वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 16 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 16
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
षोडशः सर्गः (सर्ग 16)
लक्ष्मण के द्वारा हेमन्त ऋतु का वर्णन और भरत की प्रशंसा तथा श्रीराम का उन दोनों के साथ गोदावरी नदी में स्नान
वसतस्तस्य तु सुखं राघवस्य महात्मनः।
शरव्यपाये हेमन्तऋतुरिष्टः प्रवर्तत॥१॥
महात्मा श्रीराम को उस आश्रम में रहते हुए शरद् ऋतु बीत गयी और प्रिय हेमन्त का आरम्भ हुआ।१॥
स कदाचित् प्रभातायां शर्वर्यां रघुनन्दनः।
प्रययावभिषेकार्थं रम्यां गोदावरी नदीम्॥२॥
एक दिन प्रातःकाल रघुकुलनन्दन श्रीराम स्नान करने के लिये परम रमणीय गोदावरी नदी के तट पर गये॥२॥
प्रह्वः कलशहस्तस्तु सीतया सह वीर्यवान्।
पृष्ठतोऽनुव्रजन् भ्राता सौमित्रिरिदमब्रवीत्॥३॥
उनके छोटे भाई लक्ष्मण भी, जो बड़े ही विनीत और पराक्रमी थे, सीता के साथ-साथ हाथ में घड़ालिये उनके पीछे-पीछे गये। जाते-जाते वे श्रीरामचन्द्रजी से इस प्रकार बोले- ॥३॥
अयं स कालः सम्प्राप्तः प्रियो यस्ते प्रियंवद।
अलंकृत इवाभाति येन संवत्सरः शुभः॥४॥
प्रिय वचन बोलने वाले भैया श्रीराम! यह वही हेमन्तकाल आ पहुँचा है, जो आपको अधिक प्रिय है और जिससे यह शुभ संवत्सर अलंकृत-सा प्रतीत होता है॥४॥
नीहारपरुषो लोकः पृथिवी सस्यमालिनी।
जलान्यनुपभोग्यानि सुभगो हव्यवाहनः॥५॥
‘इस ऋतु में अधिक ठण्डक या पाले के कारण लोगों का शरीर रूखा हो जाता है। पृथ्वी पर रबी की खेती लहलहाने लगती है। जल अधिक शीतल होने के कारण पीने के योग्य नहीं रहता और आग बड़ी प्रिय लगती है॥५॥
नवाग्रयणपूजाभिरभ्यर्च्य पितृदेवताः।
कृताग्रयणकाः काले सन्तो विगतकल्मषाः॥६॥
‘नवसस्येष्टि’ कर्म के अनुष्ठान की इस वेला में नूतन अन्न ग्रहण करने के लिये की गयी आग्रयणकर्मरूप पूजाओं द्वारा देवताओं तथा पितरों को संतुष्ट करके उक्त आग्रयण कर्म का सम्पादन करने वाले सत्पुरुष निष्पाप हो गये हैं॥६॥
प्राज्यकामा जनपदाः सम्पन्नतरगोरसाः।
विचरन्ति महीपाला यात्रार्थं विजिगीषवः॥७॥
‘इस ऋतु में प्रायः सभी जनपदों के निवासियों की अन्नप्राप्ति विषयक कामनाएँ प्रचुर रूप से पूर्ण हो जाती हैं। गोरस की भी बहुतायत होती है तथा विजय की इच्छा रखने वाले भूपालगण युद्ध-यात्रा के लिये विचरते रहते हैं।
सेवमाने दृढं सूर्ये दिशमन्तकसेविताम्।
विहीनतिलकेव स्त्री नोत्तरा दिक् प्रकाशते॥८॥
‘सूर्यदेव इन दिनों यमसेवित दक्षिण दिशाका दृढ़तापूर्वक सेवन करने लगे हैं। इसलिये उत्तरदिशा सिंदूरविन्दु से वञ्चित हुई नारी की भाँति सुशोभित या प्रकाशित नहीं हो रही है॥ ८॥
प्रकृत्या हिमकोशाढ्यो दूरसूर्यश्च साम्प्रतम्।
