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श्रीमद् भागवत महापुराण नवम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 9 अध्याय 3

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श्रीमद्भागवतपुराणम्

स्कन्धः ९/अध्यायः ३
शर्यातिवंशः, सुकन्याख्यानं रेवतकन्याख्यानं च –

श्रीशुक उवाच ।
शर्यातिर्मानवो राजा ब्रह्मिष्ठः संबभूव ह ।
यो वा अंगिरसां सत्रे द्वितीयं अह ऊचिवान् ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! मनुपुत्र राजा शर्याति वेदोंका निष्ठावान् विद्वान् था। उसने अंगिरागोत्रके ऋषियोंके यज्ञमें दूसरे दिनका कर्म बतलाया था ।।१।।

सुकन्या नाम तस्यासीत् कन्या कमललोचना ।
तया सार्धं वनगतो हि अगमत् व्यवनाश्रमम् ॥ २ ॥

उसकी एक कमललोचना कन्या थी। उसका नाम था सुकन्या। एक दिन राजा शर्याति अपनी कन्याके साथ वनमें घूमते-घूमते च्यवन ऋषिके आश्रमपर जा पहुँचे ।।२।।

सा सखीभिः परिवृता विचिन्वन्त्यंघ्रिपान् वने ।
वल्मीकरन्ध्रे ददृशे खद्योते इव ज्योतिषी ॥ ३ ॥

सुकन्या अपनी सखियोंके साथ वनमें घूम-घूमकर वृक्षोंका सौन्दर्य देख रही थी। उसने एक स्थानपर देखा कि बाँबी (दीमकोंकी एकत्रित की हुई मिट्टी)-के छेदमेंसे जुगनूकी तरह दो ज्योतियाँ दीख रही हैं ||३||

ते दैवचोदिता बाला ज्योतिषी कण्टकेन वै ।
अविध्यन् मुग्धभावेन सुस्रावासृक् ततो बहिः ॥ ४ ॥

दैवकी कुछ ऐसी ही प्रेरणा थी, सुकन्याने बालसुलभ चपलतासे एक काँटेके द्वारा उन ज्योतियोंको बेध दिया। इससे उनमेंसे बहुत-सा खून बह चला ।।४।।

शकृत् मूत्रनिरोधोऽभूत् सैनिकानां च तत्क्षणात् ।
राजर्षिः तं उपालक्ष्य पुरुषान् विस्मितोऽब्रवीत् ॥ ५ ॥

उसी समय राजा शर्यातिके सैनिकोंका मल-मूत्र रुक गया। राजर्षि शर्यातिको यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होंने अपने सैनिकोंसे कहा ।।५।।

अप्यभद्रं न युष्माभिः भार्गवस्य विचेष्टितम् ।
व्यक्तं केनापि नस्तस्य कृतं आश्रमदूषणम् ॥ ६ ॥

‘अरे, तुम-लोगोंने कहीं महर्षि च्यवनजीके प्रति कोई अनुचित व्यवहार तो नहीं कर दिया? मुझे तो यह स्पष्ट जान पड़ता है कि हमलोगोंमेंसे किसी-न-किसीने उनके आश्रममें कोई अनर्थ किया है’ ||६||

सुकन्या प्राह पितरं भीता किञ्चित् कृतं मया ।
द्वे ज्योतिषी अजानन्त्या निर्भिन्ने कण्टकेन वै ॥ ७ ॥

तब सुकन्याने अपने पितासे डरते-डरते कहा कि ‘पिताजी! मैंने कुछ अपराध अवश्य किया है। मैंने अनजानमें दो ज्योतियोंको काँटेसे छेद दिया है’ ||७||

दुहितुस्तद् वचः श्रुत्वा शर्यातिर्जातसाध्वसः ।
मुनिं प्रसादयामास वल्मीकान्तर्हितं शनैः ॥ ८ ॥

अपनी कन्याकी यह बात सुनकर शर्याति घबरा गये। उन्होंने धीरे-धीरे स्तुति करके बाँबीमें छिपे हुए च्यवन मुनिको प्रसन्न किया ।।८।।

तद् अभिप्रायमाज्ञाय प्रादाद् दुहितरं मुनेः ।
कृच्छ्रात् मुक्तः तमामंत्र्य पुरं प्रायात् समाहितः ॥ ९ ॥

तदनन्तर च्यवन मुनिका अभिप्राय जानकर उन्होंने अपनी कन्या उन्हें समर्पित कर दी और इस संकटसे छूटकर बड़ी सावधानीसे उनकी अनुमति लेकर वे अपनी राजधानीमें चले आये ।।९।।

