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वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 1 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 1

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
प्रथमः सर्गः (सर्ग 1)

श्रीराम, लक्ष्मण और सीता का तापसों के आश्रम मण्डल में सत्कार

 

प्रविश्य तु महारण्यं दण्डकारण्यमात्मवान्।
रामो ददर्श दुर्धर्षस्तापसाश्रममण्डलम्॥१॥

दण्डकारण्य नामक महान् वन में प्रवेश करके मन को वश में रखने वाले दुर्जय वीर श्रीराम ने तपस्वी मुनियों के बहुत-से आश्रम देखे ॥१॥

कुशचीरपरिक्षिप्तं ब्राह्मया लक्ष्या समावृतम्।
यथा प्रदीप्तं दुर्दर्श गगने सूर्यमण्डलम्॥२॥

वहाँ कुश और वल्कल वस्त्र फैले हुए थे। वह आश्रम मण्डल ऋषियों की ब्रह्मविद्या के अभ्यास से प्रकट हुए विलक्षण तेज से व्याप्त था, इसलिये आकाश में प्रकाशित होने वाले दुर्दर्श सूर्य-मण्डल की भाँति वह भूतल पर उद्दीप्त हो रहा था। राक्षस आदि के लिये उसकी ओर देखना भी कठिन था॥२॥

शरण्यं सर्वभूतानां सुसम्मृष्टाजिरं सदा।
मृगैर्बहुभिराकीर्णं पक्षिसंघैः समावृतम्॥३॥

वह आश्रमसमुदाय सभी प्राणियों को शरण देने वाला था। उसका आँगन सदा झाड़ने-बुहारने से स्वच्छ बना रहता था। वहाँ बहुत-से वन्य पशु भरे रहते थे और पक्षियों के समुदाय भी उसे सब ओर से घेरे रहते थे॥

पूजितं चोपनृत्तं च नित्यमप्सरसां गणैः ।
विशालैरग्निशरणैः स्रग्भाण्डैरजिनैः कुशैः॥४॥
समिद्भिस्तोयकलशैः फलमूलैश्च शोभितम्।
आरण्यैश्च महावृक्षैः पुण्यैः स्वादुफलैर्वृतम्॥

वहाँ का प्रदेश इतना मनोरम था कि वहाँ अप्सराएँ प्रतिदिन आकर नृत्य करती थीं। उस स्थान के प्रति उनके मन में बड़े आदर का भाव था। बड़ी-बड़ी अग्निशालाएँ, सुवा आदि यज्ञपात्र, मृगचर्म, कुश,
समिधा, जलपूर्ण कलश तथा फल-मूल उसकी शोभा बढ़ाते थे। स्वादिष्ट फल देने वाले परम पवित्र तथा बड़े-बड़े वन्य वृक्षों से वह आश्रममण्डल घिरा हुआ था॥ ४-५॥

बलिहोमार्चितं पुण्यं ब्रह्मघोषनिनादितम्।
पुष्पैश्चान्यैः परिक्षिप्तं पद्मिन्या च सपद्मया॥ ६॥

बलिवैश्वदेव और होम से पूजित वह पवित्र आश्रम समूह वेदमन्त्रों के पाठ की ध्वनि से गूंजता रहता था। कमलपुष्पों से सुशोभित पुष्करिणी उस स्थान की शोभा बढ़ाती थी तथा वहाँ और भी बहुत-से फूल सब ओर बिखरे हुए थे॥

फलमूलाशनैर्दान्तैश्चीरकृष्णाजिनाम्बरैः।
सूर्यवैश्वानराभैश्च पुराणैर्मुनिभिर्युतम्॥७॥

उन आश्रमों में चीर और काला मृगचर्म धारण करने वाले तथा फल-मूल का आहार करके रहने वाले, जितेन्द्रिय एवं सूर्य और अग्नि के तुल्य महातेजस्वी, पुरातन मुनि निवास करते थे॥७॥

पुण्यैश्च नियताहारैः शोभितं परमर्षिभिः।
तद् ब्रह्मभवनप्रख्यं ब्रह्मघोषनिनादितम्॥८॥

नियमित आहार करने वाले पवित्र महर्षियों से सुशोभित वह आश्रमसमूह ब्रह्माजी के धाम की भाँति तेजस्वी तथा वेदध्वनि से निनादित था॥ ८॥

ब्रह्मविद्भिर्महाभागैाह्मणैरुपशोभितम्।
तद् दृष्ट्वा राघवः श्रीमांस्तापसाश्रममण्डलम्॥ ९॥
अभ्यगच्छन्महातेजा विज्यं कृत्वा महद् धनुः।

अनेक महाभाग ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण उन आश्रमों की शोभा बढ़ाते थे। महातेजस्वी श्रीराम ने उस आश्रममण्डल को देखकर अपने महान् धनुष की प्रत्यञ्चा उतार दी, फिर वे आश्रम के भीतर गये॥९ १/२॥

दिव्यज्ञानोपपन्नास्ते रामं दृष्ट्वा महर्षयः॥१०॥
अभिजग्मुस्तदा प्रीता वैदेहीं च यशस्विनीम्।

श्रीराम तथा यशस्विनी सीता को देखकर वे दिव्यज्ञान से सम्पन्न महर्षि बड़ी प्रसन्नता के साथ उनके पास गये॥

ते तु सोममिवोद्यन्तं दृष्ट्वा वै धर्मचारिणम्॥ ११॥
लक्ष्मणं चैव दृष्ट्वा तु वैदेहीं च यशस्विनीम्।
मङ्गलानि प्रयुञ्जानाः प्रत्यगृह्णन् दृढव्रताः॥ १२॥

दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले वे महर्षि उदयकाल के चन्द्रमा की भाँति मनोहर, धर्मात्मा श्रीराम को, लक्ष्मण को और यशस्विनी विदेहराजकुमारी सीता को भी देखकर उन सबके लिये मङ्गलमय आशीर्वाद देने लगे। उन्होंने उन तीनों को आदरणीय अतिथि के रूप में ग्रहण किया। ११-१२॥

रूपसंहननं लक्ष्मी सौकुमार्यं सुवेषताम्।
ददृशुर्विस्मिताकारा रामस्य वनवासिनः॥१३॥

श्रीराम के रूप, शरीर की गठन, कान्ति, सुकुमारता तथा सुन्दर वेष को उन वनवासी मुनियों ने आश्चर्यचकित होकर देखा॥ १३॥

वैदेहीं लक्ष्मणं रामं नेत्रैरनिमिषैरिव।
आश्चर्यभूतान् ददृशुः सर्वे ते वनवासिनः॥१४॥

वन में निवास करने वाले वे सभी मुनि श्रीराम,लक्ष्मण और सीता–तीनों को एकटक नेत्रों से देखने लगे। उनका स्वरूप उन्हें आश्चर्यमय प्रतीत होता था।॥ १४॥

अत्रैनं हि महाभागाः सर्वभूतहिते रताः।
अतिथिं पर्णशालायां राघवं संन्यवेशयन्॥१५॥

समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहने वाले उन महाभाग महर्षियों ने वहाँ अपने प्रिय अतिथि इन भगवान् श्रीराम को पर्णशाला में ले जाकर ठहराया॥ १५॥

ततो रामस्य सत्कृत्य विधिना पावकोपमाः।
आजहस्ते महाभागाः सलिलं धर्मचारिणः॥ १६॥

अग्नितुल्य तेजस्वी और धर्मपरायण उन महाभाग मुनियोंने श्रीरामको विधिवत् सत्कारके साथ जल समर्पित किया॥१६॥

मङ्गलानि प्रयुञ्जाना मुदा परमया युताः।
मूलं पुष्पं फलं सर्वमाश्रमं च महात्मनः॥१७॥

फिर बड़ी प्रसन्नता के साथ मङ्गलसूचक आशीर्वाद देते हुए उन महात्मा श्रीराम को उन्होंने फल-मूल और फूल आदि के साथ सारा आश्रम भी समर्पित कर दिया।

निवेदयित्वा धर्मज्ञास्ते तु प्राञ्जलयोऽब्रुवन्।
धर्मपालो जनस्यास्य शरण्यश्च महायशाः॥ १८॥
पूजनीयश्च मान्यश्च राजा दण्डधरो गुरुः।
इन्द्रस्यैव चतुर्भागः प्रजा रक्षति राघव॥१९॥
राजा तस्माद् वरान् भोगान् रम्यान् भुङ्क्ते नमस्कृतः।

सब कुछ निवेदन करके वे धर्मज्ञ मुनि हाथ जोड़कर बोले—’रघुनन्दन! दण्ड धारण करने वाला राजा धर्म का पालक, महायशस्वी, इस जनसमुदाय को शरण देने वाला माननीय, पूजनीय और सबका गुरु है। इस भूतल पर इन्द्र (आदि लोकपालों) का ही चौथा अंश होने के कारण वह प्रजा की रक्षा करता है, अतः राजा सबसे वन्दित होता तथा उत्तम एवं रमणीय भोगों का उपभोग करता है। (जब साधारण राजा की यह स्थिति है, तब आपके लिये तो क्या कहना है, आप तो साक्षात् भगवान् हैं)॥ १८-१९॥

ते वयं भवता रक्ष्या भवद्विषयवासिनः।
नगरस्थो वनस्थो वा त्वं नो राजा जनेश्वरः॥ २०॥

‘हम आपके राज्य में निवास करते हैं, अतः आपको हमारी रक्षा करनी चाहिये। आप नगर में रहें या वन में, हमलोगों के राजा ही हैं। आप समस्त जनसमुदाय के शासक एवं पालक हैं ॥ २० ॥

न्यस्तदण्डा वयं राजञ्जितक्रोधा जितेन्द्रियाः।
रक्षणीयास्त्वया शश्वद् गर्भभूतास्तपोधनाः॥ २१॥

‘राजन्! हमने जीवमात्र को दण्ड देना छोड़ दिया है, क्रोध और इन्द्रियों को जीत लिया है। अब तपस्या ही हमारा धन है। जैसे माता गर्भस्थ बालक की रक्षा करती है, उसी प्रकार आपको सदा सब तरह से हमारी रक्षा करनी चाहिये’ ॥ २१॥

एवमुक्त्वा फलैर्मूलैः पुष्पैरन्यैश्च राघवम्।
वन्यैश्च विविधाहारैः सलक्ष्मणमपूजयन्॥ २२॥

ऐसा कहकर उन तपस्वी मुनियों ने वन में उत्पन्न होने वाले फल, मूल, फूल तथा अन्य अनेक प्रकार के आहारों से लक्ष्मण (और सीता) सहित भगवान् श्रीरामचन्द्रजी का सत्कार किया॥ २२॥

तथान्ये तापसाः सिद्धा रामं वैश्वानरोपमाः।
न्यायवृत्ता यथान्यायं तर्पयामासुरीश्वरम्॥२३॥

इनके सिवा दूसरे अग्नितुल्य तेजस्वी तथा न्याययुक्त बर्ताव वाले सिद्ध तापसों ने भी सर्वेश्वर भगवान् श्रीराम को यथोचित रूप से तृप्त किया॥२३॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे प्रथमः सर्गः॥१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में पहला सर्ग पूरा हुआ॥१॥


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Shivangi

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