श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 9 अध्याय 10
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः ९/अध्यायः १०
श्रीरामचरितम् –
श्रीशुक उवाच ।
खट्वांगात दीर्घबाहुश्च रघुस्तस्मात् पृथुश्रवाः ।
अजस्ततो महाराजः तस्मात् दशरथोऽभवत् ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! खट्वांगके पुत्र दीर्घबाहु और दीर्घबाहुके परम यशस्वी पुत्र रघु हुए। रघुके अज और अजके पुत्र महाराज दशरथ हुए ।।१।।
तस्यापि भगवान् एष साक्षाद् ब्रह्ममयो हरिः ।
अंशांशेन चतुर्धागात् पुत्रत्वं प्रार्थितः सुरैः ।
रामलक्ष्मणभरत शत्रुघ्ना इति संज्ञया ॥ २ ॥
देवताओंकी प्रार्थनासे साक्षात् परमब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीहरि ही अपने अंशांशसे चार रूप धारण करके राजा दशरथके पुत्र हुए। उनके नाम थे-राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न ||२||
तस्यानुचरितं राजन् ऋषिभिः तत्त्वदर्शिभिः ।
श्रुतं हि वर्णितं भूरि त्वया सीतापतेर्मुहुः ॥ ३ ॥
परीक्षित्! सीतापति भगवान् श्रीरामका चरित्र तो तत्त्वदर्शी ऋषियोंने बहुत कुछ वर्णन किया है और तुमने अनेक बार उसे सुना भी है ।।३।।
गुर्वर्थे त्यक्तराज्यो व्यचरदनुवनं
पद्मपद्भ्यां प्रियायाः ।
पाणिस्पर्शाक्षमाभ्यां मृजितपथरुजो
यो हरीन्द्रानुजाभ्याम् ।
वैरूप्यात् शूर्पणख्याः प्रियविरहरुषाऽऽ
रोपितभ्रूविजृम्भ ।
त्रस्ताब्धिर्बद्धसेतुः खलदवदहनः
कोसलेन्द्रोऽवतान्नः ॥ ४ ॥
भगवान् श्रीरामने अपने पिता राजा दशरथके सत्यकी रक्षाके लिये राजपाट छोड़ दिया और वे वन-वनमें फिरते रहे। उनके चरणकमल इतने सुकुमार थे कि परम सुकुमारी श्रीजानकीजीके करकमलोंका स्पर्श भी उनसे सहन नहीं होता था। वे ही चरण जब वनमें चलते-चलते थक जाते, तब हनुमान और लक्ष्मण उन्हें दबा-दबाकर उनकी थकावट मिटाते। शूर्पणखाको नाक-कान काटकर विरूप कर देनेके कारण उन्हें अपनी प्रियतमा श्रीजानकीजीका वियोग भी सहना पड़ा। इस वियोगके कारण क्रोधवश उनकी भौंहें तन गयीं, जिन्हें देखकर समुद्रतक भयभीत हो गया। इसके बाद उन्होंने समुद्रपर पुल बाँधा और लंकामें जाकर दुष्ट राक्षसोंके जंगलको दावाग्निके समान दग्ध कर दिया। वे कोसलनरेश हमारी रक्षा करें ||४||
विश्वामित्राध्वरे येन मारीचाद्या निशाचराः ।
पश्यतो लक्ष्मणस्यैव हता नैर्ऋतपुंगवाः ॥ ५ ॥
भगवान् श्रीरामने विश्वामित्रके यज्ञमें लक्ष्मणके सामने ही मारीच आदि राक्षसोंको मार डाला। वे सब बड़े-बड़े राक्षसोंकी गिनतीमें थे ||५||
यो लोकवीरसमितौ धनुरैशमुग्रं
सीतास्वयंवरगृहे त्रिशतोपनीतम् ॥
आदाय बालगजलील इवेक्षुयष्टिं
सज्ज्यीकृतं नृप विकृष्य बभञ्ज मध्ये ॥ ६ ॥
परीक्षित्! जनकपुरमें सीताजीका स्वयंवर हो रहा था। संसारके चुने हुए वीरोंकी सभामें भगवान् शंकरका वह भयंकर धनुष रखा हुआ था। वह इतना भारी था कि तीन सौ वीर बड़ी कठिनाईसे उसे स्वयंवरसभामें ला सके थे। भगवान् श्रीरामने उस धनुषको बात-की-बातमें उठाकर उसपर डोरी चढ़ा दी और खींचकर बीचोबीचसे उसके दो टुकड़े कर दिये-ठीक वैसे ही, जैसे हाथीका बच्चा खेलते-खेलते ईख तोड़ डाले ।।६।।
