वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 15 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 15
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
पञ्चदशः सर्गः (सर्ग 15)
पञ्चवटी के रमणीय प्रदेश में श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण द्वारा सुन्दर पर्णशाला का निर्माण तथा उसमें सीता और लक्ष्मणसहित श्रीराम का निवास
ततः पञ्चवटीं गत्वा नानाव्यालमृगायुताम्।
उवाच लक्ष्मणं रामो भ्रातरं दीप्ततेजसम्॥१॥
नाना प्रकार के सर्पो, हिंसक जन्तुओं और मृगों से भरी हुई पञ्चवटी में पहुँचकर श्रीराम ने उद्दीप्त तेजवाले अपने भाई लक्ष्मण से कहा- ॥१॥
आगताः स्म यथोद्दिष्टं यं देशं मुनिरब्रवीत्।
अयं पञ्चवटीदेशः सौम्य पुष्पितकाननः॥२॥
‘सौम्य! मुनिवर अगस्त्य ने हमें जिस स्थान का परिचय दिया था, उनके तथाकथित स्थान में हमलोग आ पहुँचे। यही पञ्चवटी का प्रदेश है। यहाँ का वनप्रान्त पुष्पों से कैसी शोभा पा रहा है॥२॥
सर्वतश्चार्यतां दृष्टिः कानने निपुणो ह्यसि।
आश्रमः कतरस्मिन् नो देशे भवति सम्मतः॥३॥
‘लक्ष्मण! तुम इस वन में चारों ओर दृष्टि डालो; क्योंकि इस कार्य में निपुण हो। देखकर यह निश्चय करो कि किस स्थान पर आश्रम बनाना हमारे लिये अच्छा होगा॥३॥
रमते यत्र वैदेही त्वमहं चैव लक्ष्मण।
तादृशो दृश्यतां देशः संनिकृष्टजलाशयः॥४॥
वनरामण्यकं यत्र जलरामण्यकं तथा।
संनिकृष्टं च यस्मिंस्तु समित्पुष्पकुशोदकम्॥५॥
“लक्ष्मण! तुम किसी ऐसे स्थान को ढूँढ़ निकालो, जहाँ से जलाशय निकट हो, जहाँ विदेहकुमारी सीता का मन लगे, जहाँ तुम और हम भी प्रसन्नतापूर्वक रह सकें, जहाँ वन और जल दोनों का रमणीय दृश्य हो तथा जिस स्थान के आस-पास ही समिधा, फूल, कुश और जल मिलने की सुविधा हो’ ॥ ४-५॥
एवमुक्तस्तु रामेण लक्ष्मणः संयताञ्जलिः।
सीतासमक्षं काकुत्स्थमिदं वचनमब्रवीत्॥६॥
श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर लक्ष्मण दोनों हाथ जोड़कर सीता के सामने ही उन ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम से इस प्रकार बोले- ॥६॥
परवानस्मि काकुत्स्थ त्वयि वर्षशतं स्थिते।
स्वयं तु रुचिरे देशे क्रियतामिति मां वद॥७॥
‘काकुत्स्थ! आपके रहते हुए मैं सदा पराधीन ही हूँ। मैं सैकड़ों या अनन्त वर्षों तक आपकी आज्ञा के अधीन ही रहना चाहता हूँ; अतः आप स्वयं ही देखकर जो स्थान सुन्दर जान पड़े, वहाँ आश्रम बनाने के लिये मुझे आज्ञा दें-मुझसे कहें कि तुम अमुक स्थान पर आश्रम बनाओ’ ॥ ७॥
सुप्रीतस्तेन वाक्येन लक्ष्मणस्य महाद्युतिः।
विमृशन् रोचयामास देशं सर्वगुणान्वितम्॥८॥
स तं रुचिरमाक्रम्य देशमाश्रमकर्मणि।।
हस्ते गृहीत्वा हस्तेन रामः सौमित्रिमब्रवीत्॥९॥
लक्ष्मण के इस वचन से अत्यन्त तेजस्वी भगवान् श्रीराम को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने स्वयं ही सोच-विचारकर एक ऐसा स्थान पसंद किया, जो सब प्रकार के उत्तम गुणों से सम्पन्न और आश्रम बनाने के योग्य था। उस सुन्दर स्थान पर आकर श्रीराम ने लक्ष्मण का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा – ॥ ८-९॥
अयं देशः समः श्रीमान् पुष्पितैस्तरुभिर्वृतः।
इहाश्रमपदं रम्यं यथावत् कर्तुमर्हसि॥१०॥
