श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 9 अध्याय 24
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः ९/अध्यायः २४
श्रीशुक उवाच
तस्यां विदर्भोऽजनयत्पुत्रौ नाम्ना कुशक्रथौ
तृतीयं रोमपादं च विदर्भकुलनन्दनम् १
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! राजा विदर्भकी भोज्या नामक पत्नीसे तीन पुत्र हुए -कुश, क्रथ और रोमपाद। रोमपाद विदर्भवंशमें बहुत ही श्रेष्ठ पुरुष हुए ।।१।।
रोमपादसुतो बभ्रुर्बभ्रोः कृतिरजायत
उशिकस्तत्सुतस्तस्माच्चेदिश्चैद्यादयो नृपाः २
रोमपादका पुत्र बभ्रु, बभ्रुका कृति, कृतिका उशिक और उशिकका चेदि। राजन्! इस चेदिके वंशमें ही दमघोष एवं शिशुपाल आदि हुए ।।२।।
क्रथस्य कुन्तिः पुत्रोऽभूद्वृष्णिस्तस्याथ निर्वृतिः
ततो दशार्हो नाम्नाभूत्तस्य व्योमः सुतस्ततः ३
क्रथका पुत्र हुआ कुन्ति, कुन्तिका धृष्टि, धृष्टिका निर्वृति, निर्वृतिका दशाह और दशाहका व्योम ||३||
जीमूतो विकृतिस्तस्य यस्य भीमरथः सुतः
ततो नवरथः पुत्रो जातो दशरथस्ततः ४
व्योमका जीमूत, जीमूतका विकृति, विकृतिका भीमरथ, भीमरथका नवरथ और नवरथका दशरथ हुआ ||४||
करम्भिः शकुनेः पुत्रो देवरातस्तदात्मजः
देवक्षत्रस्ततस्तस्य मधुः कुरुवशादनुः ५
दशरथसे शकुनि, शकुनिसे करम्भि, करम्भिसे देवरात, देवरातसे देवक्षत्र, देवक्षत्रसे मधु, मधुसे कुरुवश और कुरुवशसे अनु हुए ||५||
पुरुहोत्रस्त्वनोः पुत्रस्तस्यायुः सात्वतस्ततः
भजमानो भजिर्दिव्यो वृष्णिर्देवावृधोऽन्धकः ६
सात्वतस्य सुताः सप्त महाभोजश्च मारिष
भजमानस्य निम्लोचिः किङ्कणो धृष्टिरेव च ७
एकस्यामात्मजाः पत्न्यामन्यस्यां च त्रयः सुताः
शताजिच्च सहस्राजिदयुताजिदिति प्रभो ८
अनुसे पुरुहोत्र, पुरुहोत्रसे आयु और आयुसे सात्वतका जन्म हुआ। परीक्षित्! सात्वतके सात पुत्र हए—भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज। भजमानकी दो पत्नियाँ थीं एकसे तीन पुत्र हुए-निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नीसे भी तीन पुत्र हुएशताजित्, सहस्राजित् और अयुताजित् ।।६-८।।
बभ्रुर्देवावृधसुतस्तयोः श्लोकौ पठन्त्यमू
यथैव शृणुमो दूरात्सम्पश्यामस्तथान्तिकात् ९
देवावृधके पुत्रका नाम था बभ्रु। देवावृध और बभ्रुके सम्बन्धमें यह बात कही जाती है -‘हमने दूरसे जैसा सुन रखा था, अब वैसा ही निकटसे देखते भी हैं ।।९।।
बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृधः समः
पुरुषाः पञ्चषष्टिश्च षट्सहस्राणि चाष्ट च १०
येऽमृतत्वमनुप्राप्ता बभ्रोर्देवावृधादपि
महाभोजोऽतिधर्मात्मा भोजा आसंस्तदन्वये ११
बभ्रु मनुष्योंमें श्रेष्ठ है और देवावृध देवताओंके समान है। इसका कारण यह है कि बभ्रु और देवावृधसे उपदेश लेकर चौदह हजार पैंसठ मनुष्य परम पदको प्राप्त कर चुके हैं।’ सात्वतके पत्रोंमें महाभोज भी बड़ा धर्मात्मा था। उसीके वंशमें भोजवंशी यादव हुए ।।१०-११।।