जित्वानुरूपगुणशीलवयोऽङ्गरूपां ।
सीताभिधां श्रियमुरस्यभिलब्धमानाम् ॥
मार्गे व्रजन् भृगुपतेर्व्यनयत् प्ररूढं ।
दर्पं महीमकृत यस्त्रिरराजबीजाम् ॥ ७ ॥
भगवान्ने जिन्हें अपने वक्षःस्थलपर स्थान देकर सम्मानित किया है, वे श्रीलक्ष्मीजी ही सीताके नामसे जनकपुरमें अवतीर्ण हुई थीं। वे गुण, शील, अवस्था, शरीरकी गठन और सौन्दर्यमें सर्वथा भगवान् श्रीरामके अनुरूप थीं। भगवान्ने धनुष तोड़कर उन्हें प्राप्त कर लिया। अयोध्याको लौटते समय मार्गमें उन परशुरामजीसे भेंट हई जिन्होंने इक्कीस बार पृथ्वीको राजवंशके बीजसे भी रहित कर दिया था। भगवान्ने उनके बढे हए गर्वको नष्ट कर दिया ।।७।।
यः सत्यपाशपरिवीतपितुर्निदेशं ।
स्त्रैणस्य चापि शिरसा जगृहे सभार्यः ॥
राज्यं श्रियं प्रणयिनः सुहृदो निवासं ।
त्यक्त्वा ययौ वनमसूनिव मुक्तसङ्गः ॥ ८ ॥
इसके बाद पिताके वचनको सत्य करनेके लिये उन्होंने वनवास स्वीकार किया। यद्यपि महाराज दशरथने अपनी पत्नीके अधीन होकर ही उसे वैसा वचन दिया था, फिर भी वे सत्यके बन्धनमें बँध गये थे। इसलिये भगवानने अपने पिताकी आज्ञा शिरोधार्य की। उन्होंने प्राणोंके समान प्यारे राज्य, लक्ष्मी, प्रेमी, हितैषी, मित्र और महलोंको वैसे ही छोड़कर अपनी पत्नीके साथ यात्रा की, जैसे मुक्तसंग योगी प्राणोंको छोड़ देता है ।।८।।
रक्षःस्वसुर्व्यकृत रूपमशुद्धबुद्धेः ।
तस्याः खरत्रिशिरदूषणमुख्यबन्धून् ॥
जघ्ने चतुर्दशसहस्रमपारणीय ।
कोदण्डपाणिरटमान उवास कृच्छ्रम् ॥ ९ ॥
वनमें पहुंचकर भगवान्ने राक्षसराज रावणकी बहिन शूर्पणखाको विरूप कर दिया। क्योंकि उसकी बुद्धि बहुत ही कलुषित, कामवासनाके कारण अशुद्ध थी। उसके पक्षपाती खर, दूषण, त्रिशिरा आदि प्रधान-प्रधान भाइयोंको-जो संख्या में चौदह हजार थे—हाथमें महान धनुष लेकर भगावन् श्रीरामने नष्ट कर डाला; और अनेक प्रकारकी कठिनाइयोंसे परिपूर्ण वनमें वे इधरउधर विचरते हुए निवास करते रहे ।।९।।
सीताकथाश्रवणदीपितहृच्छयेन ।
सृष्टं विलोक्य नृपते दशकन्धरेण ॥
जघ्नेऽद्भुतैण वपुषाऽऽश्रमतोऽपकृष्टो ।
मारीचमाशु विशिखेन यथा कमुग्रः ॥ १० ॥
परीक्षित्! जब रावणने सीताजीके रूप, गुण, सौन्दर्य आदिकी बात सुनी तो उसका हृदय कामवासनासे आतुर हो गया। उसने अद्भुत हरिनके वेषमें मारीचको उनकी पर्णकुटीके पास भेजा। वह धीरे-धीरे भगवान्को वहाँसे दूर ले गया। अन्तमें भगवान्ने अपने बाणसे उसे बात-की-बातमें वैसे ही मार डाला, जैसे दक्षप्रजापतिको वीरभद्रने मारा था ।।१०।।
रक्षोऽधमेन वृकवद् विपिनेऽसमक्षं ।
वैदेहराजदुहितर्यपयापितायाम् ॥
भ्रात्रा वने कृपणवत्प्रियया वियुक्तः ।
स्त्रीसङ्गिनां गतिमिति प्रथयंश्चचार ॥ ११ ॥
जब भगवान् श्रीराम जंगलमें दूर निकल गये, तब (लक्ष्मणकी अनुपस्थितिमें) नीच राक्षस रावणने भेड़ियेके समान विदेहनन्दिनी सुकुमारी श्रीसीताजीको हर लिया। तदनन्तर वे अपनी प्राणप्रिया सीताजीसे बिछुड़कर अपने भाई लक्ष्मणके साथ वन-वनमें दीनकी भाँति घूमने लगे। और इस प्रकार उन्होंने यह शिक्षा दी कि ‘जो स्त्रियोंमें आसक्ति रखते हैं, उनकी यही गति होती है’ ।।११।।