यथार्थनामा सुव्यक्तं हिमवान् हिमवान् गिरिः॥
‘हिमालय पर्वत तो स्वभाव से ही घनीभूत हिम के खजाने से भरा-पूरा होता है, परंतु इस समय सूर्यदेव भी दक्षिणायन में चले जाने के कारण उससे दूर हो गये हैं; अतः अब अधिक हिम के संचय से सम्पन्न होकर हिमवान् गिरि स्पष्ट ही अपने नाम को सार्थक कर रहा है॥९॥
अत्यन्तसुखसंचारा मध्याह्ने स्पर्शतः सुखाः।
दिवसाः सुभगादित्याश्छायासलिलदुर्भगाः॥ १०॥
‘मध्याह्नकाल में धूप का स्पर्श होने से हेमन्त के सुखमय दिन अत्यन्त सुख से इधर-उधर विचरने के योग्य होते हैं। इन दिनों सुसेव्य होने के कारण सूर्यदेव सौभाग्यशाली जान पड़ते हैं और सेवन के योग्य न होने के कारण छाँह तथा जल अभागे प्रतीत होते हैं।
मृदुसूर्याः सुनीहाराः पटुशीताः समारुताः।
शून्यारण्या हिमध्वस्ता दिवसा भान्ति साम्प्रतम्॥ ११॥
‘आजकल के दिन ऐसे हैं कि सूर्य की किरणों का स्पर्श कोमल (प्रिय) जान पड़ता है। कुहासे अधिक पड़ते हैं। सरदी सबल होती है, कड़ाके का जाड़ा पड़ने लगता है। साथ ही ठण्डी हवा चलती रहती है। पाला पड़ने से पत्तों के झड़ जाने के कारण जंगल सूने दिखायी देते हैं और हिम के स्पर्श से कमल गल जाते हैं॥ ११॥
निवृत्ताकाशशयनाः पुष्यनीता हिमारुणाः।
शीतवृद्धतरायामास्त्रियामा यान्ति साम्प्रतम्॥ १२॥
‘इस हेमन्तकाल में रातें बड़ी होने लगती हैं। इनमें सरदी बहुत बढ़ जाती है। खुले आकाश में कोई नहीं सोते हैं। पौषमास की ये रातें हिमपात के कारण धूसर प्रतीत होती हैं।१२॥
रविसंक्रान्तसौभाग्यस्तुषारारुणमण्डलः।
निःश्वासान्ध इवादर्शश्चन्द्रमा न प्रकाशते॥ १३॥
‘हेमन्तकाल में चन्द्रमा का सौभाग्य सूर्यदेव में चला गया है (चन्द्रमा सरदी के कारण असेव्य और सूर्य मन्दरश्मि होने के कारण सेव्य हो गये हैं)। चन्द्रमण्डल हिमकणों से आच्छन्न होकर धूमिल जान पड़ता है; अतः चन्द्रदेव निःश्वासवायु से मलिन हुए दर्पण की भाँति प्रकाशित नहीं हो रहे हैं॥ १३॥
ज्योत्स्ना तुषारमलिना पौर्णमास्यां न राजते।
सीतेव चातपश्यामा लक्ष्यते न च शोभते॥१४॥
इन दिनों पर्णिमा की चाँदनी रात भी तुहिन बिन्दुओं से मलिन दिखायी देती है—प्रकाशित नहीं होती है। ठीक उसी तरह, जैसे सीता अधिक धूप लगने से साँवली-सी दीखती है—पूर्ववत् शोभा नहीं पाती॥ १४॥
प्रकृत्या शीतलस्पर्शो हिमविद्धश्च साम्प्रतम्।
प्रवाति पश्चिमो वायुः काले द्विगुणशीतलः॥ १५॥
‘स्वभाव से ही जिसका स्पर्श शीतल है, वह पछुआ हवा इस समय हिमकणों से व्याप्त हो जाने के कारण दूनी सरदी लेकर बड़े वेग से बह रही है॥ १५ ॥
बाष्पच्छन्नान्यरण्यानि यवगोधूमवन्ति च।
शोभन्तेऽभ्युदिते सूर्ये नदद्भिः क्रौञ्चसारसैः॥ १६॥