वृष्णेः सुमित्रः पुत्रोऽभूद्युधाजिच्च परन्तप
शिनिस्तस्यानमित्रश्च निघ्नोऽभूदनमित्रतः १२
परीक्षित्! वृष्णिके दो पुत्र हुए-सुमित्र और युधाजित्। युधाजित्के शिनि और अनमित्र -ये दो पुत्र थे। अनमित्रसे निम्नका जन्म हुआ ।।१२।।
सत्राजितः प्रसेनश्च निघ्नस्याथासतुः सुतौ
अनमित्रसुतो योऽन्यः शिनिस्तस्य च सत्यकः १३
सत्राजित् और प्रसेन नामसे प्रसिद्ध यदुवंशी निम्नके ही पुत्र थे। अनमित्रका एक और पुत्र था, जिसका नाम था शिनि। शिनिसे ही सत्यकका जन्म हुआ ।।१३।।
युयुधानः सात्यकिर्वै जयस्तस्य कुणिस्ततः
युगन्धरोऽनमित्रस्य वृष्णिः पुत्रोऽपरस्ततः १४
श्वफल्कश्चित्ररथश्च गान्दिन्यां च श्वफल्कतः
अक्रूरप्रमुखा आसन्पुत्रा द्वादश विश्रुताः १५
आसङ्गः सारमेयश्च मृदुरो मृदुविद्गिरिः
धर्मवृद्धः सुकर्मा च क्षेत्रोपेक्षोऽरिमर्दनः १६
शत्रुघ्नो गन्धमादश्च प्रतिबाहुश्च द्वादश
तेषां स्वसा सुचाराख्या द्वावक्रूरसुतावपि १७
देववानुपदेवश्च तथा चित्ररथात्मजाः
पृथुर्विदूरथाद्याश्च बहवो वृष्णिनन्दनाः १८
इसी सत्यकके पुत्र युयुधान थे, जो सात्यकिके नामसे प्रसिद्ध हुए। सात्यकिका जय, जयका कुणि और कुणिका पुत्र युगन्धर हुआ। अनमित्रके तीसरे पुत्रका नाम वृष्णि था। वृष्णिके दो पुत्र हुए-वफल्क और चित्ररथ। श्वफल्ककी पत्नीका नाम था गान्दिनी। उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूरकेअतिरिक्त बारह पुत्र उत्पन्न हुए—आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमादन और प्रतिबाहु। इनके एक बहिन भी थी, जिसका नाम था सूचीरा। अकरके दो पुत्र थे—देववान और उपदेव। श्वफल्कके भाई चित्ररथके पथ, विदूरथ आदि बहुत-से पुत्र हुए-जो वृष्णि-वंशियोंमें श्रेष्ठ माने जाते हैं ।।१४-१८।।
कुकुरो भजमानश्च शुचिः कम्बलबर्हिषः
कुकुरस्य सुतो वह्निर्विलोमा तनयस्ततः १९
कपोतरोमा तस्यानुः सखा यस्य च तुम्बुरुः
अन्धकाद्दुन्दुभिस्तस्मादविद्योतः पुनर्वसुः २०
(अरिद्योतः पाठभेदः)
तस्याहुकश्चाहुकी च कन्या चैवाहुकात्मजौ
देवकश्चोग्रसेनश्च चत्वारो देवकात्मजाः २१
सात्वतके पुत्र अन्धकके चार पुत्र हुए-कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि। उनमें कुकुरका पुत्र वह्नि, वहिका विलोमा, विलोमाका कपोतरोमा और कपोतरोमाका अन् हआ। तुम्बुरु गन्धर्वके साथ अनुकी बड़ी मित्रता थी। अनुका पुत्र अन्धक, अन्धकका दुन्दुभि, दुन्दुभिका अरिद्योत, अरिद्योतका पुनर्वसु और पुनर्वसुके आहुक नामका एक पुत्र तथा आहुकी नामकी एक कन्या हुई। आहुकके दो पुत्र हुए-देवक और उग्रसेन। देवकके चार पुत्र हुए ।।१९-२१।।
देववानुपदेवश्च सुदेवो देववर्धनः
तेषां स्वसारः सप्तासन्धृतदेवादयो नृप २२
शान्तिदेवोपदेवा च श्रीदेवा देवरक्षिता
