श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 9 अध्याय 14
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः ९/अध्यायः १४
चंद्रवंशवर्णनं, बुधस्य जन्म, तस्मान्मनुपुत्र्यामिलायां जातस्य पुरूरवस उपाख्यानं च –
श्रीशुक उवाच ।
अथातः श्रूयतां राजन् वंशः सोमस्य पावनः ।
यस्मिन्नैलादयो भूपाः कीर्त्यन्ते पुण्यकीर्तयः ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! अब मैं तुम्हें चन्द्रमाके पावन वंशका वर्णन सुनाता हूँ। इस वंशमें पुरूरवा आदि बड़े-बड़े पवित्रकीर्ति राजाओंका कीर्तन किया जाता है ।।१।।
सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रद सरोरुहात् ।
जातस्यासीत् सुतो धातुः अत्रिः पितृसमो गुणैः ॥ २ ॥
सहस्रों सिरवाले विराट पुरुष नारायणके नाभि-सरोवरके कमलसे ब्रह्माजीकी उत्पत्ति हुई। ब्रह्माजीके पुत्र हुए अत्रि। वे अपने गुणोंके कारण ब्रह्माजीके समान ही थे ।।२।।
तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल ।
विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥ ३ ॥
उन्हीं अत्रिके नेत्रोंसे अमृतमय चन्द्रमाका जन्म हुआ। ब्रह्माजीने चन्द्रमाको ब्राह्मण, ओषधि और नक्षत्रोंका अधिपति बना दिया ।।३।।
सोऽयजद् राजसूयेन विजित्य भुवनत्रयम् ।
पत्नीं बृहस्पतेर्दर्पात् तारां नामाहरद् बलात् ॥ ४ ॥
उन्होंने तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त की और राजसूय यज्ञ किया। इससे उनका घमंड बढ़ गया और उन्होंने बलपूर्वक बृहस्पतिकी पत्नी ताराको हर लिया ।।४।।
यदा स देवगुरुणा याचितोऽभीक्ष्णशो मदात् ।
नात्यजत् तत्कृते जज्ञे सुरदानवविग्रहः ॥ ५ ॥
देवगुरु बृहस्पतिने अपनी पत्नीको लौटा देनेके लिये उनसे बार-बार याचना की, परन्तु वे इतने मतवाले हो गये थे कि उन्होंने किसी प्रकार उनकी पत्नीको नहीं लौटाया। ऐसी परिस्थितिमें उसके लिये देवता और दानवमें घोर संग्राम छिड़ गया ||५||
शुक्रो बृहस्पतेर्द्वेषाद् अग्रहीत् सासुरोडुपम् ।
हरो गुरुसुतं स्नेहात् सर्वभूतगणावृतः ॥ ६ ॥
शुक्राचार्यजीने बृहस्पतिजीके द्वेषसे असुरोंके साथ चन्द्रमाका पक्ष ले लिया और महादेवजीने स्नेहवश समस्त भूतगणोंके साथ अपने विद्यागुरु अंगिराजीके पुत्र बृहस्पतिका पक्ष लिया ।।६।।
सर्वदेवगणोपेतो महेन्द्रो गुरुमन्वयात् ।
सुरासुरविनाशोऽभूत् समरस्तारकामयः ॥ ७ ॥
देवराज इन्द्रने भी समस्त देवताओंके साथ अपने गुरु बृहस्पतिजीका ही पक्ष लिया। इस प्रकार ताराके निमित्तसे देवता और असुरोंका संहार करनेवाला घोर संग्राम हुआ ।।७।।
निवेदितोऽथाङ्गिरसा सोमं निर्भर्त्स्य विश्वकृत् ।
तारां स्वभर्त्रे प्रायच्छद् अन्तर्वत्नीमवैत् पतिः ॥ ८ ॥
