श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 8 अध्याय 7
अध्यायः ७
अथ सप्तमोऽध्यायः 8.7
श्रीशुक उवाच
ते नागराजमामन्त्र्य फलभागेन वासुकिम्
परिवीय गिरौ तस्मिन्नेत्रमब्धिं मुदान्विताः १
आरेभिरे सुरा यत्ता अमृतार्थे कुरूद्वह
हरिः पुरस्ताज्जगृहे पूर्वं देवास्ततोऽभवन् २
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! देवता और असुरोंने नागराज वासुकिको यह वचन देकर कि समुद्रमन्थनसे प्राप्त होनेवाले अमृतमें तुम्हारा भी हिस्सा रहेगा, उन्हें भी सम्मिलित कर लिया। इसके बाद उन लोगोंने वासुकि नागको नेतीके समान मन्दराचलमें लपेटकर भलीभाँति उद्यत हो बड़े उत्साह और आनन्दसे अमृतके लिये समुद्रमन्थन प्रारम्भ किया। उस समय पहले-पहल अजितभगवान् वासुकिके मुखकी ओर लग गये, इसलिये देवता भी उधर ही आ जुटे ।।१-२||
तन्नैच्छन्दैत्यपतयो महापुरुषचेष्टितम्
न गृह्णीमो वयं पुच्छमहेरङ्गममङ्गलम् ३
परन्तु भगवान्की यह चेष्टा दैत्यसेनापतियोंको पसंद न आयी। उन्होंने कहा कि ‘पूँछ तो साँपका अशुभ अंग है, हम उसे नहीं पकड़ेंगे ।।३।।
स्वाध्यायश्रुतसम्पन्नाः प्रख्याता जन्मकर्मभिः
इति तूष्णीं स्थितान्दैत्यान्विलोक्य पुरुषोत्तमः
स्मयमानो विसृज्याग्रं पुच्छं जग्राह सामरः ४
हमने वेद-शास्त्रोंका विधिपूर्वक अध्ययन किया है, ऊँचे वंशमें हमारा जन्म हुआ है और वीरताके बड़े-बड़े काम हमने किये हैं। हम देवताओंसे किस बातमें कम हैं?’ यह कहकर वे लोग चुपचाप एक ओर खड़े हो गये। उनकी यह मनोवृत्ति देखकर भगवान्ने मुसकराकर वासुकिका मुँह छोड़ दिया और देवताओंके साथ उन्होंने पूँछ पकड़ ली ।।४।।
इस प्रकार अपना-अपना स्थान निश्चित करके देवता और असुर अमृतप्राप्तिके लिये पूरी तैयारीसे समुद्रमन्थन करने लगे ||५||
कृतस्थानविभागास्त एवं कश्यपनन्दनाः
ममन्थुः परमं यत्ता अमृतार्थं पयोनिधिम् ६
परीक्षित्! जब समुद्रमन्थन होने लगा, तब बड़े-बड़े बलवान् देवता और असुरोंके पकड़े रहनेपर भी अपने भारकी अधिकता और नीचे कोई आधार न होनेके कारण मन्दराचल समुद्रमें डूबने लगा ||६||
मथ्यमानेऽर्णवे सोऽद्रि रनाधारो ह्यपोऽविशत्
ध्रियमाणोऽपि बलिभिर्गौरवात्पाण्डुनन्दन ७
इस प्रकार अत्यन्त बलवान् दैवके द्वारा अपना सब किया-कराया मिट्टीमें मिलते देख उनका मन टूट गया। सबके मुँहपर उदासी छा गयी ।।७।।
ते सुनिर्विण्णमनसः परिम्लानमुखश्रियः
आसन्स्वपौरुषे नष्टे दैवेनातिबलीयसा ८
उस समय भगवान्ने देखा कि यह तो विघ्नराजकी करतूत है। इसलिये उन्होंने उसके निवारणका उपाय सोचकर अत्यन्त विशाल एवं विचित्र कच्छपका रूप धारण किया और समुद्रके जलमें प्रवेश करके मन्दराचलको ऊपर उठा दिया। भगवानकी शक्ति अनन्त है। वे सत्यसंकल्प हैं। उनके लिये यह कौन-सी बड़ी बात थी ।।८।।
