श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 9 अध्याय 6
6 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः ९/अध्यायः ६
इक्ष्वाकुवंशवर्णनं, तत्र मान्धातुश्चरितं, सौभर्युपाख्यानं च –
श्रीशुक उवाच ।
विरूपः केतुमान् शंभुः अंबरीषसुतास्त्रयः ।
विरूपात्पृषदश्वोऽभूत् तत्पुत्रस्तु रथीतरः ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! अम्बरीषके तीन पुत्र थे—विरूप, केतुमान् और शम्भु। विरूपसे पृषदश्व और उसका पुत्र रथीतर हुआ ।।१।।
रथीतरस्याप्रजस्य भार्यायां तन्तवेऽर्थितः ।
अङ्गिरा जनयामास ब्रह्मवर्चस्विनः सुतान् ॥ २ ॥
रथीतर सन्तानहीन था। वंश परम्पराकी रक्षाके लिये उसने अंगिरा ऋषिसे प्रार्थना की, उन्होंने उसकी पत्नीसे ब्रह्मतेजसे सम्पन्न कई पुत्र उत्पन्न किये ||२||
एते क्षेत्रप्रसूता वै पुनस्त्वाङ्गिरसाः स्मृताः ।
रथीतराणां प्रवराः क्षत्रोपेता द्विजातयः ॥ ३ ॥
यद्यपि ये सब रथीतरकी भार्यासे उत्पन्न हुए थे, इसलिये इनका गोत्र वही होना चाहिये था जो रथीतरका था, फिर भी वे आंगिरस ही कहलाये। ये ही रथीतर-वंशियोंके प्रवर (कुलमें सर्वश्रेष्ठ पुरुष) कहलाये। क्योंकि ये क्षत्रोपेत ब्राह्मण थे-क्षत्रिय और ब्राह्मण दोनों गोत्रोंसे इनका सम्बन्ध था ।।३।।
क्षुवतस्तु मनोर्जज्ञे इक्ष्वाकुर्घ्राणतः सुतः ।
तस्य पुत्रशतज्येष्ठा विकुक्षिनिमिदण्डकाः ॥ ४ ॥
परीक्षित! एक बार मनजीके छींकनेपर उनकी नासिकासे इक्ष्वाक नामका पत्र उत्पन्न हआ। इक्ष्वाकुके सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़े तीन थे—विकुक्षि, निमि और दण्डक ||४||
तेषां पुरस्ताद् अभवन् आर्यावर्ते नृपा नृप ।
पञ्चविंशतिः पश्चाच्च त्रयो मध्ये परेऽन्यतः ॥ ५ ॥
परीक्षित्! उनसे छोटे पचीस पुत्र आर्यावर्तके पूर्वभागके और पचीस पश्चिमभागके तथा उपर्युक्त तीन मध्यभागके अधिपति हुए। शेष सैंतालीस दक्षिण आदि अन्य प्रान्तोंके अधिपति हुए ||५||
स एकदाष्टकाश्राद्धे इक्ष्वाकुः सुतमादिशत् ।
मांसमानीयतां मेध्यं विकुक्षे गच्छ मा चिरम् ॥ ६ ॥
एक बार राजा इक्ष्वाकुने अष्टका-श्राद्धके समय अपने बड़े पुत्रको आज्ञा दी
—’विकुक्षे! शीघ्र ही जाकर श्राद्धके योग्य पवित्र पशुओंका मांस लाओ’ ||६||
तथेति स वनं गत्वा मृगान् हत्वा क्रियार्हणान् ।
श्रान्तो बुभुक्षितो वीरः शशं चाददपस्मृतिः ॥ ७ ॥
वीर विकुक्षिने ‘बहुत अच्छा’ कहकर वनकी यात्रा की। वहाँ उसने श्राद्धके योग्य बहुत-से पशुओंका शिकार किया। वह थक तो गया ही था, भूख भी लग आयी थी; इसलिये यह बात भूल गया कि श्राद्धके लिये मारे हुए पशुको स्वयं न खाना चाहिये। उसने एक खरगोश खा लिया ||७||