तदनन्तर अंगिरा ऋषिने ब्रह्माजीके पास जाकर यह युद्ध बंद करानेकी प्रार्थना की। इसपर ब्रह्माजीने चन्द्रमाको बहुत डाँटा-फटकारा और ताराको उसके पति बहस्पतिजीके – हवाले कर दिया। जब बृहस्पतिजीको यह मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने कहा- ||८||
त्यज त्यजाशु दुष्प्रज्ञे मत्क्षेत्रात् आहितं परैः ।
नाहं त्वां भस्मसात्कुर्यां स्त्रियं सान्तानिकः सति ॥ ९ ॥
‘दुष्टे! मेरे क्षेत्रमें यह तो किसी दूसरेका गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरन्त त्याग दे। डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं। क्योंकि एक तो तू स्त्री है और दूसरे मुझे भी सन्तानकी कामना है। देवी होनेके कारण तू निर्दोष भी है ही’ ||९||
तत्याज व्रीडिता तारा कुमारं कनकप्रभम् ।
स्पृहामाङ्गिरसश्चक्रे कुमारे सोम एव च ॥ १० ॥
अपने पतिकी बात सुनकर तारा अत्यन्त लज्जित हई। उसने सोनेके समान चमकता हआ एक बालक अपने
गर्भसे अलग कर दिया। उस बालकको देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गये और चाहने लगे कि यह हमें मिल जाय ||१०||
ममायं न तवेत्युच्चैः तस्मिन् विवदमानयोः ।
पप्रच्छुः ऋषयो देवा नैवोचे व्रीडिता तु सा ॥ ११ ॥
अब वे एक-दूसरेसे इस प्रकार जोर-जोरसे झगड़ा करने लगे कि ‘यह तुम्हारा नहीं, मेरा है।’ ऋषियों और देवताओंने तारासे पूछा कि ‘यह किसका लड़का है।’ परन्तु ताराने लज्जावश कोई उत्तर न दिया ||११||
कुमारो मातरं प्राह कुपितोऽलीकलज्जया ।
किं न वोचस्यसद्वृत्ते आत्मावद्यं वदाशु मे ॥ १२ ॥
बालकने अपनी माताकी झूठी लज्जासे क्रोधित होकर कहा-‘दुष्टे! तू बतलाती क्यों नहीं? तू अपना ककर्म मुझे शीघ्र-से-शीघ्र बतला दे’ ||१२||
ब्रह्मा तां रह आहूय समप्राक्षीच्च सान्त्वयन् ।
सोमस्येत्याह शनकैः सोमस्तं तावदग्रहीत् ॥ १३ ॥
उसी समय ब्रह्माजीने ताराको एकान्तमें बुलाकर बहुत कुछ समझा-बुझाकर पूछा। तब ताराने धीरेसे कहा कि ‘चन्द्रमाका।’ इसलिये चन्द्रमाने उस बालकको ले लिया ।।१३।।
तस्यात्मयोनिरकृत बुध इत्यभिधां नृप ।
बुद्ध्या गम्भीरया येन पुत्रेणापोडुराण्मुदम् ॥ १४ ॥
परीक्षित्! ब्रह्माजीने उस बालकका नाम रखा ‘बुध’, क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमाको बहुत आनन्द हुआ ।।१४।।
ततः पुरूरवा जज्ञे इलायां य उदाहृतः ।
तस्य रूपगुणौदार्य शीलद्रविणविक्रमान् ॥ १५ ॥
श्रुत्वोर्वशीन्द्रभवने गीयमानान् सुरर्षिणा ।
तदन्तिकमुपेयाय देवी स्मरशरार्दिता ॥ १६ ॥
परीक्षित्! बुधके द्वारा इलाके गर्भसे पुरूरवाका जन्म हुआ। इसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ। एक दिन इन्द्रकी सभामें देवर्षि नारदजी पुरूरवाके रूप, गुण, उदारता, शीलस्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रमका गान कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशीके हृदयमें कामभावका उदय हो आया और उससे पीड़ित होकर वह देवांगना पुरूरवाके पास चली आयी ।।१५-१६।।