विलोक्य विघ्नेशविधिं तदेश्वरो दुरन्तवीर्योऽवितथाभिसन्धिः
कृत्वा वपुः कच्छपमद्भुतं महत्प्रविश्य तोयं गिरिमुज्जहार ९
देवता और असुरोंने देखा कि मन्दराचल तो ऊपर उठ आया है, तब वे फिरसे समुद्र-मन्थनके लिये उठ खड़े हुए। उस समय भगवान्ने जम्बूद्वीपके समान एक लाख योजन फैली हुई अपनी पीठपर मन्दराचलको धारण कर रखा था ।।९।।
तमुत्थितं वीक्ष्य कुलाचलं पुनः समुद्यता निर्मथितुं सुरासुराः
दधार पृष्ठेन स लक्षयोजन प्रस्तारिणा द्वीप इवापरो महान् १०
परीक्षित्! जब बड़े-बड़े देवता और असुरोंने अपने बाहुबलसे मन्दराचलको प्रेरित किया, तब वह भगवान्की पीठपर घूमने लगा। अनन्त शक्तिशाली आदिकच्छप भगवान्को उस पर्वतका चक्कर लगाना ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई उनकी पीठ खुजला रहा हो ।।१०।।
सुरासुरेन्द्रैर्भुजवीर्यवेपितं परिभ्रमन्तं गिरिमङ्ग पृष्ठतः
बिभ्रत्तदावर्तनमादिकच्छपो मेनेऽङ्गकण्डूयनमप्रमेयः ११
साथ ही समुद्रमन्थन सम्पन्न करनेके लिये भगवान्ने असुरोंमें उनकी शक्ति और बलको बढाते हए असुररूपसे प्रवेश किया। वैसे ही उन्होंने देवताको उत्साहित करते हुए उनमें देवरूपसे प्रवेश किया और वासुकिनागमें निद्राके रूपसे ।।११।।
तथासुरानाविशदासुरेण रूपेण तेषां बलवीर्यमीरयन्
उद्दीपयन्देवगणांश्च विष्णुर्दैवेन नागेन्द्रमबोधरूपः १२
इधर पर्वतके ऊपर दूसरे पर्वतके समान बनकर सहस्रबाहु भगवान् अपने हाथोंसे उसे दबाकर स्थिर हो गये। उस समय आकाशमें ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि उनकी स्तुति और उनके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ।।१२।।
उपर्यगेन्द्रं गिरिराडिवान्य आक्रम्य हस्तेन सहस्रबाहुः
तस्थौ दिवि ब्रह्मभवेन्द्र मुख्यैरभिष्टुवद्भिः सुमनोऽभिवृष्टः १३
इस प्रकार भगवान्ने पर्वतके ऊपर उसको दबा रखनेवालेके रूपमें, नीचे उसके आधार कच्छपके रूपमें, देवता और असुरोंके शरीरमें उनकी शक्तिके रूपमें, पर्वतमें दृढ़ताके रूपमें और नेती बने हुए वासुकिनागमें निद्राके रूपमेंजिससे उसे कष्ट न हो—प्रवेश करके सब ओरसे सबको शक्तिसम्पन्न कर दिया। अब वे अपने बलके मदसे उन्मत्त होकर मन्दराचलके द्वारा बड़े वेगसे समुद्रमन्थन करने लगे। उस समय समुद्र और उसमें रहनेवाले मगर, मछली आदि जीव क्षुब्ध हो गये ।।१३।।
उपर्यधश्चात्मनि गोत्रनेत्रयोः परेण ते प्राविशता समेधिताः
ममन्थुरब्धिं तरसा मदोत्कटा महाद्रिणा क्षोभितनक्रचक्रम् १४
नागराज वासुकिके हजारों कठोर नेत्र, मुख और श्वासोंसे विषकी आग निकलने लगी। उनके धूएँसे पौलोम, कालेय, बलि, इल्वल आदि असुर निस्तेज हो गये। उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो दावानलसे झुलसे हुए साखूके पेड़ खड़े हों ।।१४।।