शेषं निवेदयामास पित्रे तेन च तद्गुरुः ।
चोदितः प्रोक्षणायाह दुष्टमेतद् अकर्मकम् ॥ ८ ॥
विकुक्षिने बचा हुआ मांस लाकर अपने पिताको दिया। इक्ष्वाकुने अब अपने गुरुसे उसे प्रोक्षण करनेके लिये कहा, तब गुरुजीने बताया कि यह मांस तो दूषित एवं श्राद्धके अयोग्य है ।।८।।
ज्ञात्वा पुत्रस्य तत्कर्म गुरुणाभिहितं नृपः ।
देशान्निःसारयामास सुतं त्यक्तविधिं रुषा ॥ ९ ॥
परीक्षित्! गुरुजीके कहनेपर राजा इक्ष्वाकुको अपने पुत्रकी करतूतका पता चल गया। उन्होंने शास्त्रीय विधिका उल्लंघन करनेवाले पुत्रको क्रोधवश अपने देशसे निकाल दिया ।।९।।
स तु विप्रेण संवादं जापकेन समाचरन् ।
त्यक्त्वा कलेवरं योगी स तेनावाप यत् परम् ॥ १० ॥
तदनन्तर राजा इक्ष्वाकुने अपने गुरुदेव वसिष्ठसे ज्ञानविषयक चर्चा की। फिर योगके द्वारा शरीरका परित्याग करके उन्होंने परमपद प्राप्त किया ।।१०।।
पितर्युपरतेऽभ्येत्य विकुक्षिः पृथिवीमिमाम् ।
शासदीजे हरिं यज्ञैः शशाद इति विश्रुतः ॥ ११ ॥
पिताका देहान्त हो जानेपर विकुक्षि अपनी राजधानीमें लौट आया और इस पृथ्वीका शासन करने लगा। उसने बड़े-बड़े यज्ञोंसे भगवान्की आराधना की और संसारमें शशादके नामसे प्रसिद्ध हुआ ।।११।।
पुरञ्जयस्तस्य सुत इन्द्रवाह इतीरितः ।
ककुत्स्थ इति चाप्युक्तः शृणु नामानि कर्मभिः ॥ १२ ॥
विकुक्षिके पुत्रका नाम था पुरंजय। उसीको कोई ‘इन्द्रवाह’ और कोई ‘ककुत्स्थ’ कहते हैं। जिन कर्मोंके कारण उसके ये नाम पड़े थे, उन्हें सुनो ।।१२।।
कृतान्त आसीत् समरो देवानां सह दानवैः ।
पार्ष्णिग्राहो वृतो वीरो देवैर्दैत्यपराजितैः ॥ १३ ॥
सत्ययुगके अन्तमें देवताओंका दानवोंके साथ घोर संग्राम हुआ था। उसमें सब-के-सब देवता दैत्योंसे हार गये। तब उन्होंने वीर पुरंजयको सहायताके लिये अपना मित्र बनाया ||१३||
वचनाद् देवदेवस्य विष्णोर्विश्वात्मनः प्रभोः ।
वाहनत्वे वृतस्तस्य बभूवेन्द्रो महावृषः ॥ १४ ॥
पुरंजयने कहा कि ‘यदि देवराज इन्द्र मेरे वाहन बनें तो मैं युद्ध कर सकता हूँ।’ पहले तो इन्द्रने अस्वीकार कर दिया, परन्तु देवताओंके आराध्यदेव सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान्की बात मानकर पीछे वे एक बड़े भारी बैल बन गये ।।१४।।
स सन्नद्धो धनुर्दिव्यं आदाय विशिखान्छितान् ।
स्तूयमानः समारुह्य युयुत्सुः ककुदि स्थितः ॥ १५ ॥
तेजसाऽऽप्यायितो विष्णोः पुरुषस्य परात्मनः ।
प्रतीच्यां दिशि दैत्यानां न्यरुणत् त्रिदशैः पुरम् ॥ १६ ॥
सर्वान्तर्यामीभगवान् विष्णुने अपनी शक्तिसे पुरंजयको भर दिया। उन्होंने कवच पहनकर दिव्य धनुष और तीखे बाण ग्रहण किये। इसके बाद बैलपर चढ़कर वे उसके ककुद (डील)-के पास बैठ गये। जब इस प्रकार वे युद्ध के लिये तत्पर हुए तब देवता उनकी स्तुति करने लगे। देवताओंको साथ लेकर उन्होंने पश्चिमकी ओरसे दैत्योंका नगर घेर लिया ।।१५-१६।।