मित्रावरुणयोः शापाद् आपन्ना नरलोकताम् ।
निशम्य पुरुषश्रेष्ठं कन्दर्पमिव रूपिणम् ।
धृतिं विष्टभ्य ललना उपतस्थे तदन्तिके ॥ १७ ॥
यद्यपि उर्वशीको मित्रावरुणके शापसे ही मृत्युलोकमें आना पड़ा था, फिर भी पुरुषशिरोमणि पुरूरवा मूर्तिमान् कामदेवके समान सुन्दर हैं—यह सुनकर सुर-सुन्दरी उर्वशीने धैर्य धारण किया और वह उनके पास चली आयी ।।१७।।
स तां विलोक्य नृपतिः हर्षेणोत्फुल्ललोचनः ।
उवाच श्लक्ष्णया वाचा देवीं हृष्टतनूरुहः ॥ १८ ॥
देवांगना उर्वशीको देखकर राजा पुरूरवाके नेत्र हर्षसे खिल उठे। उनके शरीरमें रोमांच हो आया। उन्होंने बड़ी मीठी वाणीसे कहा- ||१८।।
श्रीराजोवाच ।
स्वागतं ते वरारोहे आस्यतां करवाम किम् ।
संरमस्व मया साकं रतिर्नौ शाश्वतीः समाः ॥ १९ ॥
राजा पुरूरवाने कहा-सुन्दरी! तुम्हारा स्वागत है। बैठो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ? तम मेरे साथ विहार करो और हम दोनोंका यह विहार अनन्त कालतक चलता रहे ।।१९।।
उर्वश्युवाच ।
कस्यास्त्वयि न सज्जेत मनो दृष्टिश्च सुन्दर ।
यदङ्गान्तरमासाद्य च्यवते ह रिरंसया ॥ २० ॥
उर्वशीने कहा-‘राजन्! आप सौन्दर्यके मूर्तिमान् स्वरूप हैं। भला, ऐसी कौन कामिनी है जिसकी दृष्टि और मन आपमें आसक्त न हो जाय? क्योंकि आपके समीप आकर मेरा मन रमणकी इच्छासे अपना धैर्य खो बैठा है ।।२०।।
एतौ उरणकौ राजन् न्यासौ रक्षस्व मानद ।
संरंस्ये भवता साकं श्लाघ्यः स्त्रीणां वरः स्मृतः ॥ २१ ॥
राजन्! जो पुरुष रूप-गुण आदिके कारण प्रशंसनीय होता है, वही स्त्रियोंको अभीष्ट होता है। अतः मैं आपके साथ अवश्य विहार करूँगी। परन्तु मेरे प्रेमी महाराज! मेरी एक शर्तहै। मैं आपको धरोहरके रूपमें भेड़के दो बच्चे सौंपती हूँ। आप इनकी रक्षा करना ।।२१।।
घृतं मे वीर भक्ष्यं स्यात् नेक्षे त्वान्यत्र मैथुनात् ।
विवाससं तत् तथेति प्रतिपेदे महामनाः ॥ २२ ॥
वीरशिरोमणे! मैं केवल घी खाऊँगी और मैथुनके अतिरिक्त और किसी भी समय आपको वस्त्रहीन न देख सकूँगी।’ परम मनस्वी पुरुरवाने ‘ठीक है’—ऐसा कहकर उसकी शर्त स्वीकार कर ली ||२२||
अहो रूपमहो भावो नरलोकविमोहनम् ।
को न सेवेत मनुजो देवीं त्वां स्वयमागताम् ॥ २३ ॥
और फिर उर्वशीसे कहा-‘तुम्हारा यह सौन्दर्य अद्भुत है। तुम्हारा भाव अलौकिक है। यह तो सारी मनुष्यसृष्टिको मोहित करनेवाला है। और देवि! कृपा करके तुम स्वयं यहाँ आयी हो। फिर कौन ऐसा मनुष्य है जो तुम्हारा सेवन न करेगा? ।।२३।।
तया स पुरुषश्रेष्ठो रमयन्त्या यथार्हतः ।
रेमे सुरविहारेषु कामं चैत्ररथादिषु ॥ २४ ॥
परीक्षित्! तब उर्वशी कामशास्त्रोक्त पद्धतिसे पुरुषश्रेष्ठ पुरूरवाके साथ विहार करने लगी। वे भी देवताओंकी विहारस्थली चैत्ररथ, नन्दनवन आदि उपवनोंमें उसके साथ स्वच्छन्द विहार करने लगे ||२४||
रममाणस्तया देव्या पद्मकिञ्जल्क गन्धया ।
तन्मुखामोदमुषितो मुमुदेऽहर्गणान् बहून् ॥ २५ ॥