अहीन्द्र साहस्रकठोरदृङ्मुख श्वासाग्निधूमाहतवर्चसोऽसुराः
पौलोमकालेयबलील्वलादयो दवाग्निदग्धाः सरला इवाभवन् १५
देवता भी उससे न बच सके। वासुकिके श्वासकी लपटोंसे उनका भी तेज फीका पड़ गया। वस्त्र, माला, कवच एवं मुख धूमिल हो गये। उनकी यह दशा देखकर भगवान्की प्रेरणासे बादल देवताओंके ऊपर वर्षा करने लगे एवं वायु समुद्रकी तरंगोंका स्पर्श करके शीतलता और सुगन्धिका संचार करने लगी ।।१५।।
देवांश्च तच्छ्वासशिखाहतप्रभान्धूम्राम्बरस्रग्वरकञ्चुकाननान्
समभ्यवर्षन्भगवद्वशा घना ववुः समुद्रोर्म्युपगूढवायवः १६
इस प्रकार देवता और असुरोंके समुद्रमन्थन करनेपर भी जब अमृत न निकला, तब स्वयं अजितभगवान् समुद्रमन्थन करने लगे ।।१६।।
मथ्यमानात्ता सिन्धोर्देवासुरवरूथपैः
यदा सुधा न जायेत निर्ममन्थाजितः स्वयम् १७
मेघके समान साँवले शरीरपर सुनहला पीताम्बर, कानोंमें बिजलीके समान चमकते हुए कुण्डल, सिरपर लहराते हुए घुघराले बाल, नेत्रोंमें लाल-लाल रेखाएँ और गलेमें वनमाला सुशोभित हो रही थी। सम्पूर्ण जगत्को अभयदान करनेवाले अपने विश्वविजयी भुजदण्डोंसे वासुकिनागको पकड़कर तथा कूर्मरूपसे पर्वतको धारणकर जब भगवान् मन्दराचलकी मथानीसे समुद्रमन्थन करने लगे, उस समय वे दूसरे पर्वतराजके समान बड़े ही सुन्दर लग रहे थे ||१७||
मेघश्यामः कनकपरिधिः कर्णविद्योतविद्युन्
मूर्ध्नि भ्राजद्विलुलितकचः स्रग्धरो रक्तनेत्रः
जैत्रैर्दोर्भिर्जगदभयदैर्दन्दशूकं गृहीत्वा
मथ्नन्मथ्ना प्रतिगिरिरिवाशोभताथोद्धृताद्रिः १८
जब अजितभगवान्ने इस प्रकार समुद्र मन्थन किया, तब समुद्र में बड़ी खलबली मच गयी। मछली, मगर, साँप और कछुए भयभीत होकर ऊपर आ गये और इधर-उधर भागने लगे। तिमि-तिमिंगिल आदि मच्छ, समुद्री हाथी और ग्राह व्याकुल हो गये। उसी समय पहले-पहल हालाहल नामका अत्यन्त उग्र विष निकला ।।१८।।
निर्मथ्यमानादुदधेरभूद्विषं महोल्बणं हालहलाह्वमग्रतः
सम्भ्रान्तमीनोन्मकराहिकच्छपात्तिमिद्विपग्राहतिमिङ्गिलाकुलात् १९
वह अत्यन्त उग्र विष दिशा-विदिशामें, ऊपर-नीचे सर्वत्र उड़ने और फैलने लगा। इस असहा विषसे बचनेका कोई उपाय भी तो न था। भयभीत होकर सम्पूर्ण प्रजा और प्रजापति किसीके द्वारा त्राण न मिलनेपर भगवान् सदाशिवकी शरणमें गये ||१९||
तदुग्रवेगं दिशि दिश्युपर्यधो विसर्पदुत्सर्पदसह्यमप्रति
भीताः प्रजा दुद्रुवुरङ्ग सेश्वरा अरक्ष्यमाणाः शरणं सदाशिवम् २०
भगवान् शंकर सतीजीके साथ कैलास पर्वतपर विराजमान थे। बड़े-बड़े ऋषि-मनि उनकी सेवा कर रहे थे। वे वहाँ तीनों लोकोंके अभ्युदय और मोक्षके लिये तपस्या कर रहे थे। प्रजापतियोंने उनका दर्शन करके उनकी स्तुति करते हुए उन्हें प्रणाम किया ।।२०।।