सुकन्या च्यवनं प्राप्य पतिं परमकोपनम् ।
प्रीणयामास चित्तज्ञा अप्रमत्तानुवृत्तिभिः ॥ १० ॥

इधर सुकन्या परम क्रोधी च्यवन मुनिको अपने पतिके रूपमें प्राप्त करके बड़ी सावधानीसे उनकी सेवा करती हई उन्हें प्रसन्न करने लगी। वह उनकी मनोवृत्तिको जानकर उसके अनुसार ही बर्ताव करती थी ।।१०।।

कस्यचित् त्वथ कालस्य नासत्यावाश्रमागतौ ।
तौ पूजयित्वा प्रोवाच वयो मे दत्तमीश्वरौ ॥ ११ ॥

ग्रहं ग्रहीष्ये सोमस्य यज्ञे वामप्यसोमपोः ।
क्रियतां मे वयो रूपं प्रमदानां यदीप्सितम् ॥ १२ ॥

कुछ समय बीत जानेपर उनके आश्रमपर दोनों अश्विनीकुमार आये। च्यवन मुनिने उनका यथोचित सत्कार किया और कहा कि ‘आप दोनों समर्थ हैं, इसलिये मुझे युवा अवस्था प्रदान कीजिये। मेरा रूप एवं अवस्था ऐसी कर दीजिये, जिसे युवती स्त्रियाँ चाहती हैं। मैं जानता हूँ कि आपलोग सोमपानके अधिकारी नहीं हैं, फिर भी मैं आपको यज्ञमें सोमरसका भाग दूंगा’ ।।११-१२।।

बाढं इति ऊचतुर्विप्रं अभिनन्द्य भिषक्तमौ ।
निमज्जतां भवान् अस्मिन् ह्रदे सिद्धविनिर्मिते ॥ १३ ॥

वैद्यशिरोमणि अश्विनीकुमारोंने महर्षि च्यवनका अभिनन्दन करके कहा, ‘ठीक है।’ और इसके बाद उनसे कहा कि ‘यह सिद्धोंके द्वारा बनाया हुआ कुण्ड है, आप इसमें स्नान कीजिये’ ||१३||

इत्युक्त्वा जरया ग्रस्त देहो धमनिसन्ततः ।
ह्रदं प्रवेशितोऽश्विभ्यां वलीपलित विप्रियः ॥ १४ ॥

च्यवन मुनिके शरीरको बुढ़ापेने घेर रखा था। सब ओर नसें दीख रही थीं, झुर्रियाँ पड़ जाने एवं बाल पक जानेके कारण वे देखनेमें बहुत भद्दे लगते थे। अश्विनीकुमारोंने उन्हें अपने साथ लेकर कुण्डमें प्रवेश किया ||१४||

पुरुषास्त्रय उत्तस्थुः अपीव्या वनिताप्रियाः ।
पद्मस्रजः कुण्डलिनः तुल्यरूपाः सुवाससः ॥ १५ ॥

उसी समय कुण्डसे तीन पुरुष बाहर निकले। वे तीनों ही कमलोंकी माला, कुण्डल और सुन्दर वस्त्र पहने एक-से मालूम होते थे। वे बड़े ही सुन्दर एवं स्त्रियोंको प्रिय लगनेवाले थे ।।१५।।

तान् निरीक्ष्य वरारोहा सरूपान् सूर्यवर्चसः ।
अजानती पतिं साध्वी अश्विनौ शरणं ययौ ॥ १६ ॥

परम साध्वी सुन्दरी सुकन्याने जब देखा कि ये तीनों ही एक आकृतिके तथा सूर्यके समान तेजस्वी हैं, तब अपने पतिको न पहचानकर उसने अश्विनीकुमारोंकी शरण ली ।।१६।।

दर्शयित्वा पतिं तस्यै पातिव्रत्येन तोषितौ ।
ऋषिमामन्त्र्य ययतुः विमानेन त्रिविष्टपम् ॥ १७ ॥

उसके पातिव्रत्यसे अश्विनीकुमार बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने उसके पतिको बतला दिया और फिर च्यवन मुनिसे आज्ञा लेकर विमानके द्वारा वे स्वर्गको चले गये ।।१७।।

यक्ष्यमाणोऽथ शर्यातिः च्यवनस्याश्रमं गतः ।
ददर्श दुहितुः पार्श्वे पुरुषं सूर्यवर्चसम् ॥ १८ ॥

कुछ समयके बाद यज्ञ करनेकी इच्छासे राजा शर्याति च्यवन मुनिके आश्रमपर आये। वहाँ उन्होंने देखा कि उनकी कन्या सुकन्याके पास एक सूर्यके समान तेजस्वी पुरुष बैठा हुआ है ।।१८।।

