वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 11 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 11
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
एकादशः सर्गः (सर्ग 11)
पञ्चाप्सर तीर्थ एवं माण्डकर्णि मुनि की कथा, विभिन्न आश्रमों में घूमकर श्रीराम आदि का सुतीक्ष्ण के आश्रम में आना तथा अगस्त्य के प्रभाव का वर्णन
अग्रतः प्रययौ रामः सीता मध्ये सुशोभना।
पृष्ठतस्तु धनुष्पाणिर्लक्ष्मणोऽनुजगाम ह॥१॥
तदनन्तर आगे-आगे श्रीराम चले, बीच में परम सुन्दरी सीता चल रही थीं और उनके पीछे हाथ में धनुष लिये लक्ष्मण चलने लगे॥१॥
तौ पश्यमानौ विविधान् शैलप्रस्थान् वनानि च।
नदीश्च विविधा रम्या जग्मतुः सह सीतया॥२॥
सीता के साथ वे दोनों भाई भाँति-भाँति के पर्वतीय शिखरों, वनों तथा नाना प्रकार की रमणीय नदियों को देखते हुए अग्रसर होने लगे॥२॥
सारसांश्चक्रवाकांश्च नदीपुलिनचारिणः।
सरांसि च सपद्मानि युतानि जलजैः खगैः॥३॥
उन्होंने देखा, कहीं नदियों के तटों पर सारस और चक्रवाक विचर रहे हैं और कहीं खिले हुए कमलों और जलचर पक्षियों से युक्त सरोवर शोभा पाते हैं। ३॥
यूथबद्धांश्च पृषतान् मदोन्मत्तान् विषाणिनः।
महिषांश्च वराहांश्च गजांश्च द्रुमवैरिणः॥४॥
कहीं चितकबरे मृग यूथ बाँधे चले जा रहे थे, कहीं बड़े-बड़े सींगवाले मदमत्त भैंसे तथा बढ़े हुए दाँत वाले जंगली सूअर और वृक्षों के वैरी दन्तार हाथी दिखायी देते थे॥४॥
ते गत्वा दूरमध्वानं लम्बमाने दिवाकरे।
ददृशुः सहिता रम्यं तटाकं योजनायुतम्॥५॥
दूरतक यात्रा तै करने के बाद जब सूर्य अस्ताचल को जाने लगे, तब उन तीनों ने एक साथ देखा-सामने एक बड़ा ही सुन्दर तालाब है, जिसकी लम्बाई-चौड़ाई एक-एक योजन की जान पड़ती है॥५॥
पद्मपुष्करसम्बाधं गजयूथैरलंकृतम्।
सारसैहँसकादम्बैः संकुलं जलजातिभिः॥६॥
वह सरोवर लाल और श्वेत कमलों से भरा हुआ था। उसमें क्रीड़ा करते हुए झुंड-के-झुंड हाथी उसकी शोभा बढ़ाते थे तथा सारस, राजहंस और कलहंस आदि पक्षियों एवं जलमें उत्पन्न होने वाले मत्स्य आदि जन्तुओं से वह व्याप्त दिखायी देता था। ६॥
प्रसन्नसलिले रम्ये तस्मिन् सरसि शुश्रुवे।
गीतवादित्रनिर्घोषो न तु कश्चन दृश्यते॥७॥
स्वच्छ जल से भरे हुए उस रमणीय सरोवर में गाने बजाने का शब्द सुनायी देता था, किंतु कोई दिखायी नहीं दे रहा था॥७॥
ततः कौतूहलाद् रामो लक्ष्मणश्च महारथः।
मुनिं धर्मभृतं नाम प्रष्टुं समुपचक्रमे॥८॥
तब श्रीराम और महारथी लक्ष्मण ने कौतूहलवश अपने साथ आये हुए धर्मभृत् नामक मुनि से पूछना आरम्भ किया— ॥८॥
इदमत्यद्भुतं श्रुत्वा सर्वेषां नो महामुने।
कौतूहलं महज्जातं किमिदं साधु कथ्यताम्॥९॥
‘महामुने! यह अत्यन्त अद्भुत संगीत की ध्वनि सुनकर हम सब लोगों को बड़ा कौतूहल हो रहा है। यह क्या है, इसे अच्छी तरह बताइये’ ॥९॥
तेनैवमुक्तो धर्मात्मा राघवेण मुनिस्तदा।
प्रभावं सरसः क्षिप्रमाख्यातुमुपचक्रमे॥१०॥
श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रकार पूछने पर धर्मात्मा धर्मभृत् नामक मुनि ने तुरंत ही उस सरोवर के प्रभाव का वर्णन आरम्भ किया— ॥ १० ॥
इदं पञ्चाप्सरो नाम तटाकं सार्वकालिकम्।
निर्मितं तपसा राम मुनिना माण्डकर्णिना॥११॥
‘श्रीराम! यह पञ्चाप्सर नामक सरोवर है, जो सर्वदा अगाध जल से भरा रहता है। माण्डकर्णि नामक मुनि ने अपने तप के द्वारा इसका निर्माण किया था॥११॥