विलोक्य तं देववरं त्रिलोक्या भवाय देव्याभिमतं मुनीनाम्
आसीनमद्रा वपवर्गहेतोस्तपो जुषाणं स्तुतिभिः प्रणेमुः २१
प्रजापतियोंने भगवान् शंकरकी स्तुति की-देवताओंके आराध्यदेव महादेव! आप समस्त प्राणियोंके आत्मा और उनके जीवनदाता हैं। हमलोग आपकी शरणमें आये हैं। त्रिलोकीको भस्म करनेवाले इस उग्र विषसे आप हमारी रक्षा कीजिये ||२१||
श्रीप्रजापतय ऊचुः
देवदेव महादेव भूतात्मन्भूतभावन
त्राहि नः शरणापन्नांस्त्रैलोक्यदहनाद्विषात् २२
सारे जगत्को बाँधने और मुक्त करने में एकमात्र आप ही समर्थ हैं। इसलिये विवेकी पुरुष आपकी ही आराधना करते हैं। क्योंकि आप शरणागतकी पीड़ा नष्ट करनेवाले एवं जगद्गुरु हैं ।।२२।।
त्वमेकः सर्वजगत ईश्वरो बन्धमोक्षयोः
तं त्वामर्चन्ति कुशलाः प्रपन्नार्तिहरं गुरुम् २३
प्रभो! अपनी गुणमयी शक्तिसे इस जगत्की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करनेके लिये आप अनन्त, एकरस होनेपर भी ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि नाम धारण कर लेते हैं ।।२३।।
गुणमय्या स्वशक्त्यास्य सर्गस्थित्यप्ययान्विभो
धत्से यदा स्वदृग्भूमन्ब्रह्मविष्णुशिवाभिधाम् २४
आप स्वयंप्रकाश हैं। इसका कारण यह है कि आप परम रहस्यमय ब्रह्मतत्त्व हैं। जितने भी देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सत् अथवा असत् चराचर प्राणी हैं उनको जीवनदान देनेवाले आप ही हैं। आपके अतिरिक्त सष्टि भी और कुछ नहीं है। क्योंकि आप आत्मा हैं। अनेक शक्तियोंके द्वारा आप ही जगतरूपमें भी प्रतीत हो रहे हैं। क्योंकि आप ईश्वर हैं, सर्वसमर्थ हैं ||२४||
त्वं ब्रह्म परमं गुह्यं सदसद्भावभावनम्
नानाशक्तिभिराभातस्त्वमात्मा जगदीश्वरः २५
समस्त वेद आपसे ही प्रकट हुए हैं। इसलिये आप समस्त ज्ञानोंके मूल स्रोत स्वतःसिद्ध ज्ञान हैं। आप ही जगत्के आदिकारण महत्तत्त्व और त्रिविध अहंकार हैं एवं आप ही प्राण, इन्द्रिय, पंचमहाभूत तथा शब्दादि विषयोंके भिन्न-भिन्न स्वभाव और उनके मूल कारण हैं। आप स्वयं ही प्राणियोंकी वृद्धि और ह्रास करनेवाले काल हैं, उनका कल्याण करनेवाले यज्ञ हैं एवं सत्य और मधुर वाणी हैं। धर्म भी आपका ही स्वरूप है। आप ही ‘अ, उ, म्’ इन तीनों अक्षरोंसे युक्त प्रणव हैं अथवा त्रिगुणात्मिका प्रकृति हैं—ऐसा वेदवादी महात्मा कहते हैं ||२५||
त्वं शब्दयोनिर्जगदादिरात्मा प्राणेन्द्रि यद्र व्यगुणः स्वभावः
कालः क्रतुः सत्यमृतं च धर्मस्त्वय्यक्षरं यत्त्रिवृदामनन्ति २६
सर्वदेवस्वरूप अग्नि आपका मुख है। तीनों लोकोंके अभ्युदय करनेवाले शंकर! यह पृथ्वी आपका चरणकमल है। आप अखिल देवस्वरूप हैं। यह काल आपकी गति है, दिशाएँ कान हैं और वरुण रसनेन्द्रिय है ।।२६।।