तैस्तस्य चाभूत् प्रधनं तुमुलं लोमहर्षणम् ।
यमाय भल्लैरनयद् दैत्यान् येऽभिययुर्मृधे ॥ १७ ॥
वीर पुरंजयका दैत्योंके साथ अत्यन्त रोमांचकारी घोर संग्राम हुआ। युद्धमें जो-जो दैत्य उनके सामने आये पुरंजयने बाणोंके द्वारा उन्हें यमराजके हवाले कर दिया ।।१७।।
तस्येषुपाताभिमुखं युगान्ताग्निं इवोल्बणम् ।
विसृज्य दुद्रुवुर्दैत्या हन्यमानाः स्वमालयम् ॥ १८ ॥
उनके बाणोंकी वर्षा क्या थी, प्रलयकालकी धधकती हुई आग थी। जो भी उसके सामने आता, छिन्न-भिन्न हो जाता। दैत्योंका साहस जाता रहा। वे रणभूमि छोड़कर अपने-अपने घरोंमें घुस गये ।।१८।।
जित्वा परं धनं सर्वं सश्रीकं वज्रपाणये ।
प्रत्ययच्छत्स राजर्षिः इति नामभिराहृतः ॥ १९ ॥
पुरंजयने उनका नगर, धन और ऐश्वर्य-सब कुछ जीतकर इन्द्रको दे दिया। इसीसे उन राजर्षिको पुर जीतनेके कारण ‘पुरंजय’, इन्द्रको वाहन बनानेके कारण ‘इन्द्रवाह’ और बलके ककुद्पर बैठनेके कारण ‘ककुत्स्थ’ कहा जाता है ।।१९।।
पुरञ्जयस्य पुत्रोऽभूद् अनेनास्तत्सुतः पृथुः ।
विश्वगन्धिस्ततश्चन्द्रो युवनाश्वस्तु तत्सुतः ॥ २० ॥
पुरंजयका पुत्र था अनेना। उसका पुत्र पृथु हुआ। पृथुके विश्वरन्धि, उसके चन्द्र और चन्द्रके युवनाश्व ।।२०।।
शाबस्तः तत्सुतो येन शाबस्ती निर्ममे पुरी ।
बृहदश्वस्तु शाबस्तिः ततः कुवलयाश्वकः ॥ २१ ॥
युवनाश्वके पुत्र हुए शाबस्त, जिन्होंने शाबस्तीपुरी बसायी। शाबस्तके बृहदश्व और उसके कुवलयाश्व हुए ||२१||
यः प्रियार्थमुतंकस्य धुन्धुनामासुरं बली ।
सुतानां एकविंशत्या सहस्रैः अहनद् वृतः ॥ २२ ॥
ये बड़े बली थे। इन्होंने उतंक ऋषिको प्रसन्न करनेके लिये अपने इक्कीस हजार पुत्रोंको साथ लेकर धुन्धु नामक दैत्यका वध किया ।।२२।।
धुन्धुमार इति ख्यातः तत्सुतास्ते च जज्वलुः ।
धुन्धोर्मुखाग्निना सर्वे त्रय एवावशेषिताः ॥ २३ ॥
इसीसे उनका नाम हुआ ‘धुन्धुमार’। धुन्धु दैत्यके मुखकी आगसे उनके सब पुत्र जल गये। केवल तीन ही बच रहे थे ।।२३।।
दृढाश्वः कपिलाश्वश्च भद्राश्व इति भारत ।
दृढाश्वपुत्रो हर्यश्वो निकुम्भः तत्सुतः स्मृतः ॥ २४ ॥
परीक्षित्! बचे हुए पुत्रों के नाम थे-दृढाश्व, कपिलाश्व और भद्राश्वा दृढाश्वसे हर्यश्व और उससे निकुम्भका जन्म हुआ ।।२४।।
बहुलाश्वो निकुम्भस्य कृशाश्वोऽथास्य सेनजित् ।
युवनाश्वोऽभवत्तस्य सोऽनपत्यो वनं गतः ॥ २५ ॥
भार्याशतेन निर्विण्ण ऋषयोऽस्य कृपालवः ।
इष्टिं स्म वर्तयां चक्रुः ऐन्द्रीं ते सुसमाहिताः ॥ २६ ॥