स हि तेपे तपस्तीव्र माण्डकर्णिमहामुनिः।
दशवर्षसहस्राणि वायुभक्षो जलाशये॥१२॥
‘महामुनि माण्डकर्णि ने एक जलाशय में रहकर केवल वायु का आहार करते हुए दस सहस्र वर्षों तक तीव्र तपस्या की थी॥ १२॥
ततः प्रव्यथिताः सर्वे देवाः साग्निपुरोगमाः।
अब्रुवन् वचनं सर्वे परस्परसमागताः॥१३॥
‘उस समय अग्नि आदि सब देवता उनके तप से अत्यन्त व्यथित हो उठे और आपस में मिलकर वे सब-के-सब इस प्रकार कहने लगे॥ १३॥
अस्माकं कस्यचित् स्थानमेष प्रार्थयते मुनिः।
इति संविग्नमनसः सर्वे तत्र दिवौकसः॥१४॥
‘जान पड़ता है, ये मुनि हमलोगों में से किसी के स्थान को लेना चाहते हैं, ऐसा सोचकर वे सब देवता वहाँ मन-ही-मन उद्विग्न हो उठे॥१४॥
ततः कर्तुं तपोविनं सर्वदेवैर्नियोजिताः।
प्रधानाप्सरसः पञ्च विद्युच्चलितवर्चसः॥१५॥
‘तब उनकी तपस्या में विघ्न डालने के लिये सम्पूर्ण देवताओं ने पाँच प्रधान अप्सराओं को नियुक्त किया, जिनकी अङ्गकान्ति विद्युत् के समान चञ्चल थी॥ १५॥
अप्सरोभिस्ततस्ताभिर्मुनिर्दृष्टपरावरः।
नीतो मदनवश्यत्वं देवानां कार्यसिद्धये ॥१६॥
‘तदनन्तर जिन्होंने लौकिक एवं पारलौकिक धर्माधर्म का ज्ञान प्राप्त कर लिया था, उन मुनि को उन पाँच अप्सराओं ने देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये काम के अधीन कर दिया॥१६॥
ताश्चैवाप्सरसः पञ्च मुनेः पत्नीत्वमागताः।
तटाके निर्मितं तासां तस्मिन्नन्तर्हितं गृहम्॥१७॥
‘मुनि की पत्नी बनी हुई वे ही पाँच अप्सराएँ यहाँ रहती हैं। उनके रहने के लिये इस तालाब के भीतर घर बना हुआ है, जो जल के अंदर छिपा हुआ है॥ १७ ॥
तत्रैवाप्सरसः पञ्च निवसन्त्यो यथासुखम्।
रमयन्ति तपोयोगान्मुनिं यौवनमास्थितम्॥१८॥
‘उसी घर में सुखपूर्वक रहती हुई पाँचों अप्सराएँ तपस्या के प्रभाव से युवावस्था को प्राप्त हुए मुनि को अपनी सेवाओं से संतुष्ट करती हैं।॥ १८ ॥
तासां संक्रीडमानानामेष वादित्रनिःस्वनः।
श्रूयते भूषणोन्मिश्रो गीतशब्दो मनोहरः॥१९॥
‘क्रीड़ा-विहार में लगी हुई उन अप्सराओं के ही वाद्यों की यह ध्वनि सुनायी देती है, जो भूषणों की झनकार के साथ मिली हुई है। साथ ही उनके गीत का भी मनोहर शब्द सुन पड़ता है’ ॥ १९॥
आश्चर्यमिति तस्यैतद् वचनं भावितात्मनः।
राघवः प्रतिजग्राह सह भ्रात्रा महायशाः॥२०॥
अपने भाई के साथ महायशस्वी श्रीरघुनाथजी ने उन भावितात्मा महर्षि के इस कथन को ‘यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है’ यों कहकर स्वीकार किया। २०॥
एवं कथयमानः स ददर्शाश्रममण्डलम्।
कुशचीरपरिक्षिप्तं ब्राह्मया लक्ष्या समावृतम्॥ २१॥
इस प्रकार कहते हुए श्रीरामचन्द्रजी को एक आश्रममण्डल दिखायी दिया, जहाँ सब ओर कुश और वल्कल वस्त्र फैले हुए थे। वह आश्रम ब्राह्मी लक्ष्मी (ब्रह्मतेज) से प्रकाशित होता था॥२१॥
प्रविश्य सह वैदेह्या लक्ष्मणेन च राघवः।
तदा तस्मिन् स काकुत्स्थः श्रीमत्याश्रममण्डले॥ २२॥
उषित्वा स सुखं तत्र पूज्यमानो महर्षिभिः।
विदेहनन्दिनी सीता तथा लक्ष्मण के साथ उस तेजस्वी आश्रममण्डल में प्रवेश करके ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम ने उस समय सुखपूर्वक निवास किया। वहाँ के महर्षियों ने उनका बड़ा आदरसत्कार किया॥ २२ १/२॥
