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श्रीमद् भागवत महापुराण नवम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 9 अध्याय 9

Spread the Glory of Sri SitaRam!

श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः ९/अध्यायः ९

गंगावतरणकथा, भगीरथवृत्तं सौदासचरितं च –

श्रीशुक उवाच ।
अंशुमांश्च तपस्तेपे गंगानयनकाम्यया ।
कालं महान्तं नाशक्नोत् ततः कालेन संस्थितः ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते है-परीक्षित्! अंशुमान्ने गंगाजीको लानेको कामनासे बहुत वर्षोंतक घोर तपस्या की; परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली, समय आनेपर उनकी मृत्यु हो गयी ।।१।।

दिलीपस्तत्सुतस्तद्वद् अशक्तः कालमेयिवान् ।
भगीरथस्तस्य पुत्रः तेपे स सुमहत् तपः ॥ २ ॥

अंशुमानके पुत्र दिलीपने भी वैसी ही तपस्या की; परन्तु वे भी असफल ही रहे, समयपर उनकी भी मृत्यु हो गयी। दिलीपके पुत्र थे भगीरथ। उन्होंने बहुत बड़ी तपस्या की ।।२।।

दर्शयामास तं देवी प्रसन्ना वरदास्मि ते ।
इत्युक्तः स्वं अभिप्रायं शशंसावनतो नृपः ॥ ३ ॥

उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवती गंगाने उन्हें दर्शन दिया और कहा कि-‘मैं तुम्हें वर देनेके लिये आयी हूँ।’ उनके ऐसा कहनेपर राजा भगीरथने बड़ी नम्रतासे अपना अभिप्राय प्रकट किया कि ‘आप मर्त्यलोकमें चलिये’ ||३||

कोऽपि धारयिता वेगं पतन्त्या मे महीतले ।
अन्यथा भूतलं भित्त्वा नृप यास्ये रसातलम् ॥ ४ ॥

[गंगाजीने कहा-] ‘जिस समय मैं स्वर्गसे पृथ्वीतलपर गिरूँ उस समय मेरे वेगको कोई धारण करनेवाला होना चाहिये। भगीरथ! ऐसा न होनेपर मैं पृथ्वीको फोड़कर रसातलमें चली जाऊँगी ।।४।।

किं चाहं न भुवं यास्ये नरा मय्यामृजन्त्यघम् ।
मृजामि तदघं क्वाहं राजन् तत्र विचिन्त्यताम् ॥ ५ ॥

इसके अतिरिक्त इस कारणसे भी मैं पृथ्वीपर नहीं जाऊँगी कि लोग मुझमें अपने पाप धोयेंगे। फिर मैं उस पापको कहाँ धोऊँगी। भगीरथ! इस विषयमें तुम स्वयं विचार कर लो’ ||५||

श्रीभगीरथ उवाच ।
साधवो न्यासिनः शान्ता ब्रह्मिष्ठा लोकपावनाः ।
हरन्ति अघं ते अंगसंगात् तेष्वास्ते ह्यघभित् हरिः ॥ ६ ॥

भगीरथने कहा-‘माता! जिन्होंने लोक-परलोक, धन-सम्पत्ति और स्त्री-पुत्रकी कामनाका संन्यास कर दिया है, जो संसारसे उपरत होकर अपने-आपमें शान्त हैं, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकोंको पवित्र करनेवाले परोपकारी सज्जन हैं—वे अपने अंगस्पर्शसे तुम्हारे पापोंको नष्ट कर देंगे। क्योंकि उनके हृदयमें अघरूप अघासुरको मारनेवाले भगवान् सर्वदा निवास करते हैं ।।६।।

धारयिष्यति ते वेगं रुद्रस्त्वात्मा शरीरिणाम् ।
यस्मिन् ओतं इदं प्रोतं विश्वं शाटीव तन्तुषु ॥ ७ ॥

