वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 17 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 17
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
सप्तदशः सर्गः (सर्ग 17)
श्रीराम के आश्रम में शूर्पणखा का आना, उनका परिचय जानना और अपना परिचय देकर उनसे अपने को भार्या के रूप में ग्रहण करने के लिये अनुरोध करना
कृताभिषेको रामस्तु सीता सौमित्रिरेव च।
तस्माद् गोदावरीतीरात् ततो जग्मुः स्वमाश्रमम्॥
स्नान करके श्रीराम, लक्ष्मण और सीता तीनों ही उस गोदावरी तट से अपने आश्रम में लौट आये॥१॥
आश्रमं तमुपागम्य राघवः सहलक्ष्मणः।
कृत्वा पौर्वाणिकं कर्म पर्णशालामुपागमत्॥ २॥
उस आश्रम में आकर लक्ष्मणसहित श्रीराम ने पूर्वाणकाल के होम-पूजन आदि कार्य पूर्ण किये, फिर वे दोनों भाई पर्णशाला में आकर बैठे॥२॥
उवास सुखितस्तत्र पूज्यमानो महर्षिभिः।
स रामः पर्णशालायामासीनः सह सीतया॥३॥
विरराज महाबाहुश्चित्रया चन्द्रमा इव।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा चकार विविधाः कथाः॥ ४॥
वहाँ सीता के साथ वे सुखपूर्वक रहने लगे। उन दिनों बड़े-बड़े ऋषि-मुनि आकर वहाँ उनका सत्कार करते थे। पर्णशाला में सीता के साथ बैठे हुए महाबाहु श्रीरामचन्द्रजी चित्रा के साथ विराजमान चन्द्रमा की भाँति शोभा पा रहे थे। वे अपने भाई लक्ष्मण के साथ वहाँ तरह-तरह की बातें किया करते थे॥ ३-४॥
तदासीनस्य रामस्य कथासंसक्तचेतसः।
तं देशं राक्षसी काचिदाजगाम यदृच्छया॥५॥
सा तु शूर्पणखा नाम दशग्रीवस्य रक्षसः।
भगिनी राममासाद्य ददर्श त्रिदशोपमम्॥६॥
उस समय जब कि श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण के साथ बातचीत में लगे हुए थे, एक राक्षसी अकस्मात् उस स्थान पर आ पहुँची। वह दशमुख राक्षस रावण की बहिन शूर्पणखा थी। उसने वहाँ आकर देवताओं के समान मनोहर रूप वाले श्रीरामचन्द्रजी को देखा।५-६॥
दीप्तास्यं च महाबाहुं पद्मपत्रायतेक्षणम्।
गजविक्रान्तगमनं जटामण्डलधारिणम्॥७॥
उनका मुख तेजस्वी, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और नेत्र प्रफुल्ल कमलदल के समान विशाल एवं सुन्दर थे। वे हाथी के समान मन्द गति से चलते थे। उन्होंने मस्तक पर जटामण्डल धारण कर रखा था॥ ७॥
सुकुमारं महासत्त्वं पार्थिवव्यञ्जनान्वितम्।
राममिन्दीवरश्यामं कंदर्पसदृशप्रभम्॥८॥
बभूवेन्द्रोपमं दृष्ट्वा राक्षसी काममोहिता।
परम सुकुमार, महान् बलशाली, राजोचित लक्षणों से युक्त, नील कमल के समान श्याम कान्ति से सुशोभित, कामदेव के सदृश सौन्दर्यशाली तथा इन्द्र के समान तेजस्वी श्रीराम को देखते ही वह राक्षसी काम से मोहित हो गयी। ८ १/२ ॥
सुमुखं दुर्मुखी रामं वृत्तमध्यं महोदरी॥९॥
विशालाक्षं विरूपाक्षी सुकेशं ताम्रमूर्धजा।
प्रियरूपं विरूपा सा सुस्वरं भैरवस्वना॥१०॥
श्रीराम का मुख सुन्दर था और शूर्पणखा का मुख बहुत ही भद्दा एवं कुरूप था। उनका मध्यभाग(कटिप्रदेश और उदर) क्षीण था; किंतु शूर्पणखा बेडौल लंबे पेटवाली थी। श्रीराम की आँखें बड़ी-बड़ी होने के कारण मनोहर थीं, परंतु उस राक्षसी के नेत्र कुरूप और डरावने थे। श्रीरघुनाथजी के केश चिकने और सुन्दर थे, परंतु उस निशाचरी के सिर के बाल ताँबे-जैसे लाल थे। श्रीराम का रूप बड़ा प्यारा लगता था, किंतु शूर्पणखा का रूप बीभत्स और विकराल था। श्रीराघवेन्द्र मधुर स्वर में बोलते थे, किंतु वह राक्षसी भैरवनाद करनेवाली थी॥९-१० ।।