जगाम चाश्रमांस्तेषां पर्यायेण तपस्विनाम्॥ २३॥
येषामुषितवान् पूर्वं सकाशे स महास्त्रवित् ।
तदनन्तर महान् अस्त्रों के ज्ञाता श्रीरामचन्द्रजी बारीबारी से उन सभी तपस्वी मुनियों के आश्रमों पर गये, जिनके यहाँ वे पहले रह चुके थे। उनके पास भी (उनकी भक्ति देख) दुबारा जाकर रहे ॥ २३ १/२॥
क्वचित् परिदशान् मासानेकसंवत्सरं क्वचित्॥ २४॥
क्वचिच्च चतुरो मासान् पञ्च षट् च परान् क्वचित्।
अपरत्राधिकान् मासानध्यर्धमधिकं क्वचित्॥ २५॥
त्रीन् मासानष्टमासांश्च राघवो न्यवसत् सुखम्।
कहीं दस महीने, कहीं साल भर, कहीं चार महीने, कहीं पाँच या छः महीने, कहीं इससे भी अधिक समय (अर्थात् सात महीने), कहीं उससे भी अधिक (आठ महीने), कहीं आधे मास अधिक अर्थात् साढ़े आठ महीने, कहीं तीन महीने और कहीं आठ और तीन अर्थात् ग्यारह महीने तक श्रीरामचन्द्रजी ने सुखपूर्वक निवास किया॥ २४-२५ १/२ ॥
तत्र संवसतस्तस्य मुनीनामाश्रमेषु वै॥ २६॥
रमतश्चानुकूल्येन ययुः संवत्सरा दश।
इस प्रकार मुनियों के आश्रमों पर रहते और अनुकूलता पाकर आनन्द का अनुभव करते हुए उनके दस वर्ष बीत गये॥ २६ १/२॥
परिसृत्य च धर्मज्ञो राघवः सह सीतया॥२७॥
सुतीक्ष्णस्याश्रमपदं पुनरेवाजगाम ह।
इस प्रकार सब ओर घूम-फिरकर धर्म के ज्ञाता भगवान् श्रीराम सीता के साथ फिर सुतीक्ष्ण के आश्रम पर ही लौट आये॥ २७ १/२॥
स तमाश्रममागम्य मुनिभिः परिपूजितः॥२८॥
तत्रापि न्यवसद् रामः किंचित् कालमरिंदमः।
शत्रुओं का दमन करने वाले श्रीराम उस आश्रम में आकर वहाँ रहने वाले मुनियों द्वारा भलीभाँति सम्मानित हो वहाँ भी कुछ कालतक रहे ॥ २८ १/२॥
अथाश्रमस्थो विनयात् कदाचित् तं महामुनिम्॥ २९॥
उपासीनः स काकुत्स्थः सुतीक्ष्णमिदमब्रवीत्।
उस आश्रम में रहते हुए श्रीराम ने एक दिन महामुनि सुतीक्ष्ण के पास बैठकर विनीतभाव से कहा- ॥ २९ १/२॥
अस्मिन्नरण्ये भगवन्नगस्त्यो मनिसत्तमः॥३०॥
वसतीति मया नित्यं कथाः कथयतां श्रुतम्।
न तु जानामि तं देशं वनस्यास्य महत्तया॥३१॥
‘भगवन् ! मैंने प्रतिदिन बातचीत करने वाले लोगों के मुँह से सुना है कि इस वन में कहीं मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजी निवास करते हैं; किंतु इस वन की विशालता के कारण मैं उस स्थान को नहीं जानता हूँ॥ ३०-३१॥
कुत्राश्रमपदं रम्यं महर्षेस्तस्य धीमतः।
प्रसादार्थं भगवतः सानुजः सह सीतया॥३२॥
अगस्त्यमधिगच्छेयमभिवादयितुं मुनिम्।
मनोरथो महानेष हृदि सम्परिवर्तते॥३३॥
‘उन बुद्धिमान् महर्षि का सुन्दर आश्रम कहाँ है ? मैं लक्ष्मण और सीता के साथ भगवान् अगस्त्य को प्रसन्न करने के लिये उन मुनीश्वर को प्रणाम करने के उद्देश्य से उनके आश्रम पर जाऊँ—यह महान् मनोरथ मेरे हृदय में चक्कर लगा रहा है। ३२-३३॥
यदहं तं मुनिवरं शुश्रूषेयमपि स्वयम्।
इति रामस्य स मुनिः श्रुत्वा धर्मात्मनो वचः॥ ३४॥
सुतीक्ष्णः प्रत्युवाचेदं प्रीतो दशरथात्मजम्।
‘मैं चाहता हूँ कि स्वयं भी मुनिवर अगस्त्य की सेवा करूँ।’ धर्मात्मा श्रीराम का यह वचन सुनकर सुतीक्ष्ण मुनि बड़े प्रसन्न हुए और उन दशरथनन्दन से इस प्रकार बोले- ॥ ३४ १/२॥
अहमप्येतदेव त्वां वक्तुकामः सलक्ष्मणम्॥३५॥
अगस्त्यमभिगच्छेति सीतया सह राघव।
दिष्ट्या त्विदानीमर्थेऽस्मिन् स्वयमेव ब्रवीषि माम्॥३६॥