‘जौ और गेहूँ के खेतों से युक्त ये बहुसंख्यक वन भाप से ढंके हुए हैं तथा क्रौञ्च और सारस इनमें कलरव कर रहे हैं। सूर्योदयकाल में इन वनों की बड़ी शोभा हो रही है॥ १६॥
खजूरपुष्पाकृतिभिः शिरोभिः पूर्णतण्डुलैः।
शोभन्ते किंचिदालम्बाः शालयः कनकप्रभाः॥ १७॥
‘ये सुनहरे रंग के जड़हन धान खजूर के फूल के-से आकारवाली बालों से, जिनमें चावल भरे हुए हैं, कुछ लटक गये हैं। इन बालों के कारण इनकी बड़ी शोभा होती है॥ १७॥
मयूखैरुपसर्पद्भिर्हिमनीहारसंवृतैः।
दूरमभ्युदितः सूर्यः शशाङ्क इव लक्ष्यते॥१८॥
‘कुहासे से ढकी और फैलती हुई किरणों से उपलक्षित होने वाले दूरोदित सूर्य चन्द्रमा के समान दिखायी देते हैं॥ १८॥
आग्राह्यवीर्यः पूर्वाणे मध्याह्ने स्पर्शतः सुखः।
संरक्तः किंचिदापाण्डुरातपः शोभते क्षितौ॥ १९॥
‘इस समय अधिक लाल और कुछ-कुछ श्वेत, पीत वर्ण की धूप पृथ्वी पर फैलकर शोभा पा रही है। पूर्वाह्नकाल में तो कुछ इसका बल जान ही नहीं पड़ता है, परंतु मध्याह्नकाल में इसके स्पर्श से सुखका अनुभव होता है॥
अवश्यायनिपातेन किंचित्प्रक्लिन्नशादला।
वनानां शोभते भूमिर्निविष्टतरुणातपा॥२०॥
‘ओस की बूंदें पड़ने से जहाँ की घासें कुछ-कुछ भीगी हुई जान पड़ती हैं, वह वनभूमि नवोदित सूर्य की धूप का प्रवेश होने से अद्भुत शोभा पा रही है॥२०॥
स्पृशन् सुविपुलं शीतमुदकं द्विरदः सुखम्।
अत्यन्ततृषितो वन्यः प्रतिसंहरते करम्॥२१॥
‘यह जंगली हाथी बहुत प्यासा हुआ है। यह सुखपूर्वक प्यास बुझाने के लिये अत्यन्त शीतल जल का स्पर्श तो करता है, किंतु उसकी ठंडक असह्य होने के कारण अपनी सूंड़ को तुरंत ही सिकोड़ लेता है॥२१॥
एते हि समुपासीना विहगा जलचारिणः ।
नावगाहन्ति सलिलमप्रगल्भा इवाहवम्॥२२॥
‘ये जलचर पक्षी जल के पास ही बैठे हैं; परंतु जैसे डरपोक मनुष्य युद्धभूमि में प्रवेश नहीं करते हैं, उसी प्रकार ये पानी में नहीं उतर रहे हैं ॥ २२॥
अवश्यायतमोनद्धा नीहारतमसावृताः।
प्रसुप्ता इव लक्ष्यन्ते विपुष्पा वनराजयः॥२३॥
‘रात में ओसविन्दुओं और अन्धकार से आच्छादित तथा प्रातःकाल कुहासे के अँधेरे से ढकी हुई ये पुष्पहीन वनश्रेणियाँ सोयी हुई-सी दिखायी देती हैं। २३॥
बाष्पसंछन्नसलिला रुतविज्ञेयसारसाः।
हिमावालुकैस्तीरैः सरितो भान्ति साम्प्रतम्॥ २४॥
‘इस समय नदियों के जल भाप से ढके हुए हैं। इनमें विचरने वाले सारस केवल अपने कलरवों से पहचाने जाते हैं तथा ये सरिताएँ भी ओस से भीगी हुई बालूवाले अपने तटों से ही प्रकाश में आती हैं (जल से नहीं) ॥ २४॥
तुषारपतनाच्चैव मृदुत्वाद् भास्करस्य च।
शैत्यादगाग्रस्थमपि प्रायेण रसवज्जलम्॥२५॥
‘बर्फ पड़ने से और सूर्य की किरणों के मन्द होने से अधिक सर्दी के कारण इन दिनों पर्वत के शिखर पर पड़ा हुआ जल भी प्रायः स्वादिष्ट प्रतीत होता है। २५॥