देवी उर्वशीके शरीरसे कमल-केसरकी-सी सुगन्ध निकला करती थी। उसके साथ राजा पुरूरवाने बहुत वर्षोंतक आनन्द-विहार किया। वे उसके मुखकी सुरभिसे अपनी सुध-बुध खो बैठते थे ||२५||
अपश्यन् उर्वशीं इन्द्रो गन्धर्वान् समचोदयत् ।
उर्वशीरहितं मह्यं आस्थानं नातिशोभते ॥ २६ ॥
इधर जब इन्द्रने उर्वशीको नहीं देखा, तब उन्होंने गन्धर्वोको उसे लानेके लिये भेजा और कहा–’उर्वशीके बिना मुझे यह स्वर्ग फीका जान पड़ता है’ ||२६||
ते उपेत्य महारात्रे तमसि प्रत्युपस्थिते ।
उर्वश्या उरणौ जह्रुः न्यस्तौ राजनि जायया ॥ २७ ॥
वे गन्धर्व आधी रातके समय घोर अन्धकारमें वहाँ गये और उर्वशीके दोनों भेडोंको, जिन्हें उसने राजाके पास धरोहर रखा था, चुराकर चलते बने ।।२७।।
निशम्याक्रन्दितं देवी पुत्रयोः नीयमानयोः ।
हतास्म्यहं कुनाथेन नपुंसा वीरमानिना ॥ २८ ॥
उर्वशीने जब गन्धर्वोके द्वारा ले जाये जाते हुए अपने पुत्रके समान प्यारे भेड़ोंकी ‘बें-बें’ सुनी, तब वह कह उठी कि ‘अरे, इस कायरको अपना स्वामी बनाकर मैं तो मारी गयी। यह नपंसक अपनेको बड़ा वीर मानता है। यह मेरे भेड़ोंको भी न बचा सका ||२८||
यद् विश्रम्भादहं नष्टा हृतापत्या च दस्युभिः ।
यः शेते निशि संत्रस्तो यथा नारी दिवा पुमान् ॥ २९ ॥
इसीपर विश्वास करनेके कारण लुटेरे मेरे बच्चोंको लूटकर लिये जा रहे हैं। मैं तो मर गयी। देखो तो सही, यह दिनमें तो मर्द बनता है और रातमें स्त्रियोंकी तरह डरकर सोया रहता है’ ।।२९।।
इति वाक् सायकैर्बिद्धः प्रतोत्त्रैरिव कुञ्जरः ।
निशि निस्त्रिंशमादाय विवस्त्रोऽभ्यद्रवद् रुषा ॥ ३० ॥
परीक्षित्! जैसे कोई हाथीको अंकुशसे बेध डाले, वैसे ही उर्वशीने अपने वचन-बाणोंसे राजाको बींध दिया। राजा पुरूरवाको बड़ा क्रोध आया और हाथमें तलवार लेकर वस्त्रहीन अवस्थामें ही वे उस ओर दौड़ पड़े ||३०||
ते विसृज्योरणौ तत्र व्यद्योतन्त स्म विद्युतः ।
आदाय मेषावायान्तं नग्नमैक्षत सा पतिम् ॥ ३१ ॥
गन्धर्वो ने उनके झपटते ही भेड़ोंको तो वहीं छोड़ दिया और स्वयं बिजलीकी तरह चमकने लगे। जब राजा पुरूरवा भेड़ोंको लेकर लौटे, तब उर्वशीने उस प्रकाशमें उन्हें वस्त्रहीन अवस्थामें देख लिया। (बस, वह उसी समय उन्हें छोड़कर चली गयी) ||३१।।
ऐलोऽपि शयने जायां अपश्यन् विमना इव ।
तच्चित्तो विह्वलः शोचन् बभ्रामोन्मत्तवन् महीम् ॥ ३२ ॥
परीक्षित! राजा पुरूरवाने जब अपने शयनागारमें अपनी प्रियतमा उर्वशीको नहीं देखा तो वे अनमने हो गये। उनका चित्त उर्वशीमें ही बसा हुआ था। वे उसके लिये शोकसे विह्वल हो गये और उन्मत्तकी भाँति पृथ्वीमें इधर-उधर भटकने लगे ||३२।।
स तां वीक्ष्य कुरुक्षेत्रे सरस्वत्यां च तत्सखीः ।
पञ्च प्रहृष्टवदनाः प्राह सूक्तं पुरूरवाः ॥ ३३ ॥
एक दिन कुरुक्षेत्रमें सरस्वती नदीके तटपर उन्होंने उर्वशी और उसकी पाँच प्रसन्नमुखी सखियोंको देखा और बड़ी मीठी वाणीसे कहा- ||३३||