‘रघुनन्दन ! मैं भी लक्ष्मणसहित आपसे यही कहना चाहता था कि आप सीता के साथ महर्षि अगस्त्य के पास जायँ। सौभाग्य की बात है कि इस समय आप स्वयं ही मुझसे वहाँ जाने के विषय में पूछ रहे हैं। ३५-३६॥
अयमाख्यामि ते राम यत्रागस्त्यो महामुनिः।
योजनान्याश्रमात् तात याहि चत्वारि वै ततः।
दक्षिणेन महान् श्रीमानगस्त्यभ्रातुराश्रमः॥३७॥
‘श्रीराम! महामुनि अगस्त्य जहाँ रहते हैं, उस आश्रम का पता मैं अभी आपको बताये देता हूँ। तात! इस आश्रम से चार योजन दक्षिण चले जाइये। वहाँ आपको अगस्त्य के भाई का बहुत बड़ा एवं सुन्दर आश्रम मिलेगा॥ ३७॥
स्थलीप्रायवनोद्देशे पिप्पलीवनशोभिते।
बहुपुष्पफले रम्ये नानाविहगनादिते॥३८॥
पद्मिन्यो विविधास्तत्र प्रसन्नसलिलाशयाः।
हंसकारण्डवाकीर्णाश्चक्रवाकोपशोभिताः॥ ३९॥
‘वहाँ के वन की भूमि प्रायः समतल है तथा पिप्पली का वन उस आश्रम की शोभा बढ़ाता है। वहाँ फूलों और फलों की बहुतायत है। नाना प्रकार के पक्षियों के कलरवों से गूंजते हुए उस रमणीय आश्रम के पास भाँति-भाँति के कमलमण्डित सरोवर हैं, जो स्वच्छ जलसे भरे हुए हैं। हंस और कारण्डव आदि पक्षी उनमें सब ओर फैले हुए हैं तथा चक्रवाक उनकी शोभा बढ़ाते हैं॥ ३८-३९॥
तत्रैकां रजनीं व्युष्य प्रभाते राम गम्यताम्।
दक्षिणां दिशमास्थाय वनखण्डस्य पार्श्वतः॥ ४०॥
तत्रागस्त्याश्रमपदं गत्वा योजनमन्तरम्।
रमणीये वनोद्देशे बहपादपशोभिते॥४१॥
‘श्रीराम! आप एक रात उस आश्रम में ठहरकर प्रातःकाल उस वनखण्ड के किनारे दक्षिण दिशा की ओर जायें। इस प्रकार एक योजन आगे जाने पर अनेकानेक वृक्षों से सुशोभित वन के रमणीय भाग में अगस्त्य मुनि का आश्रम मिलेगा। ४०-४१॥
रंस्यते तत्र वैदेही लक्ष्मणश्च त्वया सह।
स हि रम्यो वनोद्देशो बहुपादपसंयुतः॥४२॥
‘वहाँ विदेहनन्दिनी सीता और लक्ष्मण आपके साथ सानन्द विचरण करेंगेः क्योंकि बहुसंख्यक वृक्षों से सुशोभित वह वनप्रान्त बड़ा ही रमणीय है। ४२॥
यदि बुद्धिः कृता द्रष्टुमगस्त्यं तं महामुनिम्।
अद्यैव गमने बुद्धिं रोचयस्व महामते॥४३॥
‘महामते! यदि आपने महामुनि अगस्त्य के दर्शन का निश्चित विचार कर लिया है तो आज ही वहाँ की यात्रा करने का भी निश्चय करें’। ४३॥
इति रामो मुनेः श्रुत्वा सह भ्रात्राभिवाद्य च।
प्रतस्थेऽगस्त्यमुद्दिश्य सानुगः सह सीतया॥४४॥
मुनि का यह वचन सुनकर भाईसहित श्रीरामचन्द्रजी ने उन्हें प्रणाम किया और सीता तथा लक्ष्मण के साथ अगस्त्यजी के आश्रम की ओर चल दिये॥४४॥
पश्यन् वनानि चित्राणि पर्वतांश्चाभ्रसंनिभान्।
सरांसि सरितश्चैव पथि मार्गवशानुगान्॥४५॥
मार्ग में मिले हुए विचित्र-विचित्र वनों, मेघमाला के समान पर्वतमालाओं, सरोवरों और सरिताओं को देखते हुए वे आगे बढ़ते गये॥ ४५ ॥
सुतीक्ष्णेनोपदिष्टेन गत्वा तेन पथा सुखम्।
इदं परमसंहृष्टो वाक्यं लक्ष्मणमब्रवीत्॥ ४६॥
इस प्रकार सुतीक्ष्ण के बताये हुए मार्ग से सुखपूर्वक चलते-चलते श्रीरामचन्द्रजी ने अत्यन्त हर्ष में भरकर लक्ष्मण से यह बात कही— ॥ ४६॥
एतदेवाश्रमपदं नूनं तस्य महात्मनः।
अगस्त्यस्य मुनेमा॑तुर्दृश्यते पुण्यकर्मणः॥४७॥
‘सुमित्रानन्दन! निश्चय ही यह पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करने वाले महात्मा अगस्त्यमुनि के भाई का आश्रम दिखायी दे रहा है। ४७॥
यथा हीमे वनस्यास्य ज्ञाताः पथि सहस्रशः।
संनताः फलभारेण पुष्पभारेण च द्रमाः॥४८॥