निकुम्भके बर्हणाश्व, उसके कृशाश्व, कृशाश्वके सेनजित् और सेनजित्के युवनाश्व नामक पुत्र हुआ। युवनाश्व सन्तानहीन था, इसलिये वह बहुत दुःखी होकर अपनी सौ स्त्रियों के साथ वनमें चला गया। वहाँ ऋषियोंने बड़ी कृपा करके युवनाश्वसे पुत्र-प्राप्तिके लिये बड़ी एकाग्रताके साथ इन्द्रदेवताका यज्ञ कराया ।।२५-२६।।
राजा तद् यज्ञसदनं प्रविष्टो निशि तर्षितः ।
दृष्ट्वा शयानान् विप्रांस्तान् पपौ मंत्रजलं स्वयम् ॥ २७ ॥
एक दिन राजा युवनाश्वको रात्रिके समय बड़ी प्यास लगी। वह यज्ञशालामें गया, किन्तु वहाँ देखा कि ऋषिलोग तो सो रहे हैं। तब जल मिलनेका और कोई उपाय न देख उसने वह मन्त्रसे अभिमन्त्रित जल ही पी लिया ||२७||
उत्थितास्ते निशम्याथ व्युदकं कलशं प्रभो ।
पप्रच्छुः कस्य कर्मेदं पीतं पुंसवनं जलम् ॥ २८ ॥
परीक्षित्! जब प्रातःकाल ऋषिलोग सोकर उठे और उन्होंने देखा कि कलशमें तो जल ही नहीं है, तब उन लोगोंने पूछा कि ‘यह किसका काम है? पुत्र उत्पन्न करनेवाला जल किसने पी लिया?’ ||२८||
राज्ञा पीतं विदित्वाथ ईश्वरप्रहितेन ते ।
ईश्वराय नमश्चक्रुः अहो दैवबलं बलम् ॥ २९ ॥
अन्तमें जब उन्हें यह मालूम हुआ कि भगवानकी प्रेरणासे राजा युवनाश्वने ही उस जलको पी लिया है तो उन लोगोंने भगवानके चरणोंमें नमस्कार किया और कहा–’धन्य है! भगवान्का बल ही वास्तवमें बल है’ ||२९||
ततः काल उपावृत्ते कुक्षिं निर्भिद्य दक्षिणम् ।
युवनाश्वस्य तनयः चक्रवर्ती जजान ह ॥ ३० ॥
इसके बाद प्रसवका समय आनेपर युवनाश्वकी दाहिनी कोख फाड़कर उसके एक चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न हुआ ||३०||
कं धास्यति कुमारोऽयं स्तन्यं रोरूयते भृशम् ।
मां धाता वत्स मा रोदीः इतीन्द्रो देशिनीमदात् ॥ ३१ ॥
उसे रोते देख ऋषियोंने कहा-‘यह बालक दूधके लिये बहुत रो रहा है; अतः किसका दूध पियेगा?’ तब इन्द्रने कहा, ‘मेरा पियेगा’ ‘(मां धाता)’ ‘बेटा! तू रो मत।’ यह कहकर इन्द्रने अपनी तर्जनी अंगुली उसके मुँहमें डाल दी ।।३१।।
न ममार पिता तस्य विप्रदेवप्रसादतः ।
युवनाश्वोऽथ तत्रैव तपसा सिद्धिमन्वगात् ॥ ३२ ॥
ब्राह्मण और देवताओंके प्रसादसे उस बालकके पिता युवनाश्वकी भी मृत्यु नहीं हुई। वह वहीं तपस्या करके मुक्त हो गया ||३२||
त्रसद्दस्युरितीन्द्रोऽङ्ग विदधे नाम यस्य वै ।
यस्मात् त्रसन्ति हि उद्विग्ना दस्यवो रावणादयः ॥ ३३ ॥
परीक्षित्! इन्द्रने उस बालकका नाम रखा त्रसद्दस्यु, क्योंकि रावण आदि दस्यु (लुटेरे) उससे उद्विग्न एवं भयभीत रहते थे ||३३।।
यौवनाश्वोऽथ मान्धाता चक्रवर्त्यवनीं प्रभुः ।
सप्तद्वीपवतीमेकः शशासाच्युततेजसा ॥ ३४ ॥
युवनाश्वके पुत्र मान्धाता (त्रसद्दस्यु) चक्रवर्ती राजा हए। भगवानके तेजसे तेजस्वी होकर उन्होंने अकेले ही सातों द्वीपवाली पृथ्वीका शासन किया ।।३४।।