समस्त प्राणियोंके आत्मा रुद्रदेव तुम्हारा वेग धारण कर लेंगे। क्योंकि जैसे साड़ी सूतोंमें ओत-प्रोत है, वैसे ही यह सारा विश्व भगवान् रुद्रमें ही ओत-प्रोत है’ ||७||

इत्युक्त्वा स नृपो देवं तपसा तोषयच्छिवम् ।
कालेनाल्पीयसा राजन् तस्येशः समतुष्यत ॥ ८ ॥

परीक्षित! गंगाजीसे इस प्रकार कहकर राजा भगीरथने तपस्याके द्वारा भगवान् शंकरको प्रसन्न किया। थोड़े ही दिनोंमें महादेवजी उनपर प्रसन्न हो गये ||८||

तथेति राज्ञाभिहितं सर्वलोकहितः शिवः ।
दधारावहितो गंगां पादपूतजलां हरेः ॥ ९ ॥

भगवान् शंकर तो सम्पूर्ण विश्वके हितैषी हैं, राजाकी बात उन्होंने ‘तथास्तु’ कहकर स्वीकार कर ली। फिर शिवजीने सावधान होकर गंगाजीको अपने सिरपर धारण किया। क्यों न हो, भगवानके चरणोंका सम्पर्क होनेके कारण गंगाजीका जल परम पवित्र जो है ।।९।।

भगीरथः स राजर्षिः निन्ये भुवनपावनीम् ।
यत्र स्वपितॄणां देहा भस्मीभूताः स्म शेरते ॥ १० ॥

इसके बाद राजर्षि भगीरथ त्रिभुवनपावनी गंगाजीको वहाँ ले गये जहाँ उनके पितरोंके शरीर राखके ढेर बने पड़े थे ।।१०।।
रथेन वायुवेगेन प्रयान्तं अनुधावती ।
देशान् पुनन्ती निर्दग्धान् आसिञ्चत् सगरात्मजान् ॥ ११ ॥

वे वायुके समान वेगसे चलनेवाले रथपर सवार होकर आगे-आगे चल रहे थे और उनके पीछे-पीछे मार्गमें पड़नेवाले देशोंको पवित्र करती हुई गंगाजी दौड़ रही थीं। इस प्रकार गंगासागर-संगमपर पहुँचकर उन्होंने सगरके जले हुए पुत्रोंको अपने जलमें डुबा ।दिया ।।११।।

यज्जलस्पर्शमात्रेण ब्रह्मदण्डहता अपि ।
सगरात्मजा दिवं जग्मुः केवलं देहभस्मभिः ॥ १२ ॥

यद्यपि सगरके पुत्र ब्राह्मणके तिरस्कारके कारण भस्म हो गये थे, इसलिये उनके उद्धारका कोई उपाय न था—फिर भी केवल शरीरकी राखके साथ गंगाजलका स्पर्श हो जानेसे ही वे स्वर्गमें चले गये ।।१२।।

भस्मीभूतांगसंगेन स्वर्याताः सगरात्मजाः ।
किं पुनः श्रद्धया देवीं सेवन्ते ये धृतव्रताः ॥ १३ ॥

परीक्षित्! जब गंगाजलसे शरीरकी राखका स्पर्श हो जानेसे सगरके पत्रोंको स्वर्गकी प्राप्ति हो गयी तब जो लोग श्रद्धाके साथ नियम लेकर श्रीगंगाजीका सेवन करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ।।१३।।

न ह्येतत् परमाश्चर्यं स्वर्धुन्या यदिहोदितम् ।
अनन्तचरणाम्भोज प्रसूताया भवच्छिदः ॥ १४ ॥

सन्निवेश्य मनो यस्मिन् श्रद्धया मुनयोऽमलाः ।
त्रैगुण्यं दुस्त्यजं हित्वा सद्यो यातास्तदात्मताम् ॥ १५ ॥