‘क्योंकि सुतीक्ष्णजी ने जैसा बतलाया था, उसके अनुसार इस वन के मार्ग में फूलों और फलों के भार से झुके हुए सहस्रों परिचित वृक्ष शोभा पा रहे हैं॥४८॥
पिप्पलीनां च पक्वानां वनादस्मादुपागतः।
गन्धोऽयं पवनोत्क्षिप्तः सहसा कटुकोदयः॥ ४९॥
‘इस वन में पकी हुई पीपलियों की यह गन्ध वायु से प्रेरित होकर सहसा इधर आयी है, जिससे कटु रस का उदय हो रहा है।। ४९॥
तत्र तत्र च दृश्यन्ते संक्षिप्ताः काष्ठसंचयाः।
लूनाश्च परिदृश्यन्ते दर्भा वैदूर्यवर्चसः॥५०॥
‘जहाँ-तहाँ लकड़ियों के ढेर लगे दिखायी देते हैं और वैदूर्यमणि के समान रंगवाले कुश कटे हुए दृष्टिगोचर होते हैं॥५०॥
एतच्च वनमध्यस्थं कृष्णाभ्रशिखरोपमम्।
पावकस्याश्रमस्थस्य धूमाग्रं सम्प्रदृश्यते॥५१॥
‘यह देखो, जंगल के बीच में आश्रम की अग्नि का धुआँ उठता दिखायी दे रहा है, जिसका अग्रभाग काले मेघों के ऊपरी भाग-सा प्रतीत होता है॥५१॥
विविक्तेषु च तीर्थेष कृतस्नाना द्विजातयः।
पुष्पोपहारं कुर्वन्ति कुसुमैः स्वयमर्जितैः॥५२॥
‘यहाँ के एकान्त एवं पवित्र तीर्थों में स्नान करके आये हुए ब्राह्मण स्वयं चुनकर लाये हुए फूलों से देवताओं के लिये पुष्पोपहार अर्पित करते हैं। ५२॥
ततः सुतीक्ष्णवचनं यथा सौम्य मया श्रुतम्।
अगस्त्यस्याश्रमो भ्रातुनूनमेष भविष्यति॥५३॥
‘सौम्य ! मैंने सुतीक्ष्णजी का कथन जैसा सुना था, उसके अनुसार यह निश्चय ही अगस्त्यजी के भाई का आश्रम होगा॥५३॥
निगृह्य तरसा मृत्युं लोकानां हितकाम्यया।
यस्य भ्रात्रा कृतेयं दिक्शरण्या पुण्यकर्मणा॥ ५४॥
‘इन्हीं के भाई पुण्यकर्मा अगस्त्यजी ने समस्त लोकों के हित की कामना से मृत्युस्वरूप वातापि और इल्वल का वेगपूर्वक दमन करके इस दक्षिण दिशा को शरण लेने के योग्य बना दिया॥५४॥
इहैकदा किल क्रूरो वातापिरपि चेल्वलः।
भ्रातरौ सहितावास्तां ब्राह्मणघ्नौ महासुरौ॥५५॥
‘एक समय की बात है, यहाँ क्रूर स्वभाव वाला वातापि और इल्वल—ये दोनों भाई एक साथ रहते थे। ये दोनों महान् असुर ब्राह्मणों की हत्या करने वाले थे॥
धारयन् ब्राह्मणं रूपमिल्वलः संस्कृतं वदन्।
आमन्त्रयति विप्रान् स श्राद्धमुद्दिश्य निघृणः॥ ५६॥
भ्रातरं संस्कृतं कृत्वा ततस्तं मेषरूपिणम्।
तान् द्विजान् भोजयामास श्राद्धदृष्टेन कर्मणा॥ ५७॥
‘निर्दयी इल्वल ब्राह्मण का रूप धारण करके संस्कृत बोलता हुआ जाता और श्राद्ध के लिये ब्राह्मणों को निमन्त्रण दे आता था। फिर मेष (जीवशाक) का रूप धारण करने वाले अपने भाई
वातापि का संस्कार करके श्राद्धकल्पोक्त विधि से ब्राह्मणों को खिला देता था। ५६-५७॥
ततो भुक्तवतां तेषां विप्राणामिल्वलोऽब्रवीत्।
वातापे निष्क्रमस्वेति स्वरेण महता वदन्॥५८॥
वे ब्राह्मण जब भोजन कर लेते, तब इल्वल उच्च स्वर से बोलता—’वाता पे! निकलो’ ॥ ५८॥
ततो भ्रातुर्वचः श्रुत्वा वातापिर्मेषवन्नदन्।
भित्त्वा भित्त्वा शरीराणि ब्राह्मणानां विनिष्पतत्॥ ५९॥
‘भाई की बात सुनकर वातापि भेड़े के समान ‘में-में’ करता हुआ उन ब्राह्मणों के पेट फाड़-फाड़कर निकल आता था॥ ५९॥
ब्राह्मणानां सहस्राणि तैरेवं कामरूपिभिः।
विनाशितानि संहत्य नित्यशः पिशिताशनैः॥ ६०॥
‘इस प्रकार इच्छानुसार रूप धारण करने वाले उन मांसभक्षी असुरों ने प्रतिदिन मिलकर सहस्रों ब्राह्मणों का विनाश कर डाला।। ६०॥
अगस्त्येन तदा देवैः प्रार्थितेन महर्षिणा।
