क्या गोस्वामी तुलसीदास जी एवं श्री रामचरितमानस दलित एवं नारी विरोधी हैं?
क्या गोस्वामी तुलसीदास जी एवं श्री रामचरितमानस
दलित एवं नारी विरोधी हैं?
वर्तमान में कुछ लोगों के द्वारा कुछ अनर्गल प्रलाप गोस्वामी जी एवं श्री मानस जी के विरुद्ध फैलाया जा रहा है। इसी सन्दर्भ में RamCharit.in के फाउंडर का यह लेख स्वदेश समाचार पत्र के सभी 12 संस्करणों में प्रमुखता से प्रथम पृष्ठ पर छापा गया।
अपनी बात शुरू करने से पहले एक द्विपद कहना चाहूँगा ………
करनी बिन कथनी कथे, अज्ञानी दिन रात।
कुकर ज्यों भुकता फिरे, सुनी सुनाई बात॥
जिस प्रकार एक कुत्ते के भोंकने पर अनायास ही बिना कारण जाने बहुत सारे कुत्ते भूंकने लगते हैं उसी तरह अज्ञानी और बुद्धिहीन व्यक्ति भी बिना करनी किये सिर्फ सुनी सुनाई बातों को रटते रहते हैं। कुछ लोग जिन्होंने आज तक रामचरितमानस की एक भी चौपाई नहीं पढ़ी है वो भी तपाक से कह देता है की अरे तुलसीदास ने ऐसा लिख दिया।
दलित विरोध ?
गोस्वामी तुलसीदास जी सनातन धर्मावलम्बियों के अभिभावक के रूप में सबको शिक्षा देते हुए कभी प्रेम से पुचकारते तो कभी कठोरता से डांटते दीखते हैं। केवल किसी दलित या गैर ब्राह्मण जाति को रेखांकित कर तुलसीदास जी को लक्ष्य करना जातिवादी भेड़ियों द्वारा अपनी राजनैतिक जठराग्नि को शांत करने का कुचक्र ही प्रतीत होता है।
ब्राह्मणों को गोस्वामी जी ने क्या-क्या नहीं कहा है, उत्तरकाण्ड में लिखते हैं;
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी॥ (उत्तरकाण्ड 99/8)
अर्थात कलियुग में ब्राह्मण अपढ़, लोभी, कामी, आचारहीन, मूर्ख और व्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी होते हैं। इस विषय पर ब्राह्मण समाज गोस्वामी तुलसीदास जी से नाराज़ नहीं होता अपितु एक अभिभावक के रूप में इसे कठोरता से दी गई शिक्षा के रूप में ग्रहण करता है।
वह क्षत्रिय राजाओं के राजनीतिक विसंगतियों की कटु आलोचना करते हैं और राजा राम को आराध्य मानते हुए भी राजाओं के लिए नर्कभोग के दंड की व्यवस्था भी करते हैं –
“जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नर्क अधिकारी॥” (अयोध्याकाण्ड)
कलियुग के क्षत्रियों की राजनीतिक विसंगतियों को उजागर करते हुए कहते हैं,
“नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं॥ (उत्तरकाण्ड)
क्षत्रिय राजा पाप परायण हो गए, उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजा को नित्य ही बिना अपराध दंड देकर उसकी दुर्दशा किया करते हैं।
इन शिक्षाप्रद प्रसंगों को हिन्दू समाज एक सीख के तौर पर लेते हुए स्वीकार करता है की तुलसीदास जी का उद्देश्य लोकमंगल है जहाँ सबके द्वारा सबका आपसी कल्याण सुनिश्चित हो।
तुलसी के ‘रामराज्य’ की संकल्पना में छुआ-छूत, जातिवाद, भेदभाव का कोई स्थान नहीं था। चारों वर्ण के लोग रामराज्य के ‘राजघाट’ पर एक साथ स्नान करते थे-
‘राजघाट सब विधि सुंदर बर, मज्जहि तहाँ बरन चारिउ नर’।
(उत्तरकाण्ड 29)
राम की भक्ति में तुलसीदास के समतावादी दृष्टि की पहचान होती है,
पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥
(उत्तरकाण्ड 87 क)
वह पुरुष हो, नपुंसक हो, स्त्री हो अथवा चर-अचर कोई भी जीव हो, कपट छोड़कर जो भी सर्वभाव से मुझे भजता है, वही मुझे परम प्रिय है।
ट्रांसजेंडर के लोकप्रिय होते वैश्विक विमर्श के सैकड़ों वर्ष पूर्व गोस्वामी जी में ट्रांसजेंडर समाज के प्रति समता का भाव था। गोस्वामी जी के विचार समय से कितने आगे थे इसका प्रमाण यह उपरोक्त चौपाई है।