मैंने गंगाजीकी महिमाके सम्बन्धमें जो कुछ कहा है, उसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है। क्योंकि गंगाजी भगवान्के उन चरणकमलोंसे निकली हैं, जिनका श्रद्धाके साथ चिन्तन करके बड़े-बड़े मुनि निर्मल हो जाते हैं और तीनों गुणोंके कठिन बन्धनको काटकर तुरन्त भगवत्स्वरूप बन जाते हैं। फिर गंगाजी संसारका बन्धन काट दें, इसमें कौन बड़ी बातहै ।।१४-१५||

श्रुतो भगीरथाज्जज्ञे तस्य नाभोऽपरोऽभवत् ।
सिन्धुद्वीपः ततस्तस्मात् अयुतायुः ततोऽभवत् ॥ १६ ॥

ऋतूपर्णो नलसखो योऽश्वविद्यामयान्नलात् ।
दत्त्वाक्षहृदयं चास्मै सर्वकामस्तु तत्सुतम् ॥ १७ ॥

भगीरथका पुत्र था श्रुत, श्रुतका नाभ। यह नाभ पूर्वोक्त नाभसे भिन्न है। नाभका पुत्र था सिन्धद्वीप और सिन्धद्वीपका अयुताय। अयतायुके पुत्रका नाम था ऋतुपर्ण। वह नलका मित्र था। उसने नलको पासा फेंकनेकी विद्याका रहस्य बतलाया था और बदलेमें उससे अश्व-विद्या सीखी थी। ऋतुपर्णका पुत्र सर्वकाम हुआ ।।१६-१७।।

ततः सुदासः तत्पुत्रो मदयन्तीपतिर्नृपः ।
आहुर्मित्रसहं यं वै कल्माषाङ्‌घ्रिमुत क्वचित् ।
वसिष्ठशापाद्रक्षोऽभूत् अनपत्यः स्वकर्मणा ॥ १८ ॥

परीक्षित्! सर्वकामके पुत्रका नाम था सुदास। सुदासके पुत्रका नाम था सौदास और सौदासकी पत्नीका नाम था मदयन्ती। सौदासको ही कोई-कोई मित्रसह कहते हैं और कहीं-कहीं उसे कल्माषपाद भी कहा गया है। वह वसिष्ठके शापसे राक्षस हो गया था और फिर अपने कर्मों के कारण सन्तानहीन हुआ ।।१८।।

श्रीराजोवाच ।
किं निमित्तो गुरोः शापः सौदासस्य महात्मनः ।
एतद् वेदितुमिच्छामः कथ्यतां न रहो यदि ॥ १९ ॥

राजा परीक्षितने पूछा-भगवन्! हम यह जानना चाहते हैं कि महात्मा सौदासको गुरु वसिष्ठजीने शाप क्यों दिया। यदि कोई गोपनीय बात न हो तो कृपया बतलाइये ।।१९।।

श्रीशुक उवाच ।
सौदासो मृगयां किञ्चित् चरन् रक्षो जघान ह ।
मुमोच भ्रातरं सोऽथ गतः प्रतिचिकीर्षया ॥ २० ॥

सञ्चिन्तयन् अघं राज्ञः सूदरूपधरो गृहे ।
गुरवे भोक्तुकामाय पक्त्वा निन्ये नरामिषम् ॥ २१ ॥

श्रीशकदेवजीने कहा-परीक्षित! एक बार राजा सौदास शिकार खेलने गये हए थे। वहाँ उन्होंने किसी राक्षसको मार डाला और उसके भाईको छोड़ दिया। उसने राजाके इस कामको अन्याय समझा और उनसे भाईकी मृत्युका बदला लेनेके लिये वह रसोइयेका रूप धारण करके उनके घर गया। जब एक दिन भोजन करनेके लिये गुरु वसिष्ठजी राजाके यहाँ आये, तब उसने मनुष्यका मांस राँधकर उन्हें परस दिया ।।२०-२१।।

परिवेक्ष्यमाणं भगवान् विलोक्य अभक्ष्यमञ्जसा ।
राजानं अशपत् क्रुद्धो रक्षो ह्येवं भविष्यसि ॥ २२ ॥