दग्ध्वाऽऽत्मकृत्यहतकृत्यमहन् कबन्धं ।
सख्यं विधाय कपिभिर्दयितागतिं तैः ॥
बुद्ध्वाथ वालिनि हते प्लवगेन्द्रसैन्यैः ।
वेलामगात् स मनुजोऽजभवार्चिताङ्घ्रि ॥ १२ ॥
इसके बाद भगवान्ने उस जटायुका दाह-संस्कार किया, जिसके सारे कर्मबन्धन भगवत्सेवारूप कर्मसे पहले ही भस्म हो चुके थे। फिर भगवान्ने कबन्धका संहार किया और इसके अनन्तर सुग्रीव आदि वानरोंसे मित्रता करके वालिका वध किया, तदनन्तर वानरोंके द्वारा अपनी प्राणप्रियाका पतालगवाया। ब्रह्मा और शंकर जिनके चरणोंकी वन्दना करते हैं वे भगवान् श्रीराम मनुष्यकी-सी लीला करते हुए बंदरोंकी सेनाके साथ समुद्रतटपर पहुँचे ।।१२।।
यद्रोषविभ्रमविवृत्तकटाक्षपात ।
सम्भ्रान्तनक्रमकरो भयगीर्णघोषः ॥
सिन्धुः शिरस्यर्हणं परिगृह्य रूपी ।
पादारविन्दमुपगम्य बभाष एतत् ॥ १३ ॥
(वहाँ उपवास और प्रार्थनासे जब समुद्रपर कोई प्रभाव न पड़ा, तब) भगवान्ने क्रोधकी लीला करते हुए अपनी उग्र एवं टेढ़ी नजर समुद्रपर डाली। उसी समय समुद्रके बड़े-बड़े मगर और मच्छ खलबला उठे। डर जानेके कारण समुद्रकी सारी गर्जना शान्त हो गयी। तब समुद्र शरीरधारी बनकर और अपने सिरपर बहत-सी भेंटें लेकर भगवानके चरणकमलोंकी शरणमें आया और इस प्रकार कहने लगा ।।१३।।
न त्वां वयं जडधियो नु विदाम भूमन् ।
कूटस्थमादिपुरुषं जगतामधीशम् ॥
यत्सत्त्वतः सुरगणा रजसः प्रजेशा ।
मन्योश्च भूतपतयः स भवान्गुणेशः ॥ १४ ॥
‘अनन्त! हम मूर्ख हैं; इसलिये आपके वास्तविक स्वरूपको नहीं जानते। जानें भी कैसे? आप समस्त जगत्के एकमात्र स्वामी, आदिकारण एवं जगत्के समस्त परिवर्तनोंमें एकरस रहनेवाले हैं। आप समस्त गुणोंके स्वामी हैं। इसलिये जब आप सत्त्वगुणको स्वीकार कर लेते हैं तब देवताओंकी, रजोगुणको स्वीकार कर लेते हैं तब प्रजापतियोंकी और तमोगणको स्वीकार कर लेते हैं तब आपके क्रोधसे रुद्रगणकी उत्पत्ति होती है ।।१४।।
कामं प्रयाहि जहि विश्रवसोऽवमेहं ।
त्रैलोक्य रावणमवाप्नुहि वीर पत्नीम् ॥
बध्नीहि सेतुमिह ते यशसो वितत्यै ।
गायन्ति दिग्विजयिनो यमुपेत्य भूपाः ॥ १५ ॥
वीरशिरोमणे! आप अपनी इच्छाके अनुसार मुझे पार कर जाइये और त्रिलोकीको रुलानेवाले विश्रवाके कुपूत रावणको मारकर अपनी पत्नीको फिरसे प्राप्त कीजिये। परन्तु आपसे मेरी एक प्रार्थना है। आप यहाँ मुझपर एक पुल बाँध दीजिये। इससे आपके यशका विस्तार होगा और आगे चलकर जब बड़े-बड़े नरपति दिग्विजय करते हुए
यहाँ आयेंगे, तब वे आपके यशका गान करेंगे’ ||१५||
बद्ध्वोदधौ रघुपतिर्विविधाद्रिकूटैः ।
सेतुं कपीन्द्रकरकम्पितभूरुहाङ्गैः ॥
सुग्रीवनीलहनुमत् प्रमुखैरनीकैः ।
लङ्कां विभीषणदृशाविशदग्रदग्धाम् ॥ १६ ॥
भगवान् श्रीरामजीने अनेकानेक पर्वतोंके शिखरोंसे समुद्रपर पुल बाँधा। जब बड़े-बड़े बन्दर अपने हाथोंसे पर्वत उठा-उठाकर लाते थे, तब उनके वृक्ष और बड़ी-बड़ी चट्टानें थर-थर काँपने लगती थीं। इसके बाद विभीषणकी सलाहसे भगवान्ने सुग्रीव, नील, हनूमान् आदि प्रमुख वीरों और वानरीसेनाके साथ लंकामें प्रवेश किया। वह तो श्रीहनूमान्जीके द्वारा पहले ही जलायी जा चुकी थी ।।१६।।