अहो जाये तिष्ठ तिष्ठ घोरे न त्यक्तुमर्हसि ।
मां त्वमद्याप्यनिर्वृत्य वचांसि कृणवावहै ॥ ३४ ॥
‘प्रिये! तनिक ठहर जाओ। एक बार मेरी बात मान लो। निष्ठुरे! अब आज तो मुझे सुखी किये बिना मत जाओ। क्षणभर ठहरो; आओ हम दोनों कुछ बातें तो कर लें ।।३४।।
सुदेहोऽयं पतत्यत्र देवि दूरं हृतस्त्वया ।
खादन्त्येनं वृका गृध्राः त्वत्प्रसादस्य नास्पदम् ॥ ३५ ॥
देवि! अब इस शरीरपर तुम्हारा कृपा-प्रसाद नहीं रहा, इसीसे तुमने इसे दूर फेंक दिया है। अतः मेरा यह सुन्दर शरीर अभी ढेर हुआ जाता है और तुम्हारे देखतेदेखते इसे भेड़िये और गीध खा जायँगे’ ||३५।।
उर्वश्युवाच ।
मा मृथाः पुरुषोऽसि त्वं मा स्म त्वाद्युर्वृका इमे ।
क्वापि सख्यं न वै स्त्रीणां वृकाणां हृदयं यथा ॥ ३६ ॥
उर्वशीने कहा-राजन्! तुम पुरुष हो। इस प्रकार मत मरो। देखो, सचमुच ये भेड़िये तुम्हें खा न जायँ! स्त्रियोंकी किसीके साथ मित्रता नहीं हुआ करती। स्त्रियोंका हृदय और भेड़ियोंका हृदय बिलकुल एक जैसा होता है ||३६||
स्त्रियो ह्यकरुणाः क्रूरा दुर्मर्षाः प्रियसाहसाः ।
घ्नन्त्यल्पार्थेऽपि विश्रब्धं पतिं भ्रातरमप्युत ॥ ३७ ॥
स्त्रियाँ निर्दय होती हैं। क्रूरता तो उनमें स्वाभाविक ही रहती है। तनिक-सी बातमें चिढ़ जाती हैं और अपने सुखके लिये बड़े-बड़े साहसके काम कर बैठती हैं, थोड़े-से स्वार्थके लिये विश्वास दिलाकर अपने पति और भाईतकको मार डालती हैं ||३७।।
विधायालीकविश्रम्भं अज्ञेषु त्यक्तसौहृदाः ।
नवं नवमभीप्सन्त्यः पुंश्चल्यः स्वैरवृत्तयः ॥ ३८ ॥
इनके हृदयमें सौहार्द तो है ही नहीं। भोले-भाले लोगोंको झूठ-मूठका विश्वास दिलाकर फाँस लेती हैं और नये-नये पुरुषकी चाटसे कुलटा और स्वच्छन्दचारिणी बन जाती हैं ||३८।।
संवत्सरान्ते हि भवान् एकरात्रं मयेश्वरः ।
वस्यत्यपत्यानि च ते भविष्यन्त्यपराणि भोः ॥ ३९ ॥
तो फिर तुम धीरज धरो। तुम राजराजेश्वर हो। घबराओ मत। प्रति एक वर्षके बाद एक रात तुम मेरे साथ रहोगे। तब तुम्हारे और भी सन्तानें होंगी ।।३९।।
अन्तर्वत्नीमुपालक्ष्य देवीं स प्रययौ पुरीम् ।
पुनस्तत्र गतोऽब्दान्ते उर्वशीं वीरमातरम् ॥ ४० ॥
राजा पुरूरवाने देखा कि उर्वशी गर्भवती है, इसलिये वे अपनी राजधानीमें लौट आये। एक वर्षके बाद फिर वहाँ गये। तबतक उर्वशी एक वीर पुत्रकी माता हो चुकी थी ।।४०।।
उपलभ्य मुदा युक्तः समुवास तया निशाम् ।
अथैनमुर्वशी प्राह कृपणं विरहातुरम् ॥ ४१ ॥
उर्वशीके मिलनेसे पुरूरवाको बड़ा सुख मिला और वे एक रात उसीके साथ रहे। प्रातःकाल जब वे विदा होने लगे तब विरहके दुःखसे वे अत्यन्त दीन हो गये। उर्वशीने उनसे कहा – ||४१।।
गन्धर्वान् उपधावेमान् तुभ्यं दास्यन्ति मामिति ।
तस्य संस्तुवतस्तुष्टा अग्निस्थालीं ददुर्नृप ।
उर्वशीं मन्यमानस्तां सोऽबुध्यत चरन् वने ॥ ४२ ॥