जब सर्वसमर्थ वसिष्ठजीने देखा कि परोसी जानेवाली वस्तु तो नितान्त अभक्ष्य है, तब उन्होंने क्रोधित होकर राजाको शाप दिया कि ‘जा, इस कामसे तू राक्षस हो जायगा’ ||२२||

रक्षःकृतं तद्विदित्वा चक्रे द्वादशवार्षिकम् ।
सोऽपि अपोऽञ्जलिनादाय गुरुं शप्तुं समुद्यतः ॥ २३ ॥

जब उन्हें यह बात मालूम हुई कि यह काम तो राक्षसका है-राजाका नहीं, तब उन्होंने उस शापको केवल बारह वर्षके लिये कर दिया। उस समय राजा सौदास भी अपनी अंजलिमें जल लेकर गुरु वसिष्ठको शाप देनेके लिये उद्यत हुए ।।२३।।

वारितो मदयन्त्यापो रुशतीः पादयोर्जहौ ।
दिशः खमवनीं सर्वं पश्यन् जीवमयं नृपः ॥ २४ ॥

परन्तु उनकी पत्नी मदयन्तीने उन्हें ऐसा करनेसे रोक दिया। इसपर सौदासने विचार किया कि ‘दिशाएँ, आकाश और पृथ्वीसब-के-सब तो जीवमय ही हैं। तब यह तीक्ष्ण जल कहाँ छोईं?’ अन्तमें उन्होंने उस जलको अपने पैरोंपर डाल लिया। [इसीसे उनका नाम ‘मित्रसह’ हुआ] ||२४||

राक्षसं भावमापन्नः पादे कल्माषतां गतः ।
व्यवायकाले ददृशे वनौकोदम्पती द्विजौ ॥ २५ ॥

उस जलसे उनके पैर काले पड़ गये थे, इसलिये उनका नाम ‘कल्माषपाद’ भी हआ। अब वे राक्षस हो चुके थे। एक दिन राक्षस बने हुए राजा कल्माषपादने एक वनवासी ब्राह्मण-दम्पतिको सहवासके समय देख लिया ।।२५।।

क्षुधार्तो जगृहे विप्रं तत्पत्‍न्याहाकृतार्थवत् ।
न भवान् राक्षसः साक्षात् इक्ष्वाकूणां महारथः ॥ २६ ॥

मदयन्त्याः पतिर्वीर नाधर्मं कर्तुमर्हसि ।
देहि मेऽपत्यकामाया अकृतार्थं पतिं द्विजम् ॥ २७ ॥

कल्माषपादको भूख तो लगी ही थी, उसने ब्राह्मणको पकड़ लिया। ब्राह्मण-पत्नीकी कामना अभी पूर्ण नहीं हुई थी। उसने कहा-‘राजन्! आप राक्षस नहीं हैं। आप महारानी मदयन्तीके पति और इक्ष्वाकुवंशके वीर महारथी हैं। आपको ऐसा अधर्म नहीं करना चाहिये। मुझे सन्तानकी कामना है और इस ब्राह्मणकी भी कामनाएँ अभी पूर्ण नहीं हुई हैं इसलिये आप मुझे मेरा यह ब्राह्मण पति दे दीजिये ||२६-२७||

देहोऽयं मानुषो राजन् पुरुषस्याखिलार्थदः ।
तस्मादस्य वधो वीर सर्वार्थवध उच्यते ॥ २८ ॥

राजन्! यह मनुष्य-शरीर जीवको धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति करानेवाला है। इसलिये वीर! इस शरीरको नष्ट कर देना सभी पुरुषार्थोंकी हत्या कही जाती है ।।२८।।

एष हि ब्राह्मणो विद्वान् तपःशीलगुणान्वितः ।
आरिराधयिषुर्ब्रह्म महापुरुषसंज्ञितम् ।
सर्वभूतात्मभावेन भूतेष्वन्तर्हितं गुणैः ॥ २९ ॥