राजा दुहितरं प्राह कृतपादाभिवन्दनाम् ।
आशिषश्चाप्रयुञ्जानो नातिप्रीतिमना इव ॥ १९ ॥

सुकन्याने उनके चरणोंकी वन्दना की। शर्यातिने उसे आशीर्वाद नहीं दियाऔर कुछ अप्रसन्न-से होकर बोले ।।१९।।

चिकीर्षितं ते किमिदं पतिस्त्वया
प्रलम्भितो लोकनमस्कृतो मुनिः ।
यत्त्वं जराग्रस्तमसत्यसम्मतं
विहाय जारं भजसेऽमुमध्वगम् ॥ २० ॥

‘दुष्टे! यह तूने क्या किया? क्या तूने सबके वन्दनीय च्यवन मुनिको धोखा दे दिया? अवश्य ही तूने उनको बूढ़ा और अपने कामका न समझकर छोड़ दिया और अब तू इस राह चलते जार पुरुषकी सेवा कर रही है ||२०||

कथं मतिस्तेऽवगतान्यथा सतां
कुलप्रसूते कुलदूषणं त्विदम् ।
बिभर्षि जारं यदपत्रपा कुलं
पितुश्च भर्तुश्च नयस्यधस्तमः ॥ २१ ॥

तेरा जन्म तो बड़े ऊँचे कुलमें हुआ था। यह उलटी बुद्धि तुझे कैसे प्राप्त हुई? तेरा यह व्यवहार तो
कुलमें कलंक लगानेवाला है। अरे राम-राम! तू निर्लज्ज होकर जार पुरुषकी सेवा कर रही है और इस प्रकार अपने पिता और पति दोनोंके वंशको घोर नरकमें ले जा रही है’ ||२१||

एवं ब्रुवाणं पितरं स्मयमाना शुचिस्मिता ।
उवाच तात जामाता तवैष भृगुनन्दनः ॥ २२ ॥

हनेपर पवित्र मुमहर्षि व्यवन होप्तिका सारा वनस अप राजा शर्यातिके इस प्रकार कहनेपर पवित्र मुसकानवाली सुकन्याने मुसकराकर कहा –’पिताजी! ये आपके जामाता स्वयं भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ही हैं’ ||२२||

शशंस पित्रे तत् सर्वं वयोरूपाभिलम्भनम् ।
विस्मितः परमप्रीतः तनयां परिषस्वजे ॥ २३ ॥

इसके बाद उसने अपने पितासे महर्षि च्यवनके यौवन और सौन्दर्यकी प्राप्तिका सारा वृत्तान्त कह सुनाया। वह सब सुनकर राजा शर्याति अत्यन्त विस्मित हुए। उन्होंने बड़े प्रेमसे अपनी पुत्रीको गलेसे लगा लिया ।।२३।।

सोमेन याजयन् वीरं ग्रहं सोमस्य चाग्रहीत् ।
असोमपोः अपि अश्विनोः च्यवनः स्वेन तेजसा ॥ २४ ॥

महर्षि च्यवनने वीर शर्यातिसे सोमयज्ञका अनुष्ठान करवाया और सोमपानके अधिकारी न होनेपर भी अपने प्रभावसे अश्विनीकुमारोंको सोमपान कराया ||२४||

हन्तुं तमाददे वज्रं सद्यो मन्युरमर्षितः ।
सवज्रं स्तम्भयामास भुजं इन्द्रस्य भार्गवः ॥ २५ ॥

इन्द्र बहत जल्दी क्रोध कर बैठते हैं। इसलिये उनसे यह सहा न गया। उन्होंने चिढ़-कर शर्यातिको मारनेके लिये वज्र उठाया। महर्षि च्यवनने वज्रके साथ उनके हाथको वहीं स्तम्भित कर दिया ।।२५।।

अन्वजानन् ततः सर्वे ग्रहं सोमस्य चाश्विनोः ।
भिषजाविति यत् पूर्वं सोमाहुत्या बहिष्कृतौ ॥ २६ ॥

तब सब देवताओंने अश्विनीकुमारोंको सोमका भाग देना स्वीकार कर लिया। उन लोगोंने वैद्य होनेके कारण पहले अश्विनीकुमारोंका सोमपानसे बहिष्कार कर रखा था ।।२६।।

उत्तानबर्हिरानर्तो भूरिषेण इति त्रयः ।
शर्यातेरभवन् पुत्रा आनर्ताद् रेवतोऽभवत् ॥ २७ ॥

परीक्षित्! शर्यातिके तीन पुत्र थे-उत्तानबर्हि, आनर्त और भूरिषेण। आनर्तसे रेवत हुए ||२७||