सहदेवा देवकी च वसुदेव उवाह ताः २३
देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं-धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेवजीने इन सबके साथ विवाह किया था ।।२२-२३||
कंसः सुनामा न्यग्रोधः कङ्कः शङ्कुः सुहूस्तथा
राष्ट्रपालोऽथ धृष्टिश्च तुष्टिमानौग्रसेनयः २४
उग्रसेनके नौ लड़के थे-कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुह, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान् ।।२४।।
कंसा कंसवती कङ्का शूरभू राष्टपालिका
उग्रसेनदुहितरो वसुदेवानुजस्त्रियः २५
उग्रसेनके पाँच कन्याएँ भी थीं-कंसा, कंसवती, कंका, शुभ और राष्ट्रपालिका। इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेवजीके छोटे भाइयोंसे हुआ था ।।२५।।
शूरो विदूरथादासीद्भजमानस्तु तत्सुतः
शिनिस्तस्मात्स्वयं भोजो हृदिकस्तत्सुतो मतः २६
चित्ररथके पुत्र विदूरथसे शूर, शूरसे भजमान, भजमानसे शिनि, शिनिसे स्वयम्भोज और स्वयम्भोजसे हृदीक हुए ।।२६।।
देवमीढः शतधनुः कृतवर्मेति तत्सुताः
देवमीढस्य शूरस्य मारिषा नाम पत्न्यभूत् २७
हृदीकसे तीन पुत्र हुए-देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा। देवमीढके पुत्र शूरकी पत्नीका नाम था मारिषा ।।२७।।
तस्यां स जनयामास दश पुत्रानकल्मषान्
वसुदेवं देवभागं देवश्रवसमानकम् २८
सृञ्जयं श्यामकं कङ्कं शमीकं वत्सकं वृकम्
देवदुन्दुभयो नेदुरानका यस्य जन्मनि २९
वसुदेवं हरेः स्थानं वदन्त्यानकदुन्दुभिम्
पृथा च श्रुतदेवा च श्रुतकीर्तिः श्रुतश्रवाः ३०
राजाधिदेवी चैतेषां भगिन्यः पञ्च कन्यकाः
कुन्तेः सख्युः पिता शूरो ह्यपुत्रस्य पृथामदात् ३१
उन्होंने उसके गर्भसे दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये-वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, संजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक। ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेवजीके जन्मके समय देवताओंके नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनकदुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्णके पिता हुए। वसुदेव आदिकी पाँच बहनें भी थीं-पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी। वसुदेवके पिता शूरसेनके एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोजके कोई सन्तान न थी। इसलिये शूरसेनने उन्हें पृथा नामकी अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी ।।२८-३१।।
साप दुर्वाससो विद्यां देवहूतीं प्रतोषितात्
तस्या वीर्यपरीक्षार्थमाजुहाव रविं शुचिः ३२
पृथाने दुर्वासा ऋषिको प्रसन्न करके उनसे देवताओंको बुलानेकी विद्या सीख ली। एक दिन उस विद्याके प्रभावकी परीक्षा लेनेके लिये पृथाने परम पवित्र भगवान् सूर्यका आवाहन किया ।।३२।।