फिर यह ब्राह्मण तो विद्वान् है। तपस्या, शील और बड़े-बड़े गुणोंसे सम्पन्न है। यह उन पुरुषोत्तम परब्रह्मकी समस्त प्राणियोंके आत्माके रूपमें आराधना करना चाहता है, जो समस्त पदार्थों में विद्यमान रहते हुए भी उनके पृथक्-पृथक् गुणोंसे छिपे हुए हैं ।।२९।।

सोऽयं ब्रह्मर्षिवर्यस्ते राजर्षिप्रवराद् विभो ।
कथमर्हति धर्मज्ञ वधं पितुरिवात्मजः ॥ ३० ॥

राजन्! आप शक्तिशाली हैं। आप धर्मका मर्म भलीभाँति जानते हैं। जैसे पिताके हाथों पुत्रकी मृत्यु उचित नहीं, वैसे ही आप-जैसे श्रेष्ठ राजर्षिके हाथों मेरे श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि पतिका वध किसी प्रकार उचित नहीं है ||३०||

तस्य साधोरपापस्य भ्रूणस्य ब्रह्मवादिनः ।
कथं वधं यथा बभ्रोः मन्यते सन्मतो भवान् ॥ ३१ ॥

आपका साधु-समाजमें बड़ा सम्मान है। भला आप मेरे परोपकारी, निरपराध,
श्रोत्रिय एवं ब्रह्मवादी पतिका वध कैसे ठीक समझ रहे हैं? ये तो गौके समान निरीह हैं ||३१||

यइ अयं क्रियते भक्षः तर्हि मां खाद पूर्वतः ।
न जीविष्ये विना येन क्षणं च मृतकं यथा ॥ ३२ ॥

फिर भी यदि आप इन्हें खा ही डालना चाहते हैं, तो पहले मुझे खा डालिये। क्योंकि अपने पतिके बिना मैं मुर्देके समान हो जाऊँगी और एक क्षण भी जीवित न रह सकूँगी’ ||३२||

एवं करुणभाषिण्या विलपन्त्या अनाथवत् ।
व्याघ्रः पशुमिवाखादत् सौदासः शापमोहितः ॥ ३३ ॥

ब्राह्मणपत्नी बड़ी ही करुणापूर्ण वाणीमें इस प्रकार कहकर अनाथकी भाँति रोने लगी। परन्तु सौदासने शापसे मोहित होनेके कारण उसकी प्रार्थनापर कुछ भी ध्यान न दिया और वह उस ब्राह्मणको वैसे ही खा गया, जैसे बाघ किसी पशुको खा जाय ।।३३।।

ब्राह्मणी वीक्ष्य दिधिषुं पुरुषादेन भक्षितम् ।
शोचन्ति आत्मानमुर्वीशं अशपत् कुपिता सती ॥ ३४ ॥

जब ब्राह्मणीने देखा कि राक्षसने मेरे गर्भाधानके लिये उद्यत पतिको खा लिया, तब उसे बड़ाशोक हुआ। सती ब्राह्मणीने क्रोध करके राजाको शाप दे दिया ||३४।।

यस्मान्मे भक्षितः पाप कामार्तायाः पतिस्त्वया ।
तवापि मृत्युः आधानाद् अकृतप्रज्ञ दर्शितः ॥ ३५ ॥

‘रे पापी! मैं अभी कामसे पीड़ित हो रही थी। ऐसी अवस्थामें तुने मेरे पतिको खा डाला है। इसलिये मुर्ख! जब तू स्त्रीसे सहवास करना चाहेगा, तभी तेरी मृत्यु हो जायगी, यह बात मैं तुझे सुझाये देती हँ’ ||३५||

एवं मित्रसहं शप्त्वा पतिलोकपरायणा ।
तदस्थीनि समिद्धेऽग्नौ प्रास्य भर्तुर्गतिं गता ॥ ३६ ॥