सा वानरेन्द्रबलरुद्धविहारकोष्ठ ।
श्रीद्वारगोपुरसदोवलभीविटङ्का ॥
निर्भज्यमानधिषणध्वजहेमकुम्भ ।
श्रृङ्गाटका गजकुलैर्ह्रदिनीव घूर्णा ॥ १७ ॥
उस समय वानरराजकी सेनाने लंकाके सैर करने और खेलनेके स्थान, अन्नके गोदाम, खजाने, दरवाजे, फाटक, सभाभवन, छज्जे और पक्षियोंके रहनेके स्थानतकको घेर लिया।उन्होंने वहाँकी वेदी, ध्वजाएँ, सोनेके कलश और चौराहे तोड़-फोड़ डाले। उस समय लंका ऐसी मालूम पड़ रही थी, जैसे झुंड-के-झुंड हाथियोंने किसी नदीको मथ डाला हो ।।१७।।
रक्षःपतिस्तदवलोक्य निकुम्भकुम्भ ।
धूम्राक्ष दुर्मुख सुरान्तनरान्तकादीन् ॥
पुत्रं प्रहस्त मतिकाय विकम्पनादीन् ।
सर्वानुगान् समहिनोदथ कुम्भकर्णम् ॥ १८ ॥
यह देखकर राक्षसराज रावणने निकुम्भ, कुम्भ, धूम्राक्ष, दुर्मुख, सुरान्तक, नरान्तक, प्रहस्त, अतिकाय, विकम्पन आदि अपने सब अनुचरों, पुत्र मेघनाद और अन्तमें भाई कुम्भकर्णको भी युद्ध करनेके लिये भेजा ।।१८।।
तां यातुधानपृतनामसिशूलचाप ।
प्रासर्ष्टिशक्तिशरतोमर खड्गदुर्गाम् ॥
सुग्रीवलक्ष्मण मरुत्सुतगन्धमाद ।
नीलाङ्गदर्क्षपनसादिभिः अन्वितोऽगात् ॥ १९ ॥
राक्षसोंकी वह विशाल सेना तलवार, त्रिशूल, धनुष, प्रास, ऋष्टि, शक्ति, बाण, भाले, खड्ग आदि शस्त्र-अस्त्रोंसे सुरक्षित और अत्यन्त दुर्गम थी। भगवान् श्रीरामने सुग्रीव, लक्ष्मण, हनूमान्, गन्ध-मादन, नील, अंगद, जाम्बवान् और पनस आदि वीरोंको अपने साथ लेकर राक्षसोंकी सेनाका सामना किया ।।१९।।
तेऽनीकपा रघुपतेरभिपत्य सर्वे ।
द्वन्द्वं वरूथमिभपत्तिरथाश्वयोधैः ॥
जघ्नुर्द्रुमैः गिरिगदेषुभिरङ्गदाद्याः ।
सीताभिमर्षहतमङ्गल रावणेशान् ॥ २० ॥
रघुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीरामके अंगद आदि सब सेनापति राक्षसोंकी चतुरंगिणी सेना-हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदलोंके साथ द्वन्द्वयुद्धकी रीतिसे भिड़ गये और राक्षसोंको वृक्ष, पर्वतशिखर, गदा और बाणोंसे मारने लगे। उनका मारा जाना तो स्वाभाविक ही था। क्योंकि वे उसी रावणके अनुचर थे, जिसका मंगल श्रीसीताजीको स्पर्श करनेके कारण पहले ही नष्ट हो चुका था ।।२०।।
रक्षःपतिः स्वबलनष्टिमवेक्ष्य रुष्ट ।
आरुह्य यानकमथाभिससार रामम् ॥
स्वःस्यन्दने द्युमति मातलिनोपनीते ।
विभ्राजमानमहनन्निशितैः क्षुरप्रैः ॥ २१ ॥
जब राक्षसराज रावणने देखा कि मेरी सेनाका तो नाश हुआ जा रहा है, तब वह क्रोधमें भरकर पुष्पक विमानपर आरूढ़ हो भगवान् श्रीरामके सामने आया। उस समय इन्द्रका सारथि मातलि बड़ा ही तेजस्वी दिव्य रथ लेकर आया और उसपर भगवान् श्रीरामजी विराजमान हुए। रावण अपने तीखे बाणोंसे उनपर प्रहार करने लगा ।।२१।।
रामस्तमाह पुरुषादपुरीष यन्नः ।
कान्तासमक्षमसतापहृता श्ववत् ते ॥
त्यक्तत्रपस्य फलमद्य जुगुप्सितस्य ।
यच्छामि काल इव कर्तुरलंघ्यवीर्यः ॥ २२ ॥