तदैवोपागतं देवं वीक्ष्य विस्मितमानसा
प्रत्ययार्थं प्रयुक्ता मे याहि देव क्षमस्व मे ३३
उसी समय भगवान् सूर्य वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखकर कुन्तीका हृदय विस्मयसे भर गया। उसने कहा—’भगवन्! मुझे क्षमा कीजिये। मैंने तो परीक्षा करनेके लिये ही इस विद्याका प्रयोग किया था। अब आप पधार सकते हैं’ ||३३।।
अमोघं देवसन्दर्शमादधे त्वयि चात्मजम्
योनिर्यथा न दुष्येत कर्ताहं ते सुमध्यमे ३४
सूर्यदेवने कहा- ‘देवि! मेरा दर्शन निष्फल नहीं हो सकता। इसलिये हे सुन्दरी! अब मैं तुझसे एक पुत्र उत्पन्न करना चाहता हूँ। हाँ, अवश्य ही तुम्हारी योनि दूषित न हो, इसका उपाय मैं कर दूंगा’ ||३४।।
इति तस्यां स आधाय गर्भं सूर्यो दिवं गतः
सद्यः कुमारः सञ्जज्ञे द्वितीय इव भास्करः ३५
यह कहकर भगवान् सूर्यने गर्भ स्थापित कर दिया और इसके बाद वे स्वर्ग चले गये। उसी समय उससे एक बड़ा सुन्दर एवं तेजस्वी शिशु उत्पन्न हुआ। वह देखने में दूसरे सूर्यके समान जान पड़ता था ||३५||
तं सात्यजन्नदीतोये कृच्छ्राल्लोकस्य बिभ्यती
प्रपितामहस्तामुवाह पाण्डुर्वै सत्यविक्रमः ३६
पृथा लोकनिन्दासे डर गयी। इसलिये उसने बड़े दुःखसे उस बालकको नदीके जलमें छोड़ दिया। परीक्षित्! उसी पृथाका विवाह तुम्हारे परदादा पाण्डुसे हुआ था, जो वास्तवमें बड़े सच्चे वीर थे ।।३६।।
श्रुतदेवां तु कारूषो वृद्धशर्मा समग्रहीत्
यस्यामभूद्दन्तवक्र ऋषिशप्तो दितेः सुतः ३७
परीक्षित्! पृथाकी छोटी बहिन श्रुतदेवाका विवाह करूष देशके अधिपति वृद्धशर्मासे हुआ था। उसके गर्भसे दन्तवक्त्रका जन्म हुआ। यह वही दन्तवक्त्र है, जो पूर्वजन्ममें सनकादि ऋषियोंके शापसे हिरण्याक्ष हुआ था ||३७।।
कैकेयो धृष्टकेतुश्च श्रुतकीर्तिमविन्दत
सन्तर्दनादयस्तस्यां पञ्चासन्कैकयाः सुताः ३८
कैकय देशके राजा धृष्टकेतुने श्रुतकीर्तिसे विवाह किया था। उससे सन्तर्दन आदि पाँच कैकय राजकुमार हुए ।।३८।।
राजाधिदेव्यामावन्त्यौ जयसेनोऽजनिष्ट ह
दमघोषश्चेदिराजः श्रुतश्रवसमग्रहीत् ३९
राजाधिदेवीका विवाह जयसेनसे हुआ था। उसके दो पुत्र हुए–विन्द और अनुविन्द। वे दोनों ही अवन्तीके राजा हुए। चेदिराज दमघोषने श्रुतश्रवाका पाणिग्रहण किया ।।३९।।
शिशुपालः सुतस्तस्याः कथितस्तस्य सम्भवः
देवभागस्य कंसायां चित्रकेतुबृहद्बलौ ४०
उसका पुत्र था शिशुपाल, जिसका वर्णन मैं पहले (सप्तम स्कन्धमें) कर चुका हूँ। वसुदेवजीके भाइयोंमेंसे देवभागकी पत्नी कंसाके गर्भसे दो पुत्र हुए—चित्रकेतु और बृहद्बल ।।४०।।
कंसवत्यां देवश्रवसः सुवीर इषुमांस्तथा
बकः कङ्कात्तु कङ्कायां सत्यजित्पुरुजित्तथा ४१
देवश्रवाकी पत्नी कंसवतीसे सुवीर और इषुमान् नामके दो पुत्र हुए। आनककी पत्नी कंकाके गर्भसे भी दो पुत्रहुए-सत्यजित् और पुरुजित् ।।४१।।
सृञ्जयो राष्ट्रपाल्यां च वृषदुर्मर्षणादिकान्