इस प्रकार मित्रसहको शाप देकर ब्राह्मणी अपने पतिकी अस्थियोंको धधकती हई चितामें डालकर स्वयं भी सती हो गयी और उसने वही गति प्राप्त की, जो उसके पतिदेवको मिली थी। क्यों न हो, वह अपने पतिको छोड़कर और किसी लोकमें जाना भी तो नहीं चाहती थी ।।३६।।

विशापो द्वादशाब्दान्ते मैथुनाय समुद्यतः ।
विज्ञाय ब्राह्मणीशापं महिष्या स निवारितः ॥ ३७ ॥

बारह वर्ष बीतनेपर राजा सौदास शापसे मुक्त हो गये। जब वे सहवासके लिये अपनी पत्नीके पास गये, तब उसने इन्हें रोक दिया। क्योंकि उसे उस ब्राह्मणीके शापका पता था ।।३७।।

अत ऊर्ध्वं स तत्याज स्त्रीसुखं कर्मणाप्रजाः ।
वसिष्ठस्तदनुज्ञातो मदयन्त्यां प्रजामधात् ॥ ३८ ॥

इसके बाद उन्होंने स्त्री-सुखका बिलकुल परित्याग ही कर दिया। इस प्रकार अपने कर्मके फलस्वरूप वे सन्तानहीन हो गये। तब वसिष्ठजीने उनके कहनेसे मदयन्तीकोगर्भाधान कराया ।।३८।।

सा वै सप्त समा गर्भं अबिभ्रन्न व्यजायत ।
जघ्नेऽश्मनोदरं तस्याः सोऽश्मकस्तेन कथ्यते ॥ ३९ ॥

मदयन्ती सात वर्षतक गर्भ धारण किये रही, परन्तु बच्चा पैदा नहीं हआ। तब वसिष्ठजीने पत्थरसे उसके पेटपर आघात किया। इससे जो बालक हुआ, वह अश्म (पत्थर) की चोटसे पैदा होनेके कारण ‘अश्मक’ कहलाया ।।३९।।

अश्मकान् मूलको जज्ञे यः स्त्रीभिः परिरक्षितः ।
नारीकवच इत्युक्तो निःक्षत्रे मूलकोऽभवत् ॥ ४० ॥

अश्मकसे मूलकका जन्म हुआ। जब परशुरामजी पृथ्वीको क्षत्रियहीन कर रहे थे, तब स्त्रियोंने उसे छिपाकर रख लिया था। इसीसे उसका एक नाम ‘नारीकवच’ भी हुआ। उसे मूलक इसलिये कहते हैं कि वह पृथ्वीके क्षत्रियहीन हो जानेपर उस वंशका मूल (प्रवर्तक) बना ।।४०।।

ततो दशरथस्तस्मात् पुत्र ऐडविडिस्ततः ।
राजा विश्वसहो यस्य खट्वांगश्चक्रवर्त्यभूत् ॥ ४१ ॥

मूलकके पुत्र हुए दशरथ, दशरथके ऐडविड और ऐडविडके राजा विश्वसह। विश्वसहके पुत्र ही चक्रवर्ती सम्राट खट्वांग हुए ।।४१।।

यो देवैरर्थितो दैत्यान् अवधीद् युधि दुर्जयः ।
मुहूर्तं आयुः ज्ञात्वैत्य स्वपुरं सन्दधे मनः ॥ ४२ ॥

युद्ध में उन्हें कोई जीत नहीं सकता था। उन्होंने देवताओंकी प्रार्थनासे दैत्योंका वध किया था। जब उन्हें देवताओंसे यह मालूम हुआ कि अब मेरी आयु केवल दो ही घड़ी बाकी है, तब वे अपनी राजधानी लौट आये और अपने मनको उन्होंने भगवान्में लगा दिया ।।४२।।

न मे ब्रह्मकुलात् प्राणाः कुलदैवान्न चात्मजाः ।
न श्रियो न मही राज्यं न दाराश्चातिवल्लभाः ॥ ४३ ॥