भगवान् श्रीरामजीने रावणसे कहा-‘नीच राक्षस! तुम कुत्तेकी तरह हमारी अनुपस्थितिमें हमारी प्राणप्रिया पत्नीको हर लाये! तुमने दुष्टताकी हद कर दी! तुम्हारे-जैसा निर्लज्ज तथा निन्दनीय और कौन होगा। जैसे कालको कोई टाल नहीं सकता–कर्तापनके अभिमानीको वह फल दिये बिना रह नहीं सकता, वैसे ही आज मैं तुम्हें तुम्हारी करनीका फल चखाता हूँ’ ।।२२।।
एवं क्षिपन्धनुषि संधितमुत्ससर्ज ।
बाणं स वज्रमिव तद्हृदयं बिभेद ॥
सोऽसृग् वमन् दशमुखैर्न्यपतद् विमानाद् ।
हाहेति जल्पति जने सुकृतीव रिक्तः ॥ २३ ॥
इस प्रकार रावणको फटकारते हुए भगवान् श्रीरामने अपने धनुषपर चढ़ाया हुआ बाण उसपर छोड़ा। उस बाणने वज्रके समान उसके हृदयको विदीर्ण कर दिया। वह अपने दसों मुखोंसे खून उगलता हुआ विमानसे गिर पड़ा-ठीक वैसे ही, जैसे पुण्यात्मालोग भोग समाप्त होनेपर स्वर्गसे गिर पड़ते हैं। उस समय उसके पुरजन-परिजन ‘हाय-हाय’ करके चिल्लाने लगे ।।२३।।
(अनुष्टुप्)
ततो निष्क्रम्य लंकाया यातुधान्यः सहस्रशः ।
मन्दोदर्या समं तस्मिन् प्ररुदन्त्य उपाद्रवन् ॥ २४ ॥
तदनन्तर हजारों राक्षसियाँ मन्दोदरीके साथ रोती हुई लंकासे निकल पड़ी और रणभूमिमें आयीं ||२४||
स्वान् स्वान् बन्धून् परिष्वज्य लक्ष्मणेषुभिरर्दितान् ।
रुरुदुः सुस्वरं दीना घ्नन्त्य आत्मानमात्मना ॥ २५ ॥
उन्होंने देखा कि उनके स्वजन-सम्बन्धी लक्ष्मणजीके बाणोंसे छिन्न-भिन्न होकर पड़े हुए हैं। वे अपने हाथों अपनी छाती पीट-पीटकर और अपने सगे-सम्बन्धियोंको हृदयसे लगा-लगाकर ऊँचे स्वरसे विलाप करने लगीं ।।२५।।
हा हताः स्म वयं नाथ लोकरावण रावण ।
कं यायाच्छरणं लंका त्वद्विहीना परार्दिता ॥ २६ ॥
हाय-हाय! स्वामी! आज हम सब बेमौत मारी गयीं। एक दिन वह था, जब आपके भयसे समस्त लोकोंमें त्राहि-त्राहि मच जाती थी। आज वह दिन आ पहुँचा कि आपके न रहनेसे हमारे शत्रु लंकाकी दुर्दशा कर रहे हैं और यह प्रश्न उठ रहा है कि अब लंका किसके अधीन रहेगी ||२६||
न वै वेद महाभाग भवान् कामवशं गतः ।
तेजोऽनुभावं सीताया येन नीतो दशामिमाम् ॥ २७ ॥
आप सब प्रकारसे सम्पन्न थे, किसी भी बातकी कमी न थी। परन्तु आप कामके वश हो गये और यह नहीं सोचा कि सीताजी कितनी तेजस्विनी हैं और उनका कितना प्रभाव है। आपकी यही भूल आपकी इस दुर्दशाका कारण बन गयी ।।२७।।
कृतैषा विधवा लंका वयं च कुलनन्दन ।
देहः कृतोऽन्नं गृध्राणां आत्मा नरकहेतवे ॥ २८ ॥
कभी आपके कामोंसे हम सब और समस्त राक्षसवंश आनन्दित होता था और आज हम सब तथा यह सारी लंका नगरी विधवा हो गयी। आपका वह शरीर, जिसके लिये आपने सब कुछ कर डाला, आज गीधोंका आहार बन रहा है और अपने आत्माको आपने नरकका अधिकारी बना डाला। यह सब आपकी ही नासमझी और कामुकताका फल है ।।२८।।
श्रीशुक उवाच ।
स्वानां विभीषणश्चक्रे कोसलेन्द्रानुमोदितः ।
पितृमेधविधानेन यदुक्तं सांपरायिकम् ॥ २९ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! कोसलाधीश भगवान श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञासे विभीषणने अपने स्वजन-सम्बन्धियोंका पितृयज्ञकी विधिसे शास्त्रके अनुसार अन्त्येष्टिकर्म किया ।।२९।।
ततो ददर्श भगवान् अशोकवनिकाश्रमे ।
क्षामां स्वविरहव्याधिं शिंशपामूलमास्थिताम् ॥ ३० ॥