हरिकेशहिरण्याक्षौ शूरभूम्यां च श्यामकः ४२
संजयने अपनी पत्नी राष्ट्रपालिकाके गर्भसे वृष और दुर्मर्षण आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। इसी प्रकार श्यामकने शूरभूमि (शूरभू) नामकी पत्नीसे हरिकेश और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न किये ।।४२।।
मिश्रकेश्यामप्सरसि वृकादीन्वत्सकस्तथा
तक्षपुष्करशालादीन्दुर्वाक्ष्यां वृक आदधे ४३
मिश्रकेशी अप्सराके गर्भसे वत्सकके भी वृक आदि कई पुत्र हुए। वृकने दुर्वाक्षीके गर्भसे तक्ष, पुष्कर और शाल आदि कई पुत्र उत्पन्न किये ।।४३।।
सुमित्रार्जुनपालादीन्समीकात्तु सुदामनी
आनकः कर्णिकायां वै ऋतधामाजयावपि ४४
शमीककी पत्नी सुदामिनीने भी सुमित्र और अर्जुनपाल आदि कई बालक उत्पन्न किये। कंककी पत्नी कर्णिकाके गर्भसे दो पुत्र हुए-ऋतधाम और जय ।।४४।।
पौरवी रोहिणी भद्रा मदिरा रोचना इला
देवकीप्रमुखाश्चासन्पत्न्य आनकदुन्दुभेः ४५
आनकदुन्दुभि वसुदेवजीकी पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि बहुत-सी पत्नियाँ थीं ।।४५||
बलं गदं सारणं च दुर्मदं विपुलं ध्रुवम्
वसुदेवस्तु रोहिण्यां कृतादीनुदपादयत् ४६
रोहिणीके गर्भसे वसुदेवजीके बलराम, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृत आदि पुत्र हुए थे ।।४६।।
सुभद्रो भद्र बाहुश्च दुर्मदो भद्र एव च
पौरव्यास्तनया ह्येते भूताद्या द्वादशाभवन् ४७
पौरवीके गर्भसे उनके बारह पुत्र हुए-भूत, सुभद्र, भद्रवाह, दुर्मद और भद्र आदि ।।४७।।
नन्दोपनन्दकृतक शूराद्या मदिरात्मजाः
कौशल्या केशिनं त्वेकमसूत कुलनन्दनम् ४८
नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर आदि मदिराके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। कौसल्याने एक ही वंश-उजागर पुत्र उत्पन्न किया था। उसका नाम था केशी ।।४८।।
रोचनायामतो जाता हस्तहेमाङ्गदादयः
इलायामुरुवल्कादीन्यदुमुख्यानजीजनत् ४९
उसने रोचनासे हस्त और हेमांगद आदि तथा इलासे उरुवल्क आदि प्रधान यदुवंशी पुत्रोंको जन्म दिया ||४९।।
विपृष्ठो धृतदेवायामेक आनकदुन्दुभेः
शान्तिदेवात्मजा राजन्प्रशमप्रसितादयः ५०
परीक्षित्! वसुदेवजीके धृतदेवाके गर्भसे विपृष्ठ नामका एक ही पुत्र हुआ और शान्तिदेवासे श्रम और प्रतिश्रुत आदि कई पुत्र हुए ।।५०।।
राजन्यकल्पवर्षाद्या उपदेवासुता दश
वसुहंससुवंशाद्याः श्रीदेवायास्तु षट्सुताः ५१
उपदेवाके पुत्र कल्पवर्ष आदि दस राजा हुए और श्रीदेवाके वसु, हंस, सुवंश आदि छः पुत्र हुए ||५१||
देवरक्षितया लब्धा नव चात्र गदादयः
वसुदेवः सुतानष्टावादधे सहदेवया ५२
प्रवरश्रतमुख्यांश्च साक्षाद्धर्मो वसूनिव
वसुदेवस्तु देवक्यामष्ट पुत्रानजीजनत् ५३
कीर्तिमन्तं सुषेणं च भद्र सेनमुदारधीः
ऋजुं सम्मर्दनं भद्रं सङ्कर्षणमहीश्वरम् ५४