वे मन-ही-मन सोचने लगे कि ‘मेरे कुलके इष्ट देवता हैं ब्राह्मण! उनसे बढ़कर मेरा प्रेम अपने प्राणोंपर भी नहीं है। पत्नी, पुत्र, लक्ष्मी, राज्य और पृथ्वी भी मुझे उतने प्यारे नहीं लगते ।।४३।।

न बाल्येऽपि मतिर्मह्यं अधर्मे रमते क्वचित् ।
नापश्यं उत्तमश्लोकात् अन्यत् किञ्चन वस्त्वहम् ॥ ४४ ॥

मेरा मन बचपनमें भी कभी अधर्मकी ओर नहीं गया। मैंने पवित्रकीर्ति भगवान्के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु कहीं नहीं देखी ।।४४।।

देवैः कामवरो दत्तो मह्यं त्रिभुवनेश्वरैः ।
न वृणे तमहं कामं भूतभावनभावनः ॥ ४५ ॥

तीनों लोकोंके स्वामी देवताओंने मुझे मुँहमाँगा वर देनेको कहा। परन्तु मैंने उन भोगोंकी लालसा बिलकुल नहीं की। क्योंकि समस्त प्राणियोंके जीवनदाता श्रीहरिकी भावनामें ही मैं मग्न हो रहा था ।।४५।।

ये विक्षिप्तेन्द्रियधियो देवास्ते स्वहृदि स्थितम् ।
न विन्दन्ति प्रियं शश्वद् आत्मानं किमुतापरे ॥ ४६ ॥

जिन देवताओंकी इन्द्रियाँ और मन विषयोंमें भटक रहे हैं, वे सत्त्वगुणप्रधान होनेपर भी अपने हृदयमें विराजमान, सदा-सर्वदा प्रियतमके रूपमें रहनेवाले अपने आत्मस्वरूप भगवान्को नहीं जानते। फिर भला जो रजोगुणी और तमोगुणी हैं, वे तो जान ही कैसे सकते हैं ।।४६।।

अथेशमायारचितेषु संगं
गुणेषु गन्धर्वपुरोपमेषु ।
रूढं प्रकृत्यात्मनि विश्वकर्तुः
भावेन हित्वा तमहं प्रपद्ये ॥ ४७ ॥

इसलिये अब इन विषयोंमें मैं नहीं रमता। ये तो मायाके खेल हैं। आकाशमें झूठ-मूठ प्रतीत होनेवाले गन्धर्वनगरोंसे बढ़कर इनकी सत्ता नहीं है। ये तो अज्ञानवश चित्तपर चढ़ गये थे। संसारके सच्चे रचयिता भगवान्की भावनामें लीन होकर मैं विषयोंको छोड़ रहा हूँ और केवल उन्हींकी शरण ले रहा हूँ ।।४७।।

इति व्यवसितो बुद्ध्या नारायणगृहीतया ।
हित्वान्यभावमज्ञानं ततः स्वं भावमास्थितः ॥ ४८ ॥

परीक्षित्! भगवान्ने राजा खट्वांगकी बुद्धिको पहलेसे ही अपनी ओर आकर्षित कर रखा था। इसीसे वे अन्त समयमें ऐसा निश्चय कर सके। अब उन्होंने शरीर आदि अनात्म पदार्थों में जो अज्ञानमूलक आत्मभाव था, उसका परित्याग कर दिया और अपने वास्तविक आत्मस्वरूपमें स्थित हो गये ।।४८||

यत्तद्‍ब्रह्म परं सूक्ष्मं अशून्यं शून्यकल्पितम् ।
भगवान् वासुदेवेति यं गृणन्ति हि सात्वताः ॥ ४९ ॥

वह स्वरूप साक्षात् परब्रह्म है। वह सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, शून्यके समान ही है। परन्तु वह शून्य नहीं, परम सत्य है। भक्तजन उसी वस्तुको ‘भगवान् वासुदेव’ इस नामसे वर्णन करते हैं ।।४९।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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