इसके बाद भगवान् श्रीरामने अशोक-वाटिकाके आश्रममें अशोक वृक्षके नीचे बैठी हई श्रीसीताजीको देखा। वे उन्हींके विरहकी व्याधिसे पीडित एवं अत्यन्त दुर्बल हो रही थीं ||३०||
रामः प्रियतमां भार्यां दीनां वीक्ष्यान्वकंपत ।
आत्मसंदर्शनाह्लाद विकसन् मुखपंकजाम् ॥ ३१ ॥
अपनी प्राणप्रिया अर्धांगिनी श्रीसीताजीको अत्यन्त दीन अवस्थामें देखकर श्रीरामका हृदय प्रेम और कपासे भर आया। इधर भगवान्का दर्शन पाकर सीताजीका हृदय प्रेम और आनन्दसे परिपूर्ण हो गया, उनका मुखकमल खिल उठा ||३१।।
आरोप्यारुरुहे यानं भ्रातृभ्यां हनुमद्युतः ।
विभीषणाय भगवान् दत्त्वा रक्षोगणेशताम् ॥ ३२ ॥
लंकामायुश्च कल्पान्तं ययौ चीर्णव्रतः पुरीम् ।
अवकीर्यमाणः कुसुमैः लोकपालार्पितैः पथि ॥ ३३ ॥
भगवान्ने विभीषणको राक्षसोंका स्वामित्व, लंकापुरीका राज्य और एक कल्पकी आयु दी और इसके बाद पहले सीताजीको विमानपर बैठाकर अपने दोनों भाई लक्ष्मण तथा सुग्रीव एवं सेवक हनुमान्जीके साथ स्वयं भी विमानपर सवार हुए। इस प्रकार चौदह वर्षका व्रत पूरा हो जानेपर उन्होंने अपने नगरकी यात्रा की। उस समय मार्गमें ब्रह्मा आदि लोकपालगण उनपर बड़े प्रेमसे पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे ।।३२-३३।।
उपगीयमानचरितः शतधृत्यादिभिर्मुदा ।
गोमूत्रयावकं श्रुत्वा भ्रातरं वल्कलाम्बरम् ॥ ३४ ॥
महाकारुणिकोऽतप्यत् जटिलं स्थण्डिलेशयम् ।
भरतः प्राप्तमाकर्ण्य पौरामात्यपुरोहितैः ॥ ३५ ॥
पादुके शिरसि न्यस्य रामं प्रत्युद्यतोऽग्रजम् ।
नन्दिग्रामात् स्वशिबिराद् गीतवादित्रनिःस्वनैः ॥ ३६ ॥
ब्रह्मघोषेण च मुहुः पठद्भिः ब्रह्मवादिभिः ।
स्वर्णकक्षपताकाभिः हैमैश्चित्रध्वजै रथैः ॥ ३७ ॥
सदश्वै रुक्मसन्नाहैः भटैः पुरटवर्मभिः ।
श्रेणीभिर्वारमुख्याभिः भृत्यैश्चैव पदानुगैः ॥ ३८ ॥
पारमेष्ठ्यान्युपादाय पण्यान्युच्चावचानि च ।
पादयोर्न्यपतत् प्रेम्णा प्रक्लिन्नहृदयेक्षणः ॥ ३९ ॥
इधर तो ब्रह्मा आदि बड़े आनन्दसे भगवान्की लीलाओंका गान कर रहे थे और उधर जब भगवान्को यह मालूम हुआ कि भरतजी केवल गोमूत्रमें पकाया हुआ जौका दलिया खाते हैं, वल्कल पहनते हैं और पृथ्वीपर डाभ बिछाकर सोते हैं एवं उन्होंने जटाएँ बढ़ा रखी हैं, तब वे बहुत दुःखी हुए। उनकी दशाका स्मरण कर परम करुणाशील भगवान्का हृदय भर आया। जब भरतको मालूम हआ कि मेरे बड़े भाई भगवान् श्रीरामजी आ रहे हैं, तब वे पुरवासी, मन्त्री और पुरोहितोंको साथ लेकर एवं भगवान्की पादुकाएँ सिरपर रखकर उनकी अगवानीके लिये चले। जब भरतजी अपने रहनेके स्थान नन्दिग्रामसे चले, तब लोग उनके साथ-साथ मंगलगान करते, बाजे बजाते चलने लगे। वेदवादी ब्राह्मण बार-बार वेदमन्त्रोंका उच्चारण करने लगे और उसकी ध्वनि चारों ओर गूंजने लगी। सुनहरी कामदार पताकाएँ फहराने लगीं। सोनेसे मढ़े हुए तथा रंग-बिरंगी ध्वजाओंसे सजे हुए रथ, सुनहले साजसे सजाये हुए सुन्दर घोड़े तथा सोनेके कवच पहने हुए सैनिक उनके साथ-साथ चलने लगे। सेठ-साहूकार, श्रेष्ठ वारांगनाएँ, पैदल चलनेवाले सेवक और महाराजाओंके योग्य छोटी-बड़ी सभी वस्तुएँ उनके साथ चल रही थीं। भगवान्को देखते ही प्रेमके उद्रेकसे भरतजीका हृदय गदगद हो गया, नेत्रोंमें आँसू छलक आये, वे भगवानके चरणोंपर गिर पड़े ||३४-३९||