‘तुम इन गन्धर्वोकी स्तुति करो, ये चाहें तो तुम्हें मुझे दे सकते हैं। तब राजा पुरूरवाने गन्धर्वोकी स्तुति की। परीक्षित! राजा पुरूरवाकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर गन्धर्वोने उन्हें एक अग्निस्थाली (अग्निस्थापन करनेका पात्र) दी। राजाने समझा यही उर्वशी है, इसलिये उसको हृदयसे लगाकर वे एक वनसे दूसरे वनमें घूमते रहे ।।४२।।
स्थालीं न्यस्य वने गत्वा गृहानाध्यायतो निशि ।
त्रेतायां सम्प्रवृत्तायां मनसि त्रय्यवर्तत ॥ ४३ ॥
जब उन्हें होश हुआ, तब वे स्थालीको वनमें छोड़कर अपने महल में लौट आये एवं रातके समय उर्वशीका ध्यान करते रहे। इस प्रकार जब त्रेतायुगका प्रारम्भ हुआ, तब उनके हृदयमें तीनों वेद प्रकट हुए ।।४३।।
स्थालीस्थानं गतोऽश्वत्थं शमीगर्भं विलक्ष्य सः ।
तेन द्वे अरणी कृत्वा उर्वशीलोककाम्यया ॥ ४४ ॥
उर्वशीं मन्त्रतो ध्यायन् अधरारणिमुत्तराम् ।
आत्मानं उभयोर्मध्ये यत्तत् प्रजननं प्रभुः ॥ ४५ ॥
फिर वे उस स्थानपर गये, जहाँ उन्होंने वह अग्निस्थाली छोड़ी थी। अब उस स्थानपर शमीवक्षके गर्भमें एक पीपलका वृक्ष उग आया था, उसे देखकर उन्होंने उससे दो अरणियाँ (मन्थनकाष्ठ) बनायीं। फिर उन्होंने उर्वशीलोककी कामनासे नीचेकी अरणिको उर्वशी, ऊपरकी अरणिको पुरूरवा और बीचके काष्ठको पुत्ररूपसे चिन्तन करते हुए अग्नि प्रज्वलित करनेवाले मन्त्रोंसे मन्थन किया ।।४४-४५।।
तस्य निर्मन्थनात् जातो जातवेदा विभावसुः ।
त्रय्या स विद्यया राज्ञा पुत्रत्वे कल्पितस्त्रिवृत् ॥ ४६ ॥
उनके मन्थनसे ‘जातवेदा’ नामका अग्नि प्रकट हुआ। राजा पुरूरवाने अग्निदेवताको त्रयीविद्याके द्वारा आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि-इन तीन भागोंमें विभक्त करके पुत्ररूपसे स्वीकार कर लिया ||४६||
तेनायजत यज्ञेशं भगवन्तं अधोक्षजम् ।
उर्वशीलोकमन्विच्छन् सर्वदेवमयं हरिम् ॥ ४७ ॥
फिर उर्वशीलोककी इच्छासे पुरूरवाने उन तीनों अग्नियोंद्वारा सर्वदेवस्वरूप इन्द्रियातीत यज्ञपति भगवान् श्रीहरिका यजन किया ।।४७।।
एक एव पुरा वेदः प्रणवः सर्ववाङ्मयः ।
देवो नारायणो नान्य एकोऽग्निर्वर्ण एव च ॥ ४८ ॥
परीक्षित्! त्रेताके पूर्व सत्ययुगमें एकमात्र प्रणव (ॐकार) ही वेद था। सारे वेद-शास्त्र उसीके अन्तर्भत थे। देवता थे एकमात्र नारायण; और कोई न था। अग्नि भी तीन नहीं, केवल एक था और वर्ण भी केवल एक ‘हंस’ ही था ।।४८।।
पुरूरवस एवासीत् त्वयी त्रेतामुखे नृप ।
अग्निना प्रजया राजा लोकं गान्धर्वमेयिवान् ॥ ४९ ॥
परीक्षित! त्रेताके प्रारम्भमें पुरूरवासे ही वेदत्रयी और अग्नित्रयीका आविर्भाव हुआ। राजा पुरूरवाने अग्निको सन्तानरूपसे स्वीकार करके गन्धर्वलोककी प्राप्ति की ।।४९।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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