सोऽन्तःसमुद्रे नगरीं विनिर्माय कुशस्थलीम् ।
आस्थितोऽभुङ्‌क्त विषयान् आनर्तादीन् अरिन्दम ॥ २८ ॥

महाराज! रेवतने समुद्रके भीतर कुशस्थली नामकी एक नगरी बसायी थी। उसीमें रहकर वे आनर्त आदि देशोंका राज्य करते थे ।।२८।।

तस्य पुत्रशतं जज्ञे ककुद्मि ज्येष्ठमुत्तमम् ।
ककुद्मी रेवतीं कन्यां स्वां आदाय विभुं गतः ॥ २९ ॥

पुत्र्या वरं परिप्रष्टुं ब्रह्मलोकं अपावृतम् ।
आवर्तमाने गान्धर्वे स्थितोऽलब्धक्षणः क्षणम् ॥ ३० ॥

उनके सौ श्रेष्ठ पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़े थे ककुद्मी। ककुद्मी अपनी कन्या रेवतीको लेकर उसके लिये वर पूछनेके उद्देश्यसे ब्रह्माजीके पास गये। उस समय ब्रह्मलोकका रास्ता ऐसे लोगोंके लिये बेरोक-टोक था। ब्रह्मलोकमें गाने-बजानेकी धूम मची हुई थी। बातचीतके लिये अवसर न मिलनेके कारण वे कुछ क्षण वहीं ठहर गये ।।२९-३०||

तदन्त आद्यमानम्य स्वाभिप्रायं न्यवेदयत् ।
तत् श्रुत्वा भगवान् ब्रह्मा प्रहस्य तमुवाच ह ॥ ३१ ॥

उत्सवके अन्तमें ब्रह्माजीको नमस्कार करके उन्होंने अपना अभिप्राय निवेदन किया। उनकी बात सुनकर भगवान् ब्रह्माजीने हँसकर उनसे कहा- ||३१||

अहो राजन् निरुद्धास्ते कालेन हृदि ये कृताः ।
तत्पुत्रपौत्र नप्तॄणां गोत्राणि च न श्रृण्महे ॥ ३२ ॥

‘महाराज! तुमने अपने मनमें जिन लोगोंके विषयमें सोच रखा था, वे सब तो कालके गालमें चले गये। अब उनके पुत्र, पौत्र अथवा नातियोंकी तो बात ही क्या है, गोत्रोंके नाम भी नहीं सुनायी पड़ते ||३२||

कालोऽभियातस्त्रिणव चतुर्युगविकल्पितः ।
तद्‍गच्छ देवदेवांशो बलदेवो महाबलः ॥ ३३ ॥

इस बीचमें सत्ताईस चतुर्युगीका समय बीत चुका है। इसलिये तुम जाओ। इस समय भगवान् नारायणके अंशावतार महाबली बलदेवजी पृथ्वीपर विद्यमान हैं ||३३||

कन्यारत्‍नमिदं राजन् नररत्‍नाय देहि भोः ।
भुवो भारावताराय भगवान् भूतभावनः ॥ ३४ ॥

अवतीर्णो निजांशेन पुण्यश्रवणकीर्तनः ।
इत्यादिष्टोऽभिवन्द्याजं नृपः स्वपुरमागतः ।
त्यक्तं पुण्यजनत्रासाद्‍भ्रातृभिर्दिक्ष्ववस्थितैः ॥ ३५ ॥

राजन्! उन्हीं नररत्नको यह कन्यारत्न तुम समर्पित कर दो। जिनके नाम, लीला आदिका श्रवणकीर्तन बड़ा ही पवित्र है-वे ही प्राणियोंके जीवनसर्वस्व भगवान् पृथ्वीका भार उतारनेके लिये अपने अंशसे अवतीर्ण हुए हैं।’ राजा ककुद्मीने ब्रह्माजीका यह आदेश प्राप्त करके उनके चरणोंकी वन्दना की और अपने नगरमें चले आये। उनके वंशजोंने यक्षोंके भयसे वह नगरी छोड़ दी थी और जहाँ-तहाँ यों ही निवास कर रहे थे ।।३४-३५।।

सुतां दत्त्वानवद्याङ्‌गीं बलाय बलशालिने ।
बदर्याख्यं गतो राजा तप्तुं नारायणाश्रमम् ॥ ३६ ॥

राजा ककुद्मीने अपनी सर्वांगसुन्दरी पुत्री परम बलशाली बलरामजीको सौंप दी और स्वयं तपस्या करनेके लिये भगवान् नर-नारायणके आश्रम बदरीवनकी ओर चल दिये ।।३६।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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