पादुके न्यस्य पुरतः प्राञ्जलिर्बाष्पलोचनः ।
तमाश्लिष्य चिरं दोर्भ्यां स्नापयन् नेत्रजैर्जलैः ॥ ४० ॥
उन्होंने प्रभुके सामने उनकी पादुकाएँ रख दीं और हाथ जोड़कर खड़े हो गये। नेत्रोंसे आँसूकी धारा बहती जा रही थी। भगवान्ने अपने दोनों हाथोंसे पकड़कर बहुत देरतक भरतजीको हृदयसे लगाये रखा। भगवानके नेत्रजलसे भरतजीका स्नान हो गया ||४०||
रामो लक्ष्मणसीताभ्यां विप्रेभ्यो येऽर्हसत्तमाः ।
तेभ्यः स्वयं नमश्चक्रे प्रजाभिश्च नमस्कृतः ॥ ४१ ॥
इसके बाद सीताजी और लक्ष्मणजीके साथ भगवान श्रीरामजीने ब्राह्मण और पूजनीय गुरुजनोंको नमस्कार किया तथा सारी प्रजाने बड़े प्रेमसे सिर झुकाकर भगवान्के चरणोंमें प्रणाम किया ।।४१।।
धुन्वन्त उत्तरासङ्गान् पतिं वीक्ष्य चिरागतम् ।
उत्तराः कोसला माल्यैः किरन्तो ननृतुर्मुदा ॥ ४२ ॥
उस समय उत्तरकोसल देशकी रहनेवाली समस्त प्रजा अपने स्वामी । भगवान्को बहुत दिनोंके बाद आये देख अपने दुपट्टे हिला-हिलाकर पुष्पोंकी वर्षा करती हई
आनन्दसे नाचने लगी ।।४२।।
पादुके भरतोऽगृह्णात् चामरव्यजनोत्तमे ।
विभीषणः ससुग्रीवः श्वेतच्छत्रं मरुत्सुतः ॥ ४३ ॥
भरतजीने भगवान्की पादुकाएँ लीं, विभीषणने श्रेष्ठ चँवर, सुग्रीवने पंखा और श्रीहनुमान्जीने श्वेत छत्र ग्रहण किया ।।४३।।
धनुर्निषङ्गान् शत्रुघ्नः सीता तीर्थकमण्डलुम् ।
अबिभ्रदङ्गदः खड्गं हैमं चर्मर्क्षराण् नृप ॥ ४४ ॥
परीक्षित्! शत्रुघ्नजीने धनुष और तरकस, सीताजीने तीर्थेके जलसे भरा कमण्डलु, अंगदने सोनेका खड्ग और जाम्बवान्ने ढाल ले ली ।।४४।।
पुष्पकस्थोऽन्वितः स्त्रीभिः स्तूयमानश्च वन्दिभिः ।
विरेजे भगवान् राजन् ग्रहैश्चन्द्र इवोदितः ॥ ४५ ॥
इन लोगोंके साथ भगवान् पुष्पक विमानपर विराजमान हो गये, चारों तरफ यथास्थान स्त्रियाँ बैठ गयीं, वन्दीजन स्तुति करने लगे। उस समय पुष्पक विमानपर भगवान् श्रीरामकी ऐसी शोभा हुई, मानो ग्रहोंके साथ चन्द्रमा उदय हो रहे हों ।।४५।।
भ्रात्राभिर्नन्दितः सोऽपि सोत्सवां प्राविशत् पुरीम् ।
प्रविश्य राजभवनं गुरुपत्नीः स्वमातरम् ॥ ४६ ॥
गुरून् वयस्यावरजान् पूजितः प्रत्यपूजयत् ।
वैदेही लक्ष्मणश्चैव यथावत् समुपेयतुः ॥ ४७ ॥
इस प्रकार भगवान्ने भाइयोंका अभिनन्दन स्वीकार करके उनके साथ अयोध्यापुरीमें प्रवेश किया। उस समय वह पुरी आनन्दोत्सवसे परिपूर्ण हो रही थी। राजमहलमें प्रवेश करके उन्होंने अपनी माता कौसल्या, अन्य माताओं, गुरुजनों, बराबरके मित्रों और छोटोंका यथायोग्य सम्मान किया तथा उनके द्वारा किया हुआ सम्मान स्वीकार किया। श्रीसीताजी और लक्ष्मणजीने भी भगवान के साथ-साथ सबके प्रति यथायोग्य व्यवहार किया ।।४६-४७।।
पुत्रान् स्वमातरस्तास्तु प्राणांस्तन्व इवोत्थिताः ।
आरोप्याङ्केऽभिषिञ्चन्त्यो बाष्पौघैर्विजहुः शुचः ॥ ४८ ॥
उस समय जैसे मृतक शरीरमें प्राणोंका संचार हो जाय, वैसे ही माताएँ अपने पुत्रोंके आगमनसे हर्षित हो उठीं। उन्होंने उनको अपनी गोदमें बैठा लिया और अपने आँससे उनका अभिषेक किया। उस समय उनका सारा शोक मिट गया ।।४८।।