अग्निर्मुखं तेऽखिलदेवतात्मा क्षितिं विदुर्लोकभवाङ्घ्रिपङ्कजम्
कालं गतिं तेऽखिलदेवतात्मनो दिशश्च कर्णौ रसनं जलेशम् २७
आकाश नाभि है, वायु श्वास है, सूर्य नेत्र हैं और जल वीर्य है। आपका अहंकार नीचे-ऊँचे सभी जीवोंका आश्रय है। चन्द्रमा मन है और प्रभो! स्वर्ग आपका सिर है ।।२७।।
नाभिर्नभस्ते श्वसनं नभस्वान्सूर्यश्च चक्षूंषि जलं स्म रेतः
परावरात्माश्रयणं तवात्मा सोमो मनो द्यौर्भगवन्शिरस्ते २८
वेदस्वरूप भगवन्! समुद्र आपकी कोख हैं। पर्वत हड्डियाँ हैं। सब प्रकारकी ओषधियाँ और घास आपके रोम हैं। गायत्री आदि छन्द आपकी सातों धातुएँ हैं और सभी प्रकारके धर्म आपके हृदय हैं ||२८||
कुक्षिः समुद्रा गिरयोऽस्थिसङ्घा रोमाणि सर्वौषधिवीरुधस्ते
छन्दांसि साक्षात्तव सप्त धातवस्त्रयीमयात्मन्हृदयं सर्वधर्मः २९
स्वामिन्! सद्योजातादि पाँच उपनिषद् ही आपके तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात, वामदेव और ईशान नामक पाँच मुख हैं। उन्हींके पदच्छेदसे अड़तीस कलात्मक मन्त्र निकले हैं। आप जब समस्त प्रपंचसे उपरत होकर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाते हैं, तब उसी स्थितिका नाम होता है ‘शिव’। वास्तवमें वही स्वयंप्रकाश परमार्थतत्त्व है ||२९||
मुखानि पञ्चोपनिषदस्तवेश यैस्त्रिंशदष्टोत्तरमन्त्रवर्गः
यत्तच्छिवाख्यं परमात्मतत्त्वं देव स्वयंज्योतिरवस्थितिस्ते ३०
अधर्मकी दम्भ-लोभ आदि तरंगोंमें आपकी छाया है जिनसे विविध प्रकारकी सृष्टि होती है, वे सत्त्व, रज और तमआपके तीन नेत्र हैं। प्रभो! गायत्री आदि छन्दरूप सनातन वेद ही आपका विचार है। क्योंकि आप ही सांख्य आदि समस्त शास्त्रोंके रूपमें स्थित हैं और उनके कर्ता भी हैं ||३०||
छाया त्वधर्मोर्मिषु यैर्विसर्गो नेत्रत्रयं सत्त्वरजस्तमांसि
साङ्ख्यात्मनः शास्त्रकृतस्तवेक्षा छन्दोमयो देव ऋषिः पुराणः ३१
भगवन्! आपका परम ज्योतिर्मय स्वरूप स्वयं ब्रह्म है। उसमें न तो रजोगुण, तमोगुण एवं सत्त्वगुण हैं और न किसी प्रकारका भेदभाव ही। आपके उस स्वरूपको सारे लोकपालयहाँतक कि ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इन्द्र भी नहीं जान सकते ।।३१।।
न ते गिरित्राखिललोकपाल विरिञ्चवैकुण्ठसुरेन्द्र गम्यम्
ज्योतिः परं यत्र रजस्तमश्च सत्त्वं न यद्ब्रह्म निरस्तभेदम् ३२
आपने कामदेव, दक्षके यज्ञ, त्रिपुरासुर और कालकूट विष (जिसको आप अभी-अभी अवश्य पी जायँगे) और अनेक जीवद्रोही असुरोंको नष्ट कर दिया है। परन्तु यह कहनेसे आपकी कोई स्तुति नहीं होती। क्योंकि प्रलयके समय आपका बनाया हुआ यह विश्व आपके ही नेत्रसे निकली हुई आगकी चिनगारी एवं लपटसे जलकर भस्म हो जाता है और आप इस प्रकार ध्यानमग्न रहते हैं कि आपको इसका पता ही नहीं चलता ।।३२।।