तरुणं दारुणा वृद्धा दक्षिणं वामभाषिणी।
न्यायवृत्तं सुदुर्वृत्ता प्रियमप्रियदर्शना॥११॥
ये देखने में सौम्य और नित्य नूतन तरुण थे, किंतु वह निशाचरी क्रूर और हजारों वर्षों की बुढ़िया थी। ये सरलता से बात करने वाले और उदार थे, किंतु उसकी बातों में कुटिलता भरी रहती थी। ये न्यायोचित सदाचार का पालन करने वाले थे और वह अत्यन्त दराचारिणी थी। श्रीराम देखने में प्यारे लगते थे और शूर्पणखा को देखते ही घृणा पैदा होती थी॥ ११॥
शरीरजसमाविष्टा राक्षसी राममब्रवीत्।
जटी तापसवेषेण सभार्यः शरचापधृक् ॥१२॥
आगतस्त्वमिमं देशं कथं राक्षससेवितम्।
किमागमनकृत्यं ते तत्त्वमाख्यातुमर्हसि ॥१३॥
तो वह राक्षसी कामभाव से आविष्ट हो (मनोहर रूप बनाकर) श्रीराम के पास आयी और बोली —’तपस्वी के वेश में मस्तक पर जटा धारण किये, साथ में स्त्री को लिये और हाथ में धनुष-बाण ग्रहण किये, इस राक्षसों के देश में तुम कैसे चले आये? यहाँ तुम्हारे आगमन का क्या प्रयोजन है? यह सब मुझे ठीक-ठीक बताओ’ ॥ १२-१३॥
एवमुक्तस्तु राक्षस्या शूर्पणख्या परंतपः।
ऋजुबुद्धितया सर्वमाख्यातुमुपचक्रमे ॥१४॥
राक्षसी शूर्पणखा के इस प्रकार पूछने पर शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीरामचन्द्रजी ने अपने सरलस्वभाव के कारण सब कुछ बताना आरम्भ किया— ॥ १४ ॥
आसीद् दशरथो नाम राजा त्रिदशविक्रमः।
तस्याहमग्रजः पुत्रो रामो नाम जनैः श्रुतः॥१५॥
‘देवि! दशरथ नाम से प्रसिद्ध एक चक्रवर्ती राजा हो गये हैं, जो देवताओं के समान पराक्रमी थे। मैं । उन्हीं का ज्येष्ठ पुत्र हूँ और लोगों में राम नाम से विख्यात हूँ॥ १५॥
भ्रातायं लक्ष्मणो नाम यवीयान् मामनुव्रतः।
इयं भार्या च वैदेही मम सीतेति विश्रुता॥१६॥
‘ये मेरे छोटे भाई लक्ष्मण हैं, जो सदा मेरी आज्ञा के अधीन रहते हैं और ये मेरी पत्नी हैं, जो विदेहराज जनक की पुत्री तथा सीता नाम से प्रसिद्ध हैं॥१६॥
नियोगात् तु नरेन्द्रस्य पितुर्मातुश्च यन्त्रितः।
धर्मार्थं धर्मकांक्षी च वनं वस्तुमिहागतः॥१७॥
‘अपने पिता महाराज दशरथ और माता कैकेयी की आज्ञा से प्रेरित होकर मैं धर्मपालन की इच्छा रखकर धर्मरक्षा के ही उद्देश्य से इस वन में निवास करने के लिये यहाँ आया हूँ॥ १७॥
त्वां तु वेदितुमिच्छामि कस्य त्वं कासि कस्य वा।
त्वं हि तावन्मनोज्ञाङ्गी राक्षसी प्रतिभासि मे॥ १८॥
इह वा किंनिमित्तं त्वमागता ब्रूहि तत्त्वतः।
‘अब मैं तुम्हारा परिचय प्राप्त करना चाहता हूँ। तुम किसकी पुत्री हो? तुम्हारा नाम क्या है? और तुम किसकी पत्नी हो? तुम्हारे अङ्ग इतने मनोहर हैं कि तुम मुझे इच्छानुसार रूप धारण करने वाली कोई राक्षसी प्रतीत होती हो। यहाँ किस लिये तुम आयी हो? यह ठीक-ठीक बताओ’ ॥ १८ ॥
साब्रवीद् वचनं श्रुत्वा राक्षसी मदनार्दिता॥१९॥
श्रूयतां राम तत्त्वार्थं वक्ष्यामि वचनं मम।
अहं शूर्पणखा नाम राक्षसी कामरूपिणी॥२०॥
श्रीरामचन्द्रजी की यह बात सुनकर वह राक्षसी काम से पीड़ित होकर बोली—’श्रीराम! मैं सब कुछ ठीक-ठीक बता रही हूँ। तुम मेरी बात सुनो। मेरा नाम शूर्पणखा है और मैं इच्छानुसार रूप धारण करने वाली राक्षसी हूँ॥