जराजर्जरितैः पत्रैः शीर्णकेसरकर्णिकैः।
नालशेषा हिमध्वस्ता न भान्ति कमलाकराः॥ २६॥
‘जो पुराने पड़ जाने के कारण जर्जर हो गये हैं, जिनकी कर्णिका और केसर जीर्ण-शीर्ण हो गये हैं, ऐसे दलों से उपलक्षित होने वाले कमलों के समूह पाला पड़ने से गल गये हैं। उनमें डंठलमात्र शेष रह गये हैं,इसीलिये उनकी शोभा नष्ट हो गयी है।॥ २६॥
अस्मिंस्तु पुरुषव्याघ्र काले दुःखसमन्वितः।
तपश्चरति धर्मात्मा त्वद्भक्त्या भरतः पुरे ॥२७॥
‘पुरुषसिंह श्रीराम! इस समय धर्मात्मा भरत आपके लिये बहुत दुःखी हैं और आपमें भक्ति रखते हुए नगर में ही तपस्या कर रहे हैं।॥ २७॥
त्यक्त्वा राज्यं च मानं च भोगांश्च विविधान्बहून्।
तपस्वी नियताहारः शेते शीते महीतले॥२८॥
‘वे राज्य, मान तथा नाना प्रकार के बहुसंख्यक भोगों का परित्याग करके तपस्या में संलग्न हैं एवं नियमित आहार करते हुए इस शीतल महीतल पर बिना विस्तर के ही शयन करते हैं।॥ २८॥
सोऽपि वेलामिमां नूनमभिषेकार्थमुद्यतः।
वृतः प्रकृतिभिर्नित्यं प्रयाति सरयूं नदीम्॥२९॥
‘निश्चय ही भरत भी इसी बेला में स्नान के लिये उद्यत हो मन्त्री एवं प्रजाजनों के साथ प्रतिदिन सरयू नदी के तट पर जाते होंगे॥२९॥
अत्यन्तसुखसंवृद्धः सुकुमारो हिमादितः।
कथं त्वपररात्रेषु सरयूमवगाहते॥३०॥
‘अत्यन्त सुख में पले हुए सुकुमार भरत जाड़े का कष्ट सहते हुए रात के पिछले पहर में कैसे सरयूजी के जल में डुबकी लगाते होंगे॥ ३०॥
पद्मपत्रेक्षणः श्यामः श्रीमान् निरुदरो महान्।
धर्मज्ञः सत्यवादी च ह्रीनिषेवी जितेन्द्रियः॥ ३१॥
प्रियाभिभाषी मधुरो दीर्घबाहुररिंदमः।
संत्यज्य विविधान् सौख्यानार्यं सर्वात्मनाश्रितः॥ ३२॥
‘जिनके नेत्र कमलदल के समान शोभा पाते हैं, जिनकी अङ्गकान्ति श्याम है और जिनके उदर का कुछ पता ही नहीं लगता है, ऐसे महान् धर्मज्ञ,सत्यवादी, लज्जाशील, जितेन्द्रिय, प्रिय वचन बोलने वाले, मृदुल स्वभाव वाले महाबाहु शत्रुदमन श्रीमान् भरत ने नाना प्रकार के सुखों को त्यागकर सर्वथा आपका ही आश्रय ग्रहण किया है।। ३१-३२॥
जितः स्वर्गस्तव भ्रात्रा भरतेन महात्मना।
वनस्थमपि तापस्ये यस्त्वामविधीयते॥३३॥
‘आपके भाई महात्मा भरत ने निश्चय ही स्वर्गलोक पर विजय प्राप्त कर ली है; क्योंकि वे भी तपस्या में स्थित होकर आपके वनवासी जीवन का अनुसरण कर रहे हैं।॥ ३३॥
न पित्र्यमनवर्तन्ते मातृकं द्विपदा इति।
ख्यातो लोकप्रवादोऽयं भरतेनान्यथा कृतः॥ ३४॥
‘मनुष्य प्रायः माता के गुणों का ही अनुवर्तन करते हैं पिता के नहीं; इस लौकिक उक्ति को भरत ने अपने बर्ताव से मिथ्या प्रमाणित कर दिया है।॥ ३४ ॥
भर्ता दशरथो यस्याः साधुश्च भरतः सुतः।