कामाध्वरत्रिपुरकालगराद्यनेक
भूतद्रुहः क्षपयतः स्तुतये न तत्ते
यस्त्वन्तकाल इदमात्मकृतं स्वनेत्र
वह्निस्फुलिङ्गशिखया भसितं न वेद ३३
जीवन्मुक्त आत्माराम पुरुष अपने हृदयमें आपके युगल चरणोंका ध्यान करते रहते हैं तथा आप स्वयं भी निरन्तर ज्ञान और तपस्या में ही लीन रहते हैं। फिर भी सतीके साथ रहते देखकर जो आपको आसक्त एवं श्मशानवासी होनेके कारण उग्र अथवा निष्ठुर बतलाते हैं वे मूर्ख आपकी लीलाओंका रहस्य भला क्या जानें। उनका वैसा कहना निर्लज्जतासे भरा है ।।३३।।
ये त्वात्मरामगुरुभिर्हृदि चिन्तिताङ्घ्रि
द्वन्द्वं चरन्तमुमया तपसाभितप्तम्
कत्थन्त उग्रपरुषं निरतं श्मशाने
ते नूनमूतिमविदंस्तव हातलज्जाः ३४
इस कार्य और कारणरूप जगत्से परे माया है और मायासे भी अत्यन्त परे आप हैं। इसलिये प्रभो! आपके अनन्त स्वरूपका साक्षात् ज्ञान प्राप्त करने में सहसा ब्रह्मा आदि भी समर्थ नहीं होते, फिर स्तुति तो कर ही कैसे सकते हैं। ऐसी अवस्थामें उनके पुत्रोंके पुत्र हमलोग कह ही क्या सकते हैं। फिर भी अपनी शक्तिके अनुसार हमने आपका कुछ गुणगान किया है ||३४।।
तत्तस्य ते सदसतोः परतः परस्य
नाञ्जः स्वरूपगमने प्रभवन्ति भूम्नः
ब्रह्मादयः किमुत संस्तवने वयं तु
तत्सर्गसर्गविषया अपि शक्तिमात्रम् ३५
हमलोग तो केवल आपके इसी लीलाविहारी रूपको देख रहे हैं। आपके परम स्वरूपको हम नहीं जानते। महेश्वर! यद्यपि आपकी लीलाएँ अव्यक्त हैं, फिर भी संसारका कल्याण करनेके लिये आप व्यक्तरूपसे भी रहते हैं ||३५||
एतत्परं प्रपश्यामो न परं ते महेश्वर
मृडनाय हि लोकस्य व्यक्तिस्तेऽव्यक्तकर्मणः ३६
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! प्रजाका यह संकट देखकर समस्त प्राणियोंके अकारण बन्धु देवाधिदेव भगवान् शंकरके हृदयमें कृपावश बड़ी व्यथा हुई। उन्होंने अपनी प्रिया सतीसे यह बात कही ।।३६।।
श्रीशुक उवाच
तद्वीक्ष्य व्यसनं तासां कृपया भृशपीडितः
सर्वभूतसुहृद्देव इदमाह सतीं प्रियाम् ३७
शिवजीने कहा-देवि! यह बड़े खेदकी बात है। देखो तो सही, समुद्रमन्थनसे निकले हुए कालकूट विषके कारण प्रजापर कितना बड़ा दुःख आ पड़ा है ||३७।।
श्रीशिव उवाच
अहो बत भवान्येतत्प्रजानां पश्य वैशसम्
क्षीरोदमथनोद्भूतात्कालकूटादुपस्थितम् ३८
ये बेचारे किसी प्रकार अपने प्राणोंकी रक्षा करना चाहते हैं। इस समय मेरा यह कर्तव्य है कि मैं इन्हें निर्भय कर दूँ। जिनके पास शक्ति-सामर्थ्य है, उनके जीवनकी सफलता इसीमें है कि वे दीनदुःखियोंकी रक्षा करें ||३८।।
आसां प्राणपरीप्सूनां विधेयमभयं हि मे