अरण्यं विचरामीदमेका सर्वभयंकरा।
रावणो नाम मे भ्राता यदि ते श्रोत्रमागतः ॥ २१॥
‘मैं समस्त प्राणियों के मन में भय उत्पन्न करती हुई इस वन में अकेली विचरती हूँ। मेरे भाई का नाम रावण है। सम्भव है, उसका नाम तुम्हारे कानों तक पहुँचा हो॥
वीरो विश्रवसः पुत्रो यदि ते श्रोत्रमागतः।
प्रवृद्धनिद्रश्च सदा कुम्भकर्णो महाबलः॥ २२॥
‘रावण विश्रवा मुनि का वीर पुत्र है, यह बात भी तुम्हारे सुनने में आयी होगी। मेरा दूसरा भाई महाबली कुम्भकर्ण है, जिसकी निद्रा सदा ही बढ़ी रहती है।
विभीषणस्तु धर्मात्मा न तु राक्षसचेष्टितः।
प्रख्यातवीर्यौ च रणे भ्रातरौ खरदूषणौ ॥ २३॥
‘मेरे तीसरे भाई का नाम विभीषण है, परंतु वह धर्मात्मा है, राक्षसों के आचार-विचार का वह कभी पालन नहीं करता। युद्ध में जिनका पराक्रम विख्यात है, वे खर और दूषण भी मेरे भाई ही हैं ।। २३॥
तानहं समतिक्रान्तां राम त्वापूर्वदर्शनात्।
समुपेतास्मि भावेन भर्तारं पुरुषोत्तमम्॥२४॥
‘श्रीराम! बल और पराक्रम में मैं अपने उन सभी भाइयों से बढ़कर हूँ। तुम्हारे प्रथम दर्शन से ही मेरा मन तुम में आसक्त हो गया है। (अथवा तुम्हारा रूप सौन्दर्य अपूर्व है। आज से पहले देवताओं में भी किसी का ऐसा रूप मेरे देखने में नहीं आया है, अतः इस अपूर्व रूप के दर्शन से मैं तुम्हारे प्रति आकृष्ट हो गयी हूँ।) यही कारण है कि मैं तुम-जैसे पुरुषोत्तम के प्रति पतिकी भावना रखकर बड़े प्रेम से पास आयी हूँ॥ २४॥
अहं प्रभावसम्पन्ना स्वच्छन्दबलगामिनी।
चिराय भव भर्ता मे सीतया किं करिष्यसि॥ २५॥
‘मैं प्रभाव (उत्कृष्ट भाव–अनुराग अथवा महान् बल-पराक्रम) से सम्पन्न हूँ और अपनी इच्छा तथा शक्ति से समस्त लोकों में विचरण कर सकती हूँ, अतः अब तुम दीर्घकाल के लिये मेरे पति बन जाओ। इस अबला सीता को लेकर क्या करोगे? ॥ २५ ॥
विकृता च विरूपा च न सेयं सदृशी तव।
अहमेवानुरूपा ते भार्यारूपेण पश्य माम्॥२६॥
‘यह विकारयुक्त और कुरूपा है, अतः तुम्हारे योग्य नहीं है। मैं ही तुम्हारे अनुरूप हूँ, अतः मुझे अपनी भार्या के रूप में देखो॥२६॥
इमां विरूपामसतीं कराला निर्णतोदरीम्।
अनेन सह ते भ्रात्रा भक्षयिष्यामि मानुषीम्॥ २७॥
‘यह सीता मेरी दृष्टि में कुरूप, ओछी, विकृत, धंसे हए पेटवाली और मानवी है, मैं इसे तुम्हारे इस भाई के साथ ही खा जाऊँगी॥२७॥
ततः पर्वतशृङ्गाणि वनानि विविधानि च।
पश्यन् सह मया कामी दण्डकान् विचरिष्यसि॥ २८॥
‘फिर तुम कामभावयुक्त हो मेरे साथ पर्वतीय शिखरों और नाना प्रकार के वनों की शोभा देखते हुए दण्डक वन में विहार करना’ ॥ २८ ॥
इत्येवमुक्तः काकुत्स्थः प्रहस्य मदिरेक्षणाम्।
इदं वचनमारेभे वक्तुं वाक्यविशारदः॥ २९॥
शूर्पणखा के ऐसा कहने पर बातचीत करने में कुशल ककुत्स्थकुलभूषण श्रीरामचन्द्रजी जोर-जोर से हँसने लगे, फिर उन्होंने उस मतवाले नेत्रोंवाली निशाचरी से इस प्रकार कहना आरम्भ किया॥ २९॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे सप्तदशः सर्गः॥१७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ।१७॥
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