देवरक्षिताके गर्भसे गद आदि नौ पुत्र हुए तथा जैसे स्वयं धर्मने आठ वसुओंको उत्पन्न किया था, वैसे ही वसुदेवजीने सहदेवाके गर्भसे पुरुविश्रुत आदि आठ पुत्र उत्पन्न किये। परम उदार वसुदेवजीने देवकीके गर्भसे भी आठ पुत्र उत्पन्न किये, जिनमें सातके नाम हैं-कीर्तिमान्, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, संमर्दन, भद्र और शेषावतार श्रीबलरामजी ।।५२-५४।।
अष्टमस्तु तयोरासीत्स्वयमेव हरिः किल
सुभद्रा च महाभागा तव राजन्पितामही ५५
उन दोनोंके आठवें पुत्र स्वयं श्रीभगवान् ही थे। परीक्षित्! तुम्हारी परम सौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकीजीकी ही कन्या थीं ।।५५।।
यदा यदा हि धर्मस्य क्षयो वृद्धिश्च पाप्मनः
तदा तु भगवानीश आत्मानं सृजते हरिः ५६
जब-जब संसारमें धर्मका ह्रास और पापकी वृद्धि होती है, तब-तब सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि अवतार ग्रहण करते हैं ।।५६।।
न ह्यस्य जन्मनो हेतुः कर्मणो वा महीपते
आत्ममायां विनेशस्य परस्य द्र ष्टुरात्मनः ५७
परीक्षित्! भगवान् सबके द्रष्टा और वास्तवमें असंग आत्मा ही हैं। इसलिये उनकी आत्मस्वरूपिणी योगमायाके अतिरिक्त उनके जन्म अथवा कर्मका और कोई भी कारण नहीं है ।।५७।।
यन्मायाचेष्टितं पुंसः स्थित्युत्पत्त्यप्ययाय हि
अनुग्रहस्तन्निवृत्तेरात्मलाभाय चेष्यते ५८
उनकी मायाका विलास ही जीवके जन्म, जीवन और मृत्युका कारण है। और उनका अनुग्रह ही मायाको अलग करके आत्मस्वरूपको प्राप्त करनेवाला है ||५८||
अक्षौहिणीनां पतिभिरसुरैर्नृपलाञ्छनैः
भुव आक्रम्यमाणाया अभाराय कृतोद्यमः ५९
कर्माण्यपरिमेयाणि मनसापि सुरेश्वरैः
सहसङ्कर्षणश्चक्रे भगवान्मधुसूदनः ६०
जब असुरोंने राजाओंका वेष धारण कर लिया और कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके वे सारी पृथ्वीको रौंदने लगे, तब पृथ्वीका भार उतारनेके लिये भगवान् मधुसूदन बलरामजीके साथ अवतीर्ण हुए। उन्होंने ऐसी-ऐसी लीलाएँ कीं, जिनके सम्बन्धमें बड़े-बड़े देवता मनसे अनुमान भी नहीं कर सकते-शरीरसे करनेकी बात तो अलग रही ।।५९-६०।।
कलौ जनिष्यमाणानां दुःखशोकतमोनुदम्
अनुग्रहाय भक्तानां सुपुण्यं व्यतनोद्यशः ६१
पृथ्वीका भार तो उतरा ही, साथ ही कलियुगमें पैदा होनेवाले भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये भगवानने ऐसे परम पवित्र यशका विस्तार किया, जिसका गान और श्रवण करनेसे ही उनके दुःख, शोक और अज्ञान सब-के-सब नष्ट हो जायँगे ||६१।।
यस्मिन्सत्कर्णपीयुषे यशस्तीर्थवरे सकृत्
श्रोत्राञ्जलिरुपस्पृश्य धुनुते कर्मवासनाम् ६२
उनका यश क्या है, लोगोंको पवित्र करनेवाला श्रेष्ठ तीर्थ है। संतोंके कानोंके लिये तो वह साक्षात् अमत ही है। एक बार भी यदि कानकी अंजलियोंसे उसका आचमन कर लिया जाता है, तो कर्मकी वासनाएँ निर्मूल हो जाती हैं ।।६२।।