ईजे च यज्ञं क्रतुभिः आत्मविद् भूरिदक्षिणैः ।
सर्वदेवमयं देवं सर्वात्मकमतीन्द्रियम् ॥ ३५ ॥
वे यद्यपि आत्मज्ञानी थे, उन्हें कर्म-काण्डकी कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी फिर भी उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे उन यज्ञस्वरूप प्रभुकी आराधना की जो स्वयंप्रकाश, सर्वदेवस्वरूप, सर्वात्मा एवं इन्द्रियातीत हैं ||३५||
द्रव्यं मंत्रो विधिर्यज्ञो यजमानस्तथर्त्विजः ।
धर्मो देशश्च कालश्च सर्वं एतद् यदात्मकम् ॥ ३६ ॥
भगवानके अतिरिक्त और है ही क्या? यज्ञकी सामग्री, मन्त्र, विधि-विधान, यज्ञ, यजमान, ऋत्विज, धर्म, देश और काल—यह सब-का-सब भगवान्का ही स्वरूप तो है ||३६||
यावत् सूर्य उदेति स्म यावच्च प्रतितिष्ठति ।
सर्वं तत् यौवनाश्वस्य मान्धातुः क्षेत्रमुच्यते ॥ ३७ ॥
परीक्षित्! जहाँसेसूर्यका उदय होता है और जहाँ वे अस्त होते हैं, वह सारा-का-सारा भूभाग युवनाश्वके पुत्र मान्धाताके ही अधिकारमें था ।।३७।।
शशबिन्दोर्दुहितरि बिन्दुमत्यामधान् नृपः ।
पुरुकुत्सं अंबरीषं मुचुकुन्दं च योगिनम् ।
तेषां स्वसारः पञ्चाशत् सौभरिं वव्रिरे पतिम् ॥ ३८॥
राजा मान्धाताकी पत्नी शशबिन्दुकी पुत्री बिन्दुमती थी। उसके गर्भसे उनके तीन पुत्र हुए -पुरुकुत्स, अम्बरीष (ये दूसरे अम्बरीष हैं) और योगी मुचुकुन्द। इनकी पचास बहनें थीं। उन पचासोंने अकेले सौभरि ऋषिको पतिके रूपमें वरण किया ||३८।।
यमुनान्तर्जले मग्नः तप्यमानः परंतपः ।
निर्वृतिं मीनराजस्य दृष्ट्वा मैथुनधर्मिणः ॥ ३९ ॥
परम तपस्वी सौभरिजी एक बार यमुनाजलमें डुबकी लगाकर तपस्या कर रहे थे। वहाँ उन्होंने देखा कि एक मत्स्यराज अपनी पत्नियोंके साथ बहुत सुखी हो रहा है ||३९।।
जातस्पृहो नृपं विप्रः कन्यां एकां अयाचत ।
सोऽप्याह गृह्यतां ब्रह्मन् कामं कन्या स्वयंवरे ॥ ४० ॥
उसके इस सुखकोमान्धाताके पास आकर उनकी पचास कन्याओंमेंसे एक कन्या माँगी। राजाने कहा-‘ब्रह्मन्! कन्या स्वयंवरमें आपको चुन ले तो आप उसे ले लीजिये’ ||४०।।
स विचिन्त्याप्रियं स्त्रीणां जरठोऽयं असम्मतः ।
वलीपलित एजत्क इत्यहं प्रत्युदाहृतः ॥ ४१ ॥
सौभरि ऋषि राजा मान्धाताका अभिप्राय समझ गये। उन्होंने सोचा कि ‘राजाने इसलिये मुझे ऐसा सूखा जवाब दिया है कि अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ, शरीरमें झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, बाल पक गये हैं और सिर काँपने लगा है! अब कोई स्त्री मुझसे प्रेम नहीं कर सकती ।।४१।।
साधयिष्ये तथात्मानं सुरस्त्रीणामभीप्सितम् ।
किं पुनर्मनुजेन्द्राणां इति व्यवसितः प्रभुः ॥ ४२ ॥
