाथा
अपारणीया इति देवि मे मतिः ।
यत्तेऽनुकूलेश्वरविप्रगुप्ता
न विक्रमस्तत्र सुखं ददाति ॥ १६ ॥
परन्तु देवि! वे असुरसेनापति इस समय जीते नहीं जा सकते, ऐसा मेरा निश्चय है; क्योंकि ईश्वर और ब्राह्मण इस समय उनके अनुकूल हैं। इस समय उनके साथ यदि लड़ाई छेड़ी जायगी, तो उससे सुख मिलनेकी आशा नहीं है ।।१६।।
अथाप्युपायो मम देवि चिन्त्यः
सन्तोषितस्य व्रतचर्यया ते ।
ममार्चनं नार्हति गन्तुमन्यथा
श्रद्धानुरूपं फलहेतुकत्वात् ॥ १७ ॥
फिर भी देवि! तुम्हारे इस व्रतके अनुष्ठानसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिये मुझे इस सम्बन्धमें कोई-न-कोई उपाय सोचना ही पड़ेगा। क्योंकि मेरी आराधना व्यर्थ तो होनी नहीं चाहिये। उससे श्रद्धाके अनुसार फल अवश्य मिलता है ।।१७।।
त्वयार्चितश्चाहमपत्यगुप्तये
पयोव्रतेनानुगुणं समीडितः ।
स्वांशेन पुत्रत्वमुपेत्य ते सुतान्
गोप्तास्मि मारीचतपस्यधिष्ठितः ॥ १८ ॥
तुमने अपने पुत्रोंकी रक्षाके लिये ही विधिपूर्वक पयोव्रतसे मेरी पूजा एवं स्तुति की है। अतः मैं अंशरूपसे कश्यपके वीर्यमें प्रवेश करूँगा और तुम्हारा पुत्र बनकर तुम्हारी सन्तानकी रक्षा करूँगा ।।१८।।
(अनुष्टुप्)
उपधाव पतिं भद्रे प्रजापतिं अकल्मषम् ।
मां च भावयती पत्यौ एवं रूपमवस्थितम् ॥ १९ ॥
कल्याणी! तुम अपने पति कश्यपमें मुझे इसी रूपमें स्थति देखो और उन निष्पाप प्रजापतिकी सेवा करो ।।१९।।
नैतत् परस्मा आख्येयं पृष्टयापि कथञ्चन ।
सर्वं संपद्यते देवि देवगुह्यं सुसंवृतम् ॥ २० ॥
देवि! देखो, किसीके पूछनेपर भी यह बात दूसरेको मत बतलाना। देवताओंका रहस्य जितना गुप्त रहता है, उतना ही सफल होता है ।।२०।।
श्रीशुक उवाच –
एतावदुक्त्वा भगवान् तत्रैवान्तरधीयत ।
अदितिर्दुर्लभं लब्ध्वा हरेर्जन्मात्मनि प्रभोः ॥ २१ ॥
उपाधावत् पतिं भक्त्या परया कृतकृत्यवत् ।
स वै समाधियोगेन कश्यपस्तदबुध्यत ॥ २२ ॥
प्रविष्टं आत्मनि हरेः अंशं हि अवितथेक्षणः ।
सोऽदित्यां वीर्यमाधत्त तपसा चिरसम्भृतम् ।
समाहितमना राजन् दारुण्यग्निं यथानिलः ॥ २३ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इतना कहकर भगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये। उस समय अदिति यह जानकर कि स्वयं भगवान् मेरे गर्भसे जन्म लेंगे, अपनी कृतकृत्यताका अनुभव करने लगी। भला, यह कितनी दुर्लभ बात है! वह बड़े प्रेमसे अपने पतिदेव कश्यपकी सेवा करने लगी। कश्यपजी सत्यदर्शी थे, उनके नेत्रोंसे कोई बात छिपी नहीं रहती थी। अपने समाधि-योगसे उन्होंने जान लिया कि भगवान्का अंश मेरे अंदर प्रविष्ट हो गया है। जैसे वायु काठमें अग्निका आधान करती है, वैसे ही कश्यपजीने समाहित चित्तसे अपनी तपस्याके द्वारा चिर-संचित वीर्यका अदितिमें आधान किया ।।२१-२३।।
अदितेर्धिष्ठितं गर्भं भगवन्तं सनातनम् ।
हिरण्यगर्भो विज्ञाय समीडे गुह्यनामभिः ॥ २४ ॥
जब ब्रह्माजीको यह बात मालूम हुई कि अदितिके गर्भ में तो स्वयं अविनाशी भगवान् आये हैं, तब वे भगवान्के रहस्यमय नामोंसे उनकी स्तुति करने लगे ।।२४।।
श्रीब्रह्मोवाच –
जयोरुगाय भगवन् उरुक्रम नमोऽस्तु ते ।
नमो ब्रह्मण्यदेवाय त्रिगुणाय नमो नमः ॥ २५ ॥
ब्रह्माजीने कहा–समग्र कीर्तिके आश्रय भगवन्! आपकी जय हो। अनन्त शक्तियोंके अधिष्ठान! आपके चरणोंमें नमस्कार है। ब्रह्मण्यदेव! त्रिगुणोंके नियामक! आपके चरणों में मेरे बार-बार प्रणाम हैं ।।२५।।
नमस्ते पृश्निगर्भाय वेदगर्भाय वेधसे ।
त्रिनाभाय त्रिपृष्ठाय शिपिविष्टाय विष्णवे ॥ २६ ॥
पृश्निके पुत्ररूपमें उत्पन्न होनेवाले! वेदोंके समस्त ज्ञानको अपने अंदर रखनेवाले प्रभो! वास्तवमें आप ही सबके विधाता हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता है। ये तीनों लोक आपकी नाभिमें स्थित हैं। तीनों लोकोंसे परे वैकुण्ठमें आप निवास करते हैं। जीवोंके अन्तःकरणमें आप सर्वदा विराजमान रहते हैं। ऐसे सर्वव्यापक विष्णको मैं नमस्कार करता हूँ ।।२६।।
त्वमादिरन्तो भुवनस्य मध्यं
अनन्तशक्तिं पुरुषं यमाहुः ।
कालो भवानाक्षिपतीश विश्वं
स्रोतो यथान्तः पतितं गभीरम् ॥ २७ ॥
प्रभो! आप ही संसारके आदि, अन्त और इसलिये मध्य भी हैं। यही कारण है कि वेद अनन्तशक्ति पुरुषके रूपमें आपका वर्णन करते हैं। जैसे गहरा स्रोत अपने भीतर पड़े हुए तिनकेको बहा ले जाता है, वैसे ही आप कालरूपसे संसारका धाराप्रवाह संचालन करते रहते हैं ||२७||
त्वं वै प्रजानां स्थिरजंगमानां
प्रजापतीनामसि सम्भविष्णुः ।
दिवौकसां देव दिवश्च्युतानां
परायणं नौरिव मज्जतोऽप्सु ॥ २८ ॥
आप चराचर प्रजा और प्रजापतियोंको भी उत्पन्न करनेवाले मूल कारण हैं। देवाधिदेव! जैसे जलमें डूबते हुएके लिये नौका ही सहारा है, वैसे ही स्वर्गसे भगाये हुए देवताओंके लिये एकमात्र आप ही आश्रय हैं ।।२८।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