‘सुमित्रानन्दन! यह स्थान समतल और सुन्दर है तथा फूले हुए वृक्षों से घिरा है। तुम्हें इसी स्थान पर यथोचित रूप से एक रमणीय आश्रम का निर्माण करना चाहिये।
इयमादित्यसंकाशैः पद्यैः सुरभिगन्धिभिः।
अदूरे दृश्यते रम्या पद्मिनी पद्मशोभिता॥११॥
‘यह पास ही सूर्य के समान उज्ज्वल कान्तिवाले मनोरम गन्धयुक्त कमलों से रमणीय प्रतीत होने वाली तथा पद्मों की शोभा से सम्पन्न पुष्करिणी दिखायी देती है।
यथाख्यातमगस्त्येन मुनिना भावितात्मना।
इयं गोदावरी रम्या पुष्पितैस्तरुभिर्वृता॥१२॥
‘पवित्र अन्तःकरण वाले अगस्त्य मुनि ने जिसके विषय में कहा था, वह विकसित वृक्षावलियों से घिरी हई रमणीय गोदावरी नदी यही है॥ १२॥
हंसकारण्डवाकीर्णा चक्रवाकोपशोभिता।
नातिदूरे न चासन्ने मृगयूथनिपीडिता॥१३॥
‘इसमें हंस और कारण्डव आदि जलपक्षी विचर रहे हैं। चकवे इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं तथा पानी पीने के लिये आये हुए मृगों के झुंड इसके तट पर छाये रहते हैं। यह नदी इस स्थान से न तो अधिक दूर है और न अत्यन्त निकट ही॥ १३ ॥
मयूरनादिता रम्याः प्रांशवो बहुकन्दराः।
दृश्यन्ते गिरयः सौम्य फुल्लैस्तरुभिरावृताः॥ १४॥
‘सौम्य! यहाँ बहुत-सी कन्दराओं से युक्त ऊँचे-ऊँचे पर्वत दिखायी दे रहे हैं, जहाँ मयूरों की मीठी बोली गूंज रही है। ये रमणीय पर्वत खिले हुए वृक्षों से व्याप्त हैं॥ १४॥
सौवर्णै राजतैस्तानैर्देशे देशे तथा शुभैः।
गवाक्षिता इवाभान्ति गजाः परमभक्तिभिः॥
‘स्थान-स्थान पर सोने, चाँदी तथा ताँबे के समान रंगवाले सुन्दर गैरिक धातुओं से उपलक्षित ये पर्वत ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, मानो झरोखे के आकार में की गयी नीले, पीले और सफेद आदि रंगों की उत्तम
शृङ्गाररचनाओं से अलंकृत हाथी शोभा पा रहे हों। १५॥
सालैस्तालैस्तमालैश्च खजूरैः पनसैर्दुमैः ।
नीवारैस्तिनिशैश्चैव पुन्नागैश्चोपशोभिताः॥ १६॥
चूतैरशोकैस्तिलकैः केतकैरपि चम्पकैः ।
पुष्पगुल्मलतोपेतैस्तैस्तैस्तरुभिरावृताः॥१७॥
स्यन्दनैश्चन्दनैर्नीपैः पर्णासैर्लकुचैरपि।
धवाश्वकर्णखदिरैः शमीकिंशुकपाटलैः॥१८॥
पुष्पों, गुल्मों तथा लता-वल्लरियों से युक्त साल, ताल, तमाल, खजूर, कटहल, जलकदम्ब, तिनिश, पुनाग, आम,अशोक, तिलक, केवड़ा, चम्पा, स्यन्दन, चन्दन, कदम्ब, पर्णास, लकुच, धव, अश्वकर्ण, खैर, शमी, पलाश और पाटल (पाडर) आदि वृक्षों से घिरे हुए ये पर्वत बड़ी शोभा पा रहे हैं। १६–१८॥
इदं पुण्यमिदं रम्यमिदं बहुमृगद्विजम्।
इह वत्स्याम सौमित्रे सार्धमेतेन पक्षिणा ॥१९॥
‘सुमित्रानन्दन! यह बहुत ही पवित्र और बड़ा रमणीय स्थान है। यहाँ बहुत-से पशु-पक्षी निवास करते हैं। हमलोग भी यहीं इन पक्षिराज जटायु के साथ रहेंगे’।
एवमुक्तस्तु रामेण लक्ष्मणः परवीरहा।
अचिरेणाश्रमं भ्रातुश्चकार सुमहाबलः॥२०॥
श्रीराम के ऐसा कहने पर शत्रुवीरों का संहार करने वाले महाबली लक्ष्मण ने भाई के लिये शीघ्र ही आश्रम बनाकर तैयार किया॥२०॥
पर्णशालां सुविपुलां तत्र संघातमृत्तिकाम्।
सुस्तम्भां मस्करैर्दीधैः कृतवंशां सुशोभनाम्॥ २१॥
शमीशाखाभिरास्तीर्य दृढपाशावपाशिताम्।
कशकाशशरैः पर्णैः सुपरिच्छादितां तथा॥२२॥
समीकृततलां रम्यां चकार सुमहाबलः।।
निवासं राघवस्यार्थे प्रेक्षणीयमनुत्तमम्॥२३॥