जटा निर्मुच्य विधिवत् कुलवृद्धैः समं गुरुः ।
अभ्यषिञ्चद् यथैवेन्द्रं चतुःसिन्धुजलादिभिः ॥ ४९ ॥
इसके बाद वसिष्ठजीने दूसरे गुरुजनोंके साथ विधि-पूर्वक भगवानकी जटा उतरवायी और बहस्पतिने जैसे इन्द्रका अभिषेक किया था, वैसे ही चारों समुद्रोंके जल आदिसे उनका अभिषेक किया ।।४९।।
एवं कृतशिरःस्नानः सुवासाः स्रग्व्यलंकृतः ।
स्वलंकृतैः सुवासोभिः भ्रातृभिर्भार्यया बभौ ॥ ५० ॥
इस प्रकार सिरसे स्नान करके भगवान् श्रीरामने सुन्दर वस्त्र, पुष्पमालाएँ और अलंकार धारण किये। सभी भाइयों और श्रीजानकीजीने भी सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और अलंकार धारण किये। उनके साथ भगवान् श्रीरामजी अत्यन्त शोभायमान हुए ।।५०||
अग्रहीदासनं भ्रात्रा प्रणिपत्य प्रसादितः ।
प्रजाः स्वधर्मनिरता वर्णाश्रमगुणान्विताः ।
जुगोप पितृवद् रामो मेनिरे पितरं च तम् ॥ ५१ ॥
भरतजीने उनके चरणोंमें गिरकर उन्हें प्रसन्न किया और उनके आग्रह करनेपर भगवान श्रीरामने राजसिंहासन स्वीकार किया। इसके बाद वे अपने-अपने धर्ममें तत्पर तथा वर्णाश्रमके आचारको निभानेवाली प्रजाका पिताके समान पालन करने लगे। उनकी प्रजा भी उन्हें अपना पिता ही मानती थी ।।५१।।
त्रेतायां वर्तमानायां कालः कृतसमोऽभवत् ।
रामे राजनि धर्मज्ञे सर्वभूतसुखावहे ॥ ५२ ॥
परीक्षित्! जब समस्त प्राणियोंको सुख देनेवाले परम धर्मज्ञ भगवान् श्रीराम राजा हुए तब था तो त्रेतायुग, परन्तु मालूम होता था मानो सत्ययुग ही है ।।५२।।
वनानि नद्यो गिरयो वर्षाणि द्वीपसिन्धवः ।
सर्वे कामदुघा आसन् प्रजानां भरतर्षभ ॥ ५३ ॥
परीक्षित्! उस समय वन, नदी, पर्वत, वर्ष, द्वीप और समुद्र-सब-के-सब प्रजाके लिये कामधेनुके समान समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले बन रहे थे ।।५३।।
नाधिव्याधिजराग्लानि दुःखशोकभयक्लमाः ।
मृत्युश्च अनिच्छतां नासीद् रामे राजन्यधोक्षजे ॥ ५४ ॥
इन्द्रियातीत भगवान् श्रीरामके राज्य करतेसमय किसीको मानसिक चिन्ता या शारीरिक रोग नहीं होते थे। बुढ़ापा, दुर्बलता, दुःख, शोक, भय और थकावट नाममात्रके लिये भी नहीं थे। यहाँतक कि जो मरना नहीं चाहते थे, उनकी मृत्यु भी नहीं होती थी ।।५४।।
एकपत्नीव्रतधरो राजर्षिचरितः शुचिः ।
स्वधर्मं गृहमेधीयं शिक्षयन् स्वयमाचरत् ॥ ५५ ॥
भगवान् श्रीरामने एकपत्नीका व्रत धारण कर रखा था, उनके चरित्र अत्यन्त पवित्र एवं राजर्षियोंके-से थे। वे गृहस्थोचित स्वधर्मकी शिक्षा देनेके लिये स्वयं उस धर्मका आचरण करते थे ।।५५||
प्रेम्णानुवृत्त्या शीलेन प्रश्रयावनता सती ।
भिया ह्रिया च भावज्ञा भर्तुः सीताहरन्मनः ॥ ५६ ॥
सती-शिरोमणि सीताजी अपने पतिके हृदयका भाव जानती रहतीं। वे प्रेमसे, सेवासे, शीलसे, अत्यन्त विनयसे तथा अपनी बुद्धि और लज्जा आदि गणोंसे अपने पति भगवान् श्रीरामजीका चित्त चुराती रहती थीं ।।५६।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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