अच्छी बात है! मैं अपनेको ऐसा सुन्दर बनाऊँगा कि राजकन्याएँ तो क्या, देवांगनाएँ भी मेरे लिये लालायित हो जायँगी।’ ऐसा सोचकर समर्थ सौभरिजीने वैसा ही किया ।।४२||
मुनिः प्रवेशितः क्षत्त्रा कन्यान्तःपुरमृद्धिमत् ।
वृतः स राजकन्याभिः एकं पञ्चाशता वरः ॥ ४३ ॥
फिर क्या था, अन्तःपुरके रक्षकने सौभरि मुनिको कन्याओंके सजे-सजाये महलमें पहुँचा दिया। फिर तो उन पचासों राजकन्याओंने एक सौभरिको ही अपना पति चुन लिया ।।४३।।
तासां कलिरभूद् भूयान् तत् अर्थेऽपोह्य सौहृदम् ।
ममानुरूपो नायं व इति तद्गतचेतसाम् ॥ ४४ ॥
उन कन्याओंका मन सौभरिजीमें इस प्रकार आसक्त हो गया कि वे उनके लिये आपसके प्रेमभावको तिलांजलि देकर परस्पर कलह करने लगीं और एक-दूसरीसे कहने लगी कि ‘ये तुम्हारे योग्य नहीं, मेरे योग्य हैं ||४४||
स बह्वृचस्ताभिरपारणीय
तपःश्रियानर्घ्यपरिच्छदेषु ।
गृहेषु नानोपवनामलाम्भः
सरःसु सौगन्धिककाननेषु ॥ ४५ ॥
महार्हशय्यासनवस्त्रभूषण
स्नानानुलेपाभ्यवहारमाल्यकैः ।
स्वलङ्कृतस्त्रीपुरुषेषु नित्यदा
रेमेऽनुगायद् द्विजभृङ्गवन्दिषु ॥ ४६ ॥
ऋग्वेदी सौभरिने उन सभीका पाणिग्रहण कर लिया। वे अपनी अपार तपस्याके प्रभावसे बहुमूल्य सामग्रियोंसे सुसज्जित, अनेकों उपवनों और निर्मल जलसे परिपूर्ण सरोवरोंसे युक्त एवं सौगन्धिक पुष्पोंके बगीचोंसे घिरे महलोंमें बहुमूल्य शय्या, आसन, वस्त्र, आभूषण, स्नान, अनुलेपन, सुस्वादु भोजन और पुष्पमालाओंके द्वारा अपनी पत्नियोंके साथ विहार करने लगे। सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये स्त्री-पुरुष सर्वदा उनकी सेवामें लगे रहते। कहीं पक्षी चहकते रहते तो कहीं भौंरे गुंजार करते रहते और कहीं-कहीं वन्दीजन उनकी विरदावलीका बखान करते रहते ||४५-४६||
यद्गार्हस्थ्यं तु संवीक्ष्य सप्तद्वीपवतीपतिः ।
विस्मितः स्तम्भमजहात् सार्वभौमश्रियान्वितम् ॥ ४७ ॥
सप्तद्वीपवती पृथ्वीके स्वामी मान्धाता सौभरिजीकी इस गृहस्थीका सुख देखकर आश्चर्यचकित हो गये। उनका यह गर्व कि मैं सार्वभौम सम्पत्तिका स्वामी हूँ, जाता रहा ।।४७।।
एवं गृहेष्वभिरतो विषयान् विविधैः सुखैः ।
सेवमानो न चातुष्यद् आज्यस्तोकैरिवानलः ॥ ४८ ॥
इस प्रकार सौभरिजी गृहस्थीके सुखमें रम गये और अपनी नीरोग इन्द्रियोंसे अनेकों विषयोंका सेवन करते रहे। फिर भी जैसे घीकी बँदोंसे आग तप्त नहीं होती, वैसे ही उन्हें सन्तोष नहीं हुआ ।।४८।।
स कदाचिद् उपासीन आत्मापह्नवमात्मनः ।
ददर्श बह्वृचाचार्यो मीनसङ्गसमुत्थितम् ॥ ४९ ॥
ऋग्वेदाचार्य सौभरिजी एक दिन स्वस्थ चित्तसे बैठे हुए थे। उस समय उन्होंने देखा कि मत्स्यराजके क्षणभरके संगसे मैं किस प्रकार अपनी तपस्या तथा अपना आपातक खो बैठा ||४९।।