यादों की बारात फिल्म में शंकर के रूप में अभिनय करते धर्मेंद्र ने एक डायलाग कहा है, “कुत्ते कमीने मैं तेरा खून पी जाऊंगा”। क्या इस हिंसक वक्तव्य के लिए डायरेक्टर नासिर हुसैन की आलोचना करना उचित है ? शायद नहीं, क्यों की आप मानते हैं की एक साहित्यिक कथोपकथन में कोई पात्र अपने ज्ञान अथवा आचरण के अनुसार ही संवाद करता है और उस संवाद को लेखक/ निर्देशक का निजी संवाद नहीं माना जाता है। संवाद रचनाकार का न होकर देशकाल के पात्र का होता है जैसे मानस में समुद्र ने भगवान राम से कहा है;
प्रभु भल किन्ही मोहि सीख दीन्ही, मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गंवार शुद्र पशु नारी , सकल ताडना के अधिकारी॥
(सुन्दरकाण्ड)
प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी, किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब समझाने के अधिकारी हैं। इस तरह से यह संवाद समुद्र ने राम जी से कहा है, न की राम ने कहा है और न ही तुलसी दास जी ने।
नारी विरोध ?
मैं ऐसे भ्रमित बुद्धि के लोगों से निवेदन करता हूँ की आप अरण्यकाण्ड में शबरी का प्रसंग पढ़ें जहाँ शबरी भगवान् से कहती है (तुलसीदास नहीं कह रहे);
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी॥
अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी॥
(अरण्यकाण्ड)
(मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ? मैं नीच जाति की और अत्यंत मूढ़ बुद्धि हूँ। जो अधम से भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यंत अधम हैं, और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मंदबुद्धि हूँ।)
राम जी इसका उत्तर देते हैं,
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥
(अरण्यकाण्ड)
(श्री रघुनाथजी ने कहा- हे भामिनि! मेरी बात सुन! मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूँ।)
तुलसीदास जी ने शबरी की अपने बारे में नीचजाति, अधम नारी और मंदबुध्दि आदि की मान्यता का खंडन भगवान श्री राम के श्रीमुख से ‘भामिनि” (सुन्दर, बुद्धि एवं भाव से सम्पन्न महिला) कहलवाकर करवाया है। इसका अर्थ है की गोस्वामी जी उस समय में व्याप्त जातीय, लैंगिक एवं शिक्षा के आधार पर बंटे हुए समाज में भक्ति के द्वारा समता की स्थापना कर रहे हैं।
जननी सम जानहिं पर नारी। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे॥
मानव जीवन में नारियों के प्रति सम्मान को प्रतिस्थापित करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि जो पुरुष अपनी पत्नी के अलावा किसी और स्त्री को अपनी मां के सामान समझता है, उसी के ह्रदय में ईश्वर का वास होता है।
गोस्वामी तुलसीदास जी के लेखन का मनोविज्ञान उनके द्वारा स्वयं के बारे में लिखने के भाव से समझा जा सकता है। तुलसीदास जी वैराग्यसंदीपनी में लिखते हैं;
तुलसी जाके बदन ते धोखेहुँ निकसत राम ।
ताके पग की पगतरी मेरे तन को चाम ॥ ३७॥
जिसके मुख से धोखे से भी ‘राम‘ (नाम) निकल जाता है, उसके पग की जूती मेरे शरीर के चमड़े से बने॥३७॥
इस दासानुदासी भक्ति में दीनता और समर्पण के जिस गहराई तक गोस्वामी जी उतरते हैं उसी को समझते हुए महात्मा नाभादास जी ने भक्तमाल में उन्हें इस भक्तों की दिव्य महामाला के सुमेरु (माला में सबसे ऊपर का बड़ा मनका) के रूप में स्थापित किया है। सत्य ही गोस्वामी तुलसीदास जी लोकमंगल के भावना रुपी ब्रह्माण्ड के सुमेरु पर्वत हैं। ऐसे तुलसीदास प्रातःस्मरणीय हैं और पूज्यनीय भी।
– शिवेश प्रताप
Author, Columnist, Blogger & IIM Calcutta Alumnus
Founder www.RamCharit.in
(First Digital Encyclopedia of Prabhu SitaRam)
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