वह आश्रम एक अत्यन्त विस्तृत पर्णशाला के रूप में बनाया गया था। महाबली लक्ष्मण ने पहले वहाँ मिट्टी एकत्र करके दीवार खड़ी की, फिर उसमें सुन्दर एवं सुदृढ़ खम्भे लगाये। खम्भों के ऊपर बड़े-बड़े बाँस तिरछे करके रखे। बाँसों के रख दिये जाने पर वह कुटी बड़ी सुन्दर दिखायी देने लगी। फिर उन बाँसों पर उन्होंने शमीवृक्ष की शाखाएँ फैला दीं और उन्हें मजबूत रस्सियों से कसकर बाँध दिया। – इसके बाद ऊपर से कुश, कास, सरकंडे और पत्ते बिछाकर उस पर्णशाला को भलीभाँति छा दिया तथा नीचे की भूमि को बराबर करके उस कुटी को बड़ा रमणीय बना दिया। इस प्रकार लक्ष्मण ने श्रीरामचन्द्रजी के लिये परम उत्तम निवासगृह बना दिया, जो देखने ही योग्य था॥ २१–२३॥
स गत्वा लक्ष्मणः श्रीमान् नदी गोदावरी तदा।
स्नात्वा पद्मानि चादाय सफलः पुनरागतः॥ २४॥
उसे तैयार करके श्रीमान् लक्ष्मणने गोदावरीनदीके तटपर जाकर तत्काल उसमें स्नान किया और कमलके फूल तथा फल लेकर वे फिर वहीं लौट आये॥२४॥
ततः पुष्पबलिं कृत्वा शान्तिं च स यथाविधि।
दर्शयामास रामाय तदाश्रमपदं कृतम्॥२५॥
तदनन्तर शास्त्रीय विधि के अनुसार देवताओं के लिये फूलों की बलि (उपहारसामग्री) अर्पित की तथावास्तुशान्ति करके उन्होंने अपना बनाया हुआ आश्रम श्रीरामचन्द्रजी को दिखाया॥ २५ ॥
स तं दृष्ट्वा कृतं सौम्यमाश्रमं सह सीतया।
राघवः पर्णशालायां हर्षमाहारयत् परम्॥२६॥
भगवान् श्रीराम सीता के साथ उस नये बने हुए सुन्दर आश्रम को देखकर बहुत प्रसन्न हुए और कुछ कालतक उसके भीतर खड़े रहे ॥ २६ ॥
सुसंहृष्टः परिष्वज्य बाहुभ्यां लक्ष्मणं तदा।
अतिस्निग्धं च गाढं च वचनं चेदमब्रवीत्॥२७॥
तत्पश्चात् अत्यन्त हर्ष में भरकर उन्होंने दोनों भुजाओं से लक्ष्मण को कसकर हृदय से लगा लिया और बड़े स्नेह के साथ यह बात कही— ॥२७॥
प्रीतोऽस्मि ते महत् कर्म त्वया कृतमिदं प्रभो।
प्रदेयो यन्निमित्तं ते परिष्वङ्गो मया कृतः॥२८॥
‘सामर्थ्यशाली लक्ष्मण ! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुमने यह महान् कार्य किया है। उसके लिये और कोई समुचित पुरस्कार न होने से मैंने तुम्हें गाढ़ आलिङ्गन प्रदान किया है॥२८॥
भावज्ञेन कृतज्ञेन धर्मज्ञेन च लक्ष्मण।
त्वया पुत्रेण धर्मात्मा न संवृत्तः पिता मम॥२९॥
‘लक्ष्मण! तुम मेरे मनोभाव को तत्काल समझ लेने वाले, कृतज्ञ और धर्मज्ञ हो। तुम-जैसे पुत्र के कारण मेरे धर्मात्मा पिता अभी मरे नहीं हैं—तुम्हारे रूप में वे अब भी जीवित ही हैं’।॥ २९॥
एवं लक्ष्मणमुक्त्वा तु राघवो लक्ष्मिवर्धनः।
तस्मिन् देशे बहुफले न्यवसत् स सुखं सुखी॥ ३०॥
लक्ष्मण से ऐसा कहकर अपनी शोभा का विस्तार करने वाले सुखी श्रीरामचन्द्रजी प्रचुर फलों से सम्पन्न उस पञ्चवटी-प्रदेश में सबके साथ सुखपूर्वक रहने लगे॥ ३०॥
कञ्चित् कालं स धर्मात्मा सीतया लक्ष्मणेन च।
अन्वास्यमानो न्यवसत् स्वर्गलोके यथामरः॥ ३१॥
सीता और लक्ष्मण से सेवित हो धर्मात्मा श्रीराम कुछ काल तक वहाँ उसी प्रकार रहे, जैसे स्वर्गलोक में देवता निवास करते हैं।॥ ३१॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे पञ्चदशः सर्गः॥१५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ।१५॥
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