एतावान्हि प्रभोरर्थो यद्दीनपरिपालनम् ३९
सज्जन पुरुष अपने क्षणभंगुर प्राणोंकी बलि देकर भी दूसरे प्राणियों के प्राणकी रक्षा करते हैं। कल्याणि! अपने ही मोहकी मायामें फँसकर संसारके प्राणी मोहित हो रहे हैं और एक-दूसरेसे वैरकी गाँठ बाँधे बैठे हैं ||३९।।
प्राणैः स्वैः प्राणिनः पान्ति साधवः क्षणभङ्गुरैः
बद्धवैरेषु भूतेषु मोहितेष्वात्ममायया ४०
उनके ऊपर जो कृपा करता है, उसपर सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और जब भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, तब चराचर जगत्के साथ मैं भी प्रसन्न हो जाता हूँ। इसलिये अभी-अभी मैं इस विषको भक्षण करता हूँ, जिससे मेरी प्रजाका कल्याण हो ।।४०||
पुंसः कृपयतो भद्रे सर्वात्मा प्रीयते हरिः
प्रीते हरौ भगवति प्रीयेऽहं सचराचरः
तस्मादिदं गरं भुञ्जे प्रजानां स्वस्तिरस्तु मे ४१
श्रीशकदेवजी कहते हैं—विश्वके जीवनदाता भगवान शंकर इस प्रकार सती देवीसे प्रस्ताव करके उस विषको खानेके लिये तैयार हो गये। देवी तो उनका प्रभाव जानती ही थीं, उन्होंने हृदयसे इस बातका अनुमोदन किया ।।४१।।
श्रीशुक उवाच
एवमामन्त्र्य भगवान्भवानीं विश्वभावनः
तद्विषं जग्धुमारेभे प्रभावज्ञान्वमोदत ४२
। भगवान् शंकर बड़े कृपालु हैं। उन्हींकी शक्तिसे समस्त प्राणी जीवित रहते हैं। उन्होंने उस तीक्ष्ण हालाहल विषको अपनी हथेलीपर उठाया और भक्षण कर गये ।।४२।।
ततः करतलीकृत्य व्यापि हालाहलं विषम्
अभक्षयन्महादेवः कृपया भूतभावनः ४३
वह विष जलका पाप–मल था। उसने शंकरजीपर भी अपना प्रभाव प्रकट कर दिया, उससे उनका कण्ठ नीला पड़ गया, परन्तु वह तो प्रजाका कल्याण करनेवाले भगवान् शंकरके लिये भूषणरूप हो गया ||४३||
तस्यापि दर्शयामास स्ववीर्यं जलकल्मषः
यच्चकार गले नीलं तच्च साधोर्विभूषणम् ४४
परोपकारी सज्जन प्रायः प्रजाका दुःख टालनेके लिये स्वयं दुःख झेला ही करते हैं। परन्तु यह दुःख नहीं है, यह तो सबके हृदयमें विराजमान भगवान्की परम आराधना है ।।४४।।
तप्यन्ते लोकतापेन साधवः प्रायशो जनाः
परमाराधनं तद्धि पुरुषस्याखिलात्मनः ४५
देवाधिदेव भगवान् शंकर सबकी कामना पूर्ण करनेवाले हैं। उनका यह कल्याणकारी अद्भुत कर्म सुनकर सम्पूर्ण प्रजा, दक्षकन्या सती, ब्रह्माजी और स्वयं विष्णुभगवान् भी उनकी प्रशंसा करने लगे ।।४५।।
निशम्य कर्म तच्छम्भोर्देवदेवस्य मीढुषः
प्रजा दाक्षायणी ब्रह्मा वैकुण्ठश्च शशंसिरे ४६
जिस समय भगवान् शंकर विषपान कर रहे थे, उस समय उनके हाथसे थोड़ा-सा विष टपक पड़ा था। उसे बिच्छू, साँप तथा अन्य विषैले जीवोंने एवं विषैली ओषधियोंने ग्रहण कर लिया ।।४६।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धेऽमृतमथने सप्तमोऽध्यायः