भोजवृष्ण्यन्धकमधु शूरसेनदशार्हकैः
श्लाघनीयेहितः शश्वत्कुरुसृञ्जयपाण्डुभिः ६३
परीक्षित्! भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, संजय और पाण्डुवंशी वीर निरन्तर भगवान्की लीलाओंकी आदरपूर्वक सराहना करते रहते थे ।।६३।।
स्निग्धस्मितेक्षितोदारैर्वाक्यैर्विक्रमलीलया
नृलोकं रमयामास मूर्त्या सर्वाङ्गरम्यया ६४
उनका श्यामल शरीर सर्वांगसुन्दर था। उन्होंने उस मनोरम विग्रहसे तथा अपनी प्रेमभरी मुसकान, मधुर चितवन, प्रसादपूर्ण वचन और पराक्रमपूर्ण लीलाके द्वारा सारे मनुष्यलोकको आनन्दमें सराबोर कर दिया था ।।६४।।
यस्याननं मकरकुण्डलचारुकर्ण भ्राजत्कपोलसुभगं सविलासहासम्
नित्योत्सवं न ततृपुर्दृशिभिः पिबन्त्यो नार्यो नराश्च मुदिताः कुपिता निमेश्च ६५
भगवान्के मुखकमलकी शोभा तो निराली ही थी। मकराकृति कुण्डलोंसे उनके कान बड़े कमनीय मालूम पड़ते थे। उनकी आभासे कपोलोंका सौन्दर्य और भी खिल उठता था। जब वे विलासके साथ हँस देते, तो उनके मुखपर निरन्तर रहनेवाले आनन्दमें मानो बाढ़-सी आ जाती। सभी नर-नारी अपने नेत्रोंके प्यालोंसे उनके मुखकी माधरीका निरन्तर पान करते रहते, परन्त तप्त नहीं होते। वे उसका रस ले-लेकर आनन्दित तो होते ही, परन्तु पलकें गिरनेसे उनके गिरानेवाले निमिपर खीझते भी ।।६५।।
जातो गतः पितृगृहाद्व्रजमेधितार्थो हत्वा रिपून्सुतशतानि कृतोरुदारः
उत्पाद्य तेषु पुरुषः क्रतुभिः समीजे आत्मानमात्मनिगमं प्रथयन्जनेषु ६६
लीलापुरुषोत्तम भगवान् अवतीर्ण हुए मथुरामें वसुदेवजीके घर, परन्तु वहाँ रहे नहीं, वहाँसे गोकुलमें नन्दबाबाके घर चले गये। वहाँ अपना प्रयोजन-जो ग्वाल, गोपी और गौओंको सुखी करना था—पूरा करके मथुरा लौट आये। व्रजमें, मथुरामें तथा द्वारकामें रहकर अनेकों शत्रुओंका संहार किया। बहुत-सी स्त्रियोंसे विवाह करके हजारों पुत्र उत्पन्न किये। साथ ही लोगोंमें अपने स्वरूपका साक्षात्कार करानेवाली अपनी वाणीस्वरूप श्रुतियोंकी मर्यादा स्थापित करनेके लिये अनेक यज्ञोंके द्वारा स्वयं अपना ही यजन किया ।।६६।।
पृथ्व्याः स वै गुरुभरं क्षपयन्कुरूणामन्तःसमुत्थकलिना युधि भूपचम्वः
दृष्ट्या विधूय विजये जयमुद्विघोष्य प्रोच्योद्धवाय च परं समगात्स्वधाम ६७
कौरव और पाण्डवोंके बीच उत्पन्न हुए आपसके कलहसे उन्होंने पृथ्वीका बहुत-सा भार हलका कर दिया तथा युद्ध में अपनी दृष्टिसे ही राजाओंकी बहुत-सी अक्षौहिणियोंको ध्वंस करके संसारमें अर्जुनकी जीतका डंका पिटवा दिया। फिर उद्धवको आत्मतत्त्वका उपदेश किया और इसके बाद वे अपने परमधामको सिधार गये ।।६७।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे श्रीसूर्यसोमवंशानुकीर्तने यदुवंशानुकीर्तनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः
इति नवमः स्कन्धः समाप्तः