कथं नु साम्बा कैकेयी तादृशी क्रूरदर्शिनी॥ ३५॥
‘महाराज दशरथ जिसके पति हैं और भरत-जैसा साधु जिसका पुत्र है, वह माता कैकेयी वैसी क्रूरतापूर्ण दृष्टिवाली कैसे हो गयी?’ ॥ ३५ ॥
इत्येवं लक्ष्मणे वाक्यं स्नेहाद् वदति धार्मिके।
परिवादं जनन्यास्तमसहन् राघवोऽब्रवीत्॥ ३६॥
धर्मपरायण लक्ष्मण जब स्नेहवश इस प्रकार कह रहे थे, उस समय श्रीरामचन्द्रजी से माता कैकेयी की निन्दा नहीं सही गयी। उन्होंने लक्ष्मण से कहा- ॥ ३६॥
न तेऽम्बा मध्यमा तात गर्हितव्या कदाचन।
तामेवेक्ष्वाकुनाथस्य भरतस्य कथां कुरु॥३७॥
‘तात! तुम्हें मझली माता कैकेयी की कभी निन्दा नहीं करनी चाहिये। (यदि कुछ कहना हो तो) पहले की भाँति इक्ष्वाकुवंश के स्वामी भरत की ही चर्चा करो॥३७॥
निश्चितैव हि मे बुद्धिर्वनवासे दृढव्रता।
भरतस्नेहसंतप्ता बालिशीक्रियते पुनः॥ ३८॥
‘यद्यपि मेरी बुद्धि दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करते हुए वन में रहने का अटल निश्चय कर चुकी है, तथापि भरत के स्नेह से संतप्त होकर पुनः चञ्चल हो उठती है॥
संस्मराम्यस्य वाक्यानि प्रियाणि मधुराणि च।
हृद्यान्यमृतकल्पानि मनःप्रह्लादनानि च॥३९॥
मुझे भरत की वे परम प्रिय, मधुर, मन को भाने वाली और अमृत के समान हृदय को आह्लाद प्रदान करने वाली बातें याद आ रही हैं॥ ३९॥
कदा ह्यहं समेष्यामि भरतेन महात्मना।
शत्रुजेन च वीरेण त्वया च रघुनन्दन॥४०॥
‘रघुकुलनन्दन लक्ष्मण! कब वह दिन आयेगा, जब मैं तुम्हारे साथ चलकर महात्मा भरत और वीरवर शत्रुघ्न से मिलूँगा’ ॥ ४०॥
इत्येवं विलपंस्तत्र प्राप्य गोदावरी नदीम्।
चक्रेऽभिषेकं काकुत्स्थः सानुजः सह सीतया॥ ४१॥
इस प्रकार विलाप करते हुए ककुत्स्थकुलभूषण भगवान् श्रीराम ने लक्ष्मण और सीता के साथ गोदावरी नदी के तटपर जाकर स्नान किया॥४१॥
तर्पयित्वाथ सलिलैस्तैः पितॄन् दैवतानपि।
स्तुवन्ति स्मोदितं सूर्यं देवताश्च तथानघाः॥ ४२॥
वहाँ स्नान करके उन्होंने गोदावरी के जल से देवताओं और पितरों का तर्पण किया। तदनन्तर जब सूर्योदय हुआ, तब वे तीनों निष्पाप व्यक्ति भगवान् सूर्य का उपस्थान करके अन्य देवताओं की भी स्तुति करने लगे।
कृताभिषेकः स रराज रामः सीताद्वितीयः सह लक्ष्मणेन।
कृताभिषेकस्त्वगराजपुत्र्या रुद्रः सनन्दिर्भगवानिवेशः॥४३॥
सीता और लक्ष्मण के साथ स्नान करके भगवान् श्रीराम उसी प्रकार शोभा पाने लगे, जैसे पर्वतराजपुत्री उमा और नन्दी के साथ गङ्गाजी में अवगाहन करके भगवान् रुद्र सुशोभित होते हैं। ४३॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे षोडशः सर्गः॥१६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ। १६॥
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