अहो इमं पश्यत मे विनाशं
तपस्विनः सच्चरितव्रतस्य ।
अन्तर्जले वारिचरप्रसङ्गात्
प्रच्यावितं ब्रह्म चिरं धृतं यत् ॥ ५० ॥
वे सोचने लगे—’अरे, मैं तो बड़ा तपस्वी था। मैंने भलीभाँति अपने व्रतोंका अनुष्ठान भी किया था। मेरा यह अधःपतन तो देखो! मैंने दीर्घकालसे अपने ब्रह्मतेजको अक्षुण्ण रखा था, परन्तु जलके भीतर विहार करती हई एक मछलीके संसर्गसे मेरा वह ब्रह्मतेज नष्ट हो गया ।।५०।।
सङ्गं त्यजेत मिथुनव्रतीनां मुमुक्षुः ।
सर्वात्मना न विसृजेद् बहिरिन्द्रियाणि ॥
एकश्चरन् रहसि चित्तमनन्त ईशे ।
युञ्जीत तद्व्रतिषु साधुषु चेत् प्रसङ्गः ॥ ५१ ॥
अतः जिसे मोक्षकी इच्छा है, उस पुरुषको चाहिये कि वह भोगी प्राणियोंका संग सर्वथा छोड़ दे और एक क्षणके लिये भी अपनी इन्द्रियोंको बहिर्मुख न होने दे। अकेला ही रहे और एकान्तमें अपने चित्तको सर्वशक्तिमान् भगवान्में ही लगा दे। यदि संग करनेकी आवश्यकता ही हो तो भगवान्के अनन्यप्रेमी निष्ठावान् महात्माओंका ही संग करे ।।५१।।
एकस्तपस्व्यहमथाम्भसि मत्स्यसङ्गात्
पञ्चाशदासमुत पञ्चसहस्रसर्गः ।
नान्तं व्रजाम्युभयकृत्यमनोरथानां
मायागुणैः हृतमतिर्विषयेऽर्थभावः ॥ ५२ ॥
मैं पहले एकान्तमें अकेला ही तपस्या में संलग्न था। फिर जलमें मछलीका संग होनेसे विवाह करके पचास हो गया और फिर सन्तानोंके रूपमें पाँच हजार। विषयोंमें सत्यबुद्धि होनेसे मायाके गुणोंने मेरी बुद्धि हर ली। अब तो लोक और परलोकके सम्बन्धमें मेरा मन इतनी लालसाओंसे भर गया है कि मैं किसी तरह उनका पार ही नहीं पाता ।।५२।।
एवं वसन् गृहे कालं विरक्तो न्यासमास्थितः ।
वनं जगाम अनुययुः तत्पत्न्यः पतिदेवताः ॥ ५३ ॥
इस प्रकार विचार करते हुए वे कुछ दिनोंतक तो घरमें ही रहे। फिर विरक्त होकर उन्होंने
संन्यास ले लिया और वे वनमें चले गये। अपने पतिको ही सर्वस्व माननेवाली उनकी पत्नियोंने भी उनके साथ ही वनकी यात्रा की ।।५३||
तत्र तप्त्वा तपस्तीक्ष्णं आत्मदर्शनमात्मवान् ।
सहैवाग्निभिरात्मानं युयोज परमात्मनि ॥ ५४ ॥
वहाँ जाकर परम संयमी सौभरिजीने बडी घोर तपस्या की, शरीरको सखा दिया तथा आहवनीय आदि अग्नियोंके साथ ही अपनेआपको परमात्मामें लीन कर दिया ||५४||
ताः स्वपत्युर्महाराज निरीक्ष्याध्यात्मिकीं गतिम् ।
अन्वीयुस्तत्प्रभावेण अग्निं शान्तमिवार्चिषः ॥ ५५ ॥
परीक्षित्! उनकी पत्नियोंने जब अपने पति सौभरि मुनिकी आध्यात्मिक गति देखी, तब जैसे ज्वालाएँ शान्त अग्निमें लीन हो जाती हैंवैसे ही वे उनके प्रभावसे सती होकर उन्हींमें लीन हो गयीं, उन्हींकी गतिको प्राप्त हुईं ।।५५।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