अनुभूय किल श्राद्धे भक्षितः स महासुरः॥६१॥
‘उस समय देवताओं की प्रार्थना से महर्षि अगस्त्य ने श्राद्ध में शाकरूपधारी उस महान् असुर को जानबूझकर भक्षण किया॥६१॥
ततः सम्पन्नमित्युक्त्वा दत्त्वा हस्तेऽवनेजनम्।
भ्रातरं निष्क्रमस्वेति चेल्वलः समभाषत॥६२॥
‘तदनन्तर श्राद्धकर्म सम्पन्न हो गया। ऐसा कहकर ब्राह्मणों के हाथ में अवनेजन का जल दे इल्वल ने भाई को सम्बोधित करके कहा, ‘निकलो’ ।। ६२ ।।
स तदा भाषमाणं तु भ्रातरं विप्रघातिनम्।
अब्रवीत् प्रहसन् धीमानगस्त्यो मुनिसत्तमः॥ ६३॥
‘इस प्रकार भाई को पुकारते हुए उस ब्राह्मणघाती असुर से बुद्धिमान् मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य ने हँसकर कहा
कुतो निष्क्रमितुं शक्तिर्मया जीर्णस्य रक्षसः।
भ्रातुस्तु मेषरूपस्य गतस्य यमसादनम्॥६४॥
‘जिस जीवशाकरूपधारी तेरे भाई राक्षस को मैंने खाकर पचा लिया, वह तो यमलोक में जा पहुँचा है। अब उसमें निकलने की शक्ति कहाँ है’ ॥ ६४॥
अथ तस्य वचः श्रुत्वा भ्रातुर्निधनसंश्रितम्।
प्रधर्षयितुमारेभे मुनिं क्रोधान्निशाचरः॥६५॥
‘भाई की मृत्यु को सूचित करने वाले मुनि के इस वचन को सुनकर उस निशाचर ने क्रोधपूर्वक उन्हें मार डालने का उद्योग आरम्भ किया॥६५॥
सोऽभ्यद्रवद् द्विजेन्द्रं तं मुनिना दीप्ततेजसा।
चक्षुषानलकल्पेन निर्दग्धो निधनं गतः॥६६॥
“उसने ज्यों ही द्विजराज अगस्त्यपर धावा किया, त्यों ही उद्दीप्त तेजवाले उन मुनि ने अपनी अग्नितुल्य दृष्टि से उस राक्षस को दग्ध कर डाला। इस प्रकार उसकी मृत्यु हो गयी॥६६॥
तस्यायमाश्रमो भ्रातुस्तटाकवनशोभितः।
विप्रानुकम्पया येन कर्मेदं दुष्करं कृतम्॥६७॥
‘ब्राह्मणों पर कृपा करके जिन्होंने यह दुष्कर कर्म किया था, उन्हीं महर्षि अगस्त्य के भाई का यह आश्रम है, जो सरोवर और वन से सुशोभित हो रहा है’। ६७॥
एवं कथयमानस्य तस्य सौमित्रिणा सह।
रामस्यास्तं गतः सूर्यः संध्याकालोऽभ्यवर्तत॥ ६८॥
श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण के साथ इस प्रकार बातचीत कर रहे थे। इतने में ही सूर्यदेव अस्त हो गये और संध्या का समय हो गया। ६८॥
उपास्य पश्चिमां संध्यां सह भ्रात्रा यथाविधि।
प्रविवेशाश्रमपदं तमृषिं चाभ्यवादयत्॥६९॥
तब भाई के साथ विधिपूर्वक सायं संध्योपासना करके श्रीराम ने आश्रम में प्रवेश किया और उन महर्षि के चरणों में मस्तक झुकाया॥ ६९॥
सम्यकप्रतिगृहीतस्तु मुनिना तेन राघवः।
न्यवसत् तां निशामेकां प्राश्य मूलफलानि च॥ ७०॥
मुनि ने उनका यथावत् आदर-सत्कार किया। सीता और लक्ष्मणसहित श्रीराम वहाँ फल-मूल खाकर एक रात उस आश्रम में रहे ॥ ७० ॥
तस्यां रात्र्यां व्यतीतायामुदिते रविमण्डले।
भ्रातरं तमगस्त्यस्य आमन्त्रयत राघवः॥७१॥
वह रात बीतने पर जब सूर्योदय हुआ, तब श्रीरामचन्द्रजी ने अगस्त्य के भाई से विदा माँगते हुए कहा- ॥ ७१॥
अभिवादये त्वां भगवन् सुखमसम्युषितो निशाम्।
आमन्त्रये त्वां गच्छामि गुरुं ते द्रष्टुमग्रजम्॥७२॥
‘भगवन् ! मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ। यहाँ रात भर बड़े सुख से रहा हूँ। अब आपके बड़े भाई मुनिवर अगस्त्य का दर्शन करने के लिये जाऊँगा। इसके लिये आपसे आज्ञा चाहता हूँ’ ॥ ७२ ।।
गम्यतामिति तेनोक्तो जगाम रघुनन्दनः।
यथोद्दिष्टेन मार्गेण वनं तच्चावलोकयन्॥७३॥
तब महर्षि ने कहा, ‘बहुत अच्छा, जाइये।’ इस प्रकार महर्षि से आज्ञा पाकर भगवान् श्रीराम सुतीक्ष्ण के बताये हुए मार्ग से वन की शोभा देखते हुए आगे चले ॥ ७३॥
नीवारान् पनसान् सालान् वञ्जुलांस्तिनिशांस्तथा।
चिरिबिल्वान् मधूकांश्च बिल्वानथ च तिन्दुकान्॥७४॥
पुष्पितान् पुष्पिताग्राभिलताभिरुपशोभितान्।
ददर्श रामः शतशस्तत्र कान्तारपादपान्॥७५ ॥
हस्तिहस्तैर्विमृदितान् वानरैरुपशोभितान्।
मत्तैः शकुनिसद्धैश्च शतशः प्रतिनादितान्॥ ७६॥
श्रीराम ने वहाँ मार्ग में नीवार (जलकदम्ब), कटहल, साखू, अशोक, तिनिश, चिरिबिल्व, महुआ, बेल, तेंद्र तथा और भी सैकड़ों जंगली वृक्ष देखे, जो फूलों से भरे थे तथा खिली हुई लताओं से परिवेष्टित हो बड़ी शोभा पा रहे थे। उनमें से कई वृक्षों को हाथियों ने अपनी सूड़ों से तोड़कर मसल डाला था और बहुत-से वृक्षों पर बैठे हुए वानर उनकी शोभा बढ़ाते थे। सैकड़ों मतवाले पक्षी उनकी डालियोंपर चहक रहे थे॥ ७४–७६॥
ततोऽब्रवीत् समीपस्थं रामो राजीवलोचनः।
पृष्ठतोऽनुगतं वीरं लक्ष्मणं लक्ष्मिवर्धनम्॥७७॥
उस समय कमलनयन श्रीराम अपने पीछे-पीछे आते हुए शोभावर्धक वीर लक्ष्मण से, जो उनके निकट ही थे, इस प्रकार बोले- ॥ ७७॥
स्निग्धपत्रा यथा वृक्षा यथा क्षान्ता मृगद्विजाः।
आश्रमो नातिदूरस्थो महर्षे वितात्मनः॥७८॥
‘यहाँ के वृक्षों के पत्ते जैसे सुने गये थे, वैसे ही चिकने दिखायी देते हैं तथा पशु और पक्षी क्षमाशील एवं शान्त हैं। इससे जान पड़ता है, उन भावितात्मा (शुद्ध अन्तःकरण वाले) महर्षि अगस्त्य का आश्रम यहाँ से अधिक दूर नहीं है॥ ७८॥
अगस्त्य इति विख्यातो लोके स्वेनैव कर्मणा।
आश्रमो दृश्यते तस्य परिश्रान्तश्रमापहः॥७९॥
‘जो अपने कर्म से ही संसार में अगस्त्य* के नाम से विख्यात हुए हैं, उन्हीं का यह आश्रम दिखायी देता है. जो थके-माँदे पथिकों की थकावट को दूर करनेवाला है।
* अगं पर्वतं स्तम्भयति इति अगस्त्यः -जो अग अर्थात् पर्वत को स्तम्भित कर दे, उसे अगस्त्य कहते हैं।
प्राज्यधूमाकुलवनश्चीरमालापरिष्कृतः।
प्रशान्तमृगयूथश्च नानाशकुनिनादितः॥८०॥
‘इस आश्रम के वन यज्ञ-यागसम्बन्धी अधिक धूमों से व्याप्त हैं। चीरवस्त्रों की पंक्तियाँ इसकी शोभा बढ़ाती हैं। यहाँ के मृगों के झुंड सदा शान्त रहते हैं तथा इस आश्रम में नाना प्रकार के पक्षियों के कलरव गूंजते रहते हैं। ८० ॥
निगृह्य तरसा मृत्युं लोकानां हितकाम्यया।
दक्षिणा दिक् कृता येन शरण्या पुण्यकर्मणा॥ ८१॥
तस्येदमाश्रमपदं प्रभावाद् यस्य राक्षसैः।
दिगियं दक्षिणा त्रासाद् दृश्यते नोपभुज्यते॥ ८२॥
‘जिन पुण्यकर्मा महर्षि अगस्त्य ने समस्त लोकों की हितकामना से मृत्युस्वरूप राक्षसों का वेगपूर्वक दमन करके इस दक्षिण दिशा को शरण लेने के योग्य बना दिया तथा जिनके प्रभाव से राक्षस इस दक्षिण दिशा को केवल दूर से भयभीत होकर देखते हैं, इसका उपभोग भी नहीं करते, उन्हीं का यह आश्रम है। ८१-८२॥
यदाप्रभृति चाक्रान्ता दिगियं पुण्यकर्मणा।
तदाप्रभृति निर्वैराः प्रशान्ता रजनीचराः॥८३॥
‘पुण्यकर्मा महर्षि अगस्त्य ने जब से इस दिशा में पदार्पण किया है, तब से यहाँ के निशाचर वैररहित और शान्त हो गये हैं। ८३॥
नाम्ना चेयं भगवतो दक्षिणा दिक्प्रदक्षिणा।
प्रथिता त्रिषु लोकेषु दुर्धर्षा क्रूरकर्मभिः॥८४॥
‘भगवान् अगस्त्य की महिमा से इस आश्रम के आस-पास निर्वैरता आदि गुणों के सम्पादन में समर्थ तथा क्रूरकर्मा राक्षसों के लिये दुर्जय होने के कारण यह सम्पूर्ण दिशा नाम से भी तीनों लोकों में ‘दक्षिणा’ ही कहलायी, इसी नाम से विख्यात हुई तथा इसे ‘अगस्त्य की दिशा’ भी कहते हैं। ८४ ॥
मार्ग निरोधैं सततं भास्करस्याचलोत्तमः।
संदेशं पालयस्तस्य विन्ध्यशैलो न वर्धते॥८५॥
‘एक बार पर्वतश्रेष्ठ विन्ध्य सूर्य का मार्ग रोकने के लिये बढ़ा था, किंतु महर्षि अगस्त्य के कहने से वह नम्र हो गया। तब से आज तक निरन्तर उनके आदेश का पालन करता हुआ वह कभी नहीं बढ़ता॥ ८५॥
अयं दीर्घायुषस्तस्य लोके विश्रुतकर्मणः।
अगस्त्यस्याश्रमः श्रीमान् विनीतमृगसेवितः॥ ८६॥
‘वे दीर्घायु महात्मा हैं। उनका कर्म (समुद्रशोषण आदि कार्य) तीनों लोकों में विख्यात है। उन्हीं अगस्त्य का यह शोभासम्पन्न आश्रम है, जो विनीत मृगों से सेवित है।
एष लोकार्चितः साधुर्हिते नित्यं रतः सताम्।
अस्मानधिगतानेष श्रेयसा योजयिष्यति॥८७॥
‘ये महात्मा अगस्त्यजी सम्पूर्ण लोकों के द्वारा पूजित तथा सदा सज्जनों के हित में लगे रहने वाले हैं। अपने पास आये हुए हमलोगों को वे अपने आशीर्वाद से कल्याण के भागी बनायेंगे॥ ८७॥
आराधयिष्याम्यत्राहमगस्त्यं तं महामुनिम्।
शेषं च वनवासस्य सौम्य वत्स्याम्यहं प्रभो॥
‘सेवा करने में समर्थ सौम्य लक्ष्मण ! यहाँ रहकर मैं उन महामुनि अगस्त्य की आराधना करूँगा और वनवास के शेष दिन यहीं रहकर बिताऊँगा। ८८॥
अत्र देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः।
अगस्त्यं नियताहाराः सततं पर्युपासते॥८९॥
‘देवता, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षि यहाँ नियमित आहार करते हुए सदा अगस्त्य मुनि की उपासना करते हैं। ८९॥
नात्र जीवेन्मृषावादी क्रूरो वा यदि वा शठः।
नृशंसः पापवृत्तो वा मुनिरेष तथाविधः॥९०॥
‘ये ऐसे प्रभावशाली मुनि हैं कि इनके आश्रम में कोई झूठ बोलने वाला, क्रूर, शठ, नृशंस अथवा पापाचारी मनुष्य जीवित नहीं रह सकता॥९० ॥
अत्र देवाश्च यक्षाश्च नागाश्च पतगैः सह।
वसन्ति नियताहारा धर्ममाराधयिष्णवः॥ ९१॥
‘यहाँ धर्म की आराधना करने के लिये देवता, यक्ष, नाग और पक्षी नियमित आहार करते हुए निवास करते हैं ॥ ९१॥
अत्र सिद्धा महात्मानो विमानैः सूर्यसंनिभैः।
त्यक्त्वा देहान् नवैर्दैहैः स्वर्याताः परमर्षयः॥ ९२॥
‘इस आश्रम पर अपने शरीरों को त्यागकर अनेकानेक सिद्ध, महात्मा, महर्षि नूतन शरीरों के साथ सूर्यतुल्यतेजस्वी विमानों द्वारा स्वर्गलोक को प्राप्त हुए हैं। ९२॥
यक्षत्वममरत्वं च राज्यानि विविधानि च।
अत्र देवाः प्रयच्छन्ति भूतैराराधिताः शुभैः॥ ९३॥
‘यहाँ सत्कर्मपरायण प्राणियों द्वारा आराधित हुए देवता उन्हें यक्षत्व, अमरत्व तथा नाना प्रकार के राज्य प्रदान करते हैं॥९३॥
आगताः स्माश्रमपदं सौमित्रे प्रविशाग्रतः।
निवेदयेह मां प्राप्तमृषये सह सीतया॥९४॥
‘सुमित्रानन्दन ! अब हमलोग आश्रम पर आ पहुँचे। तुम पहले प्रवेश करो और महर्षियों को सीता के साथ मेरे आगमन की सूचना दो’ ॥ ९४ ॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे एकादशः सर्गः ॥११॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में ग्यारहवाँ सर्ग पूरा